भागसूचना
पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरके द्वारा ब्राह्मणों तथा आश्रितोंका सत्कार एवं दान और श्रीकृष्णके पास जाकर उनकी स्तुति करते हुए कृतज्ञता-प्रकाशन
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राप्य राज्यं महाबाहुर्धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।
यदन्यदकरोद् विप्र तन्मे वक्तुमिहार्हसि ॥ १ ॥
मूलम्
प्राप्य राज्यं महाबाहुर्धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।
यदन्यदकरोद् विप्र तन्मे वक्तुमिहार्हसि ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजयने पूछा— विप्रवर! राज्य पानेके पश्चात् धर्मपुत्र महाबाहु युधिष्ठिरने और कौन-कौन-सा कार्य किया था? यह मुझे बतानेकी कृपा करें?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवान् वा हृषीकेशस्त्रैलोक्यस्य परो गुरुः।
ऋषे यदकरोद् वीरस्तच्च व्याख्यातुमर्हसि ॥ २ ॥
मूलम्
भगवान् वा हृषीकेशस्त्रैलोक्यस्य परो गुरुः।
ऋषे यदकरोद् वीरस्तच्च व्याख्यातुमर्हसि ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षे! तीनों लोकोंके परम गुरु वीरवर भगवान् श्रीकृष्णने भी क्या-क्या किया था? यह भी विस्तारपूर्वक बतावें॥२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु तत्त्वेन राजेन्द्र कीर्त्यमानं मयानघ।
वासुदेवं पुरस्कृत्य यदकुर्वत पाण्डवाः ॥ ३ ॥
मूलम्
शृणु तत्त्वेन राजेन्द्र कीर्त्यमानं मयानघ।
वासुदेवं पुरस्कृत्य यदकुर्वत पाण्डवाः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजीने कहा— निष्पाप नरेश! भगवान् श्रीकृष्णको आगे करके पाण्डवोंने जो कुछ किया था, उसे ठीक-ठीक बताता हूँ, ध्यान देकर सुनो॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राप्य राज्यं महाराज कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
चातुर्वर्ण्यं यथायोग्यं स्वे स्वे स्थाने न्यवेशयत् ॥ ४ ॥
मूलम्
प्राप्य राज्यं महाराज कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
चातुर्वर्ण्यं यथायोग्यं स्वे स्वे स्थाने न्यवेशयत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरने राज्य प्राप्त करनेके बाद सबसे पहले चारों वर्णोंको योग्यतानुसार अपने-अपने स्थान (कर्तव्यपालन) में स्थिर किया॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणानां सहस्रं च स्नातकानां महात्मनाम्।
सहस्रं निष्कमेकैकं दापयामास पाण्डवः ॥ ५ ॥
मूलम्
ब्राह्मणानां सहस्रं च स्नातकानां महात्मनाम्।
सहस्रं निष्कमेकैकं दापयामास पाण्डवः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् सहस्रों महामना स्नातक ब्राह्मणोंमेंसे प्रत्येकको पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरने एक-एक हजार स्वर्णमुद्राएँ दिलवायीं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथाऽनुजीविनो भृत्यान् संश्रितानतिथीनपि ।
कामैः संतर्पयामास कृपणांस्तर्ककानपि ॥ ६ ॥
मूलम्
तथाऽनुजीविनो भृत्यान् संश्रितानतिथीनपि ।
कामैः संतर्पयामास कृपणांस्तर्ककानपि ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी तरह जिनकी जीविकाका भार उन्हींके ऊपर था, उन भृत्यों, शरणागतों तथा अतिथियोंको उन्होंने इच्छानुसार भोग्यपदार्थ देकर संतुष्ट किया। दीन-दुखियों तथा पूछे हुए प्रश्नोंका उत्तर देनेवाले ज्योतिषियोंको भी संतुष्ट किया॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरोहिताय धौम्याय प्रादादयुतशः स गाः।
धनं सुवर्णं रजतं वासांसि विविधान्यपि ॥ ७ ॥
मूलम्
पुरोहिताय धौम्याय प्रादादयुतशः स गाः।
धनं सुवर्णं रजतं वासांसि विविधान्यपि ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने पुरोहित धौम्यजीको उन्होंने दस हजार गौएँ, धन, सोना, चाँदी तथा नाना प्रकारके वस्त्र दिये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृपाय च महाराज गुरुवृत्तिमवर्तत।
विदुराय च राजासौ पूजां चक्रे यतव्रतः ॥ ८ ॥
मूलम्
कृपाय च महाराज गुरुवृत्तिमवर्तत।
विदुराय च राजासौ पूजां चक्रे यतव्रतः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! राजाने कृपाचार्यके साथ वही बर्ताव किया, जो एक शिष्यको अपने गुरुके साथ करना चाहिये। नियमपूर्वक व्रतका पालन करनेवाले युधिष्ठिरजीने विदुरजीका भी पूजनीय पुरुषकी भाँति सम्मान किया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्ष्यान्नपानैर्विविधैर्वासोभिः शयनासनैः ।
सर्वान् संतोषयामास संश्रितान् ददतां वरः ॥ ९ ॥
मूलम्
भक्ष्यान्नपानैर्विविधैर्वासोभिः शयनासनैः ।
सर्वान् संतोषयामास संश्रितान् ददतां वरः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दाताओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिरने समस्त आश्रित जनोंको खाने-पीनेकी वस्तुएँ, भाँति-भाँतिके कपड़े, शय्या तथा आसन देकर संतुष्ट किया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लब्धप्रशमनं कृत्वा स राजा राजसत्तम।
युयुत्सोर्धार्तराष्ट्रस्य पूजां चक्रे महायशाः ॥ १० ॥
धृतराष्ट्राय तद् राज्यं गान्धार्यै विदुराय च।
निवेद्य सुस्थवद् राजा सुखमास्ते युधिष्ठिरः ॥ ११ ॥
मूलम्
लब्धप्रशमनं कृत्वा स राजा राजसत्तम।
युयुत्सोर्धार्तराष्ट्रस्य पूजां चक्रे महायशाः ॥ १० ॥
धृतराष्ट्राय तद् राज्यं गान्धार्यै विदुराय च।
निवेद्य सुस्थवद् राजा सुखमास्ते युधिष्ठिरः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! महायशस्वी राजा युधिष्ठिरने इस प्रकार प्राप्त हुए धनका यथोचित विभाग करके उसकी शान्ति की तथा युयुत्सु एवं धृतराष्ट्रका विशेष सत्कार किया। धृतराष्ट्र, गान्धारी तथा विदुरजीकी सेवामें अपना सारा राज्य समर्पित करके राजा युधिष्ठिर स्वस्थ एवं सुखी हो गये॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा सर्वं स नगरं प्रसाद्य भरतर्षभ।
वासुदेवं महात्मानमभ्यगच्छत् कृताञ्जलिः ॥ १२ ॥
मूलम्
तथा सर्वं स नगरं प्रसाद्य भरतर्षभ।
वासुदेवं महात्मानमभ्यगच्छत् कृताञ्जलिः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार सम्पूर्ण नगरकी प्रजाको प्रसन्न करके वे हाथ जोड़कर महात्मा वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णके पास गये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो महति पर्यङ्के मणिकाञ्चनभूषिते।
ददर्श कृष्णमासीनं नीलमेघसमद्युतिम् ॥ १३ ॥
जाज्वल्यमानं वपुषा दिव्याभरणभूषितम् ।
पीतकौशेयवसनं हेम्नेवोपगतं मणिम् ॥ १४ ॥
मूलम्
ततो महति पर्यङ्के मणिकाञ्चनभूषिते।
ददर्श कृष्णमासीनं नीलमेघसमद्युतिम् ॥ १३ ॥
जाज्वल्यमानं वपुषा दिव्याभरणभूषितम् ।
पीतकौशेयवसनं हेम्नेवोपगतं मणिम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने देखा, भगवान् श्रीकृष्ण मणियों तथा सुवर्णसे भूषित एक बड़े पलंगपर बैठे हैं, उनकी श्याम सुन्दर छवि नील मेघके समान सुशोभित हो रही है। उनका श्रीविग्रह दिव्य तेजसे उद्भासित हो रहा है। एक-एक अङ्ग दिव्य आभूषणोंसे विभूषित है। श्याम शरीरपर रेशमी पीताम्बर धारण किये भगवान् सुवर्णजटित नीलमके समान जान पड़ते हैं॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौस्तुभेनोरसिस्थेन मणिनाभिविराजितम् ।
उद्यतेवोदयं शैलं सूर्येणाभिविराजितम् ॥ १५ ॥
मूलम्
कौस्तुभेनोरसिस्थेन मणिनाभिविराजितम् ।
उद्यतेवोदयं शैलं सूर्येणाभिविराजितम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके वक्षःस्थलपर स्थित हुई कौस्तुभमणि अपना प्रकाश बिखेरती हुई उसी प्रकार उनकी शोभा बढाती है, मानो उगते हुए सूर्य उदयाचलको प्रकाशित कर रहे हों॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नौपम्यं विद्यते तस्य त्रिषु लोकेषु किंचन।
सोऽभिगम्य महात्मानं विष्णुं पुरुषविग्रहम् ॥ १६ ॥
उवाच मधुरं राजा स्मितपूर्वमिदं तदा।
मूलम्
नौपम्यं विद्यते तस्य त्रिषु लोकेषु किंचन।
सोऽभिगम्य महात्मानं विष्णुं पुरुषविग्रहम् ॥ १६ ॥
उवाच मधुरं राजा स्मितपूर्वमिदं तदा।
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्की उस दिव्य झाँकीकी तीनों लोकोंमें कहीं उपमा नहीं थी। राजा युधिष्ठिर मानवविग्रहधारी उन परमात्मा विष्णुके समीप जाकर मुसकराते हुए मधुर वाणीमें इस प्रकार बोले—॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखेन ते निशा कच्चिद् व्युष्टा बुद्धिमतां वर ॥ १७ ॥
कच्चिज्ज्ञानानि सर्वाणि प्रसन्नानि तवाच्युत।
मूलम्
सुखेन ते निशा कच्चिद् व्युष्टा बुद्धिमतां वर ॥ १७ ॥
कच्चिज्ज्ञानानि सर्वाणि प्रसन्नानि तवाच्युत।
अनुवाद (हिन्दी)
‘बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ अच्युत! आपकी रात सुखसे बीती है न? सारी ज्ञानेन्द्रियाँ प्रसन्न तो हैं न?॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैवोपश्रिता देवी बुद्धिर्बुद्धिमतां वर ॥ १८ ॥
वयं राज्यमनुप्राप्ताः पृथिवी च वशे स्थिता।
तव प्रसादाद् भगवंस्त्रिलोकगतिविक्रम ॥ १९ ॥
जयं प्राप्ता यशश्चाग्र्यं न च धर्मच्युता वयम्।
मूलम्
तथैवोपश्रिता देवी बुद्धिर्बुद्धिमतां वर ॥ १८ ॥
वयं राज्यमनुप्राप्ताः पृथिवी च वशे स्थिता।
तव प्रसादाद् भगवंस्त्रिलोकगतिविक्रम ॥ १९ ॥
जयं प्राप्ता यशश्चाग्र्यं न च धर्मच्युता वयम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ श्रीकृष्ण! बुद्धिदेवीने आपका आश्रय लिया है न? प्रभो! हमने आपकी ही कृपासे राज्य पाया है और यह पृथ्वी हमारे अधिकारमें आयी है। भगवन्! आप ही तीनों लोकोंके आश्रय और पराक्रम हैं। आपकी ही दयासे हमने विजय तथा उत्तम यश प्राप्त किये हैं और धर्मसे भ्रष्ट नहीं हुए हैं’॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तथा भाषमाणं तु धर्मराजमरिंदमम्।
नोवाच भगवान् किंचिद् ध्यानमेवान्वपद्यत ॥ २० ॥
मूलम्
तं तथा भाषमाणं तु धर्मराजमरिंदमम्।
नोवाच भगवान् किंचिद् ध्यानमेवान्वपद्यत ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंका दमन करनेवाले धर्मराज युधिष्ठिर इस प्रकार कहते चले जा रहे थे; परंतु भगवान्ने उन्हें कोई उत्तर नहीं दिया। वे उस समय ध्यानमें मग्न थे॥२०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि कृष्णं प्रति युधिष्ठिरवाक्ये पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः॥४५॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें श्रीकृष्णके प्रति युधिष्ठिरका वचनविषयक पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४५॥