०३८

भागसूचना

अष्टात्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

नगर-प्रवेशके समय पुरवासियों तथा ब्राह्मणोंद्वारा राजा युधिष्ठिरका सत्कार और उनपर आक्षेप करनेवाले चार्वाकका ब्राह्मणोंद्वारा वध

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रवेशने तु पार्थानां जनानां पुरवासिनाम्।
दिदृक्षूणां सहस्राणि समाजग्मुः सहस्रशः ॥ १ ॥

मूलम्

प्रवेशने तु पार्थानां जनानां पुरवासिनाम्।
दिदृक्षूणां सहस्राणि समाजग्मुः सहस्रशः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कुन्ती-पुत्रोंके हस्तिनापुरमें प्रवेश करते समय उन्हें देखनेके लिये दस लाख नगरनिवासी सड़कोंपर एकत्र हो गये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राजमार्गः शुशुभे समलंकृतचत्वरः।
यथा चन्द्रोदये राजन् वर्धमानो महोदधिः ॥ २ ॥

मूलम्

स राजमार्गः शुशुभे समलंकृतचत्वरः।
यथा चन्द्रोदये राजन् वर्धमानो महोदधिः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जैसे चन्द्रोदय होनेपर महासागर उमड़ने लगता है, उसी प्रकार जिसके चौराहे खूब सजाये गये थे, वह राजमार्ग मनुष्योंकी उमड़ती हुई भीड़से बड़ी शोभा पा रहा था॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहाणि राजमार्गेषु रत्नवन्ति महान्ति च।
प्राकम्पन्तेव भारेण स्त्रीणां पूर्णानि भारत ॥ ३ ॥

मूलम्

गृहाणि राजमार्गेषु रत्नवन्ति महान्ति च।
प्राकम्पन्तेव भारेण स्त्रीणां पूर्णानि भारत ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! सड़कोंके आस-पास जो रत्नविभूषित विशाल भवन थे, वे स्त्रियोंसे भरे होने के कारण उनके भारी भारसे काँपते हुए-से जान पड़ते थे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताः शनैरिव सव्रीडं प्रशशंसुर्युधिष्ठिरम्।
भीमसेनार्जुनौ चैव माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ ॥ ४ ॥

मूलम्

ताः शनैरिव सव्रीडं प्रशशंसुर्युधिष्ठिरम्।
भीमसेनार्जुनौ चैव माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे नारियाँ लजाती हुई-सी धीरे-धीरे युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा पाण्डुपुत्र माद्रीकुमार नकुल सहदेवकी प्रशंसा करने लगीं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन्या त्वमसि पाञ्चालि या त्वं पुरुषसत्तमान्।
उपतिष्ठसि कल्याणि महर्षीनिव गौतमी ॥ ५ ॥
तव कर्माण्यमोघानि व्रतचर्या च भाविनि।

मूलम्

धन्या त्वमसि पाञ्चालि या त्वं पुरुषसत्तमान्।
उपतिष्ठसि कल्याणि महर्षीनिव गौतमी ॥ ५ ॥
तव कर्माण्यमोघानि व्रतचर्या च भाविनि।

अनुवाद (हिन्दी)

वे बोलीं—‘कल्याणि! पाञ्चालराजकुमारी! तुम धन्य हो, जो इन पाँच महान् पुरुषोंकी सेवामें उसी प्रकार उपस्थित रहती हो, जैसे गौतमवंशमें उत्पन्न हुई जटिला अनेक महर्षियोंकी सेवा करती हैं। भाविनि! तुम्हारे सभी पुण्यकर्म अमोघ हैं और समस्त व्रतचर्या सफल है’॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति कृष्णां महाराज प्रशशंसुस्तदा स्त्रियः ॥ ६ ॥
प्रशंसावचनैस्तासां मिथःशब्दैश्च भारत ।
प्रीतिजैश्च तदा शब्दैः पुरमासीत् समाकुलम् ॥ ७ ॥

मूलम्

इति कृष्णां महाराज प्रशशंसुस्तदा स्त्रियः ॥ ६ ॥
प्रशंसावचनैस्तासां मिथःशब्दैश्च भारत ।
प्रीतिजैश्च तदा शब्दैः पुरमासीत् समाकुलम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! इस प्रकार उस समय सारी स्त्रियाँ द्रुपदकुमारी कृष्णाकी प्रशंसा करती थीं। भारत! एक दूसरीके प्रति कहे जानेवाले उनके प्रशंसा-वचनों और प्रीतिजनित शब्दोंसे उस समय सारा नगर व्याप्त हो रहा था॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमतीत्य यथायुक्तं राजमार्गं युधिष्ठिरः।
अलंकृतं शोभमानमुपायाद् राजवेश्म ह ॥ ८ ॥

मूलम्

तमतीत्य यथायुक्तं राजमार्गं युधिष्ठिरः।
अलंकृतं शोभमानमुपायाद् राजवेश्म ह ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस सजे सजाये शोभासम्पन्न राजमार्गको यथोचित रूपसे लाँघकर राजा युधिष्ठिर राजभवनके समीप जा पहुँचे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रकृतयः सर्वाः पौरा जानपदास्तदा।
ऊचुः कर्णसुखा वाचः समुपेत्य ततस्ततः ॥ ९ ॥

मूलम्

ततः प्रकृतयः सर्वाः पौरा जानपदास्तदा।
ऊचुः कर्णसुखा वाचः समुपेत्य ततस्ततः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर मन्त्री-सेनापति आदि प्रकृतिवर्गके सभी लोग, नगरवासी और जनपदनिवासी मनुष्य इधर-उधरसे आकर कानोंको सुख देनेवाली बातें कहने लगे—॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या जयसि राजेन्द्र शत्रून् शत्रुनिषूदन।
दिष्ट्या राज्यं पुनः प्राप्तं धर्मेण च बलेन च॥१०॥

मूलम्

दिष्ट्या जयसि राजेन्द्र शत्रून् शत्रुनिषूदन।
दिष्ट्या राज्यं पुनः प्राप्तं धर्मेण च बलेन च॥१०॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुओंका संहार करनेवाले राजेन्द्र! बड़े सौभाग्यकी बात है कि आप विजयी हो रहे हैं, आपने धर्मके प्रभाव तथा बलसे अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लिया—यह बड़े हर्षका विषय है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भव नस्त्वं महाराज राजेह शरदां शतम्।
प्रजाः पालय धर्मेण यथेन्द्रस्त्रिदिवं तथा ॥ ११ ॥

मूलम्

भव नस्त्वं महाराज राजेह शरदां शतम्।
प्रजाः पालय धर्मेण यथेन्द्रस्त्रिदिवं तथा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! आप सैकड़ों वर्षोंतक हमारे राजा बने रहें। जैसे इन्द्र स्वर्गलोकका पालन करते हैं, उसी प्रकार आप भी धर्मपूर्वक अपनी प्रजाकी रक्षा करें’॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं राजकुलद्वारि मङ्गलैरभिपूजितः ।
आशीर्वादान् द्विजैरुक्तान् प्रतिगृह्य समन्ततः ॥ १२ ॥
प्रविश्य भवनं राजा देवराजगृहोपमम्।
श्रद्धाविजयसंयुक्तं रथात् पश्चादवातरत् ॥ १३ ॥

मूलम्

एवं राजकुलद्वारि मङ्गलैरभिपूजितः ।
आशीर्वादान् द्विजैरुक्तान् प्रतिगृह्य समन्ततः ॥ १२ ॥
प्रविश्य भवनं राजा देवराजगृहोपमम्।
श्रद्धाविजयसंयुक्तं रथात् पश्चादवातरत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार राजकुलके द्वारपर माङ्गलिक द्रव्योंद्वारा पूजित हो ब्राह्मणोंके दिये हुए आशीर्वाद सब ओरसे ग्रहण करके राजा युधिष्ठिर देवराज इन्द्रके महलके समान राजभवनमें प्रविष्ट हुए, जो श्रद्धा और विजयसे सम्पन्न था। वहाँ पहुँचकर वे रथसे नीचे उतरे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रविश्याभ्यन्तरं श्रीमान् दैवतान्यभिगम्य च।
पूजयामास रत्नैश्च गन्धमाल्यैश्च सर्वशः ॥ १४ ॥

मूलम्

प्रविश्याभ्यन्तरं श्रीमान् दैवतान्यभिगम्य च।
पूजयामास रत्नैश्च गन्धमाल्यैश्च सर्वशः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजमहलके भीतर प्रवेश करके श्रीमान् नरेशने कुलदेवताओंका दर्शन किया और रत्न, चन्दन तथा माला आदिसे सर्वथा उनकी पूजा की॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निश्चक्राम ततः श्रीमान् पुनरेव महायशाः।
ददर्श ब्राह्मणांश्चैव सोऽभिरूपानवस्थितान् ॥ १५ ॥

मूलम्

निश्चक्राम ततः श्रीमान् पुनरेव महायशाः।
ददर्श ब्राह्मणांश्चैव सोऽभिरूपानवस्थितान् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद महायशस्वी श्रीमान् राजा युधिष्ठिर महलसे बाहर निकले। वहाँ उन्हें बहुत-से ब्राह्मण खड़े दिखायी दिये, जो हाथमें मङ्गलद्रव्य लिये खड़े थे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स संवृतस्तदा विप्रैराशीर्वादविवक्षुभिः ।
शुशुभे विमलश्चन्द्रस्तारागणवृतो यथा ॥ १६ ॥

मूलम्

स संवृतस्तदा विप्रैराशीर्वादविवक्षुभिः ।
शुशुभे विमलश्चन्द्रस्तारागणवृतो यथा ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे तारोंसे घिरे हुए निर्मल चन्द्रमाकी शोभा होती है, उसी प्रकार आशीर्वाद देनेकी इच्छावाले ब्राह्मणोंसे घिरे हुए राजा युधिष्ठिरकी उस समय बड़ी शोभा हो रही थी॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तांस्तु वै पूजयामास कौन्तेयो विधिवद् द्विजान्।
धौम्यं गुरुं पुरस्कृत्य ज्येष्ठं पितरमेव च ॥ १७ ॥

मूलम्

तांस्तु वै पूजयामास कौन्तेयो विधिवद् द्विजान्।
धौम्यं गुरुं पुरस्कृत्य ज्येष्ठं पितरमेव च ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीकुमार युधिष्ठिरने गुरु धौम्य तथा ताऊ धृतराष्ट्रको आगे करके उन सभी ब्राह्मणोंका विधिपूर्वक पूजन किया॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमनोमोदकै रत्नैर्हिरण्येन च भूरिणा।
गोभिर्वस्त्रैश्च राजेन्द्र विविधैश्च किमिच्छकैः ॥ १८ ॥

मूलम्

सुमनोमोदकै रत्नैर्हिरण्येन च भूरिणा।
गोभिर्वस्त्रैश्च राजेन्द्र विविधैश्च किमिच्छकैः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! इन्होंने फूल, मिठाई, रत्न, बहुत-से सुवर्ण, गौओं, वस्त्रों तथा उनकी इच्छा पूछ-पूछ कर मँगाये हुए नाना प्रकारके मनोवाञ्छित पदार्थोंद्वारा उन सबका यथोचित सत्कार किया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पुण्याहघोषोऽभूद् दिवं स्तब्ध्वेव भारत।
सुहृदां प्रीतिजननः पुण्यः श्रुतिसुखावहः ॥ १९ ॥

मूलम्

ततः पुण्याहघोषोऽभूद् दिवं स्तब्ध्वेव भारत।
सुहृदां प्रीतिजननः पुण्यः श्रुतिसुखावहः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! इसके बाद पुण्याहवाचनका गम्भीर घोष होने लगा, जो आकाशको स्तब्ध-सा किये देता था। वह पवित्र शब्द कानोंको सुख देनेवाला तथा सुहृदोंको प्रसन्नता प्रदान करनेवाला था॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हंसवद् विदुषां राजन् द्विजानां तत्र भारती।
शुश्रुवे वेदविदुषां पुष्कलार्थपदाक्षरा ॥ २० ॥

मूलम्

हंसवद् विदुषां राजन् द्विजानां तत्र भारती।
शुश्रुवे वेदविदुषां पुष्कलार्थपदाक्षरा ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समय वेदवेत्ता विद्वान् ब्राह्मणोंने हंसके समान हर्ष-गद्‌गद स्वरसे जो प्रचुर अर्थ, पद एवं अक्षरोंसे युक्त वाणी कही थी, वह वहाँ सबको स्पष्ट सुनायी दे रही थी॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुन्दुभिनिर्घोषः शंखानां च मनोरमः।
जयं प्रवदतां तत्र स्वनः प्रादुरभून्नृप ॥ २१ ॥

मूलम्

ततो दुन्दुभिनिर्घोषः शंखानां च मनोरमः।
जयं प्रवदतां तत्र स्वनः प्रादुरभून्नृप ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! तदनन्तर दुन्दुभियों और शंखोंकी मनोरम ध्वनि होने लगी, जय-जयकार करनेवालोंका गम्भीर घोष वहाँ प्रकट होने लगा॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निःशब्दे च स्थिते तत्र ततो विप्रजने पुनः।
राजानं ब्राह्मणच्छद्मा चार्वाको राक्षसोऽब्रवीत् ॥ २२ ॥

मूलम्

निःशब्दे च स्थिते तत्र ततो विप्रजने पुनः।
राजानं ब्राह्मणच्छद्मा चार्वाको राक्षसोऽब्रवीत् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब सब ब्राह्मण चुपचाप खड़े हो गये, तब ब्राह्मणका वेष बनाकर आया हुआ चार्वाक नामक राक्षस राजा युधिष्ठिरसे कुछ कहनेको उद्यत हुआ॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र दुर्योधनसखा भिक्षुरूपेण संवृतः।
साक्षः शिखी त्रिदण्डी च धृष्टो विगतसाध्वसः ॥ २३ ॥

मूलम्

तत्र दुर्योधनसखा भिक्षुरूपेण संवृतः।
साक्षः शिखी त्रिदण्डी च धृष्टो विगतसाध्वसः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह दुर्योधनका मित्र था। उसने संन्यासी ब्राह्मणके वेषमें अपने असली रूपको छिपा रखा था। उसके हाथमें अक्षमाला थी और मस्तकपर शिखा। उसने त्रिदण्ड धारण कर रखा था। वह बड़ा ढीठ और निर्भय था॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृतः सर्वैस्तथा विप्रैराशीर्वादविवक्षुभिः ।
परःसहस्रै राजेन्द्र तपोनियमसंवृतैः ॥ २४ ॥
स दुष्टः पापमाशंसुः पाण्डवानां महात्मनाम्।
अनामन्त्र्यैव तान् विप्रांस्तमुवाच महीपतिम् ॥ २५ ॥

मूलम्

वृतः सर्वैस्तथा विप्रैराशीर्वादविवक्षुभिः ।
परःसहस्रै राजेन्द्र तपोनियमसंवृतैः ॥ २४ ॥
स दुष्टः पापमाशंसुः पाण्डवानां महात्मनाम्।
अनामन्त्र्यैव तान् विप्रांस्तमुवाच महीपतिम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! तपस्या और नियममें लगे रहनेवाले और आशीर्वाद देनेके इच्छुक उन समस्त ब्राह्मणोंसे, जिनकी संख्या हजारसे भी अधिक थी, घिरा हुआ वह दुष्ट राक्षस महात्मा पाण्डवोंका विनाश चाहता था। उसने उन सब ब्राह्मणोंसे अनुमति लिये बिना ही राजा युधिष्ठिरसे कहा॥२४-२५॥

मूलम् (वचनम्)

चार्वाक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमे प्राहुर्द्विजाः सर्वे समारोप्य वचो मयि।
धिग् भवन्तं कुनृपतिं ज्ञातिघातिनमस्तु वै ॥ २६ ॥
किं तेन स्याद्धि कौन्तेय कृत्वेमं ज्ञातिसंक्षयम्।
घातयित्वा गुरूंश्चैव मृतं श्रेयो न जीवितम् ॥ २७ ॥

मूलम्

इमे प्राहुर्द्विजाः सर्वे समारोप्य वचो मयि।
धिग् भवन्तं कुनृपतिं ज्ञातिघातिनमस्तु वै ॥ २६ ॥
किं तेन स्याद्धि कौन्तेय कृत्वेमं ज्ञातिसंक्षयम्।
घातयित्वा गुरूंश्चैव मृतं श्रेयो न जीवितम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चार्वाक बोला— राजन्! ये सब ब्राह्मण मुझपर अपनी बात कहनेका भार रखकर मेरेद्वारा ही तुमसे कह रहे हैं—‘कुन्तीनन्दन! तुम अपने भाई-बन्धुओंका वध करनेवाले एक दुष्ट राजा हो। तुम्हें धिक्कार है! ऐसे पुरुषके जीवनसे क्या लाभ? इस प्रकार यह बन्धु-बान्धवोंका विनाश करके गुरुजनोंकी हत्या करवाकर तो तुम्हारा मर जाना ही अच्छा है, जीवित रहना नहीं’॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति ते वै द्विजाः श्रुत्वा तस्य दुष्टस्य रक्षसः।
विव्यथुश्चुक्रुशुश्चैव तस्य वाक्यप्रधर्षिताः ॥ २८ ॥

मूलम्

इति ते वै द्विजाः श्रुत्वा तस्य दुष्टस्य रक्षसः।
विव्यथुश्चुक्रुशुश्चैव तस्य वाक्यप्रधर्षिताः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे ब्राह्मण उस दुष्ट राक्षसकी यह बात सुनकर उसके वचनोंसे तिरस्कृत हो व्यथित हो उठे और मन-ही-मन उसके कथनकी निन्दा करने लगे॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते ब्राह्मणाः सर्वे स च राजा युधिष्ठिरः।
व्रीडिताः परमोद्विग्नास्तूष्णीमासन् विशाम्पते ॥ २९ ॥

मूलम्

ततस्ते ब्राह्मणाः सर्वे स च राजा युधिष्ठिरः।
व्रीडिताः परमोद्विग्नास्तूष्णीमासन् विशाम्पते ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! इसके बाद वे सभी ब्राह्मण तथा राजा युधिष्ठिर अत्यन्त उद्विग्न और लज्जित हो गये। प्रतिवादके रूपमें उनके मुँहसे एक शब्द भी नहीं निकला। वे सभी कुछ देरतक चुप रहे॥२९॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसीदन्तु भवन्तो मे प्रणतस्याभियाचतः।
प्रत्यासन्नव्यसनिनं न मां धिक्कर्तुमर्हथ ॥ ३० ॥

मूलम्

प्रसीदन्तु भवन्तो मे प्रणतस्याभियाचतः।
प्रत्यासन्नव्यसनिनं न मां धिक्कर्तुमर्हथ ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् राजा युधिष्ठिरने कहा— ब्राह्मणो! मैं आपके चरणोंमें प्रणाम करके विनीतभावसे यह प्रार्थना करता हूँ कि आपलोग मुझपर प्रसन्न हों। इस समय मुझपर सब ओरसे बड़ी भारी विपत्ति आ गयी है; अतः आपलोग मुझे धिक्कार न दें॥३०॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो राजन् ब्राह्मणास्ते सर्व एव विशाम्पते।
ऊचुर्नैतद् वचोऽस्माकं श्रीरस्तु तव पार्थिव ॥ ३१ ॥

मूलम्

ततो राजन् ब्राह्मणास्ते सर्व एव विशाम्पते।
ऊचुर्नैतद् वचोऽस्माकं श्रीरस्तु तव पार्थिव ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! प्रजानाथ! उनकी यह बात सुनकर सब ब्राह्मण बोल उठे—‘महाराज! यह हमारी बात नहीं कह रहा है। हम तो यह आशीर्वाद देते हैं कि ‘आपकी राजलक्ष्मी सदा बनी रहे”॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जज्ञुश्चैव महात्मानस्ततस्तं ज्ञानचक्षुषा ।
ब्राह्मणा वेदविद्वांसस्तपोभिर्विमलीकृताः ॥ ३२ ॥

मूलम्

जज्ञुश्चैव महात्मानस्ततस्तं ज्ञानचक्षुषा ।
ब्राह्मणा वेदविद्वांसस्तपोभिर्विमलीकृताः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन वेदवेत्ता ब्राह्मणोंका अन्तःकरण तपस्यासे निर्मल हो गया था। उन महात्माओंने ज्ञानदृष्टिसे उस राक्षसको पहचान लिया॥३२॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मणा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष दुर्योधनसखा चार्वाको नाम राक्षसः।
परिव्राजकरूपेण हितं तस्य चिकीर्षति ॥ ३३ ॥
वयं ब्रूमो न धर्मात्मन् व्येतु ते भयमीदृशम्।
उपतिष्ठतु कल्याणं भवन्तं भ्रातृभिः सह ॥ ३४ ॥

मूलम्

एष दुर्योधनसखा चार्वाको नाम राक्षसः।
परिव्राजकरूपेण हितं तस्य चिकीर्षति ॥ ३३ ॥
वयं ब्रूमो न धर्मात्मन् व्येतु ते भयमीदृशम्।
उपतिष्ठतु कल्याणं भवन्तं भ्रातृभिः सह ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण बोले— धर्मात्मन्! यह दुर्योधनका मित्र चार्वाक नामक राक्षस है, जो संन्यासीके रूपमें यहाँ आकर उसका हित करना चाहता है। हमलोग आपसे कुछ नहीं कहते हैं। आपका इस तरहका भय दूर हो जाना चाहिये। हम आशीर्वाद देते हैं कि ‘भाइयोंसहित आपको कल्याणकी प्राप्ति हो’॥३३-३४॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते ब्राह्मणाः सर्वे हुंकारैः क्रोधमूर्च्छिताः।
निर्भर्त्सयन्तः शुचयो निजघ्नुः पापराक्षसम् ॥ ३५ ॥

मूलम्

ततस्ते ब्राह्मणाः सर्वे हुंकारैः क्रोधमूर्च्छिताः।
निर्भर्त्सयन्तः शुचयो निजघ्नुः पापराक्षसम् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर क्रोधसे आतुर हुए उन सभी शुद्धात्मा ब्राह्मणोंने उस पापात्मा राक्षसको बहुत फटकारा और अपने हुङ्कारोंसे उसे नष्ट कर दिया॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पपात विनिर्दग्धस्तेजसा ब्रह्मवादिनाम्।
महेन्द्राशनिनिर्दग्धः पादपोऽङ्कुरवानिव ॥ ३६ ॥

मूलम्

स पपात विनिर्दग्धस्तेजसा ब्रह्मवादिनाम्।
महेन्द्राशनिनिर्दग्धः पादपोऽङ्कुरवानिव ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मवादी महात्माओंके तेजसे दग्ध होकर वह राक्षस गिर पड़ा, मानो इन्द्रके वज्रसे जलकर कोई अंकुरयुक्त वृक्ष धराशायी हो गया हो॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूजिताश्च ययुर्विप्रा राजानमभिनन्द्य तम्।
राजा च हर्षमापेदे पाण्डवः ससुहृज्जनः ॥ ३७ ॥

मूलम्

पूजिताश्च ययुर्विप्रा राजानमभिनन्द्य तम्।
राजा च हर्षमापेदे पाण्डवः ससुहृज्जनः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् राजाद्वारा पूजित हुए वे ब्राह्मण उनका अभिनन्दन करके चले गये और पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर अपने सुहृदोंसहित बड़े हर्षको प्राप्त हुए॥३७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि चार्वाकवधेऽष्टात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें चार्वाकका वधविषयक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३८॥