०२७ व्यासवाक्ये

भागसूचना

सप्तविंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरको शोकवश शरीर त्याग देनेके लिये उद्यत देख व्यासजीका उन्हें उससे निवारण करके समझाना

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिमन्यौ हते बाले द्रौपद्यास्तनयेषु च।
धृष्टद्युम्ने विराटे च द्रुपदे च महीपतौ ॥ १ ॥
वृषसेने च धर्मज्ञे धृष्टकेतौ तु पार्थिवे।
तथान्येषु नरेन्द्रेषु नानादेश्येषु संयुगे ॥ २ ॥
न च मुञ्चति मां शोको ज्ञातिघातिनमातुरम्।
राज्यकामुकमत्युग्रं स्ववंशोच्छेदकारिणम् ॥ ३ ॥

मूलम्

अभिमन्यौ हते बाले द्रौपद्यास्तनयेषु च।
धृष्टद्युम्ने विराटे च द्रुपदे च महीपतौ ॥ १ ॥
वृषसेने च धर्मज्ञे धृष्टकेतौ तु पार्थिवे।
तथान्येषु नरेन्द्रेषु नानादेश्येषु संयुगे ॥ २ ॥
न च मुञ्चति मां शोको ज्ञातिघातिनमातुरम्।
राज्यकामुकमत्युग्रं स्ववंशोच्छेदकारिणम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने व्यासजीसे कहा— मुनिश्रेष्ठ! इस युद्धमें बालक अभिमन्यु, द्रौपदीके पाँचों पुत्र, धृष्टद्युम्न, विराट, राजा द्रुपद, धर्मज्ञ वृषसेन, चेदिराज धृष्टकेतु तथा नाना देशोंके निवासी अन्यान्य नरेश भी वीरगतिको प्राप्त हुए हैं। मैं जाति-भाइयोंका घातक, राज्यका लोभी, अत्यन्त क्रूर और अपने वंशका विनाश करनेवाला निकला, यही सब सोचकर मुझे शोक नहीं छोड़ रहा है और मैं अत्यन्त आतुर हो रहा हूँ॥१—३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्यांके क्रीडमानेन मया वै परिवर्तितम्।
स मया राज्यलुब्धेन गांगेयो युधि पातितः ॥ ४ ॥

मूलम्

यस्यांके क्रीडमानेन मया वै परिवर्तितम्।
स मया राज्यलुब्धेन गांगेयो युधि पातितः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनकी गोदीमें खेलता हुआ मैं लोटपोट हो जाता था, उन्हीं पितामह गंगानन्दन भीष्मजीको मैंने राज्यके लोभसे मरवा डाला॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा ह्येनं विघूर्णन्तमपश्यं पार्थसायकैः।
कम्पमानं यथा वज्रैः प्रेक्ष्यमाणं शिखण्डिना ॥ ५ ॥
जीर्णसिंहमिव प्रांशुं नरसिंहं पितामहम्।
कीर्यमाणं शरैर्दृष्ट्वा भृशं मे व्यथितं मनः ॥ ६ ॥

मूलम्

यदा ह्येनं विघूर्णन्तमपश्यं पार्थसायकैः।
कम्पमानं यथा वज्रैः प्रेक्ष्यमाणं शिखण्डिना ॥ ५ ॥
जीर्णसिंहमिव प्रांशुं नरसिंहं पितामहम्।
कीर्यमाणं शरैर्दृष्ट्वा भृशं मे व्यथितं मनः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मैंने देखा कि अर्जुनके वज्रोपम बाणोंसे आहत हो बूढ़े सिंहके समान मेरे उन्नतकाय पुरुषसिंह पितामह कम्पित हो रहे हैं और उन्हें चक्कर-सा आने लगा है, शिखण्डी उनकी ओर देख रहा है और उनका सारा शरीर बाणोंसे खचाखच भर गया है तो यह सब देखकर मेरे मनमें बड़ी व्यथा हुई॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राङ्‌मुखं सीदमानं च रथे पररथारुजम्।
घूर्णमानं यथा शैलं तदा मे कश्मलोऽभवत् ॥ ७ ॥

मूलम्

प्राङ्‌मुखं सीदमानं च रथे पररथारुजम्।
घूर्णमानं यथा शैलं तदा मे कश्मलोऽभवत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो शत्रुदलके रथियोंको पीड़ा देनेमें समर्थ थे, वे पूर्वकी ओर मुँह करके चुपचाप बैठे हुए बाणोंका आघात सह रहे थे और जैसे पर्वत हिल रहा हो, उसी प्रकार झूम रहे थे। उस समय उनकी यह अवस्था देखकर मुझे मूर्छा-सी आ गयी थी॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः स बाणधनुष्पाणिर्योधयामास भार्गवम्।
बहून्यहानि कौरव्यः कुरुक्षेत्रे महामृधे ॥ ८ ॥
समेतं पार्थिवं क्षत्रं वाराणस्यां नदीसुतः।
कन्यार्थमाह्वयद् वीरो रथेनैकेन संयुगे ॥ ९ ॥
येन चोग्रायुधो राजा चक्रवर्ती दुरासदः।
दग्धश्चास्त्रप्रतापेन स मया युधि घातितः ॥ १० ॥

मूलम्

यः स बाणधनुष्पाणिर्योधयामास भार्गवम्।
बहून्यहानि कौरव्यः कुरुक्षेत्रे महामृधे ॥ ८ ॥
समेतं पार्थिवं क्षत्रं वाराणस्यां नदीसुतः।
कन्यार्थमाह्वयद् वीरो रथेनैकेन संयुगे ॥ ९ ॥
येन चोग्रायुधो राजा चक्रवर्ती दुरासदः।
दग्धश्चास्त्रप्रतापेन स मया युधि घातितः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन कुरुकुलशिरोमणि वीरने कुरुक्षेत्रमें महायुद्ध ठानकर हाथमें धनुष-बाण लिये बहुत दिनोंतक परशुरामजीके साथ युद्ध किया था, जिन वीर गंगा-नन्दन भीष्मने वाराणसीपुरीमें काशिराजकी कन्याओंके लिये युद्धका अवसर उपस्थित होनेपर एकमात्र रथके द्वारा वहाँ एकत्र हुए समस्त क्षत्रिय नरेशोंको ललकारा था तथा जिन्होंने दुर्जय चक्रवर्ती राजा उग्रायुधको अपने अस्त्रोंके प्रतापसे दग्ध कर दिया था, उन्हींको मैंने युद्धमें मरवा डाला॥८—१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयं मृत्युं रक्षमाणः पाञ्चाल्यं यः शिखण्डिनम्।
न बाणैः पातयामास सोऽर्जुनेन निपातितः ॥ ११ ॥

मूलम्

स्वयं मृत्युं रक्षमाणः पाञ्चाल्यं यः शिखण्डिनम्।
न बाणैः पातयामास सोऽर्जुनेन निपातितः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्होंने अपने लिये मृत्यु बनकर आये हुए पाञ्चाल राजकुमार शिखण्डीकी स्वयं ही रक्षा की और उसे बाणोंसे धराशायी नहीं किया, उन्हीं पितामहको अर्जुनने मार गिराया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदैनं पतितं भूमावपश्यं रुधिरोक्षितम्।
तदैवाविशदत्युग्रो ज्वरो मां मुनिसत्तम ॥ १२ ॥

मूलम्

यदैनं पतितं भूमावपश्यं रुधिरोक्षितम्।
तदैवाविशदत्युग्रो ज्वरो मां मुनिसत्तम ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिश्रेष्ठ! जब मैंने पितामहको खूनसे लथपथ होकर पृथ्वीपर पड़ा देखा, उसी समय मुझपर अत्यन्त भयंकर शोक-ज्वरका आवेश हो गया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन संवर्धिता बाला येन स्म परिरक्षिताः।
स मया राज्यलुब्धेन पापेन गुरुघातिना ॥ १३ ॥
अल्पकालस्य राज्यस्य कृते मूढेन घातितः।

मूलम्

येन संवर्धिता बाला येन स्म परिरक्षिताः।
स मया राज्यलुब्धेन पापेन गुरुघातिना ॥ १३ ॥
अल्पकालस्य राज्यस्य कृते मूढेन घातितः।

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्होंने हमें बचपनसे पाल-पोसकर बड़ा किया और सब प्रकारसे हमारी रक्षा की, उन्हींको मुझ पापी, राज्य-लोभी, गुरुघाती एवं मूर्खने थोड़े समयतक रहनेवाले राज्यके लिये मरवा डाला॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचार्यश्च महेष्वासः सर्वपार्थिवपूजितः ॥ १४ ॥
अभिगम्य रणे मिथ्या पापेनोक्तः सुतं प्रति।

मूलम्

आचार्यश्च महेष्वासः सर्वपार्थिवपूजितः ॥ १४ ॥
अभिगम्य रणे मिथ्या पापेनोक्तः सुतं प्रति।

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण राजाओंसे पूजित, महाधनुर्धर आचार्यके पास जाकर मुझ पापीने उनके पुत्रके सम्बन्धमें झूठी बात कही॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तन्मे दहति गात्राणि यन्मां गुरुरभाषत ॥ १५ ॥
सत्यमाख्याहि राजंस्त्वं यदि जीवति मे सुतः।
सत्यमामर्षयन् विप्रो मयि तत् परिपृष्टवान् ॥ १६ ॥

मूलम्

तन्मे दहति गात्राणि यन्मां गुरुरभाषत ॥ १५ ॥
सत्यमाख्याहि राजंस्त्वं यदि जीवति मे सुतः।
सत्यमामर्षयन् विप्रो मयि तत् परिपृष्टवान् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय गुरुने मुझसे पूछा था—‘राजन्! सच बताओ, क्या मेरा पुत्र जीवित है?’ उन ब्राह्मणने सत्यका निर्णय करनेके लिये ही मुझसे यह बात पूछी थी। उनकी वह बात जब याद आती है तो मेरा सारा शरीर शोकाग्निसे दग्ध होने लगता है॥१५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुञ्जरं चान्तरं कृत्वा मिथ्योपचरितं मया।
सुभृशं राज्यलुब्धेन पापेन गुरुघातिना ॥ १७ ॥

मूलम्

कुञ्जरं चान्तरं कृत्वा मिथ्योपचरितं मया।
सुभृशं राज्यलुब्धेन पापेन गुरुघातिना ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु राज्यके लोभमें अत्यन्त फँसे हुए मुझ पापी गुरु-हत्यारेने मरे हुए हाथीकी आड़ लेकर उनसे झूठ बोल दिया और उनके साथ धोखा किया॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यकञ्चुकमुन्मुच्य मया स गुरुराहवे।
अश्वत्थामा हत इति निरुक्तः कुञ्जरे हते ॥ १८ ॥

मूलम्

सत्यकञ्चुकमुन्मुच्य मया स गुरुराहवे।
अश्वत्थामा हत इति निरुक्तः कुञ्जरे हते ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने सत्यका चोला उतार फेंका और युद्धमें अश्वत्थामा नामक हाथीके मारे जानेपर गुरुदेवसे कह दिया कि ‘अश्वत्थामा मारा गया।’ (इससे उन्हें अपने पुत्रके मारे जानेका विश्वास हो गया)॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काल्ँलोकांस्तु गमिष्यामि कृत्वा कर्म सुदुष्करम्।
अघातयं च यत् कर्णं समरेष्वपलायिनम् ॥ १९ ॥
ज्येष्ठभ्रातरमत्युग्रं को मत्तः पापकृत्तमः।

मूलम्

काल्ँलोकांस्तु गमिष्यामि कृत्वा कर्म सुदुष्करम्।
अघातयं च यत् कर्णं समरेष्वपलायिनम् ॥ १९ ॥
ज्येष्ठभ्रातरमत्युग्रं को मत्तः पापकृत्तमः।

अनुवाद (हिन्दी)

यह अत्यन्त दुष्कर पापकर्म करके मैं किन लोकोंमें जाऊँगा? युद्धमें कभी पीठ न दिखानेवाले अत्यन्त उग्र पराक्रमी अपने बड़े भाई कर्णको भी मैंने मरवा दिया—मुझसे बढ़कर महान् पापाचारी दूसरा कौन होगा?॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिमन्युं च यद् बालं जातं सिंहमिवाद्रिषु ॥ २० ॥
प्रावेशयमहं लुब्धो वाहिनीं द्रोणपालिताम्।
तदाप्रभृति बीभत्सुं न शक्नोमि निरीक्षितुम् ॥ २१ ॥
कृष्णं च पुण्डरीकाक्षं किल्बिषी भ्रूणहा यथा।

मूलम्

अभिमन्युं च यद् बालं जातं सिंहमिवाद्रिषु ॥ २० ॥
प्रावेशयमहं लुब्धो वाहिनीं द्रोणपालिताम्।
तदाप्रभृति बीभत्सुं न शक्नोमि निरीक्षितुम् ॥ २१ ॥
कृष्णं च पुण्डरीकाक्षं किल्बिषी भ्रूणहा यथा।

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने राज्यके लोभमें पड़कर जब पर्वतोंपर उत्पन्न हुए सिंहके समान पराक्रमी अभिमन्युको द्रोणाचार्यद्वारा सुरक्षित कौरवसेनामें झोंक दिया, तभीसे भ्रूण-हत्या करनेवाले पापीके समान मैं अर्जुन तथा कमलनयन श्रीकृष्णकी ओर आँख उठाकर देख नहीं पाता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रौपदीं चापि दुःखार्तां पञ्चपुत्रैर्विनाकृताम् ॥ २२ ॥
शोचामि पृथिवीं हीनां पञ्चभिः पर्वतैरिव।

मूलम्

द्रौपदीं चापि दुःखार्तां पञ्चपुत्रैर्विनाकृताम् ॥ २२ ॥
शोचामि पृथिवीं हीनां पञ्चभिः पर्वतैरिव।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे पृथ्वी पाँच पर्वतोंसे हीन हो जाय, उसी प्रकार अपने पाँचों पुत्रोंसे हीन होकर दुःखसे आतुर हुई द्रौपदीके लिये भी मुझे निरन्तर शोक बना रहता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहमागस्करः पापः पृथिवीनाशकारकः ॥ २३ ॥
आसीन एवमेवेदं शोषयिष्ये कलेवरम्।

मूलम्

सोऽहमागस्करः पापः पृथिवीनाशकारकः ॥ २३ ॥
आसीन एवमेवेदं शोषयिष्ये कलेवरम्।

अनुवाद (हिन्दी)

अतः मैं पापी, अपराधी तथा सम्पूर्ण भूमण्डलका विनाश करनेवाला हूँ; इसलिये यहीं इसी रूपमें बैठा हुआ अपने इस शरीरको सुखा डालूँगा॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रायोपविष्टं जानीध्वमथ मां गुरुघातिनम् ॥ २४ ॥
जातिष्वन्यास्वपि यथा न भवेयं कुलान्तकृत्।

मूलम्

प्रायोपविष्टं जानीध्वमथ मां गुरुघातिनम् ॥ २४ ॥
जातिष्वन्यास्वपि यथा न भवेयं कुलान्तकृत्।

अनुवाद (हिन्दी)

आपलोग मुझ गुरुघातीको आमरण अनशनके लिये बैठा हुआ समझें, जिससे दूसरे जन्मोंमें मैं फिर अपने कुलका विनाश करनेवाला न होऊँ॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न भोक्ष्ये न च पानीयमुपभोक्ष्ये कथञ्चन ॥ २५ ॥
शोषयिष्ये प्रियान् प्राणानिहस्थोऽहं तपोधनाः।

मूलम्

न भोक्ष्ये न च पानीयमुपभोक्ष्ये कथञ्चन ॥ २५ ॥
शोषयिष्ये प्रियान् प्राणानिहस्थोऽहं तपोधनाः।

अनुवाद (हिन्दी)

तपोधनो! अब मैं किसी तरह न तो अन्न खाऊँगा और न पानी ही पीऊँगा। यहीं रहकर अपने प्यारे प्राणोंको सुखा दूँगा॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथेष्टं गम्यतां काममनुजाने प्रसाद्य वः ॥ २६ ॥
सर्वे मामनुजानीत त्यक्ष्यामीदं कलेवरम्।

मूलम्

यथेष्टं गम्यतां काममनुजाने प्रसाद्य वः ॥ २६ ॥
सर्वे मामनुजानीत त्यक्ष्यामीदं कलेवरम्।

अनुवाद (हिन्दी)

मैं आपलोगोंको प्रसन्न करके अपनी ओरसे चले जानेकी अनुमति देता हूँ। जिसकी जहाँ इच्छा हो वहाँ अपनी रुचिके अनुसार चला जाय। आप सब लोग मुझे आज्ञा दें कि मैं इस शरीरको अनशन करके त्याग दूँ॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमेवंवादिनं पार्थं बन्धुशोकेन विह्वलम् ॥ २७ ॥
मैवमित्यब्रवीद् व्यासो निगृह्य मुनिसत्तमः।

मूलम्

तमेवंवादिनं पार्थं बन्धुशोकेन विह्वलम् ॥ २७ ॥
मैवमित्यब्रवीद् व्यासो निगृह्य मुनिसत्तमः।

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! अपने बन्धु-जनोंके शोकसे विह्वल होकर युधिष्ठिरको ऐसी बातें करते देख मुनिवर व्यासजीने उन्हें रोककर कहा—‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता’॥२७॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिवेलं महाराज न शोकं कर्तुमर्हसि ॥ २८ ॥
पुनरुक्तं तु वक्ष्यामि दिष्टमेतदिति प्रभो।

मूलम्

अतिवेलं महाराज न शोकं कर्तुमर्हसि ॥ २८ ॥
पुनरुक्तं तु वक्ष्यामि दिष्टमेतदिति प्रभो।

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी बोले— महाराज! तुम बहुत शोक न करो। प्रभो! मैं पहलेकी कही हुई बात ही फिर दुहरा रहा हूँ। यह सब प्रारब्धका ही खेल है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संयोगा विप्रयोगान्ता जातानां प्राणिनां ध्रुवम् ॥ २९ ॥
बुद्‌बुदा इव तोयेषु भवन्ति न भवन्ति च।

मूलम्

संयोगा विप्रयोगान्ता जातानां प्राणिनां ध्रुवम् ॥ २९ ॥
बुद्‌बुदा इव तोयेषु भवन्ति न भवन्ति च।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे पानीमें बुलबुले होते और मिट जाते हैं, उसी प्रकार संसारमें उत्पन्न हुए प्राणियोंके जो आपसमें संयोग होते हैं, उनका अन्त निश्चय ही वियोगमें होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः ॥ ३० ॥
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं हि जीवितम्।

मूलम्

सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः ॥ ३० ॥
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं हि जीवितम्।

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण संग्रहोंका अन्त विनाश है, सारी उन्नतियोंका अन्त पतन है, संयोगोंका अन्त वियोग है और जीवनका अन्त मरण है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखं दुःखान्तमालस्यं दाक्ष्यं दुःखं सुखोदयम्।
भूतिः श्रीर्ह्रीर्धृतिः कीर्तिर्दक्षे वसति नालसे ॥ ३१ ॥

मूलम्

सुखं दुःखान्तमालस्यं दाक्ष्यं दुःखं सुखोदयम्।
भूतिः श्रीर्ह्रीर्धृतिः कीर्तिर्दक्षे वसति नालसे ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आलस्य सुखरूप प्रतीत होता है, परंतु उसका अन्त दुःख है तथा कार्यदक्षता दुःखरूप प्रतीत होती है, परंतु उससे सुखका उदय होता है। इसके सिवा ऐश्वर्य, लक्ष्मी, लज्जा, धृति और कीर्ति—ये कार्यदक्ष पुरुषमें ही निवास करती हैं, आलसीमें नहीं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नालं सुखाय सुहृदो नालं दुःखाय शत्रवः।
न च प्रजालमर्थेभ्यो न सुखेभ्योऽप्यलं धनम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

नालं सुखाय सुहृदो नालं दुःखाय शत्रवः।
न च प्रजालमर्थेभ्यो न सुखेभ्योऽप्यलं धनम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

न तो सुहृद् सुख देनेमें समर्थ हैं न शत्रु दुख देनेमें। इसी प्रकार न तो प्रजा धन दे सकती है और न धन सुख दे सकता है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा सृष्टोऽसि कौन्तेय धात्रा कर्मसु तत् कुरु।
अत एव हि सिद्धिस्ते नेशस्त्वं कर्मणां नृप ॥ ३३ ॥

मूलम्

यथा सृष्टोऽसि कौन्तेय धात्रा कर्मसु तत् कुरु।
अत एव हि सिद्धिस्ते नेशस्त्वं कर्मणां नृप ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! नरेश्वर! विधाताने जैसे कर्मोंके लिये तुम्हारी सृष्टि की है, तुम उन्हींका अनुष्ठान करो। उन्हींसे तुम्हें सिद्धि प्राप्त होगी। तुम कर्मोंके (फलके) स्वामी या नियन्ता नहीं हो॥३३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि व्यासवाक्ये सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें व्यासवाक्यविषयक सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२७॥