०२६ युधिष्ठिरवाक्ये

भागसूचना

षड्‌विंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरके द्वारा धनके त्यागकी ही महत्ताका प्रतिपादन

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन्नेव प्रकरणे धनंजयमुदारधीः ।
अभिनीततरं वाक्यमित्युवाच युधिष्ठिरः ॥ १ ॥

मूलम्

अस्मिन्नेव प्रकरणे धनंजयमुदारधीः ।
अभिनीततरं वाक्यमित्युवाच युधिष्ठिरः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय। इसी प्रसंगमें उदारबुद्धि राजा युधिष्ठिरने अर्जुनसे यह युक्तियुक्त बात कही॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदेतन्मन्यसे पार्थ न ज्यायोऽस्ति धनादिति।
न स्वर्गो न सुखं नार्थो निर्धनस्येति तन्मृषा ॥ २ ॥

मूलम्

यदेतन्मन्यसे पार्थ न ज्यायोऽस्ति धनादिति।
न स्वर्गो न सुखं नार्थो निर्धनस्येति तन्मृषा ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! तुम जो यह समझते हो कि धनसे बढ़कर कोई वस्तु नहीं है तथा निर्धनको स्वर्ग, सुख और अर्थकी भी प्राप्ति नहीं हो सकती, यह ठीक नहीं है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वाध्याययज्ञसंसिद्धा दृश्यन्ते बहवो जनाः।
तपोरताश्च मुनयो येषां लोकाः सनातनाः ॥ ३ ॥

मूलम्

स्वाध्याययज्ञसंसिद्धा दृश्यन्ते बहवो जनाः।
तपोरताश्च मुनयो येषां लोकाः सनातनाः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बहुत-से मनुष्य केवल स्वाध्याययज्ञ करके सिद्धिको प्राप्त हुए देखे जाते हैं। तपस्यामें लगे हुए बहुतेरे मुनि ऐसे हो गये हैं, जिन्हें सनातन लोकोंकी प्राप्ति हुई है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषीणां समयं शश्वद् ये रक्षन्ति धनंजय।
आश्रिताः सर्वधर्मज्ञा देवास्तान् ब्राह्मणान् विदुः ॥ ४ ॥

मूलम्

ऋषीणां समयं शश्वद् ये रक्षन्ति धनंजय।
आश्रिताः सर्वधर्मज्ञा देवास्तान् ब्राह्मणान् विदुः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धनंजय! सम्पूर्ण धर्मोंको जाननेवाले जो लोग ब्रह्मचर्य-आश्रममें स्थित हो ऋषियोंकी स्वाध्याय-परम्पराकी सदैव रक्षा करते हैं, देवता उन्हें ही ब्राह्मण मानते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वाध्यायनिष्ठान्‌ हि ऋषीन् ज्ञाननिष्ठांस्तथापरान्।
बुद्ध्येथाः संततं चापि धर्मनिष्ठान् धनंजय ॥ ५ ॥

मूलम्

स्वाध्यायनिष्ठान्‌ हि ऋषीन् ज्ञाननिष्ठांस्तथापरान्।
बुद्ध्येथाः संततं चापि धर्मनिष्ठान् धनंजय ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अर्जुन! तुम्हें सदा यह समझना चाहिये कि ऋषियोंमेंसे कुछ लोग वेद-शास्त्रोंके स्वाध्यायमें ही तत्पर रहते हैं, कुछ ज्ञानोपार्जनमें संलग्न होते हैं और कुछ लोग धर्म-पालनमें ही निष्ठा रखते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञाननिष्ठेषु कार्याणि प्रतिष्ठाप्यानि पाण्डव।
वैखानसानां वचनं यथा नो विदितं प्रभो ॥ ६ ॥

मूलम्

ज्ञाननिष्ठेषु कार्याणि प्रतिष्ठाप्यानि पाण्डव।
वैखानसानां वचनं यथा नो विदितं प्रभो ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डुनन्दन! प्रभो! वानप्रस्थोंके वचनको जैसा हमने समझा है, उसके अनुसार ज्ञाननिष्ठ महात्माओंको ही राज्यके सारे कार्य सौंपने चाहिये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजाश्च पृश्नयश्चैव सिकताश्चैव भारत।
अरुणाः केतवश्चैव स्वाध्यायेन दिवं गताः ॥ ७ ॥

मूलम्

अजाश्च पृश्नयश्चैव सिकताश्चैव भारत।
अरुणाः केतवश्चैव स्वाध्यायेन दिवं गताः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! अज, पृश्नि, सिकत, अरुण और केतु नामवाले ऋषिगणोंने तो स्वाध्यायके द्वारा ही स्वर्ग प्राप्त कर लिया था॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवाप्यैतानि कर्माणि वेदोक्तानि धनंजय।
दानमध्ययनं यज्ञो निग्रहश्चैव दुर्ग्रहः ॥ ८ ॥
दक्षिणेन च पन्थानमर्यम्णो ये दिवं गताः।
एतान् क्रियावतां लोकानुक्तवान् पूर्वमप्यहम् ॥ ९ ॥

मूलम्

अवाप्यैतानि कर्माणि वेदोक्तानि धनंजय।
दानमध्ययनं यज्ञो निग्रहश्चैव दुर्ग्रहः ॥ ८ ॥
दक्षिणेन च पन्थानमर्यम्णो ये दिवं गताः।
एतान् क्रियावतां लोकानुक्तवान् पूर्वमप्यहम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धनंजय! दान, अध्ययन, यज्ञ और निग्रह—ये सभी कर्म बहुत कठिन हैं। इन वेदोक्त कर्मोंका (सकामभावसे) आश्रय लेकर लोग सूर्यके दक्षिण मार्गसे स्वर्गमें जाते हैं। इन कर्ममार्गी पुरुषोंके लोकोंकी चर्चा मैं पहले भी कर चुका हूँ॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तरेण तु पन्थानं नियमाद् यं प्रपश्यसि।
एते यागवतां लोका भान्ति पार्थ सनातनाः ॥ १० ॥

मूलम्

उत्तरेण तु पन्थानं नियमाद् यं प्रपश्यसि।
एते यागवतां लोका भान्ति पार्थ सनातनाः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीनन्दन! सूर्यके उत्तरमें स्थित जो मार्ग है, जिसे तुम नियमके प्रभावसे देख रहे हो, वहाँ जो ये सनातन लोक प्रकाशित होते हैं, वे निष्काम यज्ञ करनेवालोंको प्राप्त होते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रोत्तरां गतिं पार्थ प्रशंसन्ति पुराविदः।
संतोषो वै स्वर्गतमः संतोषः परमं सुखम् ॥ ११ ॥

मूलम्

तत्रोत्तरां गतिं पार्थ प्रशंसन्ति पुराविदः।
संतोषो वै स्वर्गतमः संतोषः परमं सुखम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! प्राचीन इतिहासको जाननेवाले लोग इन दोनों मार्गोंमेंसे उत्तर मार्गकी प्रशंसा करते हैं। वास्तवमें संतोष ही सबसे बढ़कर स्वर्ग है और संतोष ही सबसे बड़ा सुख है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुष्टेर्न किञ्चित् परमं सा सम्यक् प्रतितिष्ठति।
विनीतक्रोधहर्षस्य सततं सिद्धिरुत्तमा ॥ १२ ॥

मूलम्

तुष्टेर्न किञ्चित् परमं सा सम्यक् प्रतितिष्ठति।
विनीतक्रोधहर्षस्य सततं सिद्धिरुत्तमा ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘संतोषसे बढ़कर कुछ नहीं है। जिसने क्रोध और हर्षको जीत लिया है, उसीके हृदयमें उस परम वैराग्यरूप संतोषकी सम्यक् प्रतिष्ठा होती है और उसे ही सदा उत्तम सिद्धि प्राप्त होती है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीमा गाथा गीता ययातिना।
याभिः प्रत्याहरेत्‌ कामान्‌ कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ॥ १३ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीमा गाथा गीता ययातिना।
याभिः प्रत्याहरेत्‌ कामान्‌ कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रसंगमें लोग राजा ययातिकी गायी हुई इन गाथाओंको उदाहरणके तौरपर कहा करते हैं। जिनके द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंको उसी प्रकार समेट लेता है, जैसे कछुआ अपने अंगोंको सब ओरसे सिकोड़ लिया करता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा चायं न बिभेति यदा चास्मान्न बिभ्यति।
यदा नेच्छति न द्वेष्टि ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ १४ ॥

मूलम्

यदा चायं न बिभेति यदा चास्मान्न बिभ्यति।
यदा नेच्छति न द्वेष्टि ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा ययातिने कहा था—‘जब यह पुरुष किसीसे नहीं डरता, जब इससे भी किसीको भय नहीं रहता तथा जब यह न तो किसीको चाहता है और न उससे द्वेष ही रखता है, तब ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा न भावं कुरुते सर्वभूतेषु पापकम्।
कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ १५ ॥

मूलम्

यदा न भावं कुरुते सर्वभूतेषु पापकम्।
कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

“जब यह मन, वाणी और क्रियाद्वारा सम्पूर्ण भूतोंके प्रति पाप-बुद्धिका परित्याग कर देता है, तब परब्रह्म परमात्माको प्राप्त कर लेता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विनीतमानमोहश्च बहुसङ्गविवर्जितः ।
तदाऽऽत्मज्योतिषः साधोर्निर्वाणमुपपद्यते ॥ १६ ॥

मूलम्

विनीतमानमोहश्च बहुसङ्गविवर्जितः ।
तदाऽऽत्मज्योतिषः साधोर्निर्वाणमुपपद्यते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

“जिसके मान और मोह दूर हो गये हैं, जो नाना प्रकारकी आसक्तियोंसे रहित है तथा जिसे आत्माका ज्ञान प्राप्त हो गया है, उस साधु पुरुषको मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है’॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं तु शृणु मे पार्थ ब्रुवनः संयतेन्द्रियः।
धर्ममन्ये वृत्तमन्ये धनमीहन्ति चापरे ॥ १७ ॥

मूलम्

इदं तु शृणु मे पार्थ ब्रुवनः संयतेन्द्रियः।
धर्ममन्ये वृत्तमन्ये धनमीहन्ति चापरे ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीनन्दन! मैं जो बात कह रहा हूँ, उसे अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंको संयममें रखकर सुनो! कुछ लोग धर्मकी, कोई सदाचारकी और दूसरे कितने ही मनुष्य धनकी प्राप्तिके लिये सचेष्ट रहते हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनहेतोर्य ईहेत तस्यानीहा गरीयसी।
भूयान् दोषो हि वित्तस्य यश्च धर्मस्तदाश्रयः ॥ १८ ॥

मूलम्

धनहेतोर्य ईहेत तस्यानीहा गरीयसी।
भूयान् दोषो हि वित्तस्य यश्च धर्मस्तदाश्रयः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो धनके लिये चेष्टा करता है, उसका निश्चेष्ट होकर बैठ रहना ही ठीक है, क्योंकि धन और उसके आश्रित धर्ममें महान् दोष दिखायी देता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्यक्षमनुपश्यामि त्वमपि द्रष्टुमर्हसि ।
वर्जनं वर्जनीयानामीहमानेन दुष्करम् ॥ १९ ॥

मूलम्

प्रत्यक्षमनुपश्यामि त्वमपि द्रष्टुमर्हसि ।
वर्जनं वर्जनीयानामीहमानेन दुष्करम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ और तुम भी देख सकते हो, जो लोग धनोपार्जनके प्रयत्नमें लगे हुए हैं, उनके लिये त्याज्य कर्मोंको छोड़ना अत्यन्त कठिन हो रहा है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये वित्तमभिपद्यन्ते सम्यक्त्वं तेषु दुर्लभम्।
द्रुह्यतः प्रैति तत् प्राहुः प्रतिकूलं यथातथम् ॥ २० ॥

मूलम्

ये वित्तमभिपद्यन्ते सम्यक्त्वं तेषु दुर्लभम्।
द्रुह्यतः प्रैति तत् प्राहुः प्रतिकूलं यथातथम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो धनके पीछे पड़े हुए हैं, उनमें साधुता दुर्लभ है; क्योंकि जो लोग दूसरोंसे द्रोह करते हैं, उन्हींको धन प्राप्त होता है, ऐसा कहा जाता है तथा वह मिला हुआ धन प्रकारान्तरसे प्रतिकूल ही होता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु सम्भिन्नवृत्तः स्याद् वीतशोकभयो नरः।
अल्पेन तृषितो द्रुह्यन् भ्रूणहत्यां न बुध्यते ॥ २१ ॥

मूलम्

यस्तु सम्भिन्नवृत्तः स्याद् वीतशोकभयो नरः।
अल्पेन तृषितो द्रुह्यन् भ्रूणहत्यां न बुध्यते ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शोक और भयसे रहित होनेपर भी जो मनुष्य सदाचारसे भ्रष्ट है, उसे यदि धनकी थोड़ी-सी भी तृष्णा हो तो वह दूसरोंसे ऐसा द्रोह करता है कि भ्रूण-हत्या-जैसे पापका भी ध्यान नहीं रखता॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुष्यन्त्याददतो भृत्या नित्यं दस्युभयादिव।
दुर्लभं च धनं प्राप्य भृशं दत्त्वानुतप्यते ॥ २२ ॥

मूलम्

दुष्यन्त्याददतो भृत्या नित्यं दस्युभयादिव।
दुर्लभं च धनं प्राप्य भृशं दत्त्वानुतप्यते ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अपना वेतन यथासमय पाते हुए भी जब भृत्योंको संतोष नहीं होता, तब वे स्वामीसे अप्रसन्न रहते हैं और वह धनी दुर्लभ धनको पाकर यदि सेवकोंको अधिक देता है तो उसे उतना ही अधिक संताप होता है, जितना चोर-डाकुओंसे भयके कारण हुआ करता है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधनः कस्य किं वाच्यो विमुक्तः सर्वशः सुखी।
देवस्वमुपगृह्यैव धनेन न सुखी भवेत् ॥ २३ ॥

मूलम्

अधनः कस्य किं वाच्यो विमुक्तः सर्वशः सुखी।
देवस्वमुपगृह्यैव धनेन न सुखी भवेत् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निर्धनको कौन क्या कह सकता है? वह सब प्रकारके भयसे मुक्त हो सुखी रहता है। देवताओंकी सम्पत्ति लेकर भी कोई धनसे सुखी नहीं हो सकता॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र गाथां यज्ञगीतां कीर्तयन्ति पुराविदः।
त्रयीमुपाश्रितां लोके यज्ञसंस्तरकारिकाम् ॥ २४ ॥

मूलम्

अत्र गाथां यज्ञगीतां कीर्तयन्ति पुराविदः।
त्रयीमुपाश्रितां लोके यज्ञसंस्तरकारिकाम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस विषयमें यज्ञमें ऋत्विजोंद्वारा गायी हुई एक गाथा है जो तीनों वेदोंके आश्रित है, वह गाथा लोकमें यज्ञकी प्रतिष्ठा करनेवाली है। पुरानी बातोंको जाननेवाले लोग उसे ऐसे अवसरोंपर दुहराया करते हैं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज्ञाय सृष्टानि धनानि धात्रा
यज्ञाय सृष्टः पुरुषो रक्षिता च।
तस्मात् सर्वं यज्ञ एवोपयोज्यं
धनं न कामाय हितं प्रशस्तम् ॥ २५ ॥

मूलम्

यज्ञाय सृष्टानि धनानि धात्रा
यज्ञाय सृष्टः पुरुषो रक्षिता च।
तस्मात् सर्वं यज्ञ एवोपयोज्यं
धनं न कामाय हितं प्रशस्तम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विधाताने यज्ञके लिये ही धनकी सृष्टि की है और यज्ञके लिये उसकी रक्षा करनेके निमित्त पुरुषको उत्पन्न किया है; इसलिये सारे धनका यज्ञ-कार्यमें ही उपयोग करना चाहिये। भोगके लिये धनका उपयोग न तो हितकर है और न उत्तम ही॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् स्वार्थे च कौन्तेय धनं धनवतां वर।
धाता ददाति मर्त्येभ्यो यज्ञार्थमिति विद्धि तत् ॥ २६ ॥

मूलम्

एतत् स्वार्थे च कौन्तेय धनं धनवतां वर।
धाता ददाति मर्त्येभ्यो यज्ञार्थमिति विद्धि तत् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धनवानोंमें श्रेष्ठ कुन्तीकुमार धनंजय! विधाता मनुष्योंको स्वार्थके लिये भी जो धन देते हैं उसे यज्ञार्थ ही समझो॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् बुद्ध्यन्ति पुरुषा न हि तत् कस्यचिद् ध्रुवम्।
श्रद्दधानस्ततो लोको दद्याच्चैव यजेत च ॥ २७ ॥

मूलम्

तस्माद् बुद्ध्यन्ति पुरुषा न हि तत् कस्यचिद् ध्रुवम्।
श्रद्दधानस्ततो लोको दद्याच्चैव यजेत च ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसीलिये बुद्धिमान् पुरुष यह समझते हैं कि धन कभी किसी एकके पास स्थिर होकर नहीं रहता; अतः श्रद्धालु मनुष्यको चाहिये कि वह उस धनका दान करे और उसे यज्ञमें लगावे॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लब्धस्य त्यागमित्याहुर्न भोगं न च संचयम्।
तस्य किं संचयेनार्थः कार्ये ज्यायसि तिष्ठति ॥ २८ ॥

मूलम्

लब्धस्य त्यागमित्याहुर्न भोगं न च संचयम्।
तस्य किं संचयेनार्थः कार्ये ज्यायसि तिष्ठति ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्राप्त किये हुए धनका दान करना ही उचित बताया गया है। उसे भोगमें लगाना या संग्रह करके रखना ठीक नहीं है। जिसके सामने बहुत बड़ा कार्य यज्ञ आदि मौजूद है, उसे धनको संग्रह करके रखनेकी क्या आवश्यकता है?॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये स्वधर्मादपेतेभ्यः प्रयच्छन्त्यल्पबुद्धयः ।
शतं वर्षाणि ते प्रेत्य पुरीषं भुञ्जते जनाः ॥ २९ ॥

मूलम्

ये स्वधर्मादपेतेभ्यः प्रयच्छन्त्यल्पबुद्धयः ।
शतं वर्षाणि ते प्रेत्य पुरीषं भुञ्जते जनाः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो मन्दबुद्धि मानव अपने धर्मसे गिरे हुए मनुष्योंको धन देते हैं, वे मरनेके बाद सौ वर्षोंतक विष्ठा भोजन करते हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनर्हते यद् ददाति न ददाति यदर्हते।
अर्हानर्हापरिज्ञानाद् दानधर्मोऽपि दुष्करः ॥ ३० ॥

मूलम्

अनर्हते यद् ददाति न ददाति यदर्हते।
अर्हानर्हापरिज्ञानाद् दानधर्मोऽपि दुष्करः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘लोग अधिकारीको धन नहीं देते और अनधिकारीको दे डालते हैं, योग्य-अयोग्य पात्रका ज्ञान न होनेसे दानधर्मका सम्पादन भी बहुत कठिन है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लब्धानामपि वित्तानां बोद्धव्यौ द्वावतिक्रमौ।
अपात्रे प्रतिपत्तिश्च पाये चाप्रतिपादनम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

लब्धानामपि वित्तानां बोद्धव्यौ द्वावतिक्रमौ।
अपात्रे प्रतिपत्तिश्च पाये चाप्रतिपादनम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्राप्त हुए धनका उपयोग करनेमें दो प्रकारकी भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यानमें रखना चाहिये। पहली भूल है अपात्रको धन देना और दूसरी है सुपात्रको धन न देना’॥३१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि युधिष्ठिरवाक्ये षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें युधिष्ठिरका वाक्यविषयक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२६॥