०५० कृष्णवाक्ये

भागसूचना

पञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

श्रीकृष्णद्वारा भीष्मजीके गुण-प्रभावका सविस्तर वर्णन

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रामस्य तत् कर्मं श्रुत्वा राजा युधिष्ठिरः।
विस्मयं परमं गत्वा प्रत्युवाच जनार्दनम् ॥ १ ॥

मूलम्

ततो रामस्य तत् कर्मं श्रुत्वा राजा युधिष्ठिरः।
विस्मयं परमं गत्वा प्रत्युवाच जनार्दनम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! परशुरामजीका वह अलौकिक कर्म सुनकर राजा युधिष्ठिरको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे भगवान् श्रीकृष्णसे बोले—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो रामस्य वार्ष्णेय शक्रस्येव महात्मनः।
विक्रमो वसुधा येन क्रोधान्निःक्षत्रिया कृता ॥ २ ॥

मूलम्

अहो रामस्य वार्ष्णेय शक्रस्येव महात्मनः।
विक्रमो वसुधा येन क्रोधान्निःक्षत्रिया कृता ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वृष्णिनन्दन! महात्मा परशुरामका पराक्रम तो इन्द्रके समान अत्यन्त अद्भुत है, जिन्होंने क्रोध करके यह सारी पृथ्वी क्षत्रियोंसे सूनी कर दी॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोभिः समुद्रेण तथा गोलाङ्‌गुलर्क्षवानरैः।
गुप्ता रामभयोद्विगग्नाः क्षत्रियाणां कुलोद्वहाः ॥ ३ ॥

मूलम्

गोभिः समुद्रेण तथा गोलाङ्‌गुलर्क्षवानरैः।
गुप्ता रामभयोद्विगग्नाः क्षत्रियाणां कुलोद्वहाः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्षत्रियोंके कुलका भार वहन करनेवाले श्रेष्ठ पुरुष परशुरामजीके भयसे उद्विग्न हो छिपे हुए थे और गाय, समुद्र, लंगूर, रीछ तथा वानरोंद्वारा उनकी रक्षा हुई थी॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो धन्यो नृलोकोऽयं सभाग्याश्च नरा भुवि।
यत्र कर्मेदृशं धर्म्यं द्विजेन कृतमित्युत ॥ ४ ॥

मूलम्

अहो धन्यो नृलोकोऽयं सभाग्याश्च नरा भुवि।
यत्र कर्मेदृशं धर्म्यं द्विजेन कृतमित्युत ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अहो! यह मनुष्यलोक धन्य है और इस भूतलके मनुष्य बड़े भाग्यवान् हैं, जहाँ द्विजवर परशुरामजीने ऐसा धर्मसंगत कार्य किया’॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथावृत्तौ कथां तात तावच्युतयुधिष्ठिरौ।
जग्मतुर्यत्र गाङ्गेयः शरतल्पगतः प्रभुः ॥ ५ ॥

मूलम्

तथावृत्तौ कथां तात तावच्युतयुधिष्ठिरौ।
जग्मतुर्यत्र गाङ्गेयः शरतल्पगतः प्रभुः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण इस प्रकार बातचीत करते हुए उस स्थानपर जा पहुँचे, जहाँ प्रभावशाली गङ्गानन्दन भीष्म बाणशय्यापर सोये हुए थे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते ददृशुर्भीष्मं शरप्रस्तरशायिनम् ।
स्वरश्मिजालसंवीतं सायंसूर्यसमप्रभम् ॥ ६ ॥

मूलम्

ततस्ते ददृशुर्भीष्मं शरप्रस्तरशायिनम् ।
स्वरश्मिजालसंवीतं सायंसूर्यसमप्रभम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने देखा कि भीष्मजी शरशय्यापर सो रहे हैं और अपनी किरणोंसे घिरे हुए सायंकालिक सूर्यके समान प्रकाशित होते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपास्यमानं मुनिभिर्देवैरिव शतक्रतुम् ।
देशे परमधर्मिष्ठे नदीमोघवतीमनु ॥ ७ ॥

मूलम्

उपास्यमानं मुनिभिर्देवैरिव शतक्रतुम् ।
देशे परमधर्मिष्ठे नदीमोघवतीमनु ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे देवता इन्द्रकी उपासना करते हैं, उसी प्रकार बहुत-से महर्षि ओघवती नदीके तटपर परम धर्ममय स्थानमें उनके पास बैठे हुए थे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूरादेव तमालोक्य कृष्णो राजा च धर्मजः।
चत्वारः पाण्डवाश्चैव ते च शारद्वतादयः ॥ ८ ॥
अवस्कन्द्याथ वाहेभ्यः संयम्य प्रचलं मनः।
एकीकृत्येन्द्रियग्राममुपतस्थुर्महामुनीन् ॥ ९ ॥

मूलम्

दूरादेव तमालोक्य कृष्णो राजा च धर्मजः।
चत्वारः पाण्डवाश्चैव ते च शारद्वतादयः ॥ ८ ॥
अवस्कन्द्याथ वाहेभ्यः संयम्य प्रचलं मनः।
एकीकृत्येन्द्रियग्राममुपतस्थुर्महामुनीन् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण, धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर, अन्य चारों पाण्डव तथा कृपाचार्य आदि सब लोग दूरसे ही उन्हें देखकर अपने-अपने रथसे उतर गये और चंचल मनको काबूमें करके सम्पूर्ण इन्द्रियोंको एकाग्र कर वहाँ बैठे हुए महामुनियोंकी सेवामें उपस्थित हुए॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिवाद्य तु गोविन्दः सात्यकिस्ते च पार्थिवाः।
व्यासादीनृषिमुख्यांश्च गाङ्गेयमुपतस्थिरे ॥ १० ॥

मूलम्

अभिवाद्य तु गोविन्दः सात्यकिस्ते च पार्थिवाः।
व्यासादीनृषिमुख्यांश्च गाङ्गेयमुपतस्थिरे ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण, सात्यकि तथा अन्य राजाओंने व्यास आदि महर्षियोंको प्रणाम करके गङ्गानन्दन भीष्मको मस्तक झुकाया॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वृद्धं तथा दृष्ट्वा गाङ्गेयं यदुकौरवाः।
परिवार्य ततः सर्वे निषेदुः पुरुषर्षभाः ॥ ११ ॥

मूलम्

ततो वृद्धं तथा दृष्ट्वा गाङ्गेयं यदुकौरवाः।
परिवार्य ततः सर्वे निषेदुः पुरुषर्षभाः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वे सभी यदुवंशी और कौरव नरश्रेष्ठ बूढ़े गङ्गानन्दन भीष्मजीका दर्शन करके उन्हें चारों ओरसे घेरकर बैठ गये॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो निशाम्य गाङ्गेयं शाम्यमानमिवानलम्।
किंचिद् दीनमना भीष्ममिति होवाच केशवः ॥ १२ ॥

मूलम्

ततो निशाम्य गाङ्गेयं शाम्यमानमिवानलम्।
किंचिद् दीनमना भीष्ममिति होवाच केशवः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने मन-ही-मन कुछ दुखी हो बुझती हुई आगके समान दिखायी देनेवाले गङ्गानन्दन भीष्मको सुनाकर इस प्रकार कहा—॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चिज्ज्ञानानि सर्वाणि प्रसन्नानि यथा पुरा।
कच्चिन्न व्याकुला चैव बुद्धिस्ते वदतां वर ॥ १३ ॥

मूलम्

कच्चिज्ज्ञानानि सर्वाणि प्रसन्नानि यथा पुरा।
कच्चिन्न व्याकुला चैव बुद्धिस्ते वदतां वर ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वक्ताओंमें श्रेष्ठ भीष्मजी! क्या आपकी सारी ज्ञानेन्द्रियाँ पहलेकी ही भाँति प्रसन्न हैं? आपकी बुद्धि व्याकुल तो नहीं हुई है?॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शराभिघातदुःखात् ते कच्चिद् गात्रं न दूयते।
मानसादपि दुःखाद्धि शारीरं बलवत्तरम् ॥ १४ ॥

मूलम्

शराभिघातदुःखात् ते कच्चिद् गात्रं न दूयते।
मानसादपि दुःखाद्धि शारीरं बलवत्तरम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपको बाणोंकी चोट सहनेका जो कष्ट उठाना पड़ा है उससे आपके शरीरमें विशेष पीड़ा तो नहीं हो रही है? क्योंकि मानसिक दुःखसे शारीरिक दुःख अधिक प्रबल होता है—उसे सहना कठिन हो जाता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वरदानात् पितुः कामं छन्दमृत्युरसि प्रभो।
शान्तनोर्धर्मनित्यस्य न त्वेतन्मम कारणम् ॥ १५ ॥

मूलम्

वरदानात् पितुः कामं छन्दमृत्युरसि प्रभो।
शान्तनोर्धर्मनित्यस्य न त्वेतन्मम कारणम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! आपने निरन्तर धर्ममें तत्पर रहनेवाले पिता शान्तनुके वरदानसे मृत्युको अपने अधीन कर लिया है। जब आपकी इच्छा हो तभी मृत्यु हो सकती है अन्यथा नहीं। यह आपके पिताके वरदानका ही प्रभाव है, मेरा नहीं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुसूक्ष्मोऽपि तु देहे वै शल्यो जनयते रुजम्।
किं पुनः शरसंघातैश्चित्तस्य तव पार्थिव ॥ १६ ॥

मूलम्

सुसूक्ष्मोऽपि तु देहे वै शल्यो जनयते रुजम्।
किं पुनः शरसंघातैश्चित्तस्य तव पार्थिव ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! यदि शरीरमें कोई महीन-से-महीन भी काँटा गड़ जाय तो वह भारी वेदना पैदा करता है। फिर जो बाणोंके समूहसे चुन दिया गया है, उस आपके शरीरकी पीड़ाके विषयमें तो कहना ही क्या है?॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामं नैतत् तवाख्येयं प्राणिनां प्रभवाप्ययौ।
उपदेष्टुं भवान् शक्तो देवानामपि भारत ॥ १७ ॥

मूलम्

कामं नैतत् तवाख्येयं प्राणिनां प्रभवाप्ययौ।
उपदेष्टुं भवान् शक्तो देवानामपि भारत ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतनन्दन! अवश्य ही आपके सामने यह कहना उचित न होगा कि ‘सभी प्राणियोंके जन्म और मरण प्रारब्धके अनुसार नियत हैं। अतः आपको दैवका विधान समझकर अपने मनमें कोई दुःख नहीं मानना चाहिये।’ आपको कोई क्या उपदेश देगा? आप तो देवताओंको भी उपदेश देनेमें समर्थ हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च भूतं भविष्यं च भवच्च पुरुषर्षभ।
सर्वं तज्ज्ञानवृद्धस्य तव भीष्म प्रतिष्ठितम् ॥ १८ ॥

मूलम्

यच्च भूतं भविष्यं च भवच्च पुरुषर्षभ।
सर्वं तज्ज्ञानवृद्धस्य तव भीष्म प्रतिष्ठितम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषप्रवर भीष्म! आप ज्ञानमें सबसे बढ़े-चढ़े हैं। आपकी बुद्धिमें भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ प्रतिष्ठित है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संहारश्चैव भूतानां धर्मस्य च फलोदयः।
विदितस्ते महाप्राज्ञ त्वं हि धर्ममयो निधिः ॥ १९ ॥

मूलम्

संहारश्चैव भूतानां धर्मस्य च फलोदयः।
विदितस्ते महाप्राज्ञ त्वं हि धर्ममयो निधिः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महामते! प्राणियोंका संहार कब होता है? धर्मका क्या फल है? और उसका उदय कब होता है? ये सारी बातें आपको ज्ञात हैं; क्योंकि आप धर्मके प्रचुर भण्डार हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वां हि राज्ये स्थितं स्फीते समग्राङ्गमरोगिणम्।
स्त्रीसहस्रैः परिवृतं पश्यामीवोर्ध्वरेतसम् ॥ २० ॥

मूलम्

त्वां हि राज्ये स्थितं स्फीते समग्राङ्गमरोगिणम्।
स्त्रीसहस्रैः परिवृतं पश्यामीवोर्ध्वरेतसम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप एक समृद्धिशाली राज्यके अधिकारी थे, आपके संपूर्ण अङ्ग ठीक थे, किसी अङ्गमें कोई न्यूनता नहीं थी; आपको कोई रोग भी नहीं था और आप हजारों स्त्रियोंके बीचमें रहते थे, तो भी मैं आपको ऊर्ध्वरेता (अखण्ड ब्रह्मचर्यसे सम्पन्न) ही देखता हूँ॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋते शान्तनवाद् भीष्मात् त्रिषु लोकेषु पार्थिव।
सत्यधर्मान्महावीर्याच्छूराद् धर्मैकतत्परात् ॥ २१ ॥
मृत्युमावार्य तपसा शरसंस्तरशायिनः ।
निसर्गप्रभवं किंचिन्न च तातानुशुश्रुम ॥ २२ ॥

मूलम्

ऋते शान्तनवाद् भीष्मात् त्रिषु लोकेषु पार्थिव।
सत्यधर्मान्महावीर्याच्छूराद् धर्मैकतत्परात् ॥ २१ ॥
मृत्युमावार्य तपसा शरसंस्तरशायिनः ।
निसर्गप्रभवं किंचिन्न च तातानुशुश्रुम ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! पृथ्वीनाथ! मैंने तीनों लोकोंमें सत्यवादी, एकमात्र धर्ममें तत्पर, शूरवीर, महापराक्रमी तथा बाण-शय्यापर शयन करनेवाले आप शान्तनुनन्दन भीष्मके सिवा दूसरे किसी ऐसे प्राणीको ऐसा नहीं सुना है, जिसने शरीरके लिये स्वभावसिद्ध मृत्युको अपनी तपस्यासे रोक दिया हो॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्ये तपसि दाने च यज्ञाधिकरणे तथा।
धनुर्वेदे च वेदे च नीत्यां चैवानुरक्षणे ॥ २३ ॥
अनृशंस शुचिं दान्तं सर्वभूतहिते रतम्।
महारथं त्वत्सदृशं न कंचिदनुशुश्रुम ॥ २४ ॥

मूलम्

सत्ये तपसि दाने च यज्ञाधिकरणे तथा।
धनुर्वेदे च वेदे च नीत्यां चैवानुरक्षणे ॥ २३ ॥
अनृशंस शुचिं दान्तं सर्वभूतहिते रतम्।
महारथं त्वत्सदृशं न कंचिदनुशुश्रुम ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सत्य, तप, दान और यज्ञके अनुष्ठानमें, वेद, धनुर्वेद तथा नीतिशास्त्रके ज्ञानमें, प्रजाके पालनमें, कोमलतापूर्ण बर्ताव, बाहर-भीतरकी शुद्धि, मन और इन्द्रियोंके संयम तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके हितसाधनमें आपके समान मैंने दूसरे किसी महारथीको नहीं सुना है॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं हि देवान् सगन्धर्वानसुरान् यक्षराक्षसान्।
शक्तस्त्वेकरथेनैव विजेतुं नात्र संशयः ॥ २५ ॥

मूलम्

त्वं हि देवान् सगन्धर्वानसुरान् यक्षराक्षसान्।
शक्तस्त्वेकरथेनैव विजेतुं नात्र संशयः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप सम्पूर्ण देवता, गन्धर्व, असुर, यक्ष और राक्षसोंको एकमात्र रथके द्वारा ही जीत सकते थे, इसमें संशय नहीं है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वं भीष्म महाबाहो वसूनां वासवोपमः।
नित्यं विप्रैः समाख्यातों नवमोऽनवमो गुणैः ॥ २६ ॥

मूलम्

स त्वं भीष्म महाबाहो वसूनां वासवोपमः।
नित्यं विप्रैः समाख्यातों नवमोऽनवमो गुणैः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो भीष्म! आप वसुओंमें वासव (इन्द्र) के समान हैं। ब्राह्मणोंने सदा आपको आठ वसुओंके अंशसे उत्पन्न नवाँ वसु बताया है। आपके समान गुणोंमें कोई नहीं है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं च त्वाभिजानामि यस्त्वं पुरुषसत्तम।
त्रिदशेष्वपि विख्यातस्त्वं शक्त्या पुरुषोत्तमः ॥ २७ ॥

मूलम्

अहं च त्वाभिजानामि यस्त्वं पुरुषसत्तम।
त्रिदशेष्वपि विख्यातस्त्वं शक्त्या पुरुषोत्तमः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषप्रवर! आप कैसे हैं और क्या हैं, यह मैं जानता हूँ। आप पुरुषोंमें उत्तम और अपनी शक्तिके लिये देवताओंमें भी विख्यात हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनुष्येषु मनुष्येन्द्र न दृष्टो न च मे श्रुतः।
भवतो वा गुणैर्युक्तः पृथिव्यां पुरुषः क्वचित् ॥ २८ ॥

मूलम्

मनुष्येषु मनुष्येन्द्र न दृष्टो न च मे श्रुतः।
भवतो वा गुणैर्युक्तः पृथिव्यां पुरुषः क्वचित् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेन्द्र! मनुष्योंमें आपके समान गुणोंसे युक्त पुरुष इस पृथ्वीपर न तो मैंने कहीं देखा है और न सुना ही है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं हि सर्वगुणै राजन् देवानप्यतिरिच्यसे।
तपसा हि भवान् शक्तः स्रष्टुं लोकांश्चराचरान् ॥ २९ ॥

मूलम्

त्वं हि सर्वगुणै राजन् देवानप्यतिरिच्यसे।
तपसा हि भवान् शक्तः स्रष्टुं लोकांश्चराचरान् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! आप अपने सम्पूर्ण गुणोंके द्वारा तो देवताओंसे भी बढ़कर हैं तथा तपस्याके द्वारा चराचर लोकोंकी भी सृष्टि कर सकते हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं पुनश्चात्मनो लोकानुत्तमानुत्तमैर्गुणैः ।
तदस्य तप्यमानस्य ज्ञातीनां संक्षयेन वै ॥ ३० ॥
ज्येष्ठस्य पाण्डुपुत्रस्य शोकं भीष्म व्यपानुद।

मूलम्

किं पुनश्चात्मनो लोकानुत्तमानुत्तमैर्गुणैः ।
तदस्य तप्यमानस्य ज्ञातीनां संक्षयेन वै ॥ ३० ॥
ज्येष्ठस्य पाण्डुपुत्रस्य शोकं भीष्म व्यपानुद।

अनुवाद (हिन्दी)

‘फिर अपने लिये उत्तम गुणसम्पन्न लोकोंकी सृष्टि करना आपके लिये कौन बड़ी बात है? अतः भीष्म! आपसे यह निवेदन है कि ये ज्येष्ठ पाण्डव अपने कुटुम्बीजनोंके वधसे बहुत संतप्त हो रहे हैं। आप इनका शोक दूर करें॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये हि धर्माः समाख्याताश्चातुर्वर्ण्यस्य भारत ॥ ३१ ॥
चातुराश्रम्यसंयुक्ताः सर्वे ते विदितास्तव।
चातुर्विद्ये च ये प्रोक्ताश्चातुर्होत्रे च भारत ॥ ३२ ॥

मूलम्

ये हि धर्माः समाख्याताश्चातुर्वर्ण्यस्य भारत ॥ ३१ ॥
चातुराश्रम्यसंयुक्ताः सर्वे ते विदितास्तव।
चातुर्विद्ये च ये प्रोक्ताश्चातुर्होत्रे च भारत ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! शास्त्रोंमें चारों वर्णों और आश्रमोंके लिये जो-जो धर्म बताये गये हैं, वे सब आपको विदित हैं। चारों विद्याओंमें जिन धर्मोंका प्रतिपादन किया गया है तथा चारों होताओंके जो कर्तव्य बताये गये हैं, वे भी आपको ज्ञात हैं॥३१-३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योगे सांख्ये च नियता ये च धर्माः सनातनाः।
चातुर्वर्ण्यस्य यश्चोक्तो धर्मो न स्म विरुध्यते ॥ ३३ ॥
सेव्यमानः सवैयाख्यो गाङ्गेय विदितस्तव।

मूलम्

योगे सांख्ये च नियता ये च धर्माः सनातनाः।
चातुर्वर्ण्यस्य यश्चोक्तो धर्मो न स्म विरुध्यते ॥ ३३ ॥
सेव्यमानः सवैयाख्यो गाङ्गेय विदितस्तव।

अनुवाद (हिन्दी)

‘गङ्गानन्दन! योग और सांख्यमें जो सनातन धर्म नियत हैं तथा चारों वर्णोंके लिये जो अविरोधी धर्म बताया गया है, जिसका सभी लोग सेवन करते हैं, वह सब आपको व्याख्यासहित ज्ञात है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिलोमप्रसूतानां वर्णानां चैव यः स्मृतः ॥ ३४ ॥
देशजातिकुलानां च जानीषे धर्मलक्षणम्।
वेदोक्तो यश्च शिष्टोक्तः सदैव विदितस्तव ॥ ३५ ॥

मूलम्

प्रतिलोमप्रसूतानां वर्णानां चैव यः स्मृतः ॥ ३४ ॥
देशजातिकुलानां च जानीषे धर्मलक्षणम्।
वेदोक्तो यश्च शिष्टोक्तः सदैव विदितस्तव ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विलोम कमसे उत्पन्न हुए वर्णसंकरोंका जो धर्म है, उससे भी आप अपरिचित नहीं हैं। देश, जाति और कुलके धर्मोंका क्या लक्षण है, उसे आप अच्छी तरह जानते हैं। वेदोंमें प्रतिपादित तथा शिष्ट पुरुषोंद्वारा कथित धर्मोंको भी आप सदासे ही जानते हैं॥३४-३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतिहासपुराणार्थाः कार्त्स्न्येन विदितास्तव ।
धर्मशास्त्रं च सकलं नित्यं मनसि ते स्थितम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

इतिहासपुराणार्थाः कार्त्स्न्येन विदितास्तव ।
धर्मशास्त्रं च सकलं नित्यं मनसि ते स्थितम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इतिहास और पुराणोंके अर्थ आपको पूर्णरूपसे ज्ञात हैं। सारा धर्मशास्त्र सदा आपके मनमें स्थित है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये च केचन लोकेऽस्मिन्नर्थाः संशयकारकाः।
तेषां छेत्ता नास्ति लोके त्वदन्यः पुरुषर्षभ ॥ ३७ ॥

मूलम्

ये च केचन लोकेऽस्मिन्नर्थाः संशयकारकाः।
तेषां छेत्ता नास्ति लोके त्वदन्यः पुरुषर्षभ ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषप्रवर! संसारमें जो कोई संदेहग्रस्त विषय हैं, उनका समाधान करनेवाला आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पाण्डवेयस्य मनःसमुत्थितं
नरेन्द्र शोकं व्यपकर्ष मेधया।
भवद्विधा ह्युत्तमबुद्धिविस्तरा
विमुह्यमानस्य नरस्य शान्तये ॥ ३८ ॥

मूलम्

स पाण्डवेयस्य मनःसमुत्थितं
नरेन्द्र शोकं व्यपकर्ष मेधया।
भवद्विधा ह्युत्तमबुद्धिविस्तरा
विमुह्यमानस्य नरस्य शान्तये ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेन्द्र! पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरके हृदयमें जो शोक उमड़ आया है, उसे आप अपनी बुद्धिके द्वारा दूर कीजिये। आप-जैसे उत्तम बुद्धिके विस्तारवाले पुरुष ही मोहग्रस्त मनुष्यके शोकसंतापको दूर करके उसे शान्ति दे सकते हैं’॥३८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि कृष्णवाक्ये पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें श्रीकृष्णवाक्यविषयक पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५०॥