०४० युधिष्ठिराभिषेके

भागसूचना

चत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरका राज्याभिषेक

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कुन्तीसुतो राजा गतमन्युर्गतज्वरः।
काञ्चने प्राङ्‌मुखो हृष्टो न्यषीदत् परमासने ॥ १ ॥

मूलम्

ततः कुन्तीसुतो राजा गतमन्युर्गतज्वरः।
काञ्चने प्राङ्‌मुखो हृष्टो न्यषीदत् परमासने ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर खेद और चिन्तासे रहित हो पूर्वकी ओर मुँह करके प्रसन्नतापूर्वक सुवर्णके सुन्दर सिंहासनपर विराजमान हुए॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमेवाभिमुखो पीठे प्रदीप्ते काञ्चने शुभे।
सात्यकिर्वासुदेवश्च निषीदतुररिंदमौ ॥ २ ॥

मूलम्

तमेवाभिमुखो पीठे प्रदीप्ते काञ्चने शुभे।
सात्यकिर्वासुदेवश्च निषीदतुररिंदमौ ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् शत्रुओंका दमन करनेवाले सात्यकि और भगवान् श्रीकृष्ण सोनेके जगमगाते हुए सुन्दर आसनपर उन्हींकी ओर मुँह करके बैठे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मध्ये कृत्वा तु राजानं भीमसेनार्जुनावुभौ।
निषीदतुर्महात्मानौ श्लक्ष्णयोर्मणिपीठयोः ॥ ३ ॥

मूलम्

मध्ये कृत्वा तु राजानं भीमसेनार्जुनावुभौ।
निषीदतुर्महात्मानौ श्लक्ष्णयोर्मणिपीठयोः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा युधिष्ठिरको बीचमें करके महामनस्वी भीमसेन और अर्जुन दो मणिमय मनोहर पीठोंपर विराजमान हुए॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दान्ते सिंहासने शुभ्रे जाम्बूनदविभूषिते।
पृथापि सहदेवेन सहास्ते नकुलेन च ॥ ४ ॥

मूलम्

दान्ते सिंहासने शुभ्रे जाम्बूनदविभूषिते।
पृथापि सहदेवेन सहास्ते नकुलेन च ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक ओर हाथी दाँतके बने हुए स्वर्णविभूषित शुभ्र सिंहासनपर नकुल और सहदेवके साथ माता कुन्ती भी बैठ गयीं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुधर्मा विदुरो धौम्यो धृतराष्ट्रश्च कौरवः।
निषेदुर्ज्वलनाकारेष्वासनेषु पृथक् पृथक् ॥ ५ ॥

मूलम्

सुधर्मा विदुरो धौम्यो धृतराष्ट्रश्च कौरवः।
निषेदुर्ज्वलनाकारेष्वासनेषु पृथक् पृथक् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार सुधर्मा, विदुर, धौम्य और कुरुराज धृतराष्ट्र अग्निके समान तेजस्वी पृथक्-पृथक् सिंहासनोंपर विराजमान हुए॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युयुत्सुः संजयश्चैव गान्धारी च यशस्विनी।
धृतराष्ट्रो यतो राजा ततः सर्वे समाविशन् ॥ ६ ॥

मूलम्

युयुत्सुः संजयश्चैव गान्धारी च यशस्विनी।
धृतराष्ट्रो यतो राजा ततः सर्वे समाविशन् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युयुत्सु, संजय और यशस्विनी गान्धारी—ये सब लोग उधर ही बैठे जिस ओर राजा धृतराष्ट्र थे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रोपविष्टो धर्मात्मा श्वेताः सुमनसोऽस्पृशत्।
स्वस्तिकानक्षतान् भूमिं सुवर्णं रजतं मणिम् ॥ ७ ॥

मूलम्

तत्रोपविष्टो धर्मात्मा श्वेताः सुमनसोऽस्पृशत्।
स्वस्तिकानक्षतान् भूमिं सुवर्णं रजतं मणिम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मात्मा राजा युधिष्ठिरने सिंहासनपर बैठकर श्वेत पुष्प, स्वस्तिक, अक्षत, भूमि, सुवर्ण, रजत एवं मणिका स्पर्श किया॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रकृतयः सर्वाः पुरस्कृत्य पुरोहितम्।
ददृशुर्धर्मराजानमादाय बहुमङ्गलम् ॥ ८ ॥

मूलम्

ततः प्रकृतयः सर्वाः पुरस्कृत्य पुरोहितम्।
ददृशुर्धर्मराजानमादाय बहुमङ्गलम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद मन्त्री, सेनापति आदि सभी प्रकृतियोंने पुरोहितको आगे करके बहुत-सी माङ्गलिक सामग्री साथ लिये धर्मराज युधिष्ठिरका दर्शन किया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथिवीं च सुवर्णं च रत्नानि विविधानि च।
आभिषेचनिकं भाण्डं सर्वसम्भारसम्भृतम् ॥ ९ ॥
काञ्चनोदुम्बरास्तत्र राजताः पृथिवीमयाः ।
पूर्णकुम्भाः सुमनसो लाजा बर्हींषि गोरसम् ॥ १० ॥
शमीपिप्पलपालाशसमिधो मधुसर्पिषी ।
स्रुव औदुम्बरः शंखस्तथा हेमविभूषितः ॥ ११ ॥

मूलम्

पृथिवीं च सुवर्णं च रत्नानि विविधानि च।
आभिषेचनिकं भाण्डं सर्वसम्भारसम्भृतम् ॥ ९ ॥
काञ्चनोदुम्बरास्तत्र राजताः पृथिवीमयाः ।
पूर्णकुम्भाः सुमनसो लाजा बर्हींषि गोरसम् ॥ १० ॥
शमीपिप्पलपालाशसमिधो मधुसर्पिषी ।
स्रुव औदुम्बरः शंखस्तथा हेमविभूषितः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मिट्‌टी, सुवर्ण, तरह-तरहके रत्न, राज्याभिषेककी सामग्री, सब प्रकारके आवश्यक सामान, सोने, चाँदी, ताँबे और मिट्‌टीके बने हुए जलपूर्ण कलश, फूल, लाजा (खील), कुशा, गोरस, शमी, पीपल और पलाशकी समिधाएँ, मधु, घृत, गूलरकी लकड़ीका स्रुवा तथा स्वर्णजटित शंख—ये सब वस्तुएँ वे संग्रह करके लाये थे॥९—११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दाशार्हेणाभ्यनुज्ञातस्तत्र धौम्यः पुरोहितः ।
प्रागुदक्प्रवणां वेदीं लक्षणेनोपलिख्य च ॥ १२ ॥
व्याघ्रचर्मोत्तरे शुक्ले सर्वतोभद्र आसने।
दृढपादप्रतिष्ठाने हुताशनसमत्विषि ॥ १३ ॥
उपवेश्य महात्मानं कृष्णां च द्रुपदात्मजाम्।
जुहाव पावकं धीमान् विधिमन्त्रपुरस्कृतम् ॥ १४ ॥

मूलम्

दाशार्हेणाभ्यनुज्ञातस्तत्र धौम्यः पुरोहितः ।
प्रागुदक्प्रवणां वेदीं लक्षणेनोपलिख्य च ॥ १२ ॥
व्याघ्रचर्मोत्तरे शुक्ले सर्वतोभद्र आसने।
दृढपादप्रतिष्ठाने हुताशनसमत्विषि ॥ १३ ॥
उपवेश्य महात्मानं कृष्णां च द्रुपदात्मजाम्।
जुहाव पावकं धीमान् विधिमन्त्रपुरस्कृतम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञासे पुरोहित धौम्यजीने एक वेदी बनायी जो पूर्व और उत्तर दिशाकी ओर नीची थी। उसे गोबरसे लीपकर कुशके द्वारा उसपर रेखा की। इस प्रकार वेदीका संस्कार करके सर्वतोभद्र नामक एक चौकीपर बाघम्बर एवं श्वेत वस्त्र बिछाकर उसके ऊपर महात्मा युधिष्ठिर तथा द्रुपदकुमारी कृष्णाको बिठाया। उस चौकीके पाये और बैठनेके आधार बहुत मजबूत थे। सुवर्णजटित होनेके कारण वह आसन प्रज्वलित अग्निके समान प्रकाशित हो रहा था। बुद्धिमान् पुरोहितने वेदीपर अग्निको स्थापित करके उसमें विधि और मन्त्रके साथ आहुति दी॥१२—१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत उत्थाय दाशार्हः शंखमादाय पूजितम्।
अभ्यषिञ्चत्‌ पतिं पृथ्व्याः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् ॥ १५ ॥
धृतराष्ट्रश्च राजर्षिः सर्वाः प्रकृतयस्तथा।

मूलम्

तत उत्थाय दाशार्हः शंखमादाय पूजितम्।
अभ्यषिञ्चत्‌ पतिं पृथ्व्याः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् ॥ १५ ॥
धृतराष्ट्रश्च राजर्षिः सर्वाः प्रकृतयस्तथा।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् दशार्हवंशी श्रीकृष्णने उठकर जिसकी पूजा की गयी थी, वह पाञ्चजन्य शंख हाथमें ले उसके जलसे पृथ्वीपति कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरका अभिषेक किया। फिर राजा धृतराष्ट्र तथा प्रकृतिवर्गके अन्य सब लोगोंने भी अभिषेकका कार्य सम्पन्न किया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुज्ञातोऽथ कृष्णेन भ्रातृभिः सह पाण्डवः ॥ १६ ॥
पाञ्चजन्याभिषिक्तश्च राजामृतमुखोऽभवत् ।

मूलम्

अनुज्ञातोऽथ कृष्णेन भ्रातृभिः सह पाण्डवः ॥ १६ ॥
पाञ्चजन्याभिषिक्तश्च राजामृतमुखोऽभवत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्णकी आज्ञासे पाञ्चजन्य शंखद्वारा अभिषेक हो जानेपर भाइयोंसहित राजा युधिष्ठिरका मुख इतना सुन्दर दिखायी देने लगा, मानो नेत्रोंसे अमृतकी वर्षा कर रहा हो॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽनुवादयामासुः पणवानकदुन्दुभीन् ॥ १७ ॥
धर्मराजोऽपि तत् सर्वं प्रतिजग्राह धर्मतः।

मूलम्

ततोऽनुवादयामासुः पणवानकदुन्दुभीन् ॥ १७ ॥
धर्मराजोऽपि तत् सर्वं प्रतिजग्राह धर्मतः।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वहाँ बाजा बजानेवाले लोग पणव, आनक तथा दुन्दुभिकी ध्वनि करने लगे। धर्मराज युधिष्ठिरने भी धर्मानुसार वह सारा स्वागत सत्कार स्वीकार किया॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूजयामास तांश्चापि विधिवद् भूरिदक्षिणः ॥ १८ ॥
ततो निष्कसहस्रेण ब्राह्मणान्स्वस्ति वाचयन्।
वेदाध्ययनसम्पन्नान् धृतिशीलसमन्वितान् ॥ १९ ॥

मूलम्

पूजयामास तांश्चापि विधिवद् भूरिदक्षिणः ॥ १८ ॥
ततो निष्कसहस्रेण ब्राह्मणान्स्वस्ति वाचयन्।
वेदाध्ययनसम्पन्नान् धृतिशीलसमन्वितान् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत दक्षिणा देनेवाले राजा युधिष्ठिरने वेदाध्ययनसे सम्पन्न तथा धैर्य और शीलसे संयुक्त ब्राह्मणोंद्वारा स्वस्तिवाचन कराकर उनका विधिपूर्वक पूजन किया और उन्हें एक हजार अशर्फियाँ दान कीं॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते प्रीता ब्राह्मणा राजन् स्वस्त्यूचुर्जयमेव च।
हंसा इव च नर्दन्तः प्रशशंसुर्युधिष्ठिरम् ॥ २० ॥

मूलम्

ते प्रीता ब्राह्मणा राजन् स्वस्त्यूचुर्जयमेव च।
हंसा इव च नर्दन्तः प्रशशंसुर्युधिष्ठिरम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इससे प्रसन्न होकर उन ब्राह्मणोंने उनके कल्याणका आशीर्वाद दिया और जय-जयकार की। वे सभी ब्राह्मण हंसके समान गम्भीर स्वरमें बोलते हुए राजा युधिष्ठिरकी इस प्रकार प्रशंसा करने लगे—॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिर महाबाहो दिष्ट्या जयसि पाण्डव।
दिष्ट्या स्वधर्मं प्राप्तोऽसि विक्रमेण महाद्युते ॥ २१ ॥

मूलम्

युधिष्ठिर महाबाहो दिष्ट्या जयसि पाण्डव।
दिष्ट्या स्वधर्मं प्राप्तोऽसि विक्रमेण महाद्युते ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डुनन्दन महाबाहु युधिष्ठिर! तुम्हारी विजय हुई—यह बड़े भाग्यकी बात है। महातेजस्वी नरेश! तुमने पराक्रमसे अपना धर्मानुकूल राज्य प्राप्त कर लिया—यह भी सौभाग्यका ही सूचक है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या गाण्डीवधन्वा च भीमसेनश्च पाण्डवः।
त्वं चापि कुशली राजन् माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ ॥ २२ ॥
मुक्ता वीरक्षयात्‌ तस्मात्‌ संग्रामाद्‌ विजितद्विषः।
क्षिप्रमुत्तरकार्याणि कुरु सर्वाणि भारत ॥ २३ ॥

मूलम्

दिष्ट्या गाण्डीवधन्वा च भीमसेनश्च पाण्डवः।
त्वं चापि कुशली राजन् माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ ॥ २२ ॥
मुक्ता वीरक्षयात्‌ तस्मात्‌ संग्रामाद्‌ विजितद्विषः।
क्षिप्रमुत्तरकार्याणि कुरु सर्वाणि भारत ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गाण्डीवधारी अर्जुन, पाण्डुपुत्र भीमसेन, तुम और माद्रीपुत्र पाण्डुकुमार नकुल-सहदेव—ये सभी शत्रुओंपर विजय पाकर इस वीरविनाशक संग्रामसे कुशलपूर्वक बच गये, इसे भी महान् सौभाग्यकी ही बात समझनी चाहिये। भारत! अब आगे जो कार्य करने हैं, उन सबको शीघ्र पूर्ण कीजिये’॥२२-२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रत्यर्चितः सद्भिर्धर्मराजो युधिष्ठिरः।
प्रतिपेदे महद् राज्यं सुहृद्भिः सह भारत ॥ २४ ॥

मूलम्

ततः प्रत्यर्चितः सद्भिर्धर्मराजो युधिष्ठिरः।
प्रतिपेदे महद् राज्यं सुहृद्भिः सह भारत ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! तत्पश्चात् समागत सज्जनोंने धर्मराज युधिष्ठिरका पुनः सत्कार किया। फिर उन्होंने सुहृदोंके साथ अपने विशाल राज्यका भार हाथोंमें ले लिया॥२४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि युधिष्ठिराभिषेके चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें युधिष्ठिरका राज्याभिषेकविषयक चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४०॥