०४४ गृहविभागे

भागसूचना

चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

महाराज युधिष्ठिरके दिये हुए विभिन्न भवनोंमें भीमसेन आदि सब भाइयोंका प्रवेश और विश्राम

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विसर्जयामास सर्वाः प्रकृतयो नृपः।
विविशुश्चाभ्यनुज्ञाता यथास्वानि गृहाणि ते ॥ १ ॥

मूलम्

ततो विसर्जयामास सर्वाः प्रकृतयो नृपः।
विविशुश्चाभ्यनुज्ञाता यथास्वानि गृहाणि ते ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर राजा युधिष्ठिरने मन्त्री, प्रजा आदि सारी प्रकृतियोंको बिदा किया। राजाकी आज्ञा पाकर सब लोग अपने-अपने घरको चले गये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो युधिष्ठिरो राजा भीमं भीमपराक्रमम्।
सान्त्वयन्नब्रवीच्छ्रीमानर्जुनं यमजौ तथा ॥ २ ॥

मूलम्

ततो युधिष्ठिरो राजा भीमं भीमपराक्रमम्।
सान्त्वयन्नब्रवीच्छ्रीमानर्जुनं यमजौ तथा ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद श्रीमान् महाराज युधिष्ठिरने भयानक पराक्रमी भीमसेन, अर्जुन तथा नकुल-सहदेवको सान्त्वना देते हुए कहा—॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शत्रुभिर्विविधैः शस्त्रैः क्षतदेहा महारणे।
श्रान्ता भवन्तः सुभृशं तापिताः शोकमन्युभिः ॥ ३ ॥

मूलम्

शत्रुभिर्विविधैः शस्त्रैः क्षतदेहा महारणे।
श्रान्ता भवन्तः सुभृशं तापिताः शोकमन्युभिः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बन्धुओ! इस महासमरमें शत्रुओंने नाना प्रकारके शस्त्रोंद्वारा तुम्हारे शरीरको घायल कर दिया है। तुम सब लोग अत्यन्त थक गये हो और शोक तथा क्रोधने तुम्हें संतप्त कर दिया है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरण्ये दुःखवसतीर्मत्कृते भरतर्षभाः ।
भवद्भिरनुभूता हि यथा कुपुरुषैस्तथा ॥ ४ ॥

मूलम्

अरण्ये दुःखवसतीर्मत्कृते भरतर्षभाः ।
भवद्भिरनुभूता हि यथा कुपुरुषैस्तथा ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ वीरो! तुमने मेरे लिये वनमें रहकर जैसे कोई भाग्यहीन मनुष्य दुःख भोगता है, उसी प्रकार दुःख और कष्ट भोगे हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथासुखं यथाजोषं जयोऽयमनुभूयताम् ।
विश्रान्ताल्ँलब्धविज्ञानान् श्वः समेतास्मि वः पुनः ॥ ५ ॥

मूलम्

यथासुखं यथाजोषं जयोऽयमनुभूयताम् ।
विश्रान्ताल्ँलब्धविज्ञानान् श्वः समेतास्मि वः पुनः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अब इस समय तुमलोग सुखपूर्वक जी भरकर इस विजयजनित आनन्दका अनुभव करो। अच्छी तरह विश्राम करके जब तुम्हारा चित्त स्वस्थ हो जाय, तब फिर कल तुम लोगोंसे मिलूँगा’॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनगृहं प्रासादैरुपशोभितम् ।
बहुरत्नसमाकीर्णं दासीदाससमाकुलम् ॥ ६ ॥
धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञातं भ्रात्रा दत्तं वृकोदरः।
प्रतिपेदे महाबाहुर्मन्दिरं मघवानिव ॥ ७ ॥

मूलम्

ततो दुर्योधनगृहं प्रासादैरुपशोभितम् ।
बहुरत्नसमाकीर्णं दासीदाससमाकुलम् ॥ ६ ॥
धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञातं भ्रात्रा दत्तं वृकोदरः।
प्रतिपेदे महाबाहुर्मन्दिरं मघवानिव ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर धृतराष्ट्रकी आज्ञासे भाई युधिष्ठिरने दुर्योधनका महल भीमसेनको अर्पित किया। वह बहुत-सी अट्‌टालिकाओंसे सुशोभित था। वहाँ अनेक प्रकारके रत्नोंका भण्डार पड़ा था और बहुत-सी दास-दासियाँ सेवाके लिये प्रस्तुत थीं। जैसे इन्द्र अपने भवनमें प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार महाबाहु भीमसेन उस महलमें चले गये॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा दुर्योधनगृहं तथा दुःशासनस्य तु।
प्रासादमालासंयुक्तं हेमतोरणभूषितम् ॥ ८ ॥
दासीदाससुसम्पूर्णं प्रभूतधनधान्यवत् ।
प्रतिपेदे महाबाहुरर्जुनो राजशासनात् ॥ ९ ॥

मूलम्

यथा दुर्योधनगृहं तथा दुःशासनस्य तु।
प्रासादमालासंयुक्तं हेमतोरणभूषितम् ॥ ८ ॥
दासीदाससुसम्पूर्णं प्रभूतधनधान्यवत् ।
प्रतिपेदे महाबाहुरर्जुनो राजशासनात् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसा दुर्योधनका भवन सजा हुआ था, वैसा ही दुःशासनका भी था। उसमें भी प्रासादमालाएँ शोभा दे रही थीं। वह सोनेकी बंदनवारोंसे सजाया गया था। प्रचुर धन-धान्य तथा दास-दासियोंसे भरा-पूरा था। राजाकी आज्ञासे वह भवन महाबाहु अर्जुनको मिला॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्मर्षणस्य भवनं दुःशासनगृहाद् वरम्।
कुबेरभवनप्रख्यं मणिहेमविभूषितम् ॥ १० ॥

मूलम्

दुर्मर्षणस्य भवनं दुःशासनगृहाद् वरम्।
कुबेरभवनप्रख्यं मणिहेमविभूषितम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्मर्षणका महल तो दुःशासनके घरसे भी सुन्दर था। उसे सोने और मणियोंसे सजाया गया था; अतः वह कुबेरके राजभवनकी भाँति प्रकाशित होता था॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नकुलाय वरार्हाय कर्शिताय महावने।
ददौ प्रीतो महाराज धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ ११ ॥

मूलम्

नकुलाय वरार्हाय कर्शिताय महावने।
ददौ प्रीतो महाराज धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! धर्मपुत्र युधिष्ठिरने अत्यन्त प्रसन्न होकर महान् वनमें कष्ट उठाये हुए, वर पानेके अधिकारी नकुलको दुर्मर्षणका वह सुन्दर भवन प्रदान किया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्मुखस्य च वेश्माग्र्यं श्रीमत् कनकभूषणम्।
पूर्णपद्मदलाक्षीणां स्त्रीणां शयनसंकुलम् ॥ १२ ॥
प्रददौ सहदेवाय संततं प्रियकारिणे।
मुमुदे तच्च लब्ध्वासौ कैलासं धनदो यथा ॥ १३ ॥

मूलम्

दुर्मुखस्य च वेश्माग्र्यं श्रीमत् कनकभूषणम्।
पूर्णपद्मदलाक्षीणां स्त्रीणां शयनसंकुलम् ॥ १२ ॥
प्रददौ सहदेवाय संततं प्रियकारिणे।
मुमुदे तच्च लब्ध्वासौ कैलासं धनदो यथा ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्मुखका श्रेष्ठ भवन तो और भी सुन्दर था। उसे सुवर्णसे सुसज्जित किया गया था। खिले हुए कमलदलके समान नेत्रोंवाली सुन्दर स्त्रियोंकी शय्याओंसे भरा हुआ वह भवन युधिष्ठिरने सदा अपना प्रिय करनेवाले सहदेवको दिया। जैसे कुबेर कैलासको पाकर संतुष्ट हुए थे, उसी प्रकार उस सुन्दर महलको पाकर सहदेवको बड़ी प्रसन्नता हुई॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युयुत्सुर्विदुरश्चैव संजयश्च विशाम्पते ।
सुधर्मा चैव धौम्यश्च यथास्वान् जग्मुरालयान् ॥ १४ ॥

मूलम्

युयुत्सुर्विदुरश्चैव संजयश्च विशाम्पते ।
सुधर्मा चैव धौम्यश्च यथास्वान् जग्मुरालयान् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! युयुत्सु, विदुर, संजय, सुधर्मा और धौम्य मुनि भी अपने-अपने पहलेके ही घरोंमें गये॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सह सात्यकिना शौरिरर्जुनस्य निवेशनम्।
विवेश पुरुषव्याघ्रो व्याघ्रो गिरिगुहामिव ॥ १५ ॥

मूलम्

सह सात्यकिना शौरिरर्जुनस्य निवेशनम्।
विवेश पुरुषव्याघ्रो व्याघ्रो गिरिगुहामिव ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे व्याघ्र पर्वतकी कन्दरामें प्रवेश करता है, उसी प्रकार सात्यकिसहित पुरुषसिंह श्रीकृष्णने अर्जुनके महलमें पदार्पण किया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र भक्ष्यान्नपानैस्ते मुदिताः सुसुखोषितः।
सुखप्रबुद्धा राजानमुपतस्थुर्युधिष्ठिरम् ॥ १६ ॥

मूलम्

तत्र भक्ष्यान्नपानैस्ते मुदिताः सुसुखोषितः।
सुखप्रबुद्धा राजानमुपतस्थुर्युधिष्ठिरम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ अपने-अपने स्थानोंपर खान-पानसे संतुष्ट हो वे सब लोग रातभर बड़े सुखसे सोये और सबेरे उठकर राजा युधिष्ठिरकी सेवामें उपस्थित हो गये॥१६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि गृहविभागे चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें गृहोंका विभाजनविषयक चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४४॥