भागसूचना
एकोनत्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
श्रीकृष्णके द्वारा नारद-सृंजय-संवादके रूपमें सोलह राजाओंका उपाख्यान संक्षेपमें सुनाकर युधिष्ठिरके शोकनिवारणका प्रयत्न
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्याहरति राजेन्द्रे धर्मपुत्रे युधिष्ठिरे।
गुडाकेशो हृषीकेशमभ्यभाषत पाण्डवः ॥ १ ॥
मूलम्
अव्याहरति राजेन्द्रे धर्मपुत्रे युधिष्ठिरे।
गुडाकेशो हृषीकेशमभ्यभाषत पाण्डवः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! सबके समझाने-बुझानेपर भी जब धर्मपुत्र महाराज युधिष्ठिर मौन ही रह गये, तब पाण्डुपुत्र अर्जुनने भगवान् श्रीकृष्णसे कहा॥१॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञातिशोकाभिसंतप्तो धर्मपुत्रः परंतपः ।
एष शोकार्णवे मग्नस्तमाश्वासय माधव ॥ २ ॥
मूलम्
ज्ञातिशोकाभिसंतप्तो धर्मपुत्रः परंतपः ।
एष शोकार्णवे मग्नस्तमाश्वासय माधव ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन बोले— माधव! शत्रुओंको संताप देनेवाले ये धर्मपुत्र युधिष्ठिर स्वयं भाई-बन्धुओंके शोकसे संतप्त हो शोकके समुद्रमें डूब गये हैं, आप इन्हें धीरज बँधाइये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे स्म ते संशयिताः पुनरेव जनार्दन।
अस्य शोकं महाबाहो प्रणाशयितुमर्हसि ॥ ३ ॥
मूलम्
सर्वे स्म ते संशयिताः पुनरेव जनार्दन।
अस्य शोकं महाबाहो प्रणाशयितुमर्हसि ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहु जनार्दन! हम सब लोग पुनः महान् संशयमें पड़ गये हैं। आप इनके शोकका नाश कीजिये॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु गोविन्दो विजयेन महात्मना।
पर्यवर्तत राजानं पुण्डरीकेक्षणोऽच्युतः ॥ ४ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु गोविन्दो विजयेन महात्मना।
पर्यवर्तत राजानं पुण्डरीकेक्षणोऽच्युतः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! महामना अर्जुनके ऐसा कहनेपर अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले कमलनयन भगवान् गोविन्द राजा युधिष्ठिरकी ओर घूमे—उनके सम्मुख हुए॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनतिक्रमणीयो हि धर्मराजस्य केशवः।
बाल्यात् प्रभृति गोविन्दः प्रीत्या चाभ्यधिकोऽर्जुनात् ॥ ५ ॥
मूलम्
अनतिक्रमणीयो हि धर्मराजस्य केशवः।
बाल्यात् प्रभृति गोविन्दः प्रीत्या चाभ्यधिकोऽर्जुनात् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मराज युधिष्ठिर भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञाका कभी उल्लंघन नहीं कर सकते थे; क्योंकि श्रीकृष्ण बाल्यावस्थासे ही उन्हें अर्जुनसे भी अधिक प्रिय थे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्प्रगृह्य महाबाहुर्भुजं चन्दनभूषितम् ।
शैलस्तम्भोपमं शौरिरुवाचाभिविनोदयन् ॥ ६ ॥
मूलम्
सम्प्रगृह्य महाबाहुर्भुजं चन्दनभूषितम् ।
शैलस्तम्भोपमं शौरिरुवाचाभिविनोदयन् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहु गोविन्दने युधिष्ठिरकी पत्थरके बने हुए खम्भे-जैसी चन्दनचर्चित भुजाको हाथमें लेकर उनका मनोरंजन करते हुए इस प्रकार बोलना आरम्भ किया॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुशुभे वदनं तस्य सुदंष्ट्रं चारुलोचनम्।
व्याकोशमिव विस्पष्टं पद्मं सूर्य इवोदिते ॥ ७ ॥
मूलम्
शुशुभे वदनं तस्य सुदंष्ट्रं चारुलोचनम्।
व्याकोशमिव विस्पष्टं पद्मं सूर्य इवोदिते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय सुन्दर दाँतों और मनोहर नेत्रोंसे युक्त उनका मुखारविन्द सूर्योदयके समय पूर्णतः विकसित हुए कमलके समान शोभा पा रहा था॥७॥
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा कृथाः पुरुषव्याघ्र शोकं त्वं गात्रशोषणम्।
न हि ते सुलभा भूयो ये हतास्मिन् रणाजिरे॥८॥
मूलम्
मा कृथाः पुरुषव्याघ्र शोकं त्वं गात्रशोषणम्।
न हि ते सुलभा भूयो ये हतास्मिन् रणाजिरे॥८॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण बोले— पुरुषसिंह! तुम शोक न करो। शोक तो शरीरको सुखा देनेवाला होता है। इस समरांगणमें जो वीर मारे गये हैं, वे फिर सहज ही मिल सकें, यह सम्भव नहीं है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वप्नलब्धा यथा लाभा वितथाः प्रतिबोधने।
एवं ते क्षत्रिया राजन् ये व्यतीता महारणे ॥ ९ ॥
मूलम्
स्वप्नलब्धा यथा लाभा वितथाः प्रतिबोधने।
एवं ते क्षत्रिया राजन् ये व्यतीता महारणे ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जैसे सपनेमें मिले हुए धन जगनेपर मिथ्या हो जाते हैं, उसी प्रकार जो क्षत्रिय महासमरमें नष्ट हो गये हैं, उनका दर्शन अब दुर्लभ है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वेऽप्यभिमुखाः शूरा विजिता रणशोभिनः।
नैषां कश्चित् पृष्ठतो वा पलायन् वापि पातितः ॥ १० ॥
मूलम्
सर्वेऽप्यभिमुखाः शूरा विजिता रणशोभिनः।
नैषां कश्चित् पृष्ठतो वा पलायन् वापि पातितः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संग्राममें शोभा पानेवाले वे सभी शूरवीर शत्रुका सामना करते हुए पराजित हुए हैं। उनमेंसे कोई भी पीठपर चोट खाकर या भागता हुआ नहीं मारा गया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे त्यक्त्वाऽऽत्मनः प्राणात् युद्ध्वा वीरा महामृधे।
शस्त्रपूता दिवं प्राप्ता न तान् शोचितुमर्हसि ॥ ११ ॥
मूलम्
सर्वे त्यक्त्वाऽऽत्मनः प्राणात् युद्ध्वा वीरा महामृधे।
शस्त्रपूता दिवं प्राप्ता न तान् शोचितुमर्हसि ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी वीर महायुद्धमें जूझते हुए अपने प्राणोंका परित्याग करके अस्त्र-शस्त्रोंसे पवित्र हो स्वर्गलोकमें गये हैं, अतः तुम्हें उनके लिये शोक नहीं करना चाहिये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रधर्मरताः शूरा वेदवेदाङ्गपारगाः ।
प्राप्ता वीरगतिं पुण्यां तान् न शोचितुमर्हसि ॥ १२ ॥
मृतान् महानुभावांस्त्वं श्रुत्वैव पृथिवीपतीन्।
मूलम्
क्षत्रधर्मरताः शूरा वेदवेदाङ्गपारगाः ।
प्राप्ता वीरगतिं पुण्यां तान् न शोचितुमर्हसि ॥ १२ ॥
मृतान् महानुभावांस्त्वं श्रुत्वैव पृथिवीपतीन्।
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रिय-धर्ममें तत्पर रहनेवाले, वेद-वेदांगोंके पारंगत वे शूरवीर नरेश पुण्यमयी वीर-गतिको प्राप्त हुए हैं। पहलेके मरे हुए महानुभाव भूपतियोंका चरित्र सुनकर तुम्हें अपने उन बन्धुओंके लिये भी शोक नहीं करना चाहिये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ॥ १३ ॥
सृंजयं पुत्रशोकार्तं यथायं नारदोऽब्रवीत्।
मूलम्
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ॥ १३ ॥
सृंजयं पुत्रशोकार्तं यथायं नारदोऽब्रवीत्।
अनुवाद (हिन्दी)
इस विषयमें एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है, जैसा कि इन देवर्षि नारदजीने पुत्र-शोकसे पीड़ित हुए राजा सृंजयसे कहा था॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखदुःखैरहं त्वं च प्रजाः सर्वाश्च सृंजय ॥ १४ ॥
अविमुक्ता मरिष्यामस्तत्र का परिदेवना।
मूलम्
सुखदुःखैरहं त्वं च प्रजाः सर्वाश्च सृंजय ॥ १४ ॥
अविमुक्ता मरिष्यामस्तत्र का परिदेवना।
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! मैं, तुम और ये समस्त प्रजावर्गके लोग कोई भी सुख और दुःखोंके बन्धनसे मुक्त नहीं हुए हैं तथा एक दिन हम सब लोग मरेंगे भी। फिर इसके लिय शोक क्या करना है?॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाभाग्यं पुरा राज्ञां कीर्त्यमानं मया शृणु ॥ १५ ॥
गच्छावधानं नृपते ततो दुःखं प्रहास्यसि।
मूलम्
महाभाग्यं पुरा राज्ञां कीर्त्यमानं मया शृणु ॥ १५ ॥
गच्छावधानं नृपते ततो दुःखं प्रहास्यसि।
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! मैं पूर्ववर्ती राजाओंके महान् सौभाग्यका वर्णन करता हूँ। सुनो और सावधान हो जाओ। इससे तुम्हारा दुःख दूर हो जायगा॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृतान् महानुभावांस्त्वं श्रुत्वैव पृथिवीपतीन् ॥ १६ ॥
शममानय संतापं शृणु विस्तरशश्च मे।
मूलम्
मृतान् महानुभावांस्त्वं श्रुत्वैव पृथिवीपतीन् ॥ १६ ॥
शममानय संतापं शृणु विस्तरशश्च मे।
अनुवाद (हिन्दी)
‘मरे हुए महानुभाव भूपतियोंके नाम सुनकर ही तुम अपने मानसिक संतापको शान्त कर लो और मुझसे विस्तारपूर्वक उन सबका परिचय सुनो॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रूरग्रहाभिशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम् ॥ १७ ॥
अग्रिमाणां क्षितिभुजामुपादानं मनोहरम् ।
मूलम्
क्रूरग्रहाभिशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम् ॥ १७ ॥
अग्रिमाणां क्षितिभुजामुपादानं मनोहरम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन पूर्ववर्ती राजाओंका श्रवण करनेयोग्य मनोहर वृत्तान्त बहुत ही उत्तम, क्रूर ग्रहोंको शान्त करनेवाला और आयुको बढ़ानेवाला है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आविक्षितं मरुत्तं च मृतं सृञ्जय शुश्रुम ॥ १८ ॥
यस्य सेन्द्राः सवरुणा बृहस्पतिपुरोगमाः।
देवा विश्वसृजो राज्ञो यज्ञमीयुर्महात्मनः ॥ १९ ॥
मूलम्
आविक्षितं मरुत्तं च मृतं सृञ्जय शुश्रुम ॥ १८ ॥
यस्य सेन्द्राः सवरुणा बृहस्पतिपुरोगमाः।
देवा विश्वसृजो राज्ञो यज्ञमीयुर्महात्मनः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! हमने सुना है कि अविक्षित्के पुत्र वे राजा मरुत्त भी मर गये, जिन महात्मा नरेशके यज्ञमें इन्द्र तथा वरुणसहित सम्पूर्ण देवता और प्रजापतिगण बृहस्पतिको आगे करके पधारे थे॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः स्पर्धयायजच्छक्रं देवराजं पुरंदरम्।
शक्रप्रियैषी यं विद्वान् प्रत्याचष्ट बृहस्पतिः ॥ २० ॥
संवर्तो याजयामास यवीयान् स बृहस्पतेः।
मूलम्
यः स्पर्धयायजच्छक्रं देवराजं पुरंदरम्।
शक्रप्रियैषी यं विद्वान् प्रत्याचष्ट बृहस्पतिः ॥ २० ॥
संवर्तो याजयामास यवीयान् स बृहस्पतेः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन्होंने देवराज इन्द्रसे स्पर्धा रखनेके कारण अपने यज्ञ-वैभवद्वारा उन्हें पराजित कर दिया था। इन्द्रका प्रिय चाहनेवाले बृहस्पतिजीने जब उनका यज्ञ करानेसे इन्कार कर दिया, तब उन्हींके छोटे भाई संवर्तने मरुत्तका यज्ञ कराया था॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मिन् प्रशासति महीं नृपतौ राजसत्तम।
अकृष्टपच्या पृथिवी विबभौ चैत्यमालिनी ॥ २१ ॥
मूलम्
यस्मिन् प्रशासति महीं नृपतौ राजसत्तम।
अकृष्टपच्या पृथिवी विबभौ चैत्यमालिनी ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! राजा मरुत्त जब इस पृथ्वीका शासन करते थे, उस समय यह बिना जोते-बोये ही अन्न पैदा करती थी और समस्त भूमण्डलमें देवालयोंकी माला-सी दृष्टिगोचर होती थी, जिससे इस पृथ्वीकी बड़ी शोभा होती थी॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आविक्षितस्य वै सत्रे विश्वेदेवाः सभासदः।
मरुतः परिवेष्टारः साध्याश्चासन् महात्मनः ॥ २२ ॥
मूलम्
आविक्षितस्य वै सत्रे विश्वेदेवाः सभासदः।
मरुतः परिवेष्टारः साध्याश्चासन् महात्मनः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महामना मरुत्तके यज्ञमें विश्वेदेवगण सभासद थे और मरुद्गण तथा साध्यगण रसोई परोसनेका काम करते थे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरुद्गणा मरुत्तस्य यत् सोममपिबंस्ततः।
देवान् मनुष्यान् गन्धर्वानत्यरिच्यन्त दक्षिणाः ॥ २३ ॥
मूलम्
मरुद्गणा मरुत्तस्य यत् सोममपिबंस्ततः।
देवान् मनुष्यान् गन्धर्वानत्यरिच्यन्त दक्षिणाः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मरुद्गणोंने मरुत्तके यज्ञमें उस समय खूब सोमरसका पान किया था। राजाने जो दक्षिणाएँ दी थीं, वे देवताओं, मनुष्यों और गन्धर्वोंके सभी यज्ञोंसे बढ़कर थीं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ २४ ॥
मूलम्
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य—इन चारों बातोंमें राजा मरुत्त तुमसे बढ़-चढ़कर थे और तुम्हारे पुत्रसे भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब औरोंकी क्या बात है? अतः तुम अपने पुत्रके लिये शोक न करो॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुहोत्रं चैवातिथिनं मृतं सृंजय शुश्रुम।
यस्मिन् हिरण्यं ववृषे मघवा परिवत्सरम् ॥ २५ ॥
मूलम्
सुहोत्रं चैवातिथिनं मृतं सृंजय शुश्रुम।
यस्मिन् हिरण्यं ववृषे मघवा परिवत्सरम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! अतिथिसत्कारके प्रेमी राजा सुहोत्र भी जीवित नहीं रहे, ऐसा सुननेमें आया है। उनके राज्यमें इन्द्रने एक वर्षतक सोनेकी वर्षा की थी॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यनामा वसुमती यं प्राप्यासीज्जनाधिपम्।
हिरण्यमवहन् नद्यस्तस्मिञ्जनपदेश्वरे ॥ २६ ॥
मूलम्
सत्यनामा वसुमती यं प्राप्यासीज्जनाधिपम्।
हिरण्यमवहन् नद्यस्तस्मिञ्जनपदेश्वरे ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजा सुहोत्रको पाकर पृथ्वीका वसुमती नाम सार्थक हो गया था। जिस समय वे जनपदके स्वामी थे, उन दिनों वहाँकी नदियाँ अपने जलके साथ-साथ सुवर्ण बहाया करती थीं॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कूर्मान् कर्कटकान् नक्रान् मकराञ्छिंशुकानपि।
नदीष्वपातयद् राजन् मघवा लोकपूजितः ॥ २७ ॥
मूलम्
कूर्मान् कर्कटकान् नक्रान् मकराञ्छिंशुकानपि।
नदीष्वपातयद् राजन् मघवा लोकपूजितः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! लोकपूजित इन्द्रने सोनेके बने हुए बहुत-से कछुए, केकड़े, नाके, मगर, सूँस और मत्स्य उन नदियोंमें गिराये थे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरण्यान् पातितान् दृष्ट्वा मत्स्यान् मकरकच्छपान्।
सहस्रशोऽथ शतशस्ततोऽस्मयदथोऽतिथिः ॥ २८ ॥
मूलम्
हिरण्यान् पातितान् दृष्ट्वा मत्स्यान् मकरकच्छपान्।
सहस्रशोऽथ शतशस्ततोऽस्मयदथोऽतिथिः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन नदियोंमें सैकड़ों और हजारोंकी संख्यामें सुवर्णमय मत्स्यों, ग्राहों और कछुओंको गिराया गया देख अतिथिप्रिय राजा सुहोत्र आश्चर्यचकित हो उठे थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्धिरण्यमपर्यन्तमावृतं कुरुजाङ्गले ।
ईजानो वितते यज्ञे ब्राह्मणेभ्यः समार्पयत् ॥ २९ ॥
मूलम्
तद्धिरण्यमपर्यन्तमावृतं कुरुजाङ्गले ।
ईजानो वितते यज्ञे ब्राह्मणेभ्यः समार्पयत् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह अनन्त सुवर्णराशि कुरुजांगल देशमें छा गयी थी। राजा सुहोत्रने वहाँ यज्ञ किया और उसमें वह सारी धनराशि ब्राह्मणोंमें बाँट दी॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ ३० ॥
अदक्षिणमयज्वानं श्वैत्य संशाम्य मा शुचः।
मूलम्
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ ३० ॥
अदक्षिणमयज्वानं श्वैत्य संशाम्य मा शुचः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्वेतपुत्र सृंजय! वे धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य—इन चारों कल्याणकारी गुणोंमें तुमसे बढ़-चढ़कर थे और तुम्हारे पुत्रसे भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब दूसरोंकी क्या बात है? अतः तुम अपने पुत्रके लिये शोक न करो। उसने न तो कोई यज्ञ किया था और न दक्षिणा ही बाँटी थी, अतः उसके लिये शोक न करो, शान्त हो जाओ॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्गं बृहद्रथं चैव मृतं सृंजय शुश्रुम ॥ ३१ ॥
यः सहस्रं सहस्राणां श्वेतानश्वानवासृजत्।
सहस्रं च सहस्राणां कन्या हेमपरिष्कृताः ॥ ३२ ॥
ईजानो वितते यज्ञे दक्षिणामत्यकालयत्।
मूलम्
अङ्गं बृहद्रथं चैव मृतं सृंजय शुश्रुम ॥ ३१ ॥
यः सहस्रं सहस्राणां श्वेतानश्वानवासृजत्।
सहस्रं च सहस्राणां कन्या हेमपरिष्कृताः ॥ ३२ ॥
ईजानो वितते यज्ञे दक्षिणामत्यकालयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! अंगदेशके राजा बृहद्रथकी भी मृत्यु हुई थी, ऐसा हमने सुना है। उन्होंने यज्ञ करते समय अपने विशाल यज्ञमें दस लाख श्वेत घोड़े और सोनेके आभूषणोंसे भूषित दस लाख कन्याएँ दक्षिणारूपमें बाँटी थीं॥३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः सहस्रं सहस्राणां गजानां पद्ममालिनाम् ॥ ३३ ॥
ईजानो वितते यज्ञे दक्षिणामत्यकालयत्।
मूलम्
यः सहस्रं सहस्राणां गजानां पद्ममालिनाम् ॥ ३३ ॥
ईजानो वितते यज्ञे दक्षिणामत्यकालयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसी प्रकार यजमान बृहद्रथने उस विस्तृत यज्ञमें सुवर्णमय कमलोंकी मालाओंसे अलंकृत दस लाख हाथी भी दक्षिणामें बाँटे थे॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शतं शतसहस्राणि वृषाणां हेममालिनाम् ॥ ३४ ॥
गवां सहस्रानुचरं दक्षिणामत्यकालयत् ।
मूलम्
शतं शतसहस्राणि वृषाणां हेममालिनाम् ॥ ३४ ॥
गवां सहस्रानुचरं दक्षिणामत्यकालयत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन्होंने उस यज्ञमें एक करोड़ सुवर्णमालाधारी गाय, बैल और उनके सहस्रों सेवक दक्षिणारूपमें दिये थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्गस्य यजमानस्य तदा विष्णुपदे गिरौ ॥ ३५ ॥
अमाद्यदिन्द्रः सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः ।
मूलम्
अङ्गस्य यजमानस्य तदा विष्णुपदे गिरौ ॥ ३५ ॥
अमाद्यदिन्द्रः सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘यजमान अंग जब विष्णुपद पर्वतपर यज्ञ कर रहे थे, उस समय इन्द्र वहाँ सोमरस पीकर मतवाले हो उठे थे और दक्षिणाओंसे ब्राह्मणोंपर भी आनन्दोन्माद छा गया था॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य यज्ञेषु राजेन्द्र शतसंख्येषु वै पुरा ॥ ३६ ॥
देवान् मनुष्यान् गन्धर्वानत्यरिच्यन्त दक्षिणाः।
मूलम्
यस्य यज्ञेषु राजेन्द्र शतसंख्येषु वै पुरा ॥ ३६ ॥
देवान् मनुष्यान् गन्धर्वानत्यरिच्यन्त दक्षिणाः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजेन्द्र! प्राचीन कालमें अंगराजने ऐसे-ऐसे सौ यज्ञ किये थे और उन सबमें जो दक्षिणाएँ दी गयी थीं, वे देवताओं, गन्धर्वों और मनुष्योंके यज्ञोंसे बढ़ गयी थीं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न जातो जनिता नान्यः पुमान् यः सम्प्रदास्यति ॥ ३७ ॥
यदङ्गः प्रददौ वित्तं सोमसंस्थासु सप्तसु।
मूलम्
न जातो जनिता नान्यः पुमान् यः सम्प्रदास्यति ॥ ३७ ॥
यदङ्गः प्रददौ वित्तं सोमसंस्थासु सप्तसु।
अनुवाद (हिन्दी)
‘अंगराजने सातों सोम-संस्थाओंमें1 जो धन दिया था, उतना जो दे सके, ऐसा दूसरा न तो कोई मनुष्य पैदा हुआ है और न पैदा होगा॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया ॥ ३८ ॥
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः।
मूलम्
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया ॥ ३८ ॥
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! पूर्वोक्त चारों कल्याणकारी गुणोंमें वे बृहद्रथ तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्रसे भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये तो दूसरोंकी क्या बात है? अतः तुम अपने पुत्रके लिये संतप्त न होओ॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिबिमौशीनरं चैव मृतं सृंजय शुश्रुम ॥ ३९ ॥
य इमां पृथिवीं सर्वां चर्मवत्समवेष्टयत्।
मूलम्
शिबिमौशीनरं चैव मृतं सृंजय शुश्रुम ॥ ३९ ॥
य इमां पृथिवीं सर्वां चर्मवत्समवेष्टयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! जिन्होंने इस सम्पूर्ण पृथ्वीको चमड़ेकी भाँति लपेट लिया था (सर्वथा अपने अधीन कर लिया था), वे उशीनरपुत्र राजा शिबि भी मरे थे, यह हमने सुना है॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महता रथघोषेण पृथिवीमनुनादयन् ॥ ४० ॥
एकच्छत्रां महीं चक्रे जैत्रेणैकरथेन यः।
मूलम्
महता रथघोषेण पृथिवीमनुनादयन् ॥ ४० ॥
एकच्छत्रां महीं चक्रे जैत्रेणैकरथेन यः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे अपने रथकी गम्भीर ध्वनिसे पृथ्वीको प्रतिध्वनित करते हुए एकमात्र विजयशील रथके द्वारा इस भूमण्डलका एकछत्र शासन करते थे॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावदद्य गवाश्वं स्यादारण्यैः पशुभिः सह ॥ ४१ ॥
तावतीः प्रददौ गाः स शिबिरौशीनरोऽध्वरे।
मूलम्
यावदद्य गवाश्वं स्यादारण्यैः पशुभिः सह ॥ ४१ ॥
तावतीः प्रददौ गाः स शिबिरौशीनरोऽध्वरे।
अनुवाद (हिन्दी)
‘आज संसारमें जंगली पशुओंसहित जितने गाय-बैल और घोड़े हैं, उतनी संख्यामें उशीनरपुत्र शिबिने अपने यज्ञमें केवल गौओंका दान किया॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न वोढारं धुरं तस्य कश्चिन्मेने प्रजापतिः ॥ ४२ ॥
न भूतं न भविष्यं च सर्वराजसु सृंजय।
अन्यत्रौशीनराच्छैब्याद् राजर्षेरिन्द्रविक्रमात् ॥ ४३ ॥
मूलम्
न वोढारं धुरं तस्य कश्चिन्मेने प्रजापतिः ॥ ४२ ॥
न भूतं न भविष्यं च सर्वराजसु सृंजय।
अन्यत्रौशीनराच्छैब्याद् राजर्षेरिन्द्रविक्रमात् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! प्रजापति ब्रह्माने इन्द्रके तुल्य पराक्रमी उशीनरपुत्र राजा शिबिके सिवा सम्पूर्ण राजाओंमें भूत या भविष्यकालके दूसरे किसी राजाको ऐसा नहीं माना, जो शिबिका कार्यभार वहन कर सकता हो॥४२-४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदक्षिणमयज्वानं मा पुत्रमनुतप्यथाः ।
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ ४४ ॥
मूलम्
अदक्षिणमयज्वानं मा पुत्रमनुतप्यथाः ।
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! राजा शिबि पूर्वोक्त चारों कल्याणकारी बातोंमें तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे। तुम्हारे पुत्रसे भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये तब दूसरेकी क्या बात है, अतः तुम अपने पुत्रके लिये शोक मत करो। उसने न तो कोई यज्ञ किया था, न दक्षिणा ही दी थी; अतः उस पुत्रके लिये शोक नहीं करना चाहिये॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरतं चैव दौष्यन्तिं मृतं सृंजय शुश्रुम।
शाकुन्तलं महात्मानं भूरिद्रविणसंचयम् ॥ ४५ ॥
मूलम्
भरतं चैव दौष्यन्तिं मृतं सृंजय शुश्रुम।
शाकुन्तलं महात्मानं भूरिद्रविणसंचयम् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! दुष्यन्त और शकुन्तलाके पुत्र महाधनी महामनस्वी भरत भी मृत्युके अधीन हो गये, यह हमने सुना था॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो बद्ध्वा त्रिशतं चाश्वान् देवेभ्यो यमुनामनु।
सरस्वतीं विंशतिं च गङ्गामनु चतुर्दश ॥ ४६ ॥
अश्वमेधसहस्रेण राजसूयशतेन च ।
इष्टवान् स महातेजा दौष्यन्तिर्भरतः पुरा ॥ ४७ ॥
मूलम्
यो बद्ध्वा त्रिशतं चाश्वान् देवेभ्यो यमुनामनु।
सरस्वतीं विंशतिं च गङ्गामनु चतुर्दश ॥ ४६ ॥
अश्वमेधसहस्रेण राजसूयशतेन च ।
इष्टवान् स महातेजा दौष्यन्तिर्भरतः पुरा ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन महातेजस्वी दुष्यन्तकुमार भरतने पूर्वकालमें देवताओंकी प्रसन्नताके लिये यमुनाके तटपर तीन सौ, सरस्वतीके तटपर बीस और गंगाके तटपर चौदह घोड़े बाँधकर उतने-उतने अश्वमेध यज्ञ किये थे।2 उन्होंने अपने जीवनमें एक सहस्र अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ सम्पन्न किये थे॥४६-४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरतस्य महत् कर्म सर्वराजसु पार्थिवाः।
खं मर्त्या इव बाहुभ्यां नानुगन्तुमशक्नुवन् ॥ ४८ ॥
मूलम्
भरतस्य महत् कर्म सर्वराजसु पार्थिवाः।
खं मर्त्या इव बाहुभ्यां नानुगन्तुमशक्नुवन् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे मनुष्य दोनों भुजाओंसे आकाशको तैर नहीं सकते, उसी प्रकार सम्पूर्ण राजाओंमें भरतका जो महान् कर्म है, उसका दूसरे राजा अनुकरण न कर सके॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परं सहस्राद् यो बद्धान् हयान् वेदीर्वितत्य च।
सहस्रं यत्र पद्मानां कण्वाय भरतो ददौ ॥ ४९ ॥
मूलम्
परं सहस्राद् यो बद्धान् हयान् वेदीर्वितत्य च।
सहस्रं यत्र पद्मानां कण्वाय भरतो ददौ ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन्होंने सहस्रसे भी अधिक घोड़े बाँधे और यज्ञ-वेदियोंका विस्तार करके अश्वमेध यज्ञ किये। उसमें भरतने आचार्य कण्वको एक हजार सुवर्णके बने हुए कमल भेंट किये॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ ५० ॥
मूलम्
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! वे साम, दान, दण्ड और भेद—इन चार कल्याणमयी नीतियों अथवा धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य—इन चार मंगलकारी गुणोंमें तुमसे बहुत बढ़े हुए थे। तुम्हारे पुत्रकी अपेक्षा भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब दूसरा कौन जीवित रह सकता है। अतः तुम्हें अपने मरे हुए पुत्रके लिये शोक नहीं करना चाहिये॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामं दाशरथिं चैव मृतं सृंजय शुश्रुम।
योऽन्वकम्पत वै नित्यं प्रजाः पुत्रानिवौरसान् ॥ ५१ ॥
मूलम्
रामं दाशरथिं चैव मृतं सृंजय शुश्रुम।
योऽन्वकम्पत वै नित्यं प्रजाः पुत्रानिवौरसान् ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! सुननेमें आया है कि दशरथनन्दन भगवान् श्रीरामजी भी यहाँसे परम धामको चले गये थे, जो सदा अपनी प्रजापर वैसी ही कृपा रखते थे, जैसे-पिता अपने औरस पुत्रोंपर रखता है॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विधवा यस्य विषये नानाथाः काश्चनाभवन्।
सदैवासीत् पितृसमो रामो राज्यं यदन्वशात् ॥ ५२ ॥
मूलम्
विधवा यस्य विषये नानाथाः काश्चनाभवन्।
सदैवासीत् पितृसमो रामो राज्यं यदन्वशात् ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उनके राज्यमें कोई भी स्त्री अनाथ-विधवा नहीं हुई। श्रीरामचन्द्रजीने जबतक राज्यका शासन किया, तबतक वे अपनी प्रजाके लिये सदा ही पिताके समान कृपालु बने रहे॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालवर्षी च पर्जन्यः सस्यानि समपादयत्।
नित्यं सुभिक्षमेवासीद् रामे राज्यं प्रशासति ॥ ५३ ॥
मूलम्
कालवर्षी च पर्जन्यः सस्यानि समपादयत्।
नित्यं सुभिक्षमेवासीद् रामे राज्यं प्रशासति ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेघ समयपर वर्षा करके खेतीको अच्छे ढंगसे सम्पन्न करता था—उसे बढ़ने और फूलने-फलनेका अवसर देता था। रामके राज्य-शासनकालमें सदा सुकाल ही रहता था (कभी अकाल नहीं पड़ता था)॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणिनो नाप्सु मज्जन्ति नान्यथा पावकोऽदहत्।
रुजाभयं न तत्रासीद् रामे राज्यं प्रशासति ॥ ५४ ॥
मूलम्
प्राणिनो नाप्सु मज्जन्ति नान्यथा पावकोऽदहत्।
रुजाभयं न तत्रासीद् रामे राज्यं प्रशासति ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रामके राज्यका शासन करते समय कभी कोई प्राणी जलमें नहीं डूबते थे, आग अनुचितरूपसे कभी किसीको नहीं जलाती थी तथा किसीको रोगका भय नहीं होता था॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसन् वर्षसहस्रिण्यस्तथा वर्षसहस्रकाः ।
अरोगाः सर्वसिद्धार्था रामे राज्यं प्रशासति ॥ ५५ ॥
मूलम्
आसन् वर्षसहस्रिण्यस्तथा वर्षसहस्रकाः ।
अरोगाः सर्वसिद्धार्था रामे राज्यं प्रशासति ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीरामचन्द्रजी जब राज्यका शासन करते थे, उन दिनों हजार वर्षतक जीनेवाली स्त्रियाँ और सहस्रों वर्षतक जीवित रहनेवाले पुरुष थे। किसीको कोई रोग नहीं सताता था, सभीके सारे मनोरथ सिद्ध होते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नान्योऽन्येन विवादोऽभूत् स्त्रीणामपि कुतो नृणाम्।
धर्मनित्याः प्रजाश्चासन् रामे राज्यं प्रशासति ॥ ५६ ॥
मूलम्
नान्योऽन्येन विवादोऽभूत् स्त्रीणामपि कुतो नृणाम्।
धर्मनित्याः प्रजाश्चासन् रामे राज्यं प्रशासति ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘स्त्रियोंमें भी परस्पर विवाद नहीं होता था; फिर पुरुषोंकी तो बात ही क्या है? श्रीरामके राज्य-शासनकालमें समस्त प्रजा सदा धर्ममें तत्पर रहती थी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतुष्टाः सर्वसिद्धार्था निर्भयाः स्वैरचारिणः।
नराः सत्यव्रताश्चासन् रामे राज्यं प्रशासति ॥ ५७ ॥
मूलम्
संतुष्टाः सर्वसिद्धार्था निर्भयाः स्वैरचारिणः।
नराः सत्यव्रताश्चासन् रामे राज्यं प्रशासति ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीरामचन्द्रजी जब राज्य करते थे, उस समय सभी मनुष्य संतुष्ट, पूर्णकाम, निर्भय, स्वाधीन और सत्यव्रती थे॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यपुष्पफलाश्चैव पादपा निरुपद्रवाः ।
सर्वा द्रोणदुघा गावो रामे राज्यं प्रशासति ॥ ५८ ॥
मूलम्
नित्यपुष्पफलाश्चैव पादपा निरुपद्रवाः ।
सर्वा द्रोणदुघा गावो रामे राज्यं प्रशासति ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीरामके राज्यशासनकालमें सभी वृक्ष बिना किसी विघ्न-बाधाके सदा फले-फूले रहते थे और समस्त गौएँ एक-एक दोन दूध देती थीं॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चतुर्दशवर्षाणि वने प्रोष्य महातपाः।
दशाश्वमेधान् जारूथ्यानाजहार निरर्गलान् ॥ ५९ ॥
मूलम्
स चतुर्दशवर्षाणि वने प्रोष्य महातपाः।
दशाश्वमेधान् जारूथ्यानाजहार निरर्गलान् ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महातपस्वी श्रीरामने चौदह वर्षोंतक वनमें निवास करके राज्य पानेके अनन्तर दस ऐसे अश्वमेध यज्ञ किये, जो सर्वथा स्तुतिके योग्य थे तथा जहाँ किसी भी याचकके लिये दरवाजा बंद नहीं होता था॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युवा श्यामो लोहिताक्षो मातङ्ग इव यूथपः।
आजानुबाहुः सुमुखः सिंहस्कन्धो महाभुजः ॥ ६० ॥
मूलम्
युवा श्यामो लोहिताक्षो मातङ्ग इव यूथपः।
आजानुबाहुः सुमुखः सिंहस्कन्धो महाभुजः ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीरामचन्द्रजी नवयुवक और श्याम वर्णवाले थे। उनकी आँखोंमें कुछ-कुछ लालिमा शोभा देती थी। वे यूथपति गजराजके समान शक्तिशाली थे। उनकी बड़ी-बड़ी भुजाएँ घुटनोंतक लंबी थीं। उनका मुख सुन्दर और कंधे सिंहके समान थे॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च ।
अयोध्याधिपतिर्भुत्वा रामो राज्यमकारयत् ॥ ६१ ॥
मूलम्
दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च ।
अयोध्याधिपतिर्भुत्वा रामो राज्यमकारयत् ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीरामने अयोध्याके अधिपति होकर ग्यारह हजार वर्षोंतक राज्य किया था॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ ६२ ॥
मूलम्
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! वे चारों कल्याणकारी गुणोंमें तुमसे बढ़े-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्रसे भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी यहाँ रह न सके, तब दूसरोंकी क्या बात है? अतः तुम्हें अपने पुत्रके लिये शोक नहीं करना चाहिये॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगीरथं च राजानं मृतं सृंजय शुश्रुम।
यस्येन्द्रो वितते यज्ञे सोमं पीत्वा मदोत्कटः ॥ ६३ ॥
असुराणां सहस्राणि बहूनि सुरसत्तमः।
अजयद् बाहुवीर्येण भगवान् पाकशासनः ॥ ६४ ॥
मूलम्
भगीरथं च राजानं मृतं सृंजय शुश्रुम।
यस्येन्द्रो वितते यज्ञे सोमं पीत्वा मदोत्कटः ॥ ६३ ॥
असुराणां सहस्राणि बहूनि सुरसत्तमः।
अजयद् बाहुवीर्येण भगवान् पाकशासनः ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! राजा भगीरथ भी कालके गालमें चले गये, ऐसा हमने सुना है। जिनके विस्तृत यज्ञमें सोम पीकर मदोन्मत्त हुए सुरश्रेष्ठ भगवान् पाकशासन इन्द्रने अपने बाहुबलसे कई सहस्र असुरोंको पराजित किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः सहस्रं सहस्राणां कन्या हेमविभूषिताः।
ईजानो वितते यज्ञे दक्षिणामत्यकालयत् ॥ ६५ ॥
मूलम्
यः सहस्रं सहस्राणां कन्या हेमविभूषिताः।
ईजानो वितते यज्ञे दक्षिणामत्यकालयत् ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिन्होंने यज्ञ करते समय अपने विशाल यज्ञमें सोनेके आभूषणोंसे विभूषित दस लाख कन्याओंका दक्षिणारूपमें दान किया था॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वा रथगताः कन्या रथाः सर्वे चतुर्युजः।
शतं शतं रथे नागाः पद्मिनो हेममालिनः ॥ ६६ ॥
मूलम्
सर्वा रथगताः कन्या रथाः सर्वे चतुर्युजः।
शतं शतं रथे नागाः पद्मिनो हेममालिनः ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे सभी कन्याएँ अलग-अलग रथमें बैठी हुई थीं। प्रत्येक रथमें चार-चार घोड़े जुते हुए थे। हर एक रथके पीछे सोनेकी मालाओंसे विभूषित तथा मस्तकपर कमलके चिह्नोंसे अलंकृत सौ-सौ हाथी थे॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्रमश्वा एकैकं हस्तिनं पृष्ठतोऽन्वयुः।
गवां सहस्रमश्वेऽश्वे सहस्त्रं गव्यजाविकम् ॥ ६७ ॥
मूलम्
सहस्रमश्वा एकैकं हस्तिनं पृष्ठतोऽन्वयुः।
गवां सहस्रमश्वेऽश्वे सहस्त्रं गव्यजाविकम् ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रत्येक हाथीके पीछे एक-एक हजार घोड़े, हर एक घोड़के पीछे हजार-हजार गायें और एक-एक गायके साथ हजार-हजार भेड़-बकरियाँ चल रही थीं॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपह्वरे निवसतो यस्याङ्के निषसाद ह।
गङ्गा भागीरथी तस्मादुर्वशी चाभवत् पुरा ॥ ६८ ॥
मूलम्
उपह्वरे निवसतो यस्याङ्के निषसाद ह।
गङ्गा भागीरथी तस्मादुर्वशी चाभवत् पुरा ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तटके निकट निवास करते समय गंगाजी राजा भगीरथकी गोदमें आ बैठी थीं। इसलिये वे पूर्वकालमें भागीरथी और उर्वशी नामसे प्रसिद्ध हुईं॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूरिदक्षिणमिक्ष्वाकुं यजमानं भगीरथम् ।
त्रिलोकपथगा गङ्गा दुहितृत्वमुपेयुषी ॥ ६९ ॥
मूलम्
भूरिदक्षिणमिक्ष्वाकुं यजमानं भगीरथम् ।
त्रिलोकपथगा गङ्गा दुहितृत्वमुपेयुषी ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘त्रिपथगामिनी गंगाने पुत्रीभावको प्राप्त होकर पर्याप्त दक्षिणा देनेवाले इक्ष्वाकुवंशी यजमान भगीरथको अपना पिता माना॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ ७० ॥
मूलम्
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सृंजय! वे पूर्वोक्त चारों बातोंमें तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्रसे अधिक पुण्यात्मा थे, जब वे भी कालसे न बच सके तो दूसरोंके लिये क्या कहा जा सकता है? अतः तुम अपने पुत्रके लिये शोक न करो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिलीपं च महात्मानं मृतं सृंजय शुश्रुम।
यस्य कर्माणि भूरीणि कथयन्ति द्विजातयः ॥ ७१ ॥
मूलम्
दिलीपं च महात्मानं मृतं सृंजय शुश्रुम।
यस्य कर्माणि भूरीणि कथयन्ति द्विजातयः ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! महामना राजा दिलीप भी मरे थे, यह सुननेमें आया है। उनके महान् कर्मोंका आज भी ब्राह्मणलोग वर्णन करते हैं॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
य इमां वसुसम्पूर्णां वसुधां वसुधाधिपः।
ददौ तस्मिन् महायज्ञे ब्राह्मणेभ्यः समाहितः ॥ ७२ ॥
मूलम्
य इमां वसुसम्पूर्णां वसुधां वसुधाधिपः।
ददौ तस्मिन् महायज्ञे ब्राह्मणेभ्यः समाहितः ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘एकाग्रचित्त हुए उन नरेशने अपने उस महायज्ञमें रत्न और धनसे परिपूर्ण इस सारी पृथ्वीका ब्राह्मणोंके लिये दान कर दिया था॥७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्येह यजमानस्य यज्ञे यज्ञे पुरोहितः।
सहस्रं वारणान् हैमान् दक्षिणामत्यकालयत् ॥ ७३ ॥
मूलम्
यस्येह यजमानस्य यज्ञे यज्ञे पुरोहितः।
सहस्रं वारणान् हैमान् दक्षिणामत्यकालयत् ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यजमान दिलीपके प्रत्येक यज्ञमें पुरोहितजी सोनेके बने हुए एक हजार हाथी दक्षिणारूपमें पाकर उन्हें अपने घर ले जाते थे॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य यज्ञे महानासीद् यूपः श्रीमान् हिरण्मयः।
तं देवाः कर्म कुर्वाणाः शक्रज्येष्ठा उपाश्रयन् ॥ ७४ ॥
मूलम्
यस्य यज्ञे महानासीद् यूपः श्रीमान् हिरण्मयः।
तं देवाः कर्म कुर्वाणाः शक्रज्येष्ठा उपाश्रयन् ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उनके यज्ञमें सोनेका बना हुआ कालियुक्त बहुत बड़ा यूप शोभा पाता था। यज्ञकर्म करते हुए इन्द्र आदि देवता सदा उसी यूपका आश्रय लेकर रहते थे॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चषाले यस्य सौवर्णे तस्मिन् यूपे हिरण्मये।
ननृतुर्देवगन्धर्वाः षट् सहस्राणि सप्तधा ॥ ७५ ॥
अवादयत् तत्र वीणां मध्ये विश्वावसुः स्वयम्।
सर्वभूतान्यमन्यन्त मम वादयतीत्ययम् ॥ ७६ ॥
मूलम्
चषाले यस्य सौवर्णे तस्मिन् यूपे हिरण्मये।
ननृतुर्देवगन्धर्वाः षट् सहस्राणि सप्तधा ॥ ७५ ॥
अवादयत् तत्र वीणां मध्ये विश्वावसुः स्वयम्।
सर्वभूतान्यमन्यन्त मम वादयतीत्ययम् ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उनके उस सुवर्णमय यूपमें जो सोनेका चषाल (घेरा) बना था, उसके ऊपर छः हजार देवगन्धर्व नृत्य किया करते थे। वहाँ साक्षात् विश्वावसु बीचमें बैठकर सात स्वरोंके अनुसार वीणा बजाया करते थे। उस समय सब प्राणी यही समझते थे कि ये मेरे ही आगे बाजा बजा रहे हैं॥७५-७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् राज्ञो दिलीपस्य राजानो नानुचक्रिरे।
यस्येभा हेमसंछन्नाः पथि मत्ताः स्म शेरते ॥ ७७ ॥
राजानं शतधन्वानं दिलीपं सत्यवादिनम्।
येऽपश्यन् सुमहात्मानं तेऽपि स्वर्गजितो नराः ॥ ७८ ॥
मूलम्
एतद् राज्ञो दिलीपस्य राजानो नानुचक्रिरे।
यस्येभा हेमसंछन्नाः पथि मत्ताः स्म शेरते ॥ ७७ ॥
राजानं शतधन्वानं दिलीपं सत्यवादिनम्।
येऽपश्यन् सुमहात्मानं तेऽपि स्वर्गजितो नराः ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजा दिलीपके इस महान् कर्मका अनुसरण दूसरे राजा नहीं कर सके। उनके सुनहरे साज-बाज और सोनेके आभूषणोंसे सजे हुए मतवाले हाथी रास्तेपर सोये रहते थे। सत्यवादी शतधन्वा महामनस्वी राजा दिलीपका जिन लोगोंने दर्शन किया था, उन्होंने भी स्वर्गलोकको जीत लिया॥७७-७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयः शब्दा न जीर्यन्ते दिलीपस्य निवेशने।
स्वाध्यायघोषो ज्याघोषो दीयतामिति वै त्रयः ॥ ७९ ॥
मूलम्
त्रयः शब्दा न जीर्यन्ते दिलीपस्य निवेशने।
स्वाध्यायघोषो ज्याघोषो दीयतामिति वै त्रयः ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज दिलीपके भवनमें वेदोंके स्वाध्यायका गम्भीर घोष, शूरवीरोंके धनुषकी टंकार तथा ‘दान दो’ की पुकार—ये तीन प्रकारके शब्द कभी बंद नहीं होते थे॥७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ ८० ॥
मूलम्
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! वे राजा दिलीप चारों कल्याणकारी गुणोंमें तुमसे बढ़कर थे। तुम्हारे पुत्रसे भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये तो दूसरोंकी क्या बात है? अतः तुम्हें अपने मरे हुए पुत्रके लिये शोक नहीं करना चाहिये॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मान्धातारं यौवनाश्वं मृतं सृंजय शुश्रुम।
यं देवा मरुतो गर्भं पितुः पार्श्वादपाहरन् ॥ ८१ ॥
मूलम्
मान्धातारं यौवनाश्वं मृतं सृंजय शुश्रुम।
यं देवा मरुतो गर्भं पितुः पार्श्वादपाहरन् ॥ ८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! जिन्हें मरुत् नामक देवताओंने गर्भावस्थामें पिताके पार्श्वभागको फाड़कर निकाला था, वे युवनाश्वके पुत्र मान्धाता भी मृत्युके अधीन हो गये, यह हमारे सुननेमें आया है॥८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समृद्धो युवनाश्वस्य जठरे यो महात्मनः।
पूषदाज्योद्भवः श्रीमांस्त्रिलोकविजयी नृपः ॥ ८२ ॥
मूलम्
समृद्धो युवनाश्वस्य जठरे यो महात्मनः।
पूषदाज्योद्भवः श्रीमांस्त्रिलोकविजयी नृपः ॥ ८२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘त्रिलोकविजयी श्रीमान् राजा मान्धाता पृषदाज्य (दधिमिश्रित घी जो पुत्रोत्पत्तिके लिये तैयार करके रखा गया था) से उत्पन्न हुए थे। वे अपने पिता महामना युवनाश्वके पेटमें ही पले थे॥८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं दृष्ट्वा पितुरुत्सङ्गे शयानं देवरूपिणम्।
अन्योन्यमब्रुवन् देवाः कमयं धास्यतीति वै ॥ ८३ ॥
मूलम्
यं दृष्ट्वा पितुरुत्सङ्गे शयानं देवरूपिणम्।
अन्योन्यमब्रुवन् देवाः कमयं धास्यतीति वै ॥ ८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब वे शिशु-अवस्थामें पिताके पेटसे पैदा हो उनकी गोदमें सो रहे थे, उस समय उनका रूप देवताओंके बालकोंके समान दिखायी देता था। उस अवस्थामें उन्हें देखकर देवता आपसमें बात करने लगे ‘यह मातृहीन बालक किसका दूध पीयेगा’॥८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मामेव धास्यतीत्येवमिन्द्रोऽथाभ्युपपद्यत ।
मान्धातेति ततस्तस्य नाम चक्रे शतक्रतुः ॥ ८४ ॥
मूलम्
मामेव धास्यतीत्येवमिन्द्रोऽथाभ्युपपद्यत ।
मान्धातेति ततस्तस्य नाम चक्रे शतक्रतुः ॥ ८४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह सुनकर इन्द्र बोल उठे ‘मां धाता—मेरा दूध पीयेगा।’ जब इन्द्रने इस प्रकार उसे पिलाना स्वीकार कर लिया, तबसे उन्होंने ही उस बालकका नाम ‘मान्धाता’ रख दिया॥८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु पयसो धारां पुष्टिहेतोर्महात्मनः।
तस्यास्ये यौवनाश्वस्य पाणिरिन्द्रस्य चास्रवत् ॥ ८५ ॥
मूलम्
ततस्तु पयसो धारां पुष्टिहेतोर्महात्मनः।
तस्यास्ये यौवनाश्वस्य पाणिरिन्द्रस्य चास्रवत् ॥ ८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तदनन्तर उस महामनस्वी बालक युवनाश्वकुमारकी पुष्टिके लिये उसके मुखमें इन्द्रके हाथसे दूधकी धारा झरने लगी॥८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं पिबन् पाणिमिन्द्रस्य शतमह्ना व्यवर्धत।
स आसीद् द्वादशसमो द्वादशाहेन पार्थिवः ॥ ८६ ॥
मूलम्
तं पिबन् पाणिमिन्द्रस्य शतमह्ना व्यवर्धत।
स आसीद् द्वादशसमो द्वादशाहेन पार्थिवः ॥ ८६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इन्द्रके उस हाथको पीता हुआ वह बालक एक ही दिनमें सौ दिनके बराबर बढ़ गया। बारह दिनोंमें राजकुमार मान्धाता बारह वर्षकी अवस्थावाले बालकके समान हो गये॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमिमं पृथिवी सर्वा एकाह्ना समपद्यत।
धर्मात्मानं महात्मानं शूरमिन्द्रसमं युधि ॥ ८७ ॥
मूलम्
तमिमं पृथिवी सर्वा एकाह्ना समपद्यत।
धर्मात्मानं महात्मानं शूरमिन्द्रसमं युधि ॥ ८७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजा मान्धाता बड़े धर्मात्मा और महामनस्वी थे। युद्धमें इन्द्रके समान शौर्य प्रकट करते थे। यह सारी पृथ्वी एक ही दिनमें उनके अधिकारमें आ गयी थी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्चाङ्गारं तु नृपतिं मरुत्तमसितं गयम्।
अङ्गं बृहद्रथं चैव मान्धाता समरेऽजयत् ॥ ८८ ॥
मूलम्
यश्चाङ्गारं तु नृपतिं मरुत्तमसितं गयम्।
अङ्गं बृहद्रथं चैव मान्धाता समरेऽजयत् ॥ ८८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मान्धाताने समरांगणमें राजा अंगार, मरुत्त, असित, गय तथा अंगराज बृहद्रथको भी पराजित कर दिया था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यौवनाश्वो यदाङ्गारं समरे प्रत्ययुध्यत।
विस्फारैर्धनुषो देवा द्यौरभेदीति मेनिरे ॥ ८९ ॥
मूलम्
यौवनाश्वो यदाङ्गारं समरे प्रत्ययुध्यत।
विस्फारैर्धनुषो देवा द्यौरभेदीति मेनिरे ॥ ८९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिस समय युवनाश्वपुत्र मान्धाताने रणभूमिमें राजा अङ्गारके साथ युद्ध किया था, उस समय देवताओंने ऐसा समझा कि ‘उनके धनुषकी टंकारसे सारा आकाश ही फट पड़ा है’॥८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र सूर्य उदेति स्म यत्र च प्रतितिष्ठति।
सर्वं तद् यौवनाश्वस्य मान्धातुः क्षेत्रमुच्यते ॥ ९० ॥
मूलम्
यत्र सूर्य उदेति स्म यत्र च प्रतितिष्ठति।
सर्वं तद् यौवनाश्वस्य मान्धातुः क्षेत्रमुच्यते ॥ ९० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जहाँ सूर्य उदय होते हैं वहाँसे लेकर जहाँ अस्त होते हैं वहाँतकका सारा देश युवनाश्वपुत्र मान्धाताका ही राज्य कहलाता था॥९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वमेधशतेनेष्ट्वा राजसूयशतेन च ।
अददाद् रोहितान् मत्स्यान् ब्राह्मणेभ्यो विशाम्पते ॥ ९१ ॥
हैरण्यान् योजनोत्सेधानायतान् दशयोजनम् ।
अतिरिक्तान् द्विजातिभ्यो व्यभजंस्त्वितरे जनाः ॥ ९२ ॥
मूलम्
अश्वमेधशतेनेष्ट्वा राजसूयशतेन च ।
अददाद् रोहितान् मत्स्यान् ब्राह्मणेभ्यो विशाम्पते ॥ ९१ ॥
हैरण्यान् योजनोत्सेधानायतान् दशयोजनम् ।
अतिरिक्तान् द्विजातिभ्यो व्यभजंस्त्वितरे जनाः ॥ ९२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रजानाथ! उन्होंने सौ अश्वमेध तथा सौ राजसूय यज्ञ करके दस योजन लंबे तथा एक योजन ऊँचे बहुत-से सोनेके रोहित नामक मत्स्य बनवाकर ब्राह्मणोंको दान किये थे। ब्राह्मणोंके ले जानेसे जो बच गये, उन्हें दूसरे लोगोंने बाँट लिया॥९१-९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रनुतप्यथाः ॥ ९३ ॥
मूलम्
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रनुतप्यथाः ॥ ९३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! राजा मान्धाता चारों कल्याणमय गुणोंमें तुमसे बढ़े-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्रसे भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मारे गये, तब तुम्हारे पुत्रकी क्या बिसात है? अतः तुम उसके लिये शोक न करो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ययातिं नाहुषं चैव मृतं सृंजय शुश्रुम।
य इमां पृथिवीं कृत्स्नां विजित्य सहसागराम् ॥ ९४ ॥
शम्यापातेनाभ्यतीयाद् वेदीभिश्चित्रयन् महीम् ।
ईजानः क्रतुभिर्मुख्यैः पर्यगच्छद् वसुन्धराम् ॥ ९५ ॥
मूलम्
ययातिं नाहुषं चैव मृतं सृंजय शुश्रुम।
य इमां पृथिवीं कृत्स्नां विजित्य सहसागराम् ॥ ९४ ॥
शम्यापातेनाभ्यतीयाद् वेदीभिश्चित्रयन् महीम् ।
ईजानः क्रतुभिर्मुख्यैः पर्यगच्छद् वसुन्धराम् ॥ ९५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! नहुषपुत्र राजा ययाति भी जीवित न रह सके—यह हमने सुना है। उन्होंने समुद्रोंसहित इस सारी पृथ्वीको जीतकर शम्यापातके[^*] द्वारा पृथ्वीको नाप-नापकर यज्ञकी वेदियाँ बनायीं, जिनसे भूतलकी विचित्र शोभा होने लगी। उन्हीं वेदियोंपर मुख्य-मुख्य यज्ञोंका अनुष्ठान करते हुए उन्होंने सारी भारतभूमिकी परिक्रमा कर डाली॥९४-९५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इष्ट्वा क्रतुसहस्रेण वाजपेयशतेन च।
तर्पयामास विप्रेन्द्रांस्त्रिभिः काञ्चनपर्वतैः ॥ ९६ ॥
मूलम्
इष्ट्वा क्रतुसहस्रेण वाजपेयशतेन च।
तर्पयामास विप्रेन्द्रांस्त्रिभिः काञ्चनपर्वतैः ॥ ९६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन्होंने एक हजार श्रौतयज्ञों और सौ वाजपेय यज्ञोंका अनुष्ठान किया तथा श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको सोनेके तीन पर्वत दान करके पूर्णतः संतुष्ट किया॥९६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यूढेनासुरयुद्धेन हत्वा दैतेयदानवान् ।
व्यभजत् पृथिवीं कृत्स्नां ययातिर्नहुषात्मजः ॥ ९७ ॥
मूलम्
व्यूढेनासुरयुद्धेन हत्वा दैतेयदानवान् ।
व्यभजत् पृथिवीं कृत्स्नां ययातिर्नहुषात्मजः ॥ ९७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नहुषपुत्र ययातिने व्यूह-रचनायुक्त आसुर युद्धके द्वारा दैत्यों और दानवोंका संहार करके यह सारी पृथ्वी अपने पुत्रोंको बाँट दी थी॥९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्त्येषु पुत्रान् निक्षिप्य यदुद्रुद्युपुरोगमान्।
पुरुं राज्येऽभिषिच्याथ सदारः प्राविशद् वनम् ॥ ९८ ॥
मूलम्
अन्त्येषु पुत्रान् निक्षिप्य यदुद्रुद्युपुरोगमान्।
पुरुं राज्येऽभिषिच्याथ सदारः प्राविशद् वनम् ॥ ९८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन्होंने किनारेके प्रदेशोंपर अपने तीन पुत्र यदु, द्रुह्यु तथा अनुको स्थापित करके मध्य भारतके राज्यपर पूरुको अभिषिक्त किया; फिर अपनी स्त्रियोंके साथ वे वनमें चले गये॥९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ ९९ ॥
मूलम्
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ ९९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! वे तुम्हारी अपेक्षा चारों कल्याणमय गुणोंमें बढ़े हुए थे और तुम्हारे पुत्रसे भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हारा पुत्र किस गिनतीमें है? अतः तुम उसके लिये शोक न करो॥९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्बरीषं च नाभागं मृतं सृंजय शुश्रुम।
यं प्रजा वव्रिरे पुण्यं गोप्तारं नृपसत्तमम् ॥ १०० ॥
मूलम्
अम्बरीषं च नाभागं मृतं सृंजय शुश्रुम।
यं प्रजा वव्रिरे पुण्यं गोप्तारं नृपसत्तमम् ॥ १०० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! हमने सुना है कि नाभागके पुत्र अम्बरीष भी मृत्युके अधीन हो गये थे। उन नृपश्रेष्ठ अम्बरीषको सारी प्रजाने अपना पुण्यमय रक्षक माना था॥१००॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः सहस्रं सहस्राणां राज्ञामयुतयाजिनाम्।
ईजानो वितते यज्ञे ब्राह्मणेभ्यः सुसंहितः ॥ १०१ ॥
मूलम्
यः सहस्रं सहस्राणां राज्ञामयुतयाजिनाम्।
ईजानो वितते यज्ञे ब्राह्मणेभ्यः सुसंहितः ॥ १०१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्राह्मणोंके प्रति अनुराग रखनेवाले राजा अम्बरीषने यज्ञ करते समय अपने विशाल यज्ञमण्डपमें दस लाख ऐसे राजाओंको उन ब्राह्मणोंकी सेवामें नियुक्त किया था, जो स्वयं भी दस-दस हजार यज्ञ कर चुके थे॥१०१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतत् पूर्वे जनाश्चक्रुर्न करिष्यन्ति चापरे।
इत्यम्बरीषं नाभागिमन्वमोदन्त दक्षिणाः ॥ १०२ ॥
मूलम्
नैतत् पूर्वे जनाश्चक्रुर्न करिष्यन्ति चापरे।
इत्यम्बरीषं नाभागिमन्वमोदन्त दक्षिणाः ॥ १०२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन यज्ञकुशल ब्राह्मणोंने नाभागपुत्र अम्बरीषकी सराहना करते हुए कहा था कि ‘ऐसा यज्ञ न तो पहलेके राजाओंने किया है और न भविष्यमें होनेवाले ही करेंगे’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शतं राजसहस्राणि शतं राजशतानि च।
सर्वेऽश्वमेधैरीजानास्तेऽन्वयुर्दक्षिणायनम् ॥ १०३ ॥
मूलम्
शतं राजसहस्राणि शतं राजशतानि च।
सर्वेऽश्वमेधैरीजानास्तेऽन्वयुर्दक्षिणायनम् ॥ १०३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उनके यज्ञमें एक लाख दस हजार राजा सेवाकार्य करते थे। वे सभी अश्वमेधयज्ञका फल पाकर दक्षिणायनके पश्चात् आनेवाले उत्तरायणमार्गसे ब्रह्मलोकमें चले गये थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ १०४ ॥
मूलम्
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ १०४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! राजा अम्बरीष चारों कल्याणकारी गुणोंमें तुमसे बढ़कर थे और तुम्हारे पुत्रसे बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी जीवित न रह सके तो दूसरेके लिये क्या कहा जा सकता है? अतः तुम अपने मरे हुए पुत्रके लिये शोक न करो॥१०४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शशबिन्दुं चैत्ररथं मृतं शुश्रुम सृंजय।
यस्य भार्यासहस्राणां शतमासीन्महात्मनः ॥ १०५ ॥
सहस्रं तु सहस्राणां यस्यासन् शाशबिन्दवाः।
मूलम्
शशबिन्दुं चैत्ररथं मृतं शुश्रुम सृंजय।
यस्य भार्यासहस्राणां शतमासीन्महात्मनः ॥ १०५ ॥
सहस्रं तु सहस्राणां यस्यासन् शाशबिन्दवाः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! हम सुनते हैं कि चित्ररथके पुत्र शशबिन्दु भी मृत्युसे अपनी रक्षा न कर सके। उन महामना नरेशके एक लाख रानियाँ थीं और उनके गर्भसे राजाके दस लाख पुत्र उत्पन्न हुए थे॥१०५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरण्यकवचाः सर्वे सर्वे चोत्तमधन्विनः ॥ १०६ ॥
शतं कन्या राजपुत्रमेकैकं पृथगन्वयुः।
कन्यां कन्यां शतं नागा नागं नागं शतं रथाः॥१०७॥
मूलम्
हिरण्यकवचाः सर्वे सर्वे चोत्तमधन्विनः ॥ १०६ ॥
शतं कन्या राजपुत्रमेकैकं पृथगन्वयुः।
कन्यां कन्यां शतं नागा नागं नागं शतं रथाः॥१०७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे सभी राजकुमार सुवर्णमय कवच धारण करनेवाले और उत्तम धनुर्धर थे। एक-एक राजकुमारको अलग-अलग सौ-सौ कन्याएँ ब्याही गयी थीं। प्रत्येक कन्याके साथ सौ-सौ हाथी प्राप्त हुए थे। हर एक हाथीके पीछे सौ-सौ रथ मिले थे॥१०६-१०७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथे रथे शतं चाश्वा देशजा हेममालिनः।
अश्वे अश्वे शतं गावो गवां तद्वदजाविकम् ॥ १०८ ॥
मूलम्
रथे रथे शतं चाश्वा देशजा हेममालिनः।
अश्वे अश्वे शतं गावो गवां तद्वदजाविकम् ॥ १०८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रत्येक रथके साथ सुवर्णमालाधारी सौ-सौ देशीय घोड़े थे। हर एक अश्वके साथ सौ गायें और एक-एक गायके साथ सौ-सौ भेड़-बकरियाँ प्राप्त हुई थीं॥१०८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् धनमपर्यन्तमश्वमेधे महामखे ।
शशबिन्दुर्महाराज ब्राह्मणेभ्यः समार्पयत् ॥ १०९ ॥
मूलम्
एतद् धनमपर्यन्तमश्वमेधे महामखे ।
शशबिन्दुर्महाराज ब्राह्मणेभ्यः समार्पयत् ॥ १०९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! राजा शशबिन्दुने यह अनन्त धनराशि अश्वमेध नामक महायज्ञमें ब्राह्मणोंको दान कर दी थी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ ११० ॥
मूलम्
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ ११० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! वे चारों कल्याणकारी गुणोंमें तुमसे बढ़े-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्रसे बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी मृत्युसे बच न सके, तब तुम्हारे पुत्रके लिये क्या कहा जाय? अतः तुम्हें अपने मरे हुए पुत्रके लिये शोक नहीं करना चाहिये॥११०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गयं चामूर्तरयसं मृतं शुश्रुम सृंजय।
यः स वर्षशतं राजा हुतशिष्टाशनोऽभवत् ॥ १११ ॥
मूलम्
गयं चामूर्तरयसं मृतं शुश्रुम सृंजय।
यः स वर्षशतं राजा हुतशिष्टाशनोऽभवत् ॥ १११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! सुननेमें आया है कि अमूर्तरयाके पुत्र राजा गयकी भी मृत्यु हुई थी। उन्होंने सौ वर्षोंतक होमसे अवशिष्ट अन्नका ही भोजन किया॥१११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मै वह्निर्वरं प्रादात् ततो वव्रे वरान् गयः।
ददतो योऽक्षयं वित्तं धर्मे श्रद्धा च वर्धताम् ॥ ११२ ॥
मनो मे रमतां सत्ये त्वत्प्रसादाद् हुताशन।
मूलम्
यस्मै वह्निर्वरं प्रादात् ततो वव्रे वरान् गयः।
ददतो योऽक्षयं वित्तं धर्मे श्रद्धा च वर्धताम् ॥ ११२ ॥
मनो मे रमतां सत्ये त्वत्प्रसादाद् हुताशन।
अनुवाद (हिन्दी)
‘एक समय अग्निदेवने उन्हें वर माँगनेके लिये कहा, तब राजा गयने ये वर माँगे, ‘अग्निदेव! आपकी कृपासे दान करते हुए मेरे पास अक्षय धनका भंडार भरा रहे। धर्ममें मेरी श्रद्धा बढ़ती रहे और मेरा मन सदा सत्यमें ही अनुरक्त रहे’॥११२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लेभे च कामांस्तान् सर्वान् पावकादिति नः श्रुतम् ॥ ११३ ॥
दर्शैश्च पूर्णमासैश्च चातुर्मास्यैः पुनः पुनः।
अयजद्धयमेधेन सहस्रं परिवत्सरान् ॥ ११४ ॥
मूलम्
लेभे च कामांस्तान् सर्वान् पावकादिति नः श्रुतम् ॥ ११३ ॥
दर्शैश्च पूर्णमासैश्च चातुर्मास्यैः पुनः पुनः।
अयजद्धयमेधेन सहस्रं परिवत्सरान् ॥ ११४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुना है कि उन्हें अग्निदेवसे वे सभी मनोवाञ्छित फल प्राप्त हो गये थे। उन्होंने एक हजार वर्षोंतक बारंबार दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य तथा अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान किया था॥११३-११४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शतं गवां सहस्राणि शतमश्वतराणि च।
उत्थायोत्थाय वै प्रादात् सहस्रं परिवत्सरान् ॥ ११५ ॥
मूलम्
शतं गवां सहस्राणि शतमश्वतराणि च।
उत्थायोत्थाय वै प्रादात् सहस्रं परिवत्सरान् ॥ ११५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे हजार वर्षोंतक प्रतिदिन सबेरे उठ-उठकर एक-एक लाख गौओं और सौ-सौ खच्चरोंका दान करते थे॥११५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तर्पयामास सोमेन देवान् वित्तैर्द्विजानपि।
पितॄन् स्वधाभिः कामैश्च स्त्रियः स पुरुषर्षभ ॥ ११६ ॥
मूलम्
तर्पयामास सोमेन देवान् वित्तैर्द्विजानपि।
पितॄन् स्वधाभिः कामैश्च स्त्रियः स पुरुषर्षभ ॥ ११६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुरुषप्रवर! इन्होंने सोमरसके द्वारा देवताओंको, धनके द्वारा ब्राह्मणोंको, श्राद्धकर्मसे पितरोंको और कामभोगद्वारा स्त्रियोंको तृप्त किया था॥११६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सौवर्णीं पृथिवीं कृत्वा दशव्यामां द्विरायताम्।
दक्षिणामददद् राजा वाजिमेधे महाक्रतौ ॥ ११७ ॥
मूलम्
सौवर्णीं पृथिवीं कृत्वा दशव्यामां द्विरायताम्।
दक्षिणामददद् राजा वाजिमेधे महाक्रतौ ॥ ११७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजा गयने महायज्ञ अश्वमेधमें दस व्याम (पचास हाथ) चौड़ी और इससे दूनी लंबी सोनेकी पृथ्वी बनवाकर दक्षिणारूपसे दान की थी॥११७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावत्यः सिकता राजन् गङ्गायां पुरुषर्षभ।
तावतीरेव गाः प्रादादामूर्तरयसो गयः ॥ ११८ ॥
मूलम्
यावत्यः सिकता राजन् गङ्गायां पुरुषर्षभ।
तावतीरेव गाः प्रादादामूर्तरयसो गयः ॥ ११८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुरुषप्रवर नरेश! गंगाजीमें जितने बालूके कण हैं, अमूर्तरयाके पुत्र गयने उतनी ही गौओंका दान किया था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ ११९ ॥
मूलम्
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ ११९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! वे चारों कल्याणकारी गुणोंमें तुमसे बढ़े-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्रसे बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हारे पुत्रकी क्या बात है? अतः तुम उसके लिये शोक न करो॥११९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रन्तिदेवं च सांकृत्यं मृतं सृंजय शुश्रुम।
सम्यगाराध्य यः शक्राद् वरं लेभे महातपाः ॥ १२० ॥
अन्नं च नो बहु भवेदतिथींश्च लभेमहि।
श्रद्धा च नो मा व्यगमन्मा च याचिष्म कंचन॥१२१॥
मूलम्
रन्तिदेवं च सांकृत्यं मृतं सृंजय शुश्रुम।
सम्यगाराध्य यः शक्राद् वरं लेभे महातपाः ॥ १२० ॥
अन्नं च नो बहु भवेदतिथींश्च लभेमहि।
श्रद्धा च नो मा व्यगमन्मा च याचिष्म कंचन॥१२१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! संकृतिके पुत्र राज रन्तिदेव भी कालके गालमें चले गये, यह हमारे सुननेमें आया है। उन महातपस्वी नरेशने इन्द्रकी अच्छी तरह आराधना करके उनसे यह वर माँगा कि ‘हमारे पास अन्न बहुत हो, हम सदा अतिथियोंकी सेवाका अवसर प्राप्त करें, हमारी श्रद्धा दूर न हो और हम किसीसे कुछ भी न माँगें’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपातिष्ठन्त पशवः स्वयं तं संशितव्रतम्।
ग्राम्यारण्या महात्मानं रन्तिदेवं यशस्विनम् ॥ १२२ ॥
मूलम्
उपातिष्ठन्त पशवः स्वयं तं संशितव्रतम्।
ग्राम्यारण्या महात्मानं रन्तिदेवं यशस्विनम् ॥ १२२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कठोर व्रतका पालन करनेवाले, यशस्वी महात्मा राजा रन्तिदेवके पास गाँवों और जंगलोंके पशु अपने-आप यज्ञके लिये उपस्थित हो जाते थे॥१२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महानदी चर्मराशेरुत्क्लेदात् ससृजे यतः।
ततश्चर्मण्वतीत्येवं विख्याता सा महानदी ॥ १२३ ॥
मूलम्
महानदी चर्मराशेरुत्क्लेदात् ससृजे यतः।
ततश्चर्मण्वतीत्येवं विख्याता सा महानदी ॥ १२३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वहाँ भीगी चर्मराशिसे जो जल बहता था, उससे एक विशाल नदी प्रकट हो गयी, जो चर्मण्वती (चम्बल) के नामसे विख्यात हुई॥१२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणेभ्यो ददौ निष्कान् सदसि प्रतते नृपः।
तुभ्यं निष्कं तुभ्यं निष्कमिति क्रोशन्ति वै द्विजाः ॥ १२४ ॥
सहस्रं तुभ्यमित्युक्त्वा ब्राह्मणान् सम्प्रपद्यते।
मूलम्
ब्राह्मणेभ्यो ददौ निष्कान् सदसि प्रतते नृपः।
तुभ्यं निष्कं तुभ्यं निष्कमिति क्रोशन्ति वै द्विजाः ॥ १२४ ॥
सहस्रं तुभ्यमित्युक्त्वा ब्राह्मणान् सम्प्रपद्यते।
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजा अपने विशाल यज्ञमें ब्राह्मणोंको सोनेके निष्क दिया करते थे। वहाँ द्विजलोग पुकार-पुकारकर कहते कि ‘ब्राह्मणो! यह तुम्हारे लिये निष्क है, यह तुम्हारे लिये निष्क है’ परंतु कोई लेनेवाला आगे नहीं बढ़ता था। फिर वे यह कहकर कि ‘तुम्हारे लिये एक सहस्र निष्क है’, लेनेवाले ब्राह्मणोंको उपलब्ध कर पाते थे॥१२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्वाहार्योपकरणं द्रव्योपकरणं च यत् ॥ १२५ ॥
घटाः पात्र्यः कटाहानि स्थाल्यश्च पिठराणि च।
नासीत् किंचिदसौवर्णं रन्तिदेवस्य धीमतः ॥ १२६ ॥
मूलम्
अन्वाहार्योपकरणं द्रव्योपकरणं च यत् ॥ १२५ ॥
घटाः पात्र्यः कटाहानि स्थाल्यश्च पिठराणि च।
नासीत् किंचिदसौवर्णं रन्तिदेवस्य धीमतः ॥ १२६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बुद्धिमान् राजा रन्तिदेवके उस यज्ञमें अन्वाहार्य अग्निमें आहुति देनेके लिये जो उपकरण थे तथा द्रव्य-संग्रहके लिये जो उपकरण—घड़े, पात्र, कड़ाहे, बटलोई और कठौते आदि सामान थे, उनमेंसे कोई भी ऐसा नहीं था, जो सोनेका बना हुआ न हो॥१२५-१२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सांकृते रन्तिदेवस्य यां रात्रिमवसन् गृहे।
आलभ्यन्त शतं गावः सहस्राणि च विंशतिः ॥ १२७ ॥
मूलम्
सांकृते रन्तिदेवस्य यां रात्रिमवसन् गृहे।
आलभ्यन्त शतं गावः सहस्राणि च विंशतिः ॥ १२७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘संकृतिके पुत्र राजा रन्तिदेवके घरमें जिस रातको अतिथियोंका समुदाय निवास करता था, उस समय उन्हें बीस हजार एक सौ गौएँ छूकर दी जाती थीं॥१२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र स्म सूदाः क्रोशन्ति सुमृष्टमणिकुण्डलाः।
सूपं भूयिष्ठमश्नीध्वं नाद्य भोज्यं यथा पुरा ॥ १२८ ॥
मूलम्
तत्र स्म सूदाः क्रोशन्ति सुमृष्टमणिकुण्डलाः।
सूपं भूयिष्ठमश्नीध्वं नाद्य भोज्यं यथा पुरा ॥ १२८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वहाँ विशुद्ध मणिमय कुण्डल धारण किये रसोइये पुकार-पुकारकर कहते थे कि ‘आपलोग खूब दाल-भात खाइये। आजका भोजन पहले जैसा नहीं है, अर्थात् पहलेकी अपेक्षा बहुत अच्छा है’॥१२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ १२९ ॥
मूलम्
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ १२९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! रन्तिदेव तुमसे पूर्वोक्त चारों गुणोंमें बढ़े-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्रसे बहुत अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हारे पुत्रकी क्या बात है? अतः तुम उसके लिये शोक न करो॥१२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगरं च महात्मानं मृतं शुश्रुम सृंजय।
ऐक्ष्वाकं पुरुषव्याघ्रमतिमानुषविक्रमम् ॥ १३० ॥
मूलम्
सगरं च महात्मानं मृतं शुश्रुम सृंजय।
ऐक्ष्वाकं पुरुषव्याघ्रमतिमानुषविक्रमम् ॥ १३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! इक्ष्वाकुवंशी पुरुषसिंह महामना सगर भी मरे थे, ऐसा सुननेमें आया है। उनका पराक्रम अलौकिक था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
षष्टिः पुत्रसहस्राणि यं यान्तमनुजग्मिरे।
नक्षत्रराजं वर्षान्ते व्यभ्रे ज्योतिर्गणा इव ॥ १३१ ॥
मूलम्
षष्टिः पुत्रसहस्राणि यं यान्तमनुजग्मिरे।
नक्षत्रराजं वर्षान्ते व्यभ्रे ज्योतिर्गणा इव ॥ १३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे वर्षाके अन्त (शरद्) में बादलोंसे रहित आकाशके भीतर तारे नक्षत्रराज चन्द्रमाका अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार राजा सगर जब युद्ध आदिके लिये कहीं यात्रा करते थे, तब उनके साठ हजार पुत्र उन नरेशके पीछे-पीछे चलते थे॥१३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकच्छत्रा मही यस्य प्रतापादभवत् पुरा।
योऽश्वमेधसहस्रेण तर्पयामास देवताः ॥ १३२ ॥
मूलम्
एकच्छत्रा मही यस्य प्रतापादभवत् पुरा।
योऽश्वमेधसहस्रेण तर्पयामास देवताः ॥ १३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पूर्वकालमें राजाके प्रतापसे एकछत्र पृथ्वी उनके अधिकारमें आ गयी थी। उन्होंने एक सहस्र अश्वमेध यज्ञ करके देवताओंको तृप्त किया था॥१३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः प्रादात् कनकस्तम्भं प्रासादं सर्वकाञ्चनम्।
पूर्णं पद्मदलाक्षीणां स्त्रीणां शयनसंकुलम् ॥ १३३ ॥
द्विजातिभ्योऽनुरूपेभ्यः कामांश्च विविधान् बहून्।
यस्यादेशेन तद् वित्तं व्यभजन्त द्विजातयः ॥ १३४ ॥
मूलम्
यः प्रादात् कनकस्तम्भं प्रासादं सर्वकाञ्चनम्।
पूर्णं पद्मदलाक्षीणां स्त्रीणां शयनसंकुलम् ॥ १३३ ॥
द्विजातिभ्योऽनुरूपेभ्यः कामांश्च विविधान् बहून्।
यस्यादेशेन तद् वित्तं व्यभजन्त द्विजातयः ॥ १३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजाने सोनेके खंभोंसे युक्त पूर्णतः सोनेका बना हुआ महल, जो कमलके समान नेत्रोंवाली सुन्दरी स्त्रियोंकी शय्याओंसे सुशोभित था, तैयार कराकर योग्य ब्राह्मणोंको दान किया। साथ ही नाना प्रकारकी भोगसामग्रियाँ भी प्रचुरमात्रामें उन्हें दी थीं। उनके आदेशसे ब्राह्मणोंने उनका सारा धन आपसमें बाँट लिया था॥१३३-१३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खानयामास यः कोपात् पृथिवीं सागराङ्किताम्।
यस्य नाम्ना समुद्रश्च सागरत्वमुपागतः ॥ १३५ ॥
मूलम्
खानयामास यः कोपात् पृथिवीं सागराङ्किताम्।
यस्य नाम्ना समुद्रश्च सागरत्वमुपागतः ॥ १३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘एक समय क्रोधमें आकर उन्होंने समुद्रसे चिह्नित सारी पृथ्वी खुदवा डाली थी। उन्हींके नामपर समुद्रकी ‘सागर’ संज्ञा हो गयी॥१३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ १३६ ॥
मूलम्
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ १३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! वे चारों कल्याणकारी गुणोंमें तुमसे बढ़े हुए थे। तुम्हारे पुत्रसे बहुत अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब तुम्हारे पुत्रकी क्या बात है? अतः तुम उसके लिये शोक न करो॥१३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजानं च पृथुं वैन्यं मृतं शुश्रुम सृंजय।
यमभ्यषिञ्चन् सम्भूय महारण्ये महर्षयः ॥ १३७ ॥
मूलम्
राजानं च पृथुं वैन्यं मृतं शुश्रुम सृंजय।
यमभ्यषिञ्चन् सम्भूय महारण्ये महर्षयः ॥ १३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! वेनके पुत्र महाराज पृथुको भी अपने शरीरका त्याग करना पड़ा था, ऐसा हमने सुना है। महर्षियोंने महान् वनमें एकत्र होकर उनका राज्याभिषेक किया था॥१३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रथयिष्यति वै लोकान् पृथुरित्येव शब्दितः।
क्षताद् यो वै त्रायतीति स तस्मात् क्षत्रियः स्मृतः॥१३८॥
मूलम्
प्रथयिष्यति वै लोकान् पृथुरित्येव शब्दितः।
क्षताद् यो वै त्रायतीति स तस्मात् क्षत्रियः स्मृतः॥१३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ऋषियोंने यह सोचकर कि सब लोकोंमें धर्मकी मर्यादा प्रथित (स्थापित) करेंगे, उनका नाम पृथु रखा था। वे क्षत अर्थात् दुःखसे सबका त्राण करते थे, इसलिये क्षत्रिय कहलाये॥१३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथुं वैन्यं प्रजा दृष्ट्वा रक्ताः स्मेति यदब्रुवन्।
ततो राजेति नामास्य अनुरागादजायत ॥ १३९ ॥
मूलम्
पृथुं वैन्यं प्रजा दृष्ट्वा रक्ताः स्मेति यदब्रुवन्।
ततो राजेति नामास्य अनुरागादजायत ॥ १३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वेननन्दन पृथुको देखकर समस्त प्रजाओंने एक साथ कहा कि ‘हम इनमें अनुरक्त हैं’ इस प्रकार प्रजाका रञ्जन करनेके कारण ही उनका नाम ‘राजा’ हुआ॥१३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकृष्टपच्या पृथिवी पुटके पुटके मधु।
सर्वा द्रोणदुघा गावो वैन्यस्यासन् प्रशासतः ॥ १४० ॥
मूलम्
अकृष्टपच्या पृथिवी पुटके पुटके मधु।
सर्वा द्रोणदुघा गावो वैन्यस्यासन् प्रशासतः ॥ १४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पृथुके शासनकालमें पृथ्वी बिना जोते ही धान्य उत्पन्न करती थी, वृक्षोंके पुट-पुटमें मधु (रस) भरा था और सारी गौएँ एक-एक दोन दूध देती थीं॥१४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरोगाः सर्वसिद्धार्था मनुष्या अकुतोभयाः।
यथाभिकाममवसन् क्षेत्रेषु च गृहेषु च ॥ १४१ ॥
मूलम्
अरोगाः सर्वसिद्धार्था मनुष्या अकुतोभयाः।
यथाभिकाममवसन् क्षेत्रेषु च गृहेषु च ॥ १४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनुष्य नीरोग थे। उनकी सारी कामनाएँ सर्वथा परिपूर्ण थीं और उन्हें कभी किसी चीजसे भय नहीं होता था। सब लोग इच्छानुसार घरों या खेतोंमें रह लेते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपस्तस्तम्भिरे चास्य समुद्रमभियास्यतः ।
सरितश्चानुदीर्यन्त ध्वजभङ्गश्च नाभवत् ॥ १४२ ॥
मूलम्
आपस्तस्तम्भिरे चास्य समुद्रमभियास्यतः ।
सरितश्चानुदीर्यन्त ध्वजभङ्गश्च नाभवत् ॥ १४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब वे समुद्रकी ओर यात्रा करते, उस समय उसका जल स्थिर हो जाता था। नदियोंकी बाढ़ शान्त हो जाती थी। उनके रथकी ध्वजा कभी भग्न नहीं होती थी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हैरण्यांस्त्रिनलोत्सेधान् पर्वतानेकविंशतिम् ।
ब्राह्मणेभ्यो ददौ राजा योऽश्वमेधे महामखे ॥ १४३ ॥
मूलम्
हैरण्यांस्त्रिनलोत्सेधान् पर्वतानेकविंशतिम् ।
ब्राह्मणेभ्यो ददौ राजा योऽश्वमेधे महामखे ॥ १४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजा पृथुने अश्वमेध नामक महायज्ञमें चार सौ हाथ ऊँचे इक्कीस सुवर्णमय पर्वत ब्राह्मणोंको दान किये थे॥१४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुप्यथाः ॥ १४४ ॥
मूलम्
स चेन्ममार सृंजय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुप्यथाः ॥ १४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! वे चारों कल्याणकारी गुणोंमें तुमसे बढ़े-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्रकी अपेक्षा बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हारे पुत्रकी क्या बात है? अतः तुम अपने मरे हुए पुत्रके लिये शोक न करो॥१४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं वा तूष्णीं ध्यायसे सृंजय त्वं
न मे राजन् वाचमिमां शृणोषि।
न चेन्मोघं विप्रलप्तं ममेदं
पथ्यं मुमूर्षोरिव सुप्रयुक्तम् ॥ १४५ ॥
मूलम्
किं वा तूष्णीं ध्यायसे सृंजय त्वं
न मे राजन् वाचमिमां शृणोषि।
न चेन्मोघं विप्रलप्तं ममेदं
पथ्यं मुमूर्षोरिव सुप्रयुक्तम् ॥ १४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सृंजय! तुम चुपचाप क्या सोच रहे हो। राजन्! मेरी इस बातको क्यों नहीं सुनते हो? जैसे मरणासन्न पुरुषके ऊपर अच्छी तरह प्रयोगमें लायी हुई ओषधि व्यर्थ जाती है, उसी प्रकार मेरा यह सारा प्रवचन निष्फल तो नहीं हो गया?’॥१४५॥
मूलम् (वचनम्)
सृंजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणोमि ते नारद वाचमेनां
विचित्रार्थां स्रजमिव पुण्यगन्धाम् ।
राजर्षीणां पुण्यकृतां महात्मनां
कीर्त्या युक्तानां शोकनिर्णाशनार्थाम् ॥ १४६ ॥
मूलम्
शृणोमि ते नारद वाचमेनां
विचित्रार्थां स्रजमिव पुण्यगन्धाम् ।
राजर्षीणां पुण्यकृतां महात्मनां
कीर्त्या युक्तानां शोकनिर्णाशनार्थाम् ॥ १४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सृंजयने कहा— नारद! पवित्र गन्धवाली मालाके समान विचित्र अर्थसे भरी हुई आपकी इस वाणीको मैं सुन रहा हूँ। पुण्यात्मा महामनस्वी और कीर्तिशाली राजर्षियोंके चरित्रसे युक्त आपका यह वचन सम्पूर्ण शोकोंका विनाश करनेवाला है॥१४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ते मोघं विप्रलप्तं महर्षे
दृष्ट्वैवाहं नारद त्वां विशोकः।
शुश्रूषे ते वचनं ब्रह्मवादिन्
न ते तृप्याम्यमृतस्येव पानात् ॥ १४७ ॥
मूलम्
न ते मोघं विप्रलप्तं महर्षे
दृष्ट्वैवाहं नारद त्वां विशोकः।
शुश्रूषे ते वचनं ब्रह्मवादिन्
न ते तृप्याम्यमृतस्येव पानात् ॥ १४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षि नारद! आपने जो कुछ कहा है, आपका यह उपदेश व्यर्थ नहीं गया है। आपका दर्शन करके ही मैं शोकरहित हो गया हूँ। ब्रह्मवादी मुने! मैं आपका यह प्रवचन सुनना चाहता हूँ और अमृतपानके समान उससे तृप्त नहीं हो रहा हूँ॥१४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमोघदर्शिन् मम चेत् प्रसादं
संतापदग्धस्य विभो प्रकुर्याः ।
सुतस्य सञ्जीवनमद्य मे स्यात्
तव प्रसादात् सुतसङ्गमश्च ॥ १४८ ॥
मूलम्
अमोघदर्शिन् मम चेत् प्रसादं
संतापदग्धस्य विभो प्रकुर्याः ।
सुतस्य सञ्जीवनमद्य मे स्यात्
तव प्रसादात् सुतसङ्गमश्च ॥ १४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आपका दर्शन अमोघ है। मैं पुत्रशोकके संतापसे दग्ध हो रहा हूँ। यदि आप मुझपर कृपा करें तो मेरा पुत्र फिर जीवित हो सकता है और आपके प्रसादसे मुझे पुनः पुत्र-मिलनका सुख सुलभ हो जायगा॥१४८॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्ते पुत्रो गमितोऽयं विजातः
स्वर्णष्ठीवी यमदात् पर्वतस्ते ।
पुनस्तु ते पुत्रमहं ददामि
हिरण्यनाभं वर्षसहस्रिणं च ॥ १४९ ॥
मूलम्
यस्ते पुत्रो गमितोऽयं विजातः
स्वर्णष्ठीवी यमदात् पर्वतस्ते ।
पुनस्तु ते पुत्रमहं ददामि
हिरण्यनाभं वर्षसहस्रिणं च ॥ १४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी कहते हैं— राजन्! तुम्हारे यहाँ जो यह सुवर्णष्ठीवी नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था और जिसे पर्वत मुनिने तुम्हें दिया था, वह तो चला गया। अब मैं पुनः हिरण्यनाभ नामक एक पुत्र दे रहा हूँ, जिसकी आयु एक हजार वर्षोंकी होगी॥१४९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि षोडशराजोपाख्याने एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥
Misc Detail
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें सोलह राजाओंका उपाख्यानविषयक* उन्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२९॥
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‘शम्या’ एक ऐसे काठके डंडेको कहते हैं, जिसका निचला भाग मोटा होता है। उसे जब कोई बलवान् पुरुष उठाकर चोरसे फेंके, तब जितनी दूरीपर जाकर वह गिरे, उतने भूभागको एक ‘शम्यापात’ कहते हैं। इस तरह एक-एक शम्यापातमें एक-एक यज्ञवेदी बनाते और यज्ञ करते हुए राजा ययाति आगे बढ़ते गये। इस प्रकार चलकर उन्होंने भारतभूमिकी परिक्रमा की थी।
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यह षोडश राजाओंका उपाख्यान द्रोणपर्वके पचपनवें अध्यायसे लेकर इकहत्तरवें अध्यायतक पहले आ चुका है। उसीको कुछ संक्षिप्त करके पुनः यहाँ लिया गया है। पहलेका परशुरामचरित्र इसमें संगृहीत नहीं हुआ है और पहले जो राजा पौरवका चरित्र आया था, उसके स्थानमें यहाँ अंगराज बृहद्रथके चरित्रका वर्णन है। कथाओंके क्रममें भी उलटा-पलटी हो गयी है। श्लोकोंके पाठोंमें भी कई जगह भेद दिखायी देता है।
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-अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम—ये सात सोम-संस्थाएँ हैं। ↩︎
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-पहले द्रोणपर्वमें जो सोलह राजाओंके प्रसंग आये हैं, उनमें और यहाँके प्रसंगमें पाठभेदोंके कारण बहुत अन्तर देखा जाता है। वहाँ भरतके द्वारा यमुनातटपर सौ, सरस्वतीतटपर तीन सौ और गंगातटपर चार सौ अश्वमेध यज्ञ किये गये थे—यह उल्लेख है। ↩︎