भागसूचना
षट्चत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिर और श्रीकृष्णका संवाद, श्रीकृष्णद्वारा भीष्मकी प्रशंसा और युधिष्ठिरको उनके पास चलनेका आदेश
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमिदं परमाश्चर्यं ध्यायस्यमितविक्रम ।
कच्चिल्लोकत्रयस्यास्य स्वस्ति लोकपरायण ॥ १ ॥
चतुर्थं ध्यानमार्गं त्वमालम्ब्य पुरुषर्षभ।
अपक्रान्तो यतो देवस्तेन मे विस्मितं मनः ॥ २ ॥
मूलम्
किमिदं परमाश्चर्यं ध्यायस्यमितविक्रम ।
कच्चिल्लोकत्रयस्यास्य स्वस्ति लोकपरायण ॥ १ ॥
चतुर्थं ध्यानमार्गं त्वमालम्ब्य पुरुषर्षभ।
अपक्रान्तो यतो देवस्तेन मे विस्मितं मनः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— अमितपराक्रमी, जगत्के आश्रयदाता पुरुषोत्तम! आप यह किसका ध्यान कर रहे हैं? यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है! इस त्रिलोकीका कुशल तो है न? आप तो जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति—तीनों अवस्थाओंसे परे तुरीय ध्यानमार्गका आश्रय लेकर स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीरोंसे ऊपर उठ गये हैं। इससे मेरे मनको बड़ा आश्चर्य हो रहा है॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निगृहीतो हि वायुस्ते पञ्चकर्मा शरीरगः।
इन्द्रियाणि प्रसन्नानि मनसि स्थापितानि ते ॥ ३ ॥
मूलम्
निगृहीतो हि वायुस्ते पञ्चकर्मा शरीरगः।
इन्द्रियाणि प्रसन्नानि मनसि स्थापितानि ते ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके शरीरमें रहनेवाली और श्वास-प्रश्वास आदि पाँच कर्म करनेवाली प्राणवायु अवरुद्ध हो गयी है। आपने अपनी प्रसन्न इन्द्रियोंको मनमें स्थापित कर दिया है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाक् च सत्त्वं च गोविन्द बुद्धौ संवेशितानि ते।
सर्वे चैव गुणा देवाः क्षेत्रज्ञे ते निवेशिताः ॥ ४ ॥
मूलम्
वाक् च सत्त्वं च गोविन्द बुद्धौ संवेशितानि ते।
सर्वे चैव गुणा देवाः क्षेत्रज्ञे ते निवेशिताः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गोविन्द! मन तथा वाक् आदि सम्पूर्ण इन्द्रियाँ आपके द्वारा बुद्धिमें लीन कर दी गयी हैं। समस्त गुणोंको और इन्द्रियोंके अनुग्राहक देवताओंको आपने क्षेत्रज्ञ आत्मामें स्थापित कर दिया है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेङ्गन्ति तव रोमाणि स्थिरा बुद्धिस्तथा मनः।
काष्ठकुड्यशिलाभूतो निरीहश्चासि माधव ॥ ५ ॥
मूलम्
नेङ्गन्ति तव रोमाणि स्थिरा बुद्धिस्तथा मनः।
काष्ठकुड्यशिलाभूतो निरीहश्चासि माधव ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके रोंगटे खड़े हो गये हैं। जरा भी हिलते नहीं हैं। बुद्धि तथा मन भी स्थिर हैं। माधव! आप काठ, दीवार और पत्थरकी तरह निश्चेष्ट हो गये हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा दीपो निवातस्थो निरिङ्गो ज्वलते पुनः।
तथासि भगवन् देव पाषाण इव निश्चलः ॥ ६ ॥
मूलम्
यथा दीपो निवातस्थो निरिङ्गो ज्वलते पुनः।
तथासि भगवन् देव पाषाण इव निश्चलः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! देवदेव! जैसे वायुशून्य स्थानमें रखे हुए दीपककी लौ काँपती नहीं, एकतार जलती रहती है, उसी तरह आप भी स्थिर हैं मानो पाषाणकी मूर्ति हों॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि श्रोतुमिहार्हामि न रहस्यं च ते यदि।
छिन्धि मे संशयं देव प्रपन्नायाभियाचते ॥ ७ ॥
मूलम्
यदि श्रोतुमिहार्हामि न रहस्यं च ते यदि।
छिन्धि मे संशयं देव प्रपन्नायाभियाचते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देव! यदि मैं सुननेका अधिकारी होऊँ और यदि यह आपका कोई गोपनीय रहस्य न हो तो मेरे इस संशयका निवारण कीजिये; इसके लिये मैं आपकी शरणमें आकर बारंबार याचना करता हूँ॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं हि कर्ता विकर्ता च क्षरं चैवाक्षरं च हि।
अनादिनिधनश्चाद्यस्त्वमेव पुरुषोत्तम ॥ ८ ॥
मूलम्
त्वं हि कर्ता विकर्ता च क्षरं चैवाक्षरं च हि।
अनादिनिधनश्चाद्यस्त्वमेव पुरुषोत्तम ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषोत्तम! आप ही इस जगत्को बनाने और विलीन करनेवाले हैं। आप ही क्षर और अक्षर पुरुष हैं। आपका न आदि है और न अन्त। आप ही सबके आदि कारण हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वत्प्रपन्नाय भक्ताय शिरसा प्रणताय च।
ध्यानस्यास्य यथा तत्त्वं ब्रूहि धर्मभृतां वर ॥ ९ ॥
मूलम्
त्वत्प्रपन्नाय भक्ताय शिरसा प्रणताय च।
ध्यानस्यास्य यथा तत्त्वं ब्रूहि धर्मभृतां वर ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं आपकी शरणमें आया हुआ भक्त हूँ और माथा टेककर आपके चरणोंमें प्रणाम करता हूँ। धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ प्रभो! इस ध्यानका यथार्थ तत्त्व मुझे बता दीजिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स्वे गोचरे न्यस्य मनोबुद्धीन्द्रियाणि सः।
स्मितपूर्वमुवाचेदं भगवान् वासवानुजः ॥ १० ॥
मूलम्
ततः स्वे गोचरे न्यस्य मनोबुद्धीन्द्रियाणि सः।
स्मितपूर्वमुवाचेदं भगवान् वासवानुजः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरकी यह प्रार्थना सुनकर मन, बुद्धि तथा इन्द्रियोंको अपने स्थानमें स्थापित करके इन्द्रके छोटे भाई भगवान् श्रीकृष्ण मुस्कराते हुए इस प्रकार बोले॥१०॥
सूचना (हिन्दी)
ध्यानमग्न श्रीकृष्णसे युधिष्ठिर प्रश्न कर रहे हैं
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरतल्पगतो भीष्मः शाम्यन्निव हुताशनः।
मां ध्याति पुरुषव्याघ्रस्ततो मे तद्गतं मनः ॥ ११ ॥
मूलम्
शरतल्पगतो भीष्मः शाम्यन्निव हुताशनः।
मां ध्याति पुरुषव्याघ्रस्ततो मे तद्गतं मनः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णने कहा— राजन्! बाण-शय्यापर पड़े हुए पुरुषसिंह भीष्म, जो इस समय बुझती हुई आगके समान हो रहे हैं, मेरा ध्यान कर रहे हैं; इसलिये मेरा मन भी उन्हींमें लगा हुआ है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य ज्यातलनिर्घोषं विस्फूर्जितमिवाशनेः ।
न सेहे देवराजोऽपि तमस्मि मनसा गतः ॥ १२ ॥
मूलम्
यस्य ज्यातलनिर्घोषं विस्फूर्जितमिवाशनेः ।
न सेहे देवराजोऽपि तमस्मि मनसा गतः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बिजलीकी गड़गड़ाहटके समान जिनके धनुषकी टंकारको देवराज इन्द्र भी नहीं सह सके थे, उन्हीं भीष्मके चिन्तनमें मेरा मन लगा हुआ है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येनाभिजित्य तरसा समस्तं राजमण्डलम्।
ऊढास्तिस्रस्तु ताः कन्यास्तमस्मि मनसा गतः ॥ १३ ॥
मूलम्
येनाभिजित्य तरसा समस्तं राजमण्डलम्।
ऊढास्तिस्रस्तु ताः कन्यास्तमस्मि मनसा गतः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्होंने काशीपुरीमें समस्त राजाओंके समुदायको वेगपूर्वक परास्त करके काशिराजकी तीनों कन्याओंका अपहरण किया था, उन्हीं भीष्मके पास मेरा मन चला गया है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयोविंशतिरात्रं यो योधयामास भार्गवम्।
न च रामेण निस्तीर्णस्तमस्मि मनसा गतः ॥ १४ ॥
मूलम्
त्रयोविंशतिरात्रं यो योधयामास भार्गवम्।
न च रामेण निस्तीर्णस्तमस्मि मनसा गतः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लगातार तेईस दिनोंतक भृगुनन्दन परशुरामजीके साथ युद्ध करते रहे, तो भी परशुरामजी जिन्हें परास्त न कर सके, उन्हीं भीष्मके पास मैं मनके द्वारा पहुँच गया था॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकीकृत्येन्द्रियग्रामं मनः संयम्य मेधया।
शरणं मामुपागच्छत् ततो मे तद्गतं मनः ॥ १५ ॥
मूलम्
एकीकृत्येन्द्रियग्रामं मनः संयम्य मेधया।
शरणं मामुपागच्छत् ततो मे तद्गतं मनः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे भीष्मजी अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी वृत्तियोंको एकाग्रकर बुद्धिके द्वारा मनका संयम करके मेरी शरणमें आ गये थे; इसीलिये मेरा मन भी उन्हींमें जा लगा था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं गङ्गा गर्भविधिना धारयामास पार्थिव।
वसिष्ठशिक्षितं तात तमस्मि मनसा गतः ॥ १६ ॥
मूलम्
यं गङ्गा गर्भविधिना धारयामास पार्थिव।
वसिष्ठशिक्षितं तात तमस्मि मनसा गतः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! भूपाल! जिन्हें गंगादेवीने विधिपूर्वक अपने गर्भमें धारण किया था और जिन्हें महर्षि वसिष्ठके द्वारा वेदोंकी शिक्षा प्राप्त हुई थी, उन्हीं भीष्मजीके पास मैं मन-ही-मन पहुँच गया था॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिव्यास्त्राणि महातेजा यो धारयति बुद्धिमान्।
साङ्गांश्च चतुरो वेदांस्तमस्मि मनसा गतः ॥ १७ ॥
मूलम्
दिव्यास्त्राणि महातेजा यो धारयति बुद्धिमान्।
साङ्गांश्च चतुरो वेदांस्तमस्मि मनसा गतः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो महातेजस्वी बुद्धिमान् भीष्म दिव्यास्त्रों तथा अंगोंसहित चारों वेदोंको धारण करते हैं, उन्हींके चिन्तनमें मेरा मन लगा हुआ था॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामस्य दयितं शिष्यं जामदग्न्यस्य पाण्डव।
आधारं सर्वविद्यानां तमस्मि मनसा गतः ॥ १८ ॥
मूलम्
रामस्य दयितं शिष्यं जामदग्न्यस्य पाण्डव।
आधारं सर्वविद्यानां तमस्मि मनसा गतः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुकुमार! जो जमदग्निनन्दन परशुरामजीके प्रिय शिष्य तथा सम्पूर्ण विद्याओंके आधार हैं, उन्हीं भीष्मजीका मैं मन-ही-मन चिन्तन करता था॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि भूतं भविष्यच्च भवच्च भरतर्षभ।
वेत्ति धर्मविदां श्रेष्ठं तमस्मि मनसा गतः ॥ १९ ॥
मूलम्
स हि भूतं भविष्यच्च भवच्च भरतर्षभ।
वेत्ति धर्मविदां श्रेष्ठं तमस्मि मनसा गतः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! वे भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालोंकी बातें जानते हैं। धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ उन्हीं भीष्मका मैं मन-ही-मन चिन्तन करने लगा था॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् हि पुरुषव्याघ्रे कर्मभिः स्वैर्दिवं गते।
भविष्यति मही पार्थ नष्टचन्द्रेव शर्वरी ॥ २० ॥
मूलम्
तस्मिन् हि पुरुषव्याघ्रे कर्मभिः स्वैर्दिवं गते।
भविष्यति मही पार्थ नष्टचन्द्रेव शर्वरी ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! जब पुरुषसिंह भीष्म अपने कर्मोंके अनुसार स्वर्गलोकमें चले जायँगे, उस समय यह पृथ्वी अमावास्याकी रात्रिके समान श्रीहीन हो जायगी॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् युधिष्ठिर गाङ्गेयं भीष्मं भीमपराक्रमम्।
अभिगम्योपसंगृह्य पृच्छ यत् ते मनोगतम् ॥ २१ ॥
मूलम्
तद् युधिष्ठिर गाङ्गेयं भीष्मं भीमपराक्रमम्।
अभिगम्योपसंगृह्य पृच्छ यत् ते मनोगतम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः महाराज युधिष्ठिर! आप भयानक पराक्रमी गंगानन्दन भीष्मके पास चलकर उनके चरणोंमें प्रणाम कीजिये और आपके मनमें जो संदेह हो उसे पूछिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चातुर्विद्यं चातुर्होत्रं चातुराश्रम्यमेव च।
राजधर्मांश्च निखिलान् पृच्छैनं पृथिवीपते ॥ २२ ॥
मूलम्
चातुर्विद्यं चातुर्होत्रं चातुराश्रम्यमेव च।
राजधर्मांश्च निखिलान् पृच्छैनं पृथिवीपते ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—इन चारों विद्याओंको, होता, उद्गाता, ब्रह्मा और अध्वर्युसे सम्बन्ध रखनेवाले यज्ञादि कर्मोंको, चारों आश्रमोंके धर्मोंको तथा सम्पूर्ण राजधर्मोंको उनसे पूछिये॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन्नस्तमिते भीष्मे कौरवाणां धुरंधरे।
ज्ञानान्यस्तं गमिष्यन्ति तस्मात् त्वां चोदयाम्यहम् ॥ २३ ॥
मूलम्
तस्मिन्नस्तमिते भीष्मे कौरवाणां धुरंधरे।
ज्ञानान्यस्तं गमिष्यन्ति तस्मात् त्वां चोदयाम्यहम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरववंशका भार सँभालनेवाले भीष्मरूपी सूर्य जब अस्त हो जायँगे, उस समय सब प्रकारके ज्ञानोंका प्रकाश नष्ट हो जायगा; इसलिये मैं आपको वहाँ चलनेके लिये कहता हूँ॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा वासुदेवस्य तथ्यं वचनमुत्तमम्।
साश्रुकण्ठः स धर्मज्ञो जनार्दनमुवाच ह ॥ २४ ॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा वासुदेवस्य तथ्यं वचनमुत्तमम्।
साश्रुकण्ठः स धर्मज्ञो जनार्दनमुवाच ह ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णका वह उत्तम और यथार्थ वचन सुनकर धर्मज्ञ युधिष्ठिरका गला भर आया और वे आँसू बहाते हुए वहाँ श्रीकृष्णसे कहने लगे—॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् भवानाह भीष्मस्य प्रभावं प्रति माधव।
तथा तन्नात्र संदेहो विद्यते मम माधव ॥ २५ ॥
मूलम्
यद् भवानाह भीष्मस्य प्रभावं प्रति माधव।
तथा तन्नात्र संदेहो विद्यते मम माधव ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘माधव! भीष्मजीके प्रभावके विषयमें आप जैसा कहते हैं, वह सब ठीक है। उसमें मुझे भी संदेह नहीं है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाभाग्यं च भीष्मस्य प्रभावश्च महाद्युते।
श्रुतं मया कथयतां ब्राह्मणानां महात्मनाम् ॥ २६ ॥
मूलम्
महाभाग्यं च भीष्मस्य प्रभावश्च महाद्युते।
श्रुतं मया कथयतां ब्राह्मणानां महात्मनाम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महातेजस्वी केशव! मैंने महात्मा ब्राह्मणोंके मुखसे भी भीष्मजीके महान् सौभाग्य और प्रभावका वर्णन सुना है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवांश्च कर्ता लोकानां यद् ब्रवीत्यरिसूदन।
तथा तदनभिध्येयं वाक्यं यादवनन्दन ॥ २७ ॥
मूलम्
भवांश्च कर्ता लोकानां यद् ब्रवीत्यरिसूदन।
तथा तदनभिध्येयं वाक्यं यादवनन्दन ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुसूदन! यादवनन्दन! आप सम्पूर्ण जगत्के विधाता हैं। आप जो कुछ कह रहे हैं, उसमें भी सोचने-विचारनेकी आवश्यकता नहीं है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि त्वनुग्रहवती बुद्धिस्ते मयि माधव।
त्वामग्रतः पुरस्कृत्य भीष्मं यास्यामहे वयम् ॥ २८ ॥
मूलम्
यदि त्वनुग्रहवती बुद्धिस्ते मयि माधव।
त्वामग्रतः पुरस्कृत्य भीष्मं यास्यामहे वयम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘माधव! यदि आपका विचार मेरे ऊपर अनुग्रह करनेका है तो हमलोग आपको ही आगे करके भीष्मजीके पास चलेंगे॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवृते भगवत्यर्के स हि लोकान् गमिष्यति।
त्वद्दर्शनं महाबाहो तस्मादर्हति कौरवः ॥ २९ ॥
मूलम्
आवृते भगवत्यर्के स हि लोकान् गमिष्यति।
त्वद्दर्शनं महाबाहो तस्मादर्हति कौरवः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहो! सूर्यके उत्तरायण होते ही कुरुकुलभूषण भीष्म देवलोकको चले जायँगे; अतः उन्हें आपका दर्शन अवश्य प्राप्त होना चाहिये॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तव चाद्यस्य देवस्य क्षरस्यैवाक्षरस्य च।
दर्शनं त्वस्य लाभः स्यात् त्वं हि ब्रह्ममयो निधिः॥३०॥
मूलम्
तव चाद्यस्य देवस्य क्षरस्यैवाक्षरस्य च।
दर्शनं त्वस्य लाभः स्यात् त्वं हि ब्रह्ममयो निधिः॥३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप आदिदेव तथा क्षर-अक्षर पुरुष हैं। आपका दर्शन उनके लिये महान् लाभकारी होगा; क्योंकि आप ब्रह्ममयी निधि हैं’॥३०॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वैवं धर्मराजस्य वचनं मधुसूदनः।
पार्श्वस्थं सात्यकिं प्राह रथो मे युज्यतामिति ॥ ३१ ॥
मूलम्
श्रुत्वैवं धर्मराजस्य वचनं मधुसूदनः।
पार्श्वस्थं सात्यकिं प्राह रथो मे युज्यतामिति ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! धर्मराजका यह वचन सुनकर मधुसूदन श्रीकृष्णने पास ही खड़े हुए सात्यकिसे कहा—‘मेरा रथ जोतकर तैयार किया जाय’॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात्यकिस्त्वाशु निष्क्रम्य केशवस्य समीपतः।
दारुकं प्राह कृष्णस्य युज्यतां रथ इत्युत ॥ ३२ ॥
मूलम्
सात्यकिस्त्वाशु निष्क्रम्य केशवस्य समीपतः।
दारुकं प्राह कृष्णस्य युज्यतां रथ इत्युत ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आज्ञा पाते ही सात्यकि श्रीकृष्णके पाससे तुरंत बाहर निकल गये और दारुकसे बोले—‘भगवान् श्रीकृष्णका रथ तैयार करो’॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सात्यकेराशु वचो निशम्य
रथोत्तमं काञ्चनभूषिताङ्गम् ।
मसारगल्वर्कमयैर्विभङ्गै-
र्विभूषितं हेमनिबद्धचक्रम् ॥ ३३ ॥
दिवाकरांशुप्रभमाशुगामिनं
विचित्रनानामणिभूषितान्तरम् ।
नवोदितं सूर्यमिव प्रतापिनं
विचित्रतार्क्ष्यध्वजिनं पताकिनम् ॥ ३४ ॥
सुग्रीवशैब्यप्रमुखैर्वराश्वै-
र्मनोजवैः काञ्चनभूषिताङ्गैः ।
संयुक्तमावेदयदच्युताय
कृताञ्जलिर्दारुको राजसिंह ॥ ३५ ॥
मूलम्
स सात्यकेराशु वचो निशम्य
रथोत्तमं काञ्चनभूषिताङ्गम् ।
मसारगल्वर्कमयैर्विभङ्गै-
र्विभूषितं हेमनिबद्धचक्रम् ॥ ३३ ॥
दिवाकरांशुप्रभमाशुगामिनं
विचित्रनानामणिभूषितान्तरम् ।
नवोदितं सूर्यमिव प्रतापिनं
विचित्रतार्क्ष्यध्वजिनं पताकिनम् ॥ ३४ ॥
सुग्रीवशैब्यप्रमुखैर्वराश्वै-
र्मनोजवैः काञ्चनभूषिताङ्गैः ।
संयुक्तमावेदयदच्युताय
कृताञ्जलिर्दारुको राजसिंह ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजसिंह! सात्यकिका यह वचन सुनकर दारुकने मरकत, चन्द्रकान्त तथा सूर्यकान्त मणियोंकी ज्योतिर्मयी तरंगोंसे विभूषित उस उत्तम रथको, जिसका एक-एक अंग सुनहरे साजोंसे सजाया गया था तथा जिसके पहियोंपर सोनेके पत्र जड़े गये थे, जोतकर तैयार किया और हाथ जोड़कर भगवान् श्रीकृष्णको इसकी सूचना दी। वह शीघ्रगामी रथ सूर्यकी किरणोंके पड़नेसे उद्भासित हो तुरंतके उगे हुए सूर्यके समान प्रकाशित होता था, उसके भीतरी भागको नाना प्रकारकी विचित्र मणियोंसे विभूषित किया गया था। वह प्रतापी रथ विचित्र गरुड़चिह्नित ध्वजा और पताकासे सुशोभित था। उसमें सोनेके साजबाजसे सजे हुए अंगोंवाले, मनके समान वेगशाली, सुग्रीव और शैब्य आदि सुन्दर घोड़े जुते हुए थे॥३३—३५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि महापुरुषस्तवे षट्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें महापुरुषस्तुतिविषयक छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४६॥