०३२ प्रायश्चित्तविधौ

भागसूचना

द्वात्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

व्यासजीका अनेक युक्तियोंसे राजा युधिष्ठिरको समझाना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूष्णींभूतं तु राजानं शोचमानं युधिष्ठिरम्।
तपस्वी धर्मतत्त्वज्ञः कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

तूष्णींभूतं तु राजानं शोचमानं युधिष्ठिरम्।
तपस्वी धर्मतत्त्वज्ञः कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! राजा युधिष्ठिरको चुपचाप शोकमें डूबा हुआ देख धर्मके तत्त्वको जाननेवाले तपोधन श्रीकृष्णद्वैपायनने कहा॥१॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजानां पालनं धर्मो राज्ञां राजीवलोचन।
धर्मः प्रमाणं लोकस्य नित्यं धर्मानुवर्तिनः ॥ २ ॥

मूलम्

प्रजानां पालनं धर्मो राज्ञां राजीवलोचन।
धर्मः प्रमाणं लोकस्य नित्यं धर्मानुवर्तिनः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी बोले— कमलनयन युधिष्ठिर! राजाओंका धर्म प्रजाजनोंका पालन करना ही है। धर्मका अनुसरण करनेवाले लोगोंके लिये सदा धर्म ही प्रमाण है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुतिष्ठस्व तद् राजन् पितृपैतामहं पदम्।
ब्राह्मणेषु तपो धर्मः स नित्यो वेदनिश्चितः ॥ ३ ॥

मूलम्

अनुतिष्ठस्व तद् राजन् पितृपैतामहं पदम्।
ब्राह्मणेषु तपो धर्मः स नित्यो वेदनिश्चितः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः राजन्! तुम अपने बाप-दादोंके राज्यको ग्रहण करके उसका धर्मानुसार पालन करो। तपस्या तो ब्राह्मणोंका नित्य धर्म है। यही वेदका निश्चय है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् प्रमाणं ब्राह्मणानां शाश्वतं भरतर्षभ।
तस्य धर्मस्य कृत्स्नस्य क्षत्रियः परिरक्षिता ॥ ४ ॥

मूलम्

तत् प्रमाणं ब्राह्मणानां शाश्वतं भरतर्षभ।
तस्य धर्मस्य कृत्स्नस्य क्षत्रियः परिरक्षिता ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! वह सनातन तप ब्राह्मणोंके लिये प्रमाणभूत धर्म है। क्षत्रिय तो उस सम्पूर्ण ब्राह्मण-धर्मकी रक्षा करनेवाला ही है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः स्वयं प्रतिहन्ति स्म शासनं विषये रतः।
स बाहुभ्यां विनिग्राह्यो लोकयात्राविघातकः ॥ ५ ॥

मूलम्

यः स्वयं प्रतिहन्ति स्म शासनं विषये रतः।
स बाहुभ्यां विनिग्राह्यो लोकयात्राविघातकः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य विषयासक्त होकर स्वयं शासन-धर्मका उल्लंघन करता है, वह लोकमर्यादाका नाश करनेवाला है। क्षत्रियको चाहिये कि अपनी दोनों भुजाओंके बलसे उस धर्मद्रोहीका दमन करे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रमाणमप्रमाणं यः कुर्यान्मोहवशं गतः।
भृत्यो वा यदि वा पुत्रस्तपस्वी वाथ कश्चन ॥ ६ ॥
पापान् सर्वैरुपायैस्तान् नियच्छेच्छातयीत वा।

मूलम्

प्रमाणमप्रमाणं यः कुर्यान्मोहवशं गतः।
भृत्यो वा यदि वा पुत्रस्तपस्वी वाथ कश्चन ॥ ६ ॥
पापान् सर्वैरुपायैस्तान् नियच्छेच्छातयीत वा।

अनुवाद (हिन्दी)

जो मोहके वशीभूत हो प्रमाणभूत धर्म और उसका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रको अमान्य कर दें, वह सेवक हो या पुत्र, तपस्वी हो या और कोई; सभी उपायोंसे उन पापियोंका दमन करे अथवा उन्हें नष्ट कर डाले॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतोऽन्यथा वर्तमानो राजा प्राप्नोति किल्बिषम् ॥ ७ ॥
धर्मं विनश्यमानं हि यो न रक्षेत् स धर्महा।

मूलम्

अतोऽन्यथा वर्तमानो राजा प्राप्नोति किल्बिषम् ॥ ७ ॥
धर्मं विनश्यमानं हि यो न रक्षेत् स धर्महा।

अनुवाद (हिन्दी)

इसके विपरीत आचरण करनेवाला राजा पापका भागी होता है, जो नष्ट होते हुए धर्मकी रक्षा नहीं करता, वह राजा धर्मका घात करनेवाला है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते त्वया धर्महन्तारो निहताः सपदानुगाः ॥ ८ ॥
स्वधर्मे वर्तमानस्त्वं किं नु शोचसि पाण्डव।
राजा हि हन्याद् दद्याच्च प्रजा रक्षेच्च धर्मतः ॥ ९ ॥

मूलम्

ते त्वया धर्महन्तारो निहताः सपदानुगाः ॥ ८ ॥
स्वधर्मे वर्तमानस्त्वं किं नु शोचसि पाण्डव।
राजा हि हन्याद् दद्याच्च प्रजा रक्षेच्च धर्मतः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! तुमने तो उन्हीं लोगोंका सेवकोंसहित वध किया है, जो धर्मका नाश करनेवाले थे। अपने धर्ममें स्थित रहते हुए भी तुम शोक क्यों कर रहे हो? क्योंकि राजाका यह कर्तव्य ही है कि वह धर्मद्रोहियोंका वध करे, सुपात्रोंको दान दे और धर्मके अनुसार प्रजाकी रक्षा करे॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तेऽभिशंके वचनं यद् ब्रवीषि तपोधन।
अपरोक्षो हि ते धर्मः सर्वधर्मविदां वर ॥ १० ॥

मूलम्

न तेऽभिशंके वचनं यद् ब्रवीषि तपोधन।
अपरोक्षो हि ते धर्मः सर्वधर्मविदां वर ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— सम्पूर्ण धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ तपोधन! आपको धर्मके स्वरूपका प्रत्यक्ष ज्ञान है। आप जो बात कह रहे हैं, उसपर मुझे तनिक भी संदेह नहीं है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया त्ववध्या बहवो घातिता राज्यकारणात्।
तानि कर्माणि मे ब्रह्मन् दहन्ति च पचन्ति च॥११॥

मूलम्

मया त्ववध्या बहवो घातिता राज्यकारणात्।
तानि कर्माणि मे ब्रह्मन् दहन्ति च पचन्ति च॥११॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु ब्रह्मन्! मैंने तो इस राज्यके लिये अनेक अवध्य पुरुषोंका भी वध करा डाला है। मेरे वे ही कर्म मुझे जलाते और पकाते हैं॥११॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईश्वरो वा भवेत् कर्ता पुरुषो वापि भारत।
हठो वा वर्तते लोके कर्मजं वा फलं स्मृतम्॥१२॥

मूलम्

ईश्वरो वा भवेत् कर्ता पुरुषो वापि भारत।
हठो वा वर्तते लोके कर्मजं वा फलं स्मृतम्॥१२॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजीने कहा— भरतनन्दन! जो लोग मारे गये हैं, उनके वधका उत्तरदायित्व किसपर है? इस प्रश्नको लेकर चार विकल्प हो सकते हैं। (१) सबका प्रेरक ईश्वर कर्ता है? या (२) वध करनेवाला पुरुष कर्ता है? अथवा (३) मारे जानेवाले पुरुषका हठ (बिना विचारे किसी कामको कर डालनेका दुराग्रही स्वभाव) कर्ता है? अथवा (४) उसके प्रारब्ध कर्मका फल इस रूपमें प्राप्त होनेके कारण प्रारब्ध ही कर्ता है?॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईश्वरेण नियुक्तो हि साध्वसाधु च भारत।
कुरुते पुरुषः कर्म फलमीश्वरगामि तत् ॥ १३ ॥

मूलम्

ईश्वरेण नियुक्तो हि साध्वसाधु च भारत।
कुरुते पुरुषः कर्म फलमीश्वरगामि तत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(१) भारत! यदि प्रेरक ईश्वरको कर्ता माना जाय तब तो यही कहना पड़ेगा कि ईश्वरसे प्रेरित होकर ही मनुष्य शुभ या अशुभ कर्म करता है; अतः उसका फल भी ईश्वरको ही मिलना चाहिये॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा हि पुरुषश्छिंद्याद् वृक्षं परशुना वने।
छेत्तुरेव भवेत् पापं परशोर्न कथञ्चन ॥ १४ ॥

मूलम्

यथा हि पुरुषश्छिंद्याद् वृक्षं परशुना वने।
छेत्तुरेव भवेत् पापं परशोर्न कथञ्चन ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कोई पुरुष वनमें कुल्हाड़ीद्वारा जब किसी वृक्षको काटता है, तब उसका पाप कुल्हाड़ी चलानेवाले पुरुषको ही लगता है। कुल्हाड़ीको किसी प्रकार नहीं लगता॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा तदुपादानात् प्राप्नुयात् कर्मणः फलम्।
दण्डशस्त्रकृतं पापं पुरुषे तन्न विद्यते ॥ १५ ॥

मूलम्

अथवा तदुपादानात् प्राप्नुयात् कर्मणः फलम्।
दण्डशस्त्रकृतं पापं पुरुषे तन्न विद्यते ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा यदि कहें कि ‘उस कुल्हाड़ीको ग्रहण करनेके कारण चेतन पुरुषको ही उस हिंसाकर्मका फल प्राप्त होगा (जड होनेके कारण कुल्हाड़ीको नहीं)’, तब तो जिसने उस शस्त्रको बनाया और जिसने उसमें डंडा लगाया, वह पुरुष ही प्रधान प्रयोजक होनेके कारण उसीको उस कर्मका फल मिलना चाहिये। चलानेवाले पुरुषपर उसका कोई उत्तरदायित्व नहीं है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैतदिष्टं कौन्तेय यदन्येन कृतं फलम्।
प्राप्नुयादिति यस्माच्च ईश्वरे तन्निवेशय ॥ १६ ॥

मूलम्

न चैतदिष्टं कौन्तेय यदन्येन कृतं फलम्।
प्राप्नुयादिति यस्माच्च ईश्वरे तन्निवेशय ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु कुन्तीनन्दन! यह अभीष्ट नहीं है कि दूसरेके द्वारा किये हुए कर्मका फल दूसरेको मिले (काटनेवालेका अपराध हथियार बनानेवालेपर थोपा जाय); इसलिये सर्वप्रेरक ईश्वरको ही सारे शुभाशुभ कर्मोंका कर्तृत्व और फल सौंप दो॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथापि पुरुषः कर्ता कर्मणोः शुभपापयोः।
न परो विद्यते तस्मादेवमेतच्छुभं कृतम् ॥ १७ ॥

मूलम्

अथापि पुरुषः कर्ता कर्मणोः शुभपापयोः।
न परो विद्यते तस्मादेवमेतच्छुभं कृतम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(२) यदि कहो पुण्य और पापकर्मोंका कर्ता उसे करनेवाला पुरुष ही है, दूसरा कोई (ईश्वर) नहीं तो ऐसा माननेपर भी तुमने यह शुभ कर्म ही किया है; क्योंकि तुम्हारे द्वारा पापियों और उनके समर्थकोंका ही वध हुआ है, इसके सिवा, उनके प्रारब्धका फल ही उन्हें इस रूपमें मिला है तुम तो निमित्तमात्र हो॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि कश्चित् क्वचिद् राजन् दिष्टं प्रतिनिवर्तते।
दण्डशस्त्रकृतं पापं पुरुषे तन्न विद्यते ॥ १८ ॥

मूलम्

न हि कश्चित् क्वचिद् राजन् दिष्टं प्रतिनिवर्तते।
दण्डशस्त्रकृतं पापं पुरुषे तन्न विद्यते ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! कोई कहीं भी दैवके विधानका उल्लंघन नहीं कर सकता। अतः दण्ड अथवा शस्त्रद्वारा किया हुआ पाप किसी पुरुषको लागू नहीं हो सकता (क्योंकि वे दैवाधीन होकर ही दण्ड या शस्त्रद्वारा मारे गये हैं)॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि वा मन्यसे राजन् हतमेकं प्रतिष्ठितम्।
एवमप्यशुभं कर्म न भूतं न भविष्यति ॥ १९ ॥

मूलम्

यदि वा मन्यसे राजन् हतमेकं प्रतिष्ठितम्।
एवमप्यशुभं कर्म न भूतं न भविष्यति ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(३) नरेश्वर! यदि ऐसा मानते हो कि युद्ध करनेवाले दो व्यक्तियोंमेंसे एकका मरना निश्चित ही है, अर्थात् वह स्वभाववश हठात् मारा गया है, तब तो स्वभाववादीके अनुसार भूत या भविष्य कालमें किसी अशुभ कर्मसे न तो तुम्हारा सम्पर्क था और न होगा ही॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाभिपत्तिर्लोकस्य कर्तव्या पुण्यपापयोः ।
अभिपन्नमिदं लोके राज्ञामुद्यतदण्डनम् ॥ २० ॥

मूलम्

अथाभिपत्तिर्लोकस्य कर्तव्या पुण्यपापयोः ।
अभिपन्नमिदं लोके राज्ञामुद्यतदण्डनम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(४) यदि कहो, लोगोंको जो पुण्यफल (सुख) और पापफल (दुःख) प्राप्त होते हैं, उनकी संगति लगानी चाहिये; क्योंकि बिना कारणके तो कोई कार्य हो नहीं सकता; अतः प्रारब्ध ही कर्ता है तो उस कारणभूत प्रारब्धको धर्माधर्म रूप ही मानना होगा, धर्माधर्मका निर्णय शास्त्रसे ही होता है और शास्त्रके अनुसार जगत्‌में उद्दण्ड मनुष्योंको दण्ड देना राजाओंके लिये सर्वथा युक्तिसंगत है; अतः किसी भी दृष्टिसे तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथापि लोके कर्माणि समावर्तन्ति भारत।
शुभाशुभफलं चैते प्राप्नुवन्तीति मे मतिः ॥ २१ ॥
एवमप्यशुभं कर्म कर्मणस्तत्फलात्मकम् ।
त्यज त्वं राजशार्दूल मैवं शोके मनः कृथाः ॥ २२ ॥

मूलम्

तथापि लोके कर्माणि समावर्तन्ति भारत।
शुभाशुभफलं चैते प्राप्नुवन्तीति मे मतिः ॥ २१ ॥
एवमप्यशुभं कर्म कर्मणस्तत्फलात्मकम् ।
त्यज त्वं राजशार्दूल मैवं शोके मनः कृथाः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! नृपश्रेष्ठ! यदि कहो कि यह सब माननेपर भी लोकमें कर्मोंकी आवृत्ति होती ही है—लोग कर्म करते और उनके शुभाशुभ फलोंको पाते ही हैं—ऐसा मेरा मत है; तो इसके उत्तरमें निवेदन है कि इस दशामें भी जिस कर्मके कारण उसके फलरूपसे अशुभकी प्राप्ति होती है, उस पापमूलक कर्मको ही तुम त्याग दो। अपने मनको शोकमें न डुबाओ॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वधर्मे वर्तमानस्य सापवादेऽपि भारत।
एवमात्मपरित्यागस्तव राजन् न शोभनः ॥ २३ ॥

मूलम्

स्वधर्मे वर्तमानस्य सापवादेऽपि भारत।
एवमात्मपरित्यागस्तव राजन् न शोभनः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! भरतनन्दन! अपना धर्म दोषयुक्त हो तो भी उसमें स्थित रहनेवाले तुम-जैसे धर्मात्मा नरेशके लिये अपने शरीरका परित्याग करना शोभाकी बात नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विहितानि हि कौन्तेय प्रायश्चित्तानि कर्मणाम्।
शरीरवांस्तानि कुर्यादशरीरः पराभवेत् ॥ २४ ॥

मूलम्

विहितानि हि कौन्तेय प्रायश्चित्तानि कर्मणाम्।
शरीरवांस्तानि कुर्यादशरीरः पराभवेत् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! यदि युद्ध आदिमें राग-द्वेषके कारण निन्द्यकर्म बन गये हों तो शास्त्रोंमें उन कर्मोंके लिये प्रायश्चित्तका भी विधान है। जो अपने शरीरको सुरक्षित रखता है, वह तो पापनिवारणके लिये प्रायश्चित्त कर सकता है; परंतु जिसका शरीर ही नहीं रहेगा, उसे तो प्रायश्चित्त न कर सकनेके कारण उन पापकर्मोंके फलस्वरूप पराभव (दुःख) ही प्राप्त होगा॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् राजन् जीवमानस्त्वं प्रायश्चित्तं करिष्यसि।
प्रायश्चित्तमकृत्वा तु प्रेत्य तप्तासि भारत ॥ २५ ॥

मूलम्

तद् राजन् जीवमानस्त्वं प्रायश्चित्तं करिष्यसि।
प्रायश्चित्तमकृत्वा तु प्रेत्य तप्तासि भारत ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतवंशी नरेश! यदि जीवित रहोगे तो उन कर्मोंका प्रायश्चित्त कर लोगे और यदि प्रायश्चित्तके बिना ही मर गये तो परलोकमें तुम्हें संतप्त होना पड़ेगा॥२५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि प्रायश्चित्तविधौ द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें प्रायश्चित्तविधिविषयक बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३२॥