०२२ अर्जुनवाक्ये

भागसूचना

द्वाविंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

क्षत्रियधर्मकी प्रशंसा करते हुए अर्जुनका पुनः राजा युधिष्ठिरको समझाना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन्नेवान्तरे वाक्यं पुनरेवार्जुनोऽब्रवीत् ।
निर्विण्णमनसं ज्येष्ठमिदं भ्रातरमच्युतम् ॥ १ ॥

मूलम्

अस्मिन्नेवान्तरे वाक्यं पुनरेवार्जुनोऽब्रवीत् ।
निर्विण्णमनसं ज्येष्ठमिदं भ्रातरमच्युतम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इसी बीचमें देवस्थानका भाषण समाप्त होते ही अर्जुनने खिन्नचित्त होकर बैठे हुए तथा कभी धर्मसे च्युत न होनेवाले अपने बड़े भाई युधिष्ठिरसे इस प्रकार कहा—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रधर्मेण धर्मज्ञ प्राप्य राज्यं सुदुर्लभम्।
जित्वा चारीन् नरश्रेष्ठ तप्यते किं भृशं भवान् ॥ २ ॥

मूलम्

क्षत्रधर्मेण धर्मज्ञ प्राप्य राज्यं सुदुर्लभम्।
जित्वा चारीन् नरश्रेष्ठ तप्यते किं भृशं भवान् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धर्मके ज्ञाता नरश्रेष्ठ! आप क्षत्रियधर्मके अनुसार इस परम दुर्लभ राज्यको पाकर और शत्रुओंको जीतकर इतने अधिक संतप्त क्यों हो रहे हैं?॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रियाणां महाराज संग्रामे निधनं मतम्।
विशिष्टं बहुभिर्यज्ञैः क्षत्रधर्ममनुस्मर ॥ ३ ॥

मूलम्

क्षत्रियाणां महाराज संग्रामे निधनं मतम्।
विशिष्टं बहुभिर्यज्ञैः क्षत्रधर्ममनुस्मर ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! आप क्षत्रियधर्मको स्मरण तो कीजिये, क्षत्रियोंके लिये संग्राममें मर जाना तो बहुसंख्यक यज्ञोंसे भी बढ़कर माना गया है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणानां तपस्त्यागः प्रेत्य धर्मविधिः स्मृतः।
क्षत्रियाणां च निधनं संग्रामे विहितं प्रभो ॥ ४ ॥

मूलम्

ब्राह्मणानां तपस्त्यागः प्रेत्य धर्मविधिः स्मृतः।
क्षत्रियाणां च निधनं संग्रामे विहितं प्रभो ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! तप और त्याग ब्राह्मणोंके धर्म हैं जो मृत्युके पश्चात् परलोकमें धर्मजनित फल देनेवाले हैं। क्षत्रियोंके लिये संग्राममें प्राप्त हुई मृत्यु ही पारलौकिक पुण्यफलकी प्राप्ति करानेवाली है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षात्रधर्मो महारौद्रः शस्त्रनित्य इति स्मृतः।
वधश्च भरतश्रेष्ठ काले शस्त्रेण संयुगे ॥ ५ ॥

मूलम्

क्षात्रधर्मो महारौद्रः शस्त्रनित्य इति स्मृतः।
वधश्च भरतश्रेष्ठ काले शस्त्रेण संयुगे ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! क्षत्रियोंका धर्म बड़ा भयंकर है। उसमें सदा शस्त्रसे ही काम पड़ता है और समय आनेपर युद्धमें शस्त्रद्वारा उनका वध भी हो जाता है (अतः उनके लिये शोक करनेका कोई कारण नहीं है)॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणस्यापि चेद् राजन् क्षत्रधर्मेण वर्ततः।
प्रशस्तं जीवितं लोके क्षत्रं हि ब्रह्मसम्भवम् ॥ ६ ॥

मूलम्

ब्राह्मणस्यापि चेद् राजन् क्षत्रधर्मेण वर्ततः।
प्रशस्तं जीवितं लोके क्षत्रं हि ब्रह्मसम्भवम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! ब्राह्मण भी यदि क्षत्रियधर्मके अनुसार जीवन-निर्वाह करता हो तो लोकमें उसका जीवन उत्तम ही माना गया है; क्योंकि क्षत्रियकी उत्पत्ति ब्राह्मणसे ही हुई है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्यागो न पुनर्यज्ञो न तपो मनुजेश्वर।
क्षत्रियस्य विधीयन्ते न परस्वोपजीवनम् ॥ ७ ॥

मूलम्

न त्यागो न पुनर्यज्ञो न तपो मनुजेश्वर।
क्षत्रियस्य विधीयन्ते न परस्वोपजीवनम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! क्षत्रियके लिये त्याग, यज्ञ, तप और दूसरेके धनसे जीवन-निर्वाहका विधान नहीं है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स भवान् सर्वधर्मज्ञो धर्मात्मा भरतर्षभ।
राजा मनीषी निपुणो लोके दृष्टपरावरः ॥ ८ ॥

मूलम्

स भवान् सर्वधर्मज्ञो धर्मात्मा भरतर्षभ।
राजा मनीषी निपुणो लोके दृष्टपरावरः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! आप तो सम्पूर्ण धर्मोंके ज्ञाता, धर्मात्मा, राजा, मनीषी, कर्मकुशल और संसारमें आगे-पीछेकी सब बातोंपर दृष्टि रखनेवाले हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यक्त्वा संतापजं शोकं दंशितो भव कर्मणि।
क्षत्रियस्य विशेषेण हृदयं वज्रसंनिभम् ॥ ९ ॥

मूलम्

त्यक्त्वा संतापजं शोकं दंशितो भव कर्मणि।
क्षत्रियस्य विशेषेण हृदयं वज्रसंनिभम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप यह शोक-संताप छोड़कर क्षत्रियोचित कर्म करनेके लिये तैयार हो जाइये। क्षत्रियका हृदय तो विशेषरूपसे वज्रके तुल्य कठोर होता है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जित्वारीन् क्षत्रधर्मेण प्राप्य राज्यमकण्टकम्।
विजितात्मा मनुष्येन्द्र यज्ञदानपरो भव ॥ १० ॥

मूलम्

जित्वारीन् क्षत्रधर्मेण प्राप्य राज्यमकण्टकम्।
विजितात्मा मनुष्येन्द्र यज्ञदानपरो भव ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेन्द्र! आपने क्षत्रियधर्मके अनुसार शत्रुओंको जीतकर निष्कण्टक राज्य प्राप्त किया है। अब अपने मनको वशमें करके यज्ञ और दानमें संलग्न हो जाइये॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रो वै ब्रह्मणः पुत्रः क्षत्रियः कर्मणाभवत्।
ज्ञातीनां पापवृत्तीनां जघान नवतीर्नव ॥ ११ ॥

मूलम्

इन्द्रो वै ब्रह्मणः पुत्रः क्षत्रियः कर्मणाभवत्।
ज्ञातीनां पापवृत्तीनां जघान नवतीर्नव ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देखिये। इन्द्र ब्राह्मणके पुत्र हैं, किंतु कर्मसे क्षत्रिय हो गये हैं। उन्होंने पापमें प्रवृत्त हुए अपने ही भाई-बन्धुओं (दैत्यों)-मेंसे आठ सौ दस व्यक्तियोंको मार डाला॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्चास्य कर्म पूज्यं च प्रशस्यं च विशाम्पते।
तेनेन्द्रत्वं समापेदे देवानामिति नः श्रुतम् ॥ १२ ॥

मूलम्

तच्चास्य कर्म पूज्यं च प्रशस्यं च विशाम्पते।
तेनेन्द्रत्वं समापेदे देवानामिति नः श्रुतम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रजानाथ! उनका वह कर्म पूजनीय एवं प्रशंसाके योग्य माना गया। उन्होंने उसी कर्मसे देवेन्द्रपद प्राप्त कर लिया, ऐसा हमने सुना है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वं यज्ञैर्महाराज यजस्व बहुदक्षिणैः।
यथैवेन्द्रो मनुष्येन्द्र चिराय विगतज्वरः ॥ १३ ॥

मूलम्

स त्वं यज्ञैर्महाराज यजस्व बहुदक्षिणैः।
यथैवेन्द्रो मनुष्येन्द्र चिराय विगतज्वरः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! नरेन्द्र। आप भी इन्द्रके समान ही चिन्ता और शोकसे रहित हो दीर्घ कालतक बहुत-सी दक्षिणावाले यज्ञोंका अनुष्ठान करते रहिये॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा त्वमेवं गते किंचिच्छोचेथाः क्षत्रियर्षभ।
गतास्ते क्षत्रधर्मेण शस्त्रपूताः परां गतिम् ॥ १४ ॥

मूलम्

मा त्वमेवं गते किंचिच्छोचेथाः क्षत्रियर्षभ।
गतास्ते क्षत्रधर्मेण शस्त्रपूताः परां गतिम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्षत्रियशिरोमणे! ऐसी अवस्थामें आप तनिक भी शोक न कीजिये। युद्धमें मारे गये वे सभी वीर क्षत्रियधर्मके अनुसार शस्त्रोंसे पवित्र होकर परम गतिको प्राप्त हो गये हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवितव्यं तथा तच्च यद् वृत्तं भरतर्षभ।
दिष्टं हि राजशार्दूल न शक्यमतिवर्तितुम् ॥ १५ ॥

मूलम्

भवितव्यं तथा तच्च यद् वृत्तं भरतर्षभ।
दिष्टं हि राजशार्दूल न शक्यमतिवर्तितुम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! जो कुछ हुआ है, वह उसी रूपमें होनेवाला था। राजसिंह! दैवके विधानका उल्लंघन नहीं किया जा सकता॥१५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि अर्जुनवाक्ये द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें अर्जुनवाक्यविषयक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२२॥