भागसूचना
एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
चार्वाकको प्राप्त हुए वर आदिका श्रीकृष्णद्वारा वर्णन
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तत्र तु राजानं तिष्ठन्तं भ्रातृभिः सह।
उवाच देवकीपुत्रः सर्वदर्शी जनार्दनः ॥ १ ॥
मूलम्
ततस्तत्र तु राजानं तिष्ठन्तं भ्रातृभिः सह।
उवाच देवकीपुत्रः सर्वदर्शी जनार्दनः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर सर्वदर्शी देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने वहाँ भाइयोंसहित खड़े हुए राजा युधिष्ठिरसे कहा॥१॥
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणास्तात लोकेऽस्मिन्नर्चनीयाः सदा मम।
एते भूमिचरा देवा वाग्विषाः सुप्रसादकाः ॥ २ ॥
मूलम्
ब्राह्मणास्तात लोकेऽस्मिन्नर्चनीयाः सदा मम।
एते भूमिचरा देवा वाग्विषाः सुप्रसादकाः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण बोले— तात! इस संसारमें ब्राह्मण मेरे लिये सदा ही पूजनीय हैं। ये पृथ्वीपर विचरनेवाले देवता हैं। कुपित होने पर इनकी वाणीमें विषका-सा प्रभाव होता है। ये सहज ही प्रसन्न होते और दूसरोंको भी प्रसन्न करते हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा कृतयुगे राजंश्चार्वाको नाम राक्षसः।
तपस्तेपे महाबाहो बदर्यां बहुवार्षिकम् ॥ ३ ॥
मूलम्
पुरा कृतयुगे राजंश्चार्वाको नाम राक्षसः।
तपस्तेपे महाबाहो बदर्यां बहुवार्षिकम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! महाबाहो! पहले सत्ययुग की बात है, चार्वाक राक्षसने बहुत वर्षोंतक बदरिकाश्रममें तपस्या की॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरेण च्छन्द्यमानश्च ब्रह्मणा च पुनः पुनः।
अभयं सर्वभूतेभ्यो वरयामास भारत ॥ ४ ॥
मूलम्
वरेण च्छन्द्यमानश्च ब्रह्मणा च पुनः पुनः।
अभयं सर्वभूतेभ्यो वरयामास भारत ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! जब ब्रह्माजीने उससे बारंबार वर माँगनेका अनुरोध किया, तब उसने यही वर माँगा कि मुझे किसी भी प्राणीसे भय न हो॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्विजावमानादन्यत्र प्रादाद् वरमनुत्तमम् ।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददौ तस्मै जगत्पतिः ॥ ५ ॥
मूलम्
द्विजावमानादन्यत्र प्रादाद् वरमनुत्तमम् ।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददौ तस्मै जगत्पतिः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जगदीश्वर ब्रह्माजीने उसे यह परम उत्तम वर देते हुए कहा कि ‘तुम्हें ब्राह्मणका अपमान करनेके सिवा और कहीं किसीसे भय नहीं है’ इस तरह उन्होंने उसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी ओरसे अभयदान दे दिया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु लब्धवरः पापो देवानमितविक्रमः।
राक्षसस्तापयामास तीव्रकर्मा महाबलः ॥ ६ ॥
मूलम्
स तु लब्धवरः पापो देवानमितविक्रमः।
राक्षसस्तापयामास तीव्रकर्मा महाबलः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वर पाकर वह अमित पराक्रमी महाबली और दुःसह कर्म करनेवाला पापात्मा राक्षस देवताओंको संताप देने लगा॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो देवाः समेताश्च ब्रह्माणमिदमब्रुवन्।
वधाय रक्षसस्तस्य बलविप्रकृतास्तदा ॥ ७ ॥
मूलम्
ततो देवाः समेताश्च ब्रह्माणमिदमब्रुवन्।
वधाय रक्षसस्तस्य बलविप्रकृतास्तदा ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उसके बलसे तिरस्कृत हुए सब देवताओंने एकत्र हो ब्रह्माजीसे उसके वधके लिये प्रार्थना की॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानुवाच ततो देवो विहितस्तत्र वै मया।
यथास्य भविता मृत्युरचिरेणेति भारत ॥ ८ ॥
मूलम्
तानुवाच ततो देवो विहितस्तत्र वै मया।
यथास्य भविता मृत्युरचिरेणेति भारत ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! तब ब्रह्माजीने देवताओंसे कहा—‘मैंने ऐसा विधान कर दिया है जिससे शीघ्र ही उस राक्षसकी मृत्यु हो जायगी॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा दुर्योधनो नाम सखास्य भविता नृषु।
तस्य स्नेहावबद्धोऽसौ ब्राह्मणानवमंस्यते ॥ ९ ॥
मूलम्
राजा दुर्योधनो नाम सखास्य भविता नृषु।
तस्य स्नेहावबद्धोऽसौ ब्राह्मणानवमंस्यते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनुष्योंमें राजा दुर्योधन उसका मित्र होगा और उसीके स्नेहसे बँधकर वह राक्षस ब्राह्मणोंका अपमान कर बैठेगा॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रैनं रुषिता विप्रा विप्रकारप्रधर्षिताः।
धक्ष्यन्ति वाग्बलाः पापं ततो नाशं गमिष्यति ॥ १० ॥
मूलम्
तत्रैनं रुषिता विप्रा विप्रकारप्रधर्षिताः।
धक्ष्यन्ति वाग्बलाः पापं ततो नाशं गमिष्यति ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उसके विरुद्धाचरणसे तिरस्कृत हो रोषमें भरे हुए वाक्शक्तिसे सम्पन्न ब्राह्मण वहीं उस पापीको जला देंगे। इससे उसका नाश हो जायगा’॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एष निहतः शेते ब्रह्मदण्डेन राक्षसः।
चार्वाको नृपतिश्रेष्ठ मा शुचो भरतर्षभ ॥ ११ ॥
मूलम्
स एष निहतः शेते ब्रह्मदण्डेन राक्षसः।
चार्वाको नृपतिश्रेष्ठ मा शुचो भरतर्षभ ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! भरतभूषण! अब आप शोक न करें। यह वही राक्षस चार्वाक ब्रह्मदण्डसे मारा जाकर पृथ्वीपर पड़ा है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतास्ते क्षत्रधर्मेण ज्ञातयस्तव पार्थिव।
स्वर्गताश्च महात्मानो वीराः क्षत्रियपुङ्गवाः ॥ १२ ॥
मूलम्
हतास्ते क्षत्रधर्मेण ज्ञातयस्तव पार्थिव।
स्वर्गताश्च महात्मानो वीराः क्षत्रियपुङ्गवाः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! आपने क्षत्रियधर्मके अनुसार भाई-बन्धुओंका वध किया है। वे महामनस्वी क्षत्रियशिरोमणि वीर स्वर्गलोकमें चले गये हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वमातिष्ठ कार्याणि मा तेऽभूद् ग्लानिरच्युत।
शत्रून् जहि प्रजा रक्ष द्विजांश्च परिपूजय ॥ १३ ॥
मूलम्
स त्वमातिष्ठ कार्याणि मा तेऽभूद् ग्लानिरच्युत।
शत्रून् जहि प्रजा रक्ष द्विजांश्च परिपूजय ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अच्युत! अब आप अपने कर्तव्यका पालन करें। आपके मनमें ग्लानि न हो। आप शत्रुओंको मारिये, प्रजाकी रक्षा कीजिये और ब्राह्मणोंका आदर सत्कार करते रहिये॥१३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि चार्वाकवरदानादिकथने एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ३९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें चार्वाकको प्राप्त हुए वरदान आदिका वर्णनविषयक उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३९॥