भागसूचना
एकविंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
देवस्थान मुनिके द्वारा युधिष्ठिरके प्रति उत्तम धर्मका और यज्ञादि करनेका उपदेश
मूलम् (वचनम्)
देवस्थान उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
इन्द्रेण समये पृष्टो यदुवाच बृहस्पतिः ॥ १ ॥
मूलम्
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
इन्द्रेण समये पृष्टो यदुवाच बृहस्पतिः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवस्थान कहते हैं— राजन्! इस विषयमें लोग इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं। किसी समय इन्द्रके पूछनेपर बृहस्पतिने इस प्रकार कहा था—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतोषो वै स्वर्गतमः संतोषः परमं सुखम्।
तुष्टेर्न किंचित् परतः सा सम्यक् प्रतितिष्ठति ॥ २ ॥
मूलम्
संतोषो वै स्वर्गतमः संतोषः परमं सुखम्।
तुष्टेर्न किंचित् परतः सा सम्यक् प्रतितिष्ठति ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! मनुष्यके मनमें संतोष होना स्वर्गकी प्राप्तिसे भी बढ़कर है। संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। संतोष यदि मनमें भलीभाँति प्रतिष्ठित हो जाय तो उससे बढ़कर संसारमें कुछ भी नहीं है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा संहरते कामान् कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
तदाऽऽत्मज्योतिरचिरात् स्वात्मन्येव प्रसीदति ॥ ३ ॥
मूलम्
यदा संहरते कामान् कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
तदाऽऽत्मज्योतिरचिरात् स्वात्मन्येव प्रसीदति ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे कछुआ अपने अंगोंको सब ओरसे सिकोड़ लेता है, उसी प्रकार जब मनुष्य अपनी सब कामनाओंको सब ओरसे समेट लेता है, उस समय तुरंत ही ज्योतिःस्वरूप आत्मा अपने अन्तःकरणमें प्रकाशित हो जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न बिभेति यदा चायं यदा चास्मान्न बिभ्यति।
कामद्वेषौ च जयति तदाऽऽत्मानं च पश्यति ॥ ४ ॥
मूलम्
न बिभेति यदा चायं यदा चास्मान्न बिभ्यति।
कामद्वेषौ च जयति तदाऽऽत्मानं च पश्यति ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब मनुष्य किसीसे भय नहीं मानता और जब उससे भी दूसरे प्राणी भय नहीं मानते तथा जब वह काम (राग) और द्वेषको जीत लेता है, तब अपने आत्मस्वरूपका साक्षात्कार कर लेता है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदासौ सर्वभूतानां न द्रुह्यति न काङ्क्षति।
कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ५ ॥
मूलम्
यदासौ सर्वभूतानां न द्रुह्यति न काङ्क्षति।
कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब वह मन, वाणी और क्रियाद्वारा सम्पूर्ण प्राणियोंमेंसे किसीके साथ न तो द्रोह करता है और न किसीकी अभिलाषा ही रखता है, तब परब्रह्म परमात्माको प्राप्त हो जाता है’॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं कौन्तेय भूतानि तं तं धर्मं तथा तथा।
तदाऽऽत्मना प्रपश्यन्ति तस्माद् बुद्ध्यस्व भारत ॥ ६ ॥
मूलम्
एवं कौन्तेय भूतानि तं तं धर्मं तथा तथा।
तदाऽऽत्मना प्रपश्यन्ति तस्माद् बुद्ध्यस्व भारत ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! इस प्रकार सम्पूर्ण जीव उस-उस धर्मका उसी-उसी प्रकारसे जब ठीक-ठीक पालन करते हैं, तब स्वयं आत्मासे परमात्माका साक्षात्कार कर लेते हैं; अतः भरतनन्दन! इस समय तुम अपना कर्तव्य समझो॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्ये साम प्रशंसन्ति व्यायाममपरे जनाः।
नैकं न चापरं केचिदुभयं च तथापरे ॥ ७ ॥
मूलम्
अन्ये साम प्रशंसन्ति व्यायाममपरे जनाः।
नैकं न चापरं केचिदुभयं च तथापरे ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ लोग साम (प्रेमपूर्ण बर्ताव) की प्रशंसा करते हैं और कोई व्यायाम (यत्न और परिश्रम) के गुण गाते हैं। कोई इन दोनोंमेंसे एक (साम) की प्रशंसा नहीं करते हैं तो कोई दूसरे (व्यायाम) की, तथा कुछ लोग दोनोंकी ही बड़ी प्रशंसा करते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञमेव प्रशंसन्ति संन्यासमपरे जनाः।
दानमेके प्रशंसन्ति केचिच्चैव प्रतिग्रहम् ॥ ८ ॥
मूलम्
यज्ञमेव प्रशंसन्ति संन्यासमपरे जनाः।
दानमेके प्रशंसन्ति केचिच्चैव प्रतिग्रहम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई यज्ञको ही अच्छा बताते हैं तो दूसरे लोग संन्यासकी ही सराहना करते हैं। कोई दान देनेके प्रशंसक हैं तो कोई दान लेनेके॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केचित् सर्वं परित्यज्य तूष्णीं ध्यायन्त आसते।
राज्यमेके प्रशंसन्ति प्रजानां परिपालनम् ॥ ९ ॥
हत्वा छित्त्वा च भित्त्वा च केचिदेकान्तशीलिनः।
मूलम्
केचित् सर्वं परित्यज्य तूष्णीं ध्यायन्त आसते।
राज्यमेके प्रशंसन्ति प्रजानां परिपालनम् ॥ ९ ॥
हत्वा छित्त्वा च भित्त्वा च केचिदेकान्तशीलिनः।
अनुवाद (हिन्दी)
कोई सब छोड़कर चुपचाप भगवान्के ध्यानमें लगे रहते हैं और कुछ लोग मार-काट मचाकर शत्रुओंकी सेनाको विदीर्ण करके राज्य पानेके अनन्तर प्रजापालनरूपी धर्मकी प्रशंसा करते हैं तथा दूसरे लोग एकान्तमें रहकर आत्मचिन्तन करना अच्छा समझते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् सर्वं समालोक्य बुधानामेष निश्चयः ॥ १० ॥
अद्रोहेणैव भूतानां यो धर्मः स सतां मतः।
मूलम्
एतत् सर्वं समालोक्य बुधानामेष निश्चयः ॥ १० ॥
अद्रोहेणैव भूतानां यो धर्मः स सतां मतः।
अनुवाद (हिन्दी)
इन सब बातोंपर विचार करके विद्वानोंने ऐसा निश्चय किया है कि किसी भी प्राणीसे द्रोह न करके जिस धर्मका पालन होता है, वही साधु पुरुषोंकी रायमें उत्तम धर्म है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्रोहः सत्यवचनं संविभागो दया दमः ॥ ११ ॥
प्रजनं स्वेषु दारेषु मार्दवं ह्रीरचापलम्।
एवं धर्मं प्रधानेष्टं मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ॥ १२ ॥
मूलम्
अद्रोहः सत्यवचनं संविभागो दया दमः ॥ ११ ॥
प्रजनं स्वेषु दारेषु मार्दवं ह्रीरचापलम्।
एवं धर्मं प्रधानेष्टं मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसीसे द्रोह न करना, सत्य बोलना, (बलिवैश्वदेव कर्मद्वारा) समस्त प्राणियोंको यथायोग्य उनका भाग समर्पित करना, सबके प्रति दयाभाव बनाये रखना, मन और इन्द्रियोंका संयम करना, अपनी ही पत्नीसे संतान उत्पन्न करना तथा मृदुता, लज्जा एवं अचंचलता आदि गुणोंको अपनाना—ये श्रेष्ठ एवं अभीष्ट धर्म हैं—ऐसा स्वायम्भुव मनुका कथन है॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादेतत् प्रयत्नेन कौन्तेय प्रतिपालय।
यो हि राज्ये स्थितः शश्वद् वशी तुल्यप्रियाप्रियः ॥ १३ ॥
क्षत्रियो यज्ञशिष्टाशी राजा शास्त्रार्थतत्त्ववित्।
असाधुनिग्रहरतः साधूनां प्रग्रहे रतः ॥ १४ ॥
धर्मवर्त्मनि संस्थाप्य प्रजा वर्तेत धर्मतः।
पुत्रसंक्रामितश्रीश्च वने वन्येन वर्तयन् ॥ १५ ॥
विधिना श्रावणेनैव कुर्यात् कर्माण्यतन्द्रितः।
य एवं वर्तते राजन् स राजा धर्मनिश्चितः ॥ १६ ॥
मूलम्
तस्मादेतत् प्रयत्नेन कौन्तेय प्रतिपालय।
यो हि राज्ये स्थितः शश्वद् वशी तुल्यप्रियाप्रियः ॥ १३ ॥
क्षत्रियो यज्ञशिष्टाशी राजा शास्त्रार्थतत्त्ववित्।
असाधुनिग्रहरतः साधूनां प्रग्रहे रतः ॥ १४ ॥
धर्मवर्त्मनि संस्थाप्य प्रजा वर्तेत धर्मतः।
पुत्रसंक्रामितश्रीश्च वने वन्येन वर्तयन् ॥ १५ ॥
विधिना श्रावणेनैव कुर्यात् कर्माण्यतन्द्रितः।
य एवं वर्तते राजन् स राजा धर्मनिश्चितः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! अतः तुम भी प्रयत्नपूर्वक इस धर्मका पालन करो। जो क्षत्रियनरेश राज्यसिंहासनपर स्थित हो अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंको सदा अपने अधीन रखता है, प्रिय और अप्रियको समानदृष्टिसे देखता है, यज्ञसे बचे हुए अन्नका भोजन करता है, शास्त्रोंके यथार्थ रहस्यको जानता है, दुष्टोंका दमन और साधु पुरुषोंका पालन करता है, समस्त प्रजाको धर्मके मार्गमें स्थापित करके स्वयं भी धर्मानुकूल बर्ताव करता है, वृद्धावस्थामें राजलक्ष्मीको पुत्रके अधीन करके वनमें जाकर जंगली फल-मूलोंका आहार करते हुए जीवन बिताता है तथा वहाँ भी शास्त्र-श्रवणसे ज्ञात हुए शास्त्रविहित कर्मोंका आलस्य छोड़कर पालन करता है, ऐसा बर्ताव करनेवाला वह राजा ही धर्मको निश्चितरूपसे जानने और माननेवाला है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यायं च परश्चैव लोकः स्यात् सफलोदयः।
निर्वाणं हि सुदुष्प्राप्यं बहुविघ्नं च मे मतम् ॥ १७ ॥
मूलम्
तस्यायं च परश्चैव लोकः स्यात् सफलोदयः।
निर्वाणं हि सुदुष्प्राप्यं बहुविघ्नं च मे मतम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसका यह लोक और परलोक दोनों सफल हो जाते हैं, मेरा यह विश्वास है कि संन्यासके द्वारा निर्वाण प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर एवं दुर्लभ है; क्योंकि उसमें बहुत-से विघ्न आते हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं धर्ममनुक्रान्ताः सत्यदानतपःपराः ।
आनृशंस्यगुणैर्युक्ताः कामक्रोधविवर्जिताः ॥ १८ ॥
प्रजानां पालने युक्ता धर्ममुत्तममास्थिताः।
गोब्राह्मणार्थे युध्यन्तः प्राप्ता गतिमनुत्तमाम् ॥ १९ ॥
मूलम्
एवं धर्ममनुक्रान्ताः सत्यदानतपःपराः ।
आनृशंस्यगुणैर्युक्ताः कामक्रोधविवर्जिताः ॥ १८ ॥
प्रजानां पालने युक्ता धर्ममुत्तममास्थिताः।
गोब्राह्मणार्थे युध्यन्तः प्राप्ता गतिमनुत्तमाम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार धर्मका अनुसरण करनेवाले, सत्य, दान और तपमें संलग्न रहनेवाले, दया आदि गुणोंसे युक्त, काम-क्रोध आदि दोषोंसे रहित, प्रजापालन-परायण, उत्तम धर्मसेवी तथा गौओं और ब्राह्मणोंकी रक्षाके लिये युद्ध करनेवाले नरेशोंने परम उत्तम गति प्राप्त की है॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं रुद्राः सवसवस्तथाऽऽदित्याः परंतप।
साध्या राजर्षिसंघाश्च धर्ममेतं समाश्रिताः।
अप्रमत्तास्ततः स्वर्गं प्राप्ताः पुण्यैः स्वकर्मभिः ॥ २० ॥
मूलम्
एवं रुद्राः सवसवस्तथाऽऽदित्याः परंतप।
साध्या राजर्षिसंघाश्च धर्ममेतं समाश्रिताः।
अप्रमत्तास्ततः स्वर्गं प्राप्ताः पुण्यैः स्वकर्मभिः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंको संताप देनेवाले युधिष्ठिर! इसी प्रकार रुद्र, वसु, आदित्य, साध्यगण तथा राजर्षिसमूहोंने सावधान होकर इस धर्मका आश्रय लिया है। फिर उन्होंने अपने पुण्यकर्मोंद्वारा स्वर्गलोक प्राप्त किया है॥२०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि देवस्थानवाक्ये एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें देवस्थानवाक्यविषयक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२१॥