भागसूचना
त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरद्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिषिक्तो महाप्राज्ञो राज्यं प्राप्य युधिष्ठिरः।
दाशार्हं पुण्डरीकाक्षमुवाच प्राञ्जलिः शुचिः ॥ १ ॥
मूलम्
अभिषिक्तो महाप्राज्ञो राज्यं प्राप्य युधिष्ठिरः।
दाशार्हं पुण्डरीकाक्षमुवाच प्राञ्जलिः शुचिः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! राज्याभिषेकके पश्चात् राज्य पाकर परम बुद्धिमान् युधिष्ठिरने पवित्रभावसे हाथ जोड़कर कमलनयन दशार्हवंशी श्रीकृष्णसे कहा—॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तव कृष्ण प्रसादेन नयेन च बलेन च।
बुद्ध्या च यदुशार्दूल तथा विक्रमणेन च ॥ २ ॥
पुनः प्राप्तमिदं राज्यं पितृपैतामहं मया।
नमस्ते पुण्डरीकाक्ष पुनः पुनररिंदम ॥ ३ ॥
मूलम्
तव कृष्ण प्रसादेन नयेन च बलेन च।
बुद्ध्या च यदुशार्दूल तथा विक्रमणेन च ॥ २ ॥
पुनः प्राप्तमिदं राज्यं पितृपैतामहं मया।
नमस्ते पुण्डरीकाक्ष पुनः पुनररिंदम ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदुसिंह श्रीकृष्ण! आपकी ही कृपा, नीति, बल, बुद्धि और पराक्रमसे मुझे पुनः अपने बाप-दादोंका यह राज्य प्राप्त हुआ है। शत्रुओंका दमन करनेवाले कमलनयन! आपको बारंबार नमस्कार है॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वामेकमाहुः पुरुषं त्वामाहुः सात्वतां पतिम्।
नामभिस्त्वां बहुविधैः स्तुवन्ति प्रयता द्विजाः ॥ ४ ॥
मूलम्
त्वामेकमाहुः पुरुषं त्वामाहुः सात्वतां पतिम्।
नामभिस्त्वां बहुविधैः स्तुवन्ति प्रयता द्विजाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अपने मन और इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाले द्विज एकमात्र आपको ही अन्तर्यामी पुरुष एवं उपासना करनेवाले भक्तोंका प्रतिपालक बताते हैं। साथ ही वे नाना प्रकारके नामोंद्वारा आपकी स्तुति करते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वकर्मन् नमस्तेऽस्तु विश्वात्मन् विश्वसम्भव।
विष्णो जिष्णो हरे कृष्ण वैकुण्ठ पुरुषोत्तम ॥ ५ ॥
मूलम्
विश्वकर्मन् नमस्तेऽस्तु विश्वात्मन् विश्वसम्भव।
विष्णो जिष्णो हरे कृष्ण वैकुण्ठ पुरुषोत्तम ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह सम्पूर्ण विश्व आपकी लीलामयी सृष्टि है। आप इस विश्वके आत्मा हैं। आपहीसे इस जगत्की उत्पत्ति हुई है। आप ही व्यापक होनेके कारण ‘विष्णु’, विजयी होनेसे ‘जिष्णु’, दुःख और पाप हर लेनेसे ‘हरि’, अपनी ओर आकृष्ट करनेके कारण ‘कृष्ण’, विकुण्ठ धामके अधिपति होनेसे ‘वैकुण्ठ’ तथा क्षर-अक्षर पुरुषसे उत्तम होनेके कारण ‘पुरुषोतम’ कहलाते हैं। आपको नमस्कार है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदित्याः सप्तधा त्वं तु पुराणो गर्भतां गतः।
पृश्निगर्भस्त्वमेवैकस्त्रियुगं त्वां वदन्त्यपि ॥ ६ ॥
मूलम्
अदित्याः सप्तधा त्वं तु पुराणो गर्भतां गतः।
पृश्निगर्भस्त्वमेवैकस्त्रियुगं त्वां वदन्त्यपि ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप पुराणपुरुष परमात्माने ही सात प्रकारसे अदितिके गर्भमें अवतार लिया है। आप ही पृश्निगर्भके नामसे प्रसिद्ध हैं। विद्वान्लोग तीनों युगोंमें प्रकट होनेके कारण आपको ‘त्रियुग’ कहते हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुचिश्रवा हृषीकेशो घृतार्चिर्हंस उच्यते।
त्रिचक्षुः शम्भुरेकस्त्वं विभुर्दामोदरोऽपि च ॥ ७ ॥
मूलम्
शुचिश्रवा हृषीकेशो घृतार्चिर्हंस उच्यते।
त्रिचक्षुः शम्भुरेकस्त्वं विभुर्दामोदरोऽपि च ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपकी कीर्ति परम पवित्र है। आप सम्पूर्ण इन्द्रियोंके प्रेरक हैं। घृत ही जिसकी ज्वाला है—वह यज्ञपुरुष आप ही हैं। आप ही हंस (विशुद्ध परमात्मा) कहे जाते हैं। त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकर और आप एक ही हैं। आप सर्वव्यापी होनेके साथ ही दामोदर (यशोदा मैयाके द्वारा बँध जानेवाले नटवरनागर) भी हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वराहोऽग्निर्बृहद्भानुर्वृषभस्तार्क्ष्यलक्षणः ।
अनीकसाहः पुरुषः शिपिविष्ट उरुक्रमः ॥ ८ ॥
मूलम्
वराहोऽग्निर्बृहद्भानुर्वृषभस्तार्क्ष्यलक्षणः ।
अनीकसाहः पुरुषः शिपिविष्ट उरुक्रमः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वराह, अग्नि, बृहद्भानु (सूर्य), वृषभ (धर्म), गरुडध्वज, अनीकसाह (शत्रुसेनाका वेग सह सकनेवाले), पुरुष (अन्तर्यामी), शिपिविष्ट (सबके शरीरमें आत्मारूपसे प्रविष्ट) और उरुक्रम (वामन)—ये सभी आपके ही नाम और रूप हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरिष्ठ उग्रसेनानीः सत्यो वाजसनिर्गुहः।
अच्युतश्च्यावनोऽरीणां संस्कृतो विकृतिर्वृषः ॥ ९ ॥
मूलम्
वरिष्ठ उग्रसेनानीः सत्यो वाजसनिर्गुहः।
अच्युतश्च्यावनोऽरीणां संस्कृतो विकृतिर्वृषः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सबसे श्रेष्ठ, भयंकर सेनापति, सत्यस्वरूप, अन्नदाता तथा स्वामी कार्तिकेय भी आप ही हैं। आप स्वयं कभी युद्धसे विचलित न होकर शत्रुओंको पीछे हटा देते हैं। संस्कार-सम्पन्न द्विज और संस्कारशून्य वर्णसंकर भी आपके ही स्वरूप हैं। आप कामनाओंकी वर्षा करनेवाले वृष (धर्म) हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णधर्मस्त्वमेवादिर्वृषदर्भो वृषाकपिः ।
सिन्धुर्विधर्मस्त्रिककुप् त्रिधामा त्रिदिवाच्युतः ॥ १० ॥
मूलम्
कृष्णधर्मस्त्वमेवादिर्वृषदर्भो वृषाकपिः ।
सिन्धुर्विधर्मस्त्रिककुप् त्रिधामा त्रिदिवाच्युतः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कृष्णधर्म (यज्ञस्वरूप) और सबके आदिकारण आप ही हैं। वृषदर्भ (इन्द्रके दर्पका दलन करनेवाले) और वृषाकपि (हरिहर) भी आप ही हैं। आप ही सिन्धु (समुद्र), विधर्म (निर्गुण परमात्मा), त्रिककुप् (ऊपर-नीचे और मध्य—ये तीन दिशाएँ), त्रिधामा (सूर्य, चन्द्र और अग्नि ये त्रिविध तेज) तथा वैकुण्ठधामसे नीचे अवतीर्ण होनेवाले भी हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्राड् विराट् स्वराट् चैव सुरराजो भवोद्भवः।
विभुर्भूरतिभूः कृष्णः कृष्णवर्त्मा त्वमेव च ॥ ११ ॥
मूलम्
सम्राड् विराट् स्वराट् चैव सुरराजो भवोद्भवः।
विभुर्भूरतिभूः कृष्णः कृष्णवर्त्मा त्वमेव च ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप सम्राट्, विराट्, स्वराट् और देवराज इन्द्र हैं। यह संसार आपहीसे प्रकट हुआ है। आप सर्वत्र व्यापक, नित्य सत्तारूप और निराकार परमात्मा हैं। आप ही कृष्ण (सबको अपनी ओर खींचनेवाले) और कृष्णवर्त्मा (अग्नि) हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्विष्टकृद् भिषजावर्तः कपिलस्त्वं च वामनः।
यज्ञो ध्रुवः पतङ्गश्च यज्ञसेनस्त्वमुच्यसे ॥ १२ ॥
मूलम्
स्विष्टकृद् भिषजावर्तः कपिलस्त्वं च वामनः।
यज्ञो ध्रुवः पतङ्गश्च यज्ञसेनस्त्वमुच्यसे ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपहीको लोग अभीष्टसाधक, अश्विनीकुमारोंके पिता सूर्य, कपिल मुनि, वामन, यज्ञ, ध्रुव, गरुड़ तथा यज्ञसेन कहते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिखण्डी नहुषो बभ्रुर्दिवःस्पृक् त्वं पुनर्वसुः।
सुबभ्रू रुक्मयज्ञश्च सुषेणो दुन्दुभिस्तथा ॥ १३ ॥
मूलम्
शिखण्डी नहुषो बभ्रुर्दिवःस्पृक् त्वं पुनर्वसुः।
सुबभ्रू रुक्मयज्ञश्च सुषेणो दुन्दुभिस्तथा ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप अपने मस्तकपर मोरका पंख धारण करते हैं। आप ही पूर्वकालमें राजा नहुष होकर प्रकट हुए थे। आप सम्पूर्ण आकाशको व्याप्त करनेवाले महेश्वर तथा एक ही पैरमें आकाशको नाप लेनेवाले विराट् हैं। आप ही पुनर्वसु नक्षत्रके रूपमें प्रकाशित हो रहे हैं। सुबभ्रु (अत्यन्त पिङ्गल वर्ण), रुक्मयज्ञ (सुवर्णकी दक्षिणासे भरपूर यज्ञ), सुषेण (सुन्दर सेनासे सम्पन्न) तथा दुन्दुभिस्वरूप हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गभस्तिनेमिः श्रीपद्मः पुष्करः पुष्पधारणः।
ऋभुर्विभुः सर्वसूक्ष्मश्चारित्रं चैव पठ्यसे ॥ १४ ॥
मूलम्
गभस्तिनेमिः श्रीपद्मः पुष्करः पुष्पधारणः।
ऋभुर्विभुः सर्वसूक्ष्मश्चारित्रं चैव पठ्यसे ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप ही गभस्तिनेमि (कालचक्र), श्रीपद्म, पुष्कर, पुष्पधारी, ऋभु, विभु, सर्वथा सूक्ष्म और सदाचार स्वरूप कहलाते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्भोनिधिस्त्वं ब्रह्मा त्वं पवित्रं धाम धामवित्।
हिरण्यगर्भं त्वामाहुः स्वधा स्वाहा च केशव ॥ १५ ॥
मूलम्
अम्भोनिधिस्त्वं ब्रह्मा त्वं पवित्रं धाम धामवित्।
हिरण्यगर्भं त्वामाहुः स्वधा स्वाहा च केशव ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप ही जलनिधि समुद्र, आप ही ब्रह्मा तथा आप ही पवित्र धाम एवं धामके ज्ञाता हैं। केशव! विद्वान् पुरुष आपको ही हिरण्यगर्भ, स्वधा और स्वाहा आदि नामोंसे पुकारते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योनिस्त्वमस्य प्रलयश्च कृष्ण
त्वमेवेदं सृजसे विश्वमग्रे ।
विश्वं चेदं त्वद्वशे विश्वयोने
नमोऽस्तु ते शार्ङ्गचक्रासिपाणे ॥ १६ ॥
मूलम्
योनिस्त्वमस्य प्रलयश्च कृष्ण
त्वमेवेदं सृजसे विश्वमग्रे ।
विश्वं चेदं त्वद्वशे विश्वयोने
नमोऽस्तु ते शार्ङ्गचक्रासिपाणे ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीकृष्ण! आप ही इस जगत्के आदि कारण हैं और आप ही इसके प्रलयस्थान। कल्पके आरम्भमें आप ही इस विश्वकी सृष्टि करते हैं। विश्वके कारण! यह सम्पूर्ण विश्व आपके ही अधीन है। हाथोंमें धनुष, चक्र और खड्ग धारण करनेवाले परमात्मन्! आपको नमस्कार है’॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स्तुतो धर्मराजेन कृष्णः
सभामध्ये प्रीतिमान् पुष्कराक्षः ।
तमभ्यनन्दद् भारतं पुष्कलाभि-
र्वाग्भिर्ज्येष्ठं पाण्डवं यादवाग्र्यः ॥ १७ ॥
मूलम्
एवं स्तुतो धर्मराजेन कृष्णः
सभामध्ये प्रीतिमान् पुष्कराक्षः ।
तमभ्यनन्दद् भारतं पुष्कलाभि-
र्वाग्भिर्ज्येष्ठं पाण्डवं यादवाग्र्यः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जब धर्मराज युधिष्ठिरने सभामें यदुकुल-शिरोमणि कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति की, तब उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर भरतभूषण ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिरका उत्तम वचनोंद्वारा अभिनन्दन किया॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(एतन्नामशतं विष्णोर्धर्मराजेन कीर्तितम् ।
यः पठेच्छृणुयाद् वापि सर्वपापैः प्रमुच्यते॥)
मूलम्
(एतन्नामशतं विष्णोर्धर्मराजेन कीर्तितम् ।
यः पठेच्छृणुयाद् वापि सर्वपापैः प्रमुच्यते॥)
अनुवाद (हिन्दी)
जो धर्मराज युधिष्ठिरद्वारा वर्णित भगवान् श्रीकृष्णके इन सौ नामोंका पाठ या श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि वासुदेवस्तुतौ त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुतिविषयक तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४३॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल १८ श्लोक हैं)