भागसूचना
एकचत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजा युधिष्ठिरका धृतराष्ट्रके अधीन रहकर राज्यकी व्यवस्थाके लिये भाइयों तथा अन्य लोगोंको विभिन्न कार्योंपर नियुक्त करना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकृतीनां च तद् वाक्यं देशकालोपबृंहितम्।
श्रुत्वा युधिष्ठिरो राजा चोत्तरं प्रत्यभाषत ॥ १ ॥
मूलम्
प्रकृतीनां च तद् वाक्यं देशकालोपबृंहितम्।
श्रुत्वा युधिष्ठिरो राजा चोत्तरं प्रत्यभाषत ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! मन्त्री, प्रजा आदिके उस देशकालोचित वचनको सुनकर राजा युधिष्ठिरने उसका उत्तर देते हुए कहा—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन्याः पाण्डुसुता नूनं येषां ब्राह्मणपुङ्गवाः।
तथ्यान् वाप्यथवातथ्यान् गुणानाहुः समागताः ॥ २ ॥
मूलम्
धन्याः पाण्डुसुता नूनं येषां ब्राह्मणपुङ्गवाः।
तथ्यान् वाप्यथवातथ्यान् गुणानाहुः समागताः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निश्चय ही हम सभी पाण्डव धन्य हैं, जिनके गुणोंका बखान यहाँ पधारे हुए सभी ब्राह्मण कर रहे हैं। हममें वास्तवमें वे गुण हों या न हों, आपलोग हमें गुणवान् बता रहें हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुग्राह्या वयं नूनं भवतामिति मे मतिः।
यदेवं गुणसम्पन्नानस्मान् ब्रूथ विमत्सराः ॥ ३ ॥
मूलम्
अनुग्राह्या वयं नूनं भवतामिति मे मतिः।
यदेवं गुणसम्पन्नानस्मान् ब्रूथ विमत्सराः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हमारा विश्वास है कि आपलोग निश्चय ही हमें अपने अनुग्रहका पात्र समझते हैं, तभी तो ईर्ष्या और द्वेष छोड़कर हमें इस प्रकार गुणसम्पन्न बता रहे हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृतराष्ट्रो महाराजः पिता मे दैवतं परम्।
शासनेऽस्य प्रिये चैव स्थेयं मत्प्रियकांक्षिभिः ॥ ४ ॥
मूलम्
धृतराष्ट्रो महाराजः पिता मे दैवतं परम्।
शासनेऽस्य प्रिये चैव स्थेयं मत्प्रियकांक्षिभिः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज धृतराष्ट्र मेरे पिता (ताऊ) और श्रेष्ठ देवता हैं। जो लोग मेरा प्रिय करना चाहते हों उन्हें सदा उनकी आज्ञाके पालन तथा हित-साधनमें लगे रहना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदर्थं हि जीवामि कृत्वा ज्ञातिवधं महत्।
अस्य शुश्रूषणं कार्यं मया नित्यमतन्द्रिणा ॥ ५ ॥
मूलम्
एतदर्थं हि जीवामि कृत्वा ज्ञातिवधं महत्।
अस्य शुश्रूषणं कार्यं मया नित्यमतन्द्रिणा ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अपने भाई-बन्धुओंका इतना बड़ा संहार करके मैं इन्हीं महाराजके लिये जी रहा हूँ। मुझे नित्य-निरन्तर आलस्य छोड़कर इनकी सेवा-शुश्रूषामें संलग्न रहना है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि चाहमनुग्राह्यो भवतां सुहृदां तथा।
धृतराष्ट्रे यथापूर्वं वृत्तिं वर्तितुमर्हथ ॥ ६ ॥
मूलम्
यदि चाहमनुग्राह्यो भवतां सुहृदां तथा।
धृतराष्ट्रे यथापूर्वं वृत्तिं वर्तितुमर्हथ ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि आप सब सुहृदोंका मुझपर अनुग्रह हो तो आपलोग महाराज धृतराष्ट्रके प्रति वैसा ही भाव और बर्ताव बनाये रखें, जैसा पहले रखते थे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष नाथो हि जगतो भवतां च मया सह।
अस्यैव पृथिवी कृत्स्ना पाण्डवाः सर्व एव च ॥ ७ ॥
एतन्मनसि कर्तव्यं भवद्भिर्वचनं मम।
मूलम्
एष नाथो हि जगतो भवतां च मया सह।
अस्यैव पृथिवी कृत्स्ना पाण्डवाः सर्व एव च ॥ ७ ॥
एतन्मनसि कर्तव्यं भवद्भिर्वचनं मम।
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये ही सम्पूर्ण जगत्के, आपलोगोंके और मेरे भी स्वामी हैं। यह सारी पृथ्वी और ये समस्त पाण्डव इन्हींके अधिकारमें हैं। आप सब लोग मेरी इस प्रार्थनाको अपने हृदयमें स्थान दें’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुज्ञाप्याथ तान् राजा यथेष्टं गम्यतामिति ॥ ८ ॥
पौरजानपदान् सर्वान् विसृज्य कुरुनन्दनः।
यौवराज्येन कौन्तेयं भीमसेनमयोजयत् ॥ ९ ॥
मूलम्
अनुज्ञाप्याथ तान् राजा यथेष्टं गम्यतामिति ॥ ८ ॥
पौरजानपदान् सर्वान् विसृज्य कुरुनन्दनः।
यौवराज्येन कौन्तेयं भीमसेनमयोजयत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद राजा युधिष्ठिरने नगर और जनपदके निवासियोंको यह आज्ञा दी कि आपलोग इच्छानुसार अपने-अपने स्थानको पधारें। इस प्रकार उन सबको विदा करके कुरुनन्दन युधिष्ठिरने कुन्तीकुमार भीमसेनको युवराजके पदपर प्रतिष्ठित किया॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्त्रे च निश्चये चैव षाड्गुण्यस्य च चिन्तने।
विदुरं बुद्धिसम्पन्नं प्रीतिमान् स समादिशत् ॥ १० ॥
मूलम्
मन्त्रे च निश्चये चैव षाड्गुण्यस्य च चिन्तने।
विदुरं बुद्धिसम्पन्नं प्रीतिमान् स समादिशत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उन्होंने बड़ी प्रसन्नताके साथ बुद्धिमान् विदुरजीको मन्त्रणा[^१], कर्तव्यनिश्चय तथा छहों[^२] गुणोंके चिन्तनके कार्यमें नियुक्त किया॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृताकृतपरिज्ञाने तथाऽऽयव्ययचिन्तने ।
संजयं योजयामास वृद्धं सर्वगुणैर्युतम् ॥ ११ ॥
मूलम्
कृताकृतपरिज्ञाने तथाऽऽयव्ययचिन्तने ।
संजयं योजयामास वृद्धं सर्वगुणैर्युतम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौन-सा कार्य हुआ और कौन-सा नहीं हुआ, इसकी जाँच करने तथा आय और व्ययपर विचार करनेके कार्यमें उन्होंने सर्वगुणसम्पन्न वयोवृद्ध संजयको लगाया॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलस्य परिमाणे च भक्तवेतनयोस्तथा।
नकुलं व्यादिशद् राजा कर्मणां चान्ववेक्षणे ॥ १२ ॥
मूलम्
बलस्य परिमाणे च भक्तवेतनयोस्तथा।
नकुलं व्यादिशद् राजा कर्मणां चान्ववेक्षणे ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सेनाकी गणना करना, उसे भोजन और वेतन देना तथा उसके कामकी देखभाल करना—इन सब कार्योंका भार राजा युधिष्ठिरने नकुलको सौंप दिया॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परचक्रोपरोधे च दुष्टानां चावमर्दने।
युधिष्ठिरो महाराज फाल्गुनं व्यादिदेश ह ॥ १३ ॥
मूलम्
परचक्रोपरोधे च दुष्टानां चावमर्दने।
युधिष्ठिरो महाराज फाल्गुनं व्यादिदेश ह ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! शत्रुओंके देशपर चढ़ाई करने और दुष्टोंका दमन करनेके कार्यमें युधिष्ठिरने अर्जुनको नियुक्त किया॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्विजानां देवकार्येषु कायेष्वन्येषु चैव ह।
धौम्यं पुरोधसां श्रेष्ठं नित्यमेव समादिशत् ॥ १४ ॥
मूलम्
द्विजानां देवकार्येषु कायेष्वन्येषु चैव ह।
धौम्यं पुरोधसां श्रेष्ठं नित्यमेव समादिशत् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणों और देवताओंसे सम्बन्ध रखनेवाले कार्योंपर तथा अन्यान्य ब्राह्मणोचित कर्तव्योंपर सदाके लिये पुरोहितोंमें श्रेष्ठ धौम्यजीकी नियुक्ति की गयी॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहदेवं समीपस्थं नित्यमेव समादिशत्।
तेन गोप्यो हि नृपतिः सर्वावस्थो विशाम्पते ॥ १५ ॥
मूलम्
सहदेवं समीपस्थं नित्यमेव समादिशत्।
तेन गोप्यो हि नृपतिः सर्वावस्थो विशाम्पते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! सहदेवको राजा युधिष्ठिरने सदा ही अपने पास रहनेका आदेश दिया। उन्हें सभी अवस्थाओंमें राजाकी रक्षाका काम सौंपा गया था॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यान् यानमन्यद् योग्यांश्च येषु येष्विह कर्मसु।
तांस्तांस्तेष्वेव युयुजे प्रीयमाणो महीपतिः ॥ १६ ॥
मूलम्
यान् यानमन्यद् योग्यांश्च येषु येष्विह कर्मसु।
तांस्तांस्तेष्वेव युयुजे प्रीयमाणो महीपतिः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रसन्न हुए महाराज युधिष्ठिरने जिन-जिन लोगोंको जिन-जिन कार्योंके योग्य समझा उन-उनको उन्हीं-उन्हीं कार्योंपर नियुक्त किया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदुरं संजयं चैव युयुत्सुं च महामतिम्।
अब्रवीत् परवीरघ्नो धर्मात्मा धर्मवत्सलः ॥ १७ ॥
उत्थायोत्थाय तत् कार्यमस्य राज्ञः पितुर्मम।
सर्वं भवद्भिः कर्तव्यमप्रमत्तैर्यथायथम् ॥ १८ ॥
मूलम्
विदुरं संजयं चैव युयुत्सुं च महामतिम्।
अब्रवीत् परवीरघ्नो धर्मात्मा धर्मवत्सलः ॥ १७ ॥
उत्थायोत्थाय तत् कार्यमस्य राज्ञः पितुर्मम।
सर्वं भवद्भिः कर्तव्यमप्रमत्तैर्यथायथम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले धर्मवत्सल धर्मात्मा युधिष्ठिरने विदुर, संजय तथा परम बुद्धिमान् युयुत्सुसे कहा—‘आपलोगोंको सदा सावधान रहकर प्रतिदिन उठ-उठकर मेरे ताऊ महाराज धृतराष्ट्रकी सेवाका सारा आवश्यक कार्य यथोचितरूपसे सम्पन्न करना चाहिये॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पौरजानपदानां च यानि कार्याणि सर्वशः।
राजानं समनुज्ञाप्य तानि कर्माणि भागशः ॥ १९ ॥
मूलम्
पौरजानपदानां च यानि कार्याणि सर्वशः।
राजानं समनुज्ञाप्य तानि कर्माणि भागशः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुरवासियों और जनपदनिवासियोंके भी जो-जो कार्य हों, उन्हें इन्हीं महाराजकी आज्ञा लेकर पृथक्-पृथक् पूर्ण करना चाहिये’॥१९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि भीमादिकर्मनियोगे एकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें भीमसेन आदिकी भिन्न-भिन्न कार्योंमें नियुक्तिविषयक इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४१॥