०४८

भागसूचना

अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

परशुरामजीद्वारा होनेवाले क्षत्रियसंहारके विषयमें राजा युधिष्ठिरका प्रश्न

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स च हृषीकेशः स च राजा युधिष्ठिरः।
कृपादयश्च ते सर्वे चत्वारः पाण्डवाश्च ते ॥ १ ॥
रथैस्तैर्नगरप्रख्यैः पताकाध्वजशोभितैः ।
ययुराशु कुरुक्षेत्रं वाजिभिः शीघ्रगामिभिः ॥ २ ॥

मूलम्

ततः स च हृषीकेशः स च राजा युधिष्ठिरः।
कृपादयश्च ते सर्वे चत्वारः पाण्डवाश्च ते ॥ १ ॥
रथैस्तैर्नगरप्रख्यैः पताकाध्वजशोभितैः ।
ययुराशु कुरुक्षेत्रं वाजिभिः शीघ्रगामिभिः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण, राजा युधिष्ठिर, कृपाचार्य आदि सब लोग तथा शेष चारों पाण्डव ध्वजा-पताकाओंसे सुशोभित एवं शीघ्रगामी घोड़ोंद्वारा संचालित नगराकार विशाल रथोंसे शीघ्रतापूर्वक कुरुक्षेत्रकी ओर बढ़े॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेऽवतीर्य कुरुक्षेत्रं केशमज्जास्थिसंकुलम् ।
देहन्यासः कृतो यत्र क्षत्रियैस्तैर्महात्मभिः ॥ ३ ॥

मूलम्

तेऽवतीर्य कुरुक्षेत्रं केशमज्जास्थिसंकुलम् ।
देहन्यासः कृतो यत्र क्षत्रियैस्तैर्महात्मभिः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सब लोग केश, मज्जा और हड्डियोंसे भरे हुए कुरुक्षेत्रमें उतरे, जहाँ महामनस्वी क्षत्रियवीरोंने अपने शरीरका त्याग किया था॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गजाश्वदेहास्थिचयैः पर्वतैरिव संचितम् ।
नरशीर्षकपालैश्च शंखैरिव च सर्वशः ॥ ४ ॥

मूलम्

गजाश्वदेहास्थिचयैः पर्वतैरिव संचितम् ।
नरशीर्षकपालैश्च शंखैरिव च सर्वशः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ हाथियों और घोड़ोंके शरीरों तथा हड्डियोंके अनेकानेक पहाड़ों-जैसे ढेर लगे हुए थे। सब ओर शंखके समान सफेद नरमुण्डोंकी खोपड़ियाँ फैली हुई थीं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चितासहस्रप्रचितं वर्मशस्त्रसमाकुलम् ।
आपानभूमिं कालस्य तथा भुक्तोज्झितामिव ॥ ५ ॥

मूलम्

चितासहस्रप्रचितं वर्मशस्त्रसमाकुलम् ।
आपानभूमिं कालस्य तथा भुक्तोज्झितामिव ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस भूमिमें सहस्रों चिताएँ जली थीं, कवच और अस्त्र-शस्त्रोंसे वह स्थान ढका हुआ था। देखनेपर ऐसा जान पड़ता था, मानो वह कालके खान-पानकी भूमि हो और कालने वहाँ खान-पान करके उच्छिष्ट करके छोड़ दिया हो॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूतसंघानुचरितं रक्षोगणनिषेवितम् ।
पश्यन्तस्ते कुरुक्षेत्रं ययुराशु महारथाः ॥ ६ ॥

मूलम्

भूतसंघानुचरितं रक्षोगणनिषेवितम् ।
पश्यन्तस्ते कुरुक्षेत्रं ययुराशु महारथाः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ झुंड-के-झुंड भूत विचर रहे थे और राक्षसगण निवास करते थे, उस कुरुक्षेत्रको देखते हुए वे सभी महारथी शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ रहे थे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छन्नेव महाबाहुः स वै यादवनन्दनः।
युधिष्ठिराय प्रोवाच जामदग्न्यस्य विक्रमम् ॥ ७ ॥

मूलम्

गच्छन्नेव महाबाहुः स वै यादवनन्दनः।
युधिष्ठिराय प्रोवाच जामदग्न्यस्य विक्रमम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रास्तेमें चलते-चलते ही महाबाहु भगवान् यादवनन्दन श्रीकृष्ण युधिष्ठिरको जमदग्निकुमार परशुरामजीका पराक्रम सुनाने लगे—॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमी रामह्रदाः पञ्च दृश्यन्ते पार्थ दूरतः।
तेषु संतर्पयामास पितॄत् क्षत्रियशोणितैः ॥ ८ ॥

मूलम्

अमी रामह्रदाः पञ्च दृश्यन्ते पार्थ दूरतः।
तेषु संतर्पयामास पितॄत् क्षत्रियशोणितैः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीनन्दन! ये जो पाँच सरोवर कुछ दूरसे दिखायी देते हैं, ‘राम-ह्रद’ के नामसे प्रसिद्ध हैं। इन्हींमें उन्होंने क्षत्रियोंके रक्तसे अपने पितरोंका तर्पण किया था॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिःसप्तकृत्वो वसुधां कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः।
इहेदानीं ततो रामः कर्मणो विरराम ह ॥ ९ ॥

मूलम्

त्रिःसप्तकृत्वो वसुधां कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः।
इहेदानीं ततो रामः कर्मणो विरराम ह ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शक्तिशाली परशुरामजी इक्कीस बार इस पृथ्वीको क्षत्रियोंसे शून्य करके यहीं आनेके पश्चात् अब उस कर्मसे विरत हो गये हैं’॥९॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवी कृता निःक्षत्रिया पुरा।
रामेणेति तथाऽऽत्थ त्वमत्र मे संशयो महान् ॥ १० ॥

मूलम्

त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवी कृता निःक्षत्रिया पुरा।
रामेणेति तथाऽऽत्थ त्वमत्र मे संशयो महान् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— प्रभो! आपने यह बताया है कि पहले परशुरामजीने इक्कीस बार यह पृथ्वी क्षत्रियोंसे सूनी कर दी थी, इस विषयमें मुझे बहुत बड़ा संदेह हो गया है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रबीजं यथा दग्धं रामेण यदुपुङ्गव।
कथं भूयः समुत्पत्तिः क्षत्रस्यामितविक्रम ॥ ११ ॥

मूलम्

क्षत्रबीजं यथा दग्धं रामेण यदुपुङ्गव।
कथं भूयः समुत्पत्तिः क्षत्रस्यामितविक्रम ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अमित पराक्रमी यदुनाथ! जब परशुरामजीने क्षत्रियोंका बीजतक दग्ध कर दिया, तब फिर क्षत्रिय-जातिकी उत्पत्ति कैसे हुई?॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महात्मना भगवता रामेण यदुपुङ्गव।
कथमुत्सादितं क्षत्रं कथं वृद्धिमुपागतम् ॥ १२ ॥

मूलम्

महात्मना भगवता रामेण यदुपुङ्गव।
कथमुत्सादितं क्षत्रं कथं वृद्धिमुपागतम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदुपुङ्गव! महात्मा भगवान् परशुरामने क्षत्रियोंका संहार किसलिये किया और उसके बाद इस जातिकी वृद्धि कैसे हुई?॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महता रथयुद्धेन कोटिशः क्षत्रिया हताः।
तथाभूच्च मही कीर्णा क्षत्रियैर्वदतां वर ॥ १३ ॥

मूलम्

महता रथयुद्धेन कोटिशः क्षत्रिया हताः।
तथाभूच्च मही कीर्णा क्षत्रियैर्वदतां वर ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वक्ताओंमें श्रेष्ठ श्रीकृष्ण! महारथयुद्धके द्वारा जब करोड़ों क्षत्रिय मारे गये होंगे, उस समय उनकी लाशोंसे यह सारी पृथ्वी ढक गयी होगी॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमर्थं भार्गवेणेदं क्षत्रमुत्सादितं पुरा।
रामेण यदुशार्दूल कुरुक्षेत्रे महात्मना ॥ १४ ॥

मूलम्

किमर्थं भार्गवेणेदं क्षत्रमुत्सादितं पुरा।
रामेण यदुशार्दूल कुरुक्षेत्रे महात्मना ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदुसिंह! भृगुवंशी महात्मा परशुरामने पूर्वकालमें कुरुक्षेत्रमें यह क्षत्रियोंका संहार किसलिये किया?॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतन्मे छिन्धि वार्ष्णेय संशयं तार्क्ष्यकेतन।
आगमो हि परः कृष्ण त्वत्तो नो वासवानुज ॥ १५ ॥

मूलम्

एतन्मे छिन्धि वार्ष्णेय संशयं तार्क्ष्यकेतन।
आगमो हि परः कृष्ण त्वत्तो नो वासवानुज ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गरुडध्वज श्रीकृष्ण! इन्द्रके छोटे भाई उपेन्द्र! आप मेरे संदेहका निवारण कीजिये; क्योंकि कोई भी शास्त्र आपसे बढ़कर नहीं है॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो यथावत् स गदाग्रजः प्रभुः
शशंस तस्मै निखिलेन तत्त्वतः।
युधिष्ठिरायाप्रतिमौजसे तदा
यथाभवत् क्षत्रियसंकुला मही ॥ १६ ॥

मूलम्

ततो यथावत् स गदाग्रजः प्रभुः
शशंस तस्मै निखिलेन तत्त्वतः।
युधिष्ठिरायाप्रतिमौजसे तदा
यथाभवत् क्षत्रियसंकुला मही ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! राजा युधिष्ठिरके इस प्रकार पूछनेपर गदाग्रज भगवान् श्रीकृष्णने अप्रतिम तेजस्वी युधिष्ठिरसे वह सारा वृत्तान्त यथार्थरूपसे कह सुनाया कि किस प्रकार यह सारी पृथ्वी क्षत्रियोंकी लाशोंसे ढक गयी थी॥१६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि रामोपाख्यानेऽष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें परशुरामके उपाख्यानका आरम्भविषयक अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४८॥