भागसूचना
विंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
मुनिवर देवस्थानका राजा युधिष्ठिरको यज्ञानुष्ठानके लिये प्रेरित करना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मिन् वाक्यान्तरे वक्ता देवस्थानो महातपाः।
अभिनीततरं वाक्यमित्युवाच युधिष्ठिरम् ॥ १ ॥
मूलम्
अस्मिन् वाक्यान्तरे वक्ता देवस्थानो महातपाः।
अभिनीततरं वाक्यमित्युवाच युधिष्ठिरम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! युधिष्ठिरकी यह बात समाप्त होनेपर प्रवचनकुशल महातपस्वी देवस्थानने युक्तियुक्त वाणीमें राजा युधिष्ठिरसे कहा॥
मूलम् (वचनम्)
देवस्थान उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् वचः फाल्गुनेनोक्तं न ज्यायोऽस्ति धनादिति।
अत्र ते वर्तयिष्यामि तदेकान्तमनाः शृणु ॥ २ ॥
मूलम्
यद् वचः फाल्गुनेनोक्तं न ज्यायोऽस्ति धनादिति।
अत्र ते वर्तयिष्यामि तदेकान्तमनाः शृणु ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवस्थान बोले— राजन्! अर्जुनने जो यह बात कही है कि ‘धनसे बढ़कर कोई वस्तु नहीं है।’ इसके विषयमें मैं भी तुमसे कुछ कहूँगा। तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजातशत्रो धर्मेण कृत्स्ना ते वसुधा जिता।
तां जित्वा च वृथा राजन् न परित्यक्तुमर्हसि ॥ ३ ॥
मूलम्
अजातशत्रो धर्मेण कृत्स्ना ते वसुधा जिता।
तां जित्वा च वृथा राजन् न परित्यक्तुमर्हसि ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! अजातशत्रो! तुमने धर्मके अनुसार यह सारी पृथ्वी जीती है। इसे जीतकर व्यर्थ ही त्याग देना तुम्हारे लिये उचित नहीं है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुष्पदी हि निःश्रेणी ब्रह्मण्येव प्रतिष्ठिता।
तां क्रमेण महाबाहो यथावज्जय पार्थिव ॥ ४ ॥
मूलम्
चतुष्पदी हि निःश्रेणी ब्रह्मण्येव प्रतिष्ठिता।
तां क्रमेण महाबाहो यथावज्जय पार्थिव ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहु भूपाल! ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास—ये चारों आश्रम ब्रह्मको प्राप्त करानेकी चार सीढ़ियाँ हैं, जो वेदमें ही प्रतिष्ठित हैं। इन्हें क्रमशः यथोचितरूपसे पार करो॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् पार्थ महायज्ञैर्यजस्व बहुदक्षिणैः।
स्वाध्याययज्ञा ऋषयो ज्ञानयज्ञास्तथापरे ॥ ५ ॥
मूलम्
तस्मात् पार्थ महायज्ञैर्यजस्व बहुदक्षिणैः।
स्वाध्याययज्ञा ऋषयो ज्ञानयज्ञास्तथापरे ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! अतः तुम बहुत-सी दक्षिणावाले बड़े-बड़े यज्ञोंका अनुष्ठान करो। स्वाध्याययज्ञ और ज्ञानयज्ञ तो ऋषिलोग किया करते हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मनिष्ठांश्च बुद्ध्येथास्तपोनिष्ठांश्च पार्थिव ।
वैखानसानां कौन्तेय वचनं श्रूयते यथा ॥ ६ ॥
मूलम्
कर्मनिष्ठांश्च बुद्ध्येथास्तपोनिष्ठांश्च पार्थिव ।
वैखानसानां कौन्तेय वचनं श्रूयते यथा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि ऋषियोंमें कुछ लोग कर्मनिष्ठ और तपोनिष्ठ भी होते हैं। कुन्तीनन्दन! वैखानस महात्माओंका वचन इस प्रकार सुननेमें आता है—॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईहेत धनहेतोर्यस्तस्यानीहा गरीयसी ।
भूयान् दोषो हि वर्धेत यस्तं धनमुपाश्रयेत् ॥ ७ ॥
मूलम्
ईहेत धनहेतोर्यस्तस्यानीहा गरीयसी ।
भूयान् दोषो हि वर्धेत यस्तं धनमुपाश्रयेत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो धनके लिये विशेष चेष्टा करता है, वह वैसी चेष्टा न करे—यही सबसे अच्छा है; क्योंकि जो उस धनकी उपासना करने लगता है, उसके महान् दोषकी वृद्धि होती है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृच्छ्राच्च द्रव्यसंहारं कुर्वन्ति धनकारणात्।
धनेन तृषितोऽबुद्ध्या भ्रूणहत्यां न बुद्ध्यते ॥ ८ ॥
मूलम्
कृच्छ्राच्च द्रव्यसंहारं कुर्वन्ति धनकारणात्।
धनेन तृषितोऽबुद्ध्या भ्रूणहत्यां न बुद्ध्यते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लोग धनके लिये बड़े कष्टसे नाना प्रकारके द्रव्योंका संग्रह करते हैं। परंतु धनके लिये प्यासा हुआ मनुष्य अज्ञानवश भ्रूणहत्या-जैसे पापका भागी हो जाता है, इस बातको वह नहीं समझता॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनर्हते यद् ददाति न ददाति यदर्हते।
अर्हानर्हापरिज्ञानाद् दानधर्मोऽपि दुष्करः ॥ ९ ॥
मूलम्
अनर्हते यद् ददाति न ददाति यदर्हते।
अर्हानर्हापरिज्ञानाद् दानधर्मोऽपि दुष्करः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बहुधा मनुष्य अनधिकारीको धन दे देता है और योग्य अधिकारीको नहीं देता। योग्य-अयोग्य पात्रकी पहचान न होनेसे (भ्रूणहत्याके समान दोष लगता है, अतः) दानधर्म भी दुष्कर ही है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञाय सृष्टानि धनानि धात्रा
यज्ञोद्दिष्टः पुरुषो रक्षिता च।
तस्मात् सर्वं यज्ञ एवोपयोज्यं
धनं ततोऽनन्तर एव कामः ॥ १० ॥
मूलम्
यज्ञाय सृष्टानि धनानि धात्रा
यज्ञोद्दिष्टः पुरुषो रक्षिता च।
तस्मात् सर्वं यज्ञ एवोपयोज्यं
धनं ततोऽनन्तर एव कामः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्माने यज्ञके लिये ही धनकी सृष्टि की है तथा यज्ञके उद्देश्यसे ही उसकी रक्षा करनेवाले पुरुषको उत्पन्न किया है, इसलिये यज्ञमें ही सम्पूर्ण धनका उपयोग कर देना चाहिये। फिर शीघ्र ही (उस यज्ञसे ही) यजमानके सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धि हो जाती है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञैरिन्द्रो विविधै रत्नवद्भि-
र्देवान् सर्वानभ्ययाद् भूरितेजाः ।
तेनेन्द्रत्वं प्राप्य विभ्राजतेऽसौ
तस्माद् यज्ञे सर्वमेवोपयोज्यम् ॥ ११ ॥
मूलम्
यज्ञैरिन्द्रो विविधै रत्नवद्भि-
र्देवान् सर्वानभ्ययाद् भूरितेजाः ।
तेनेन्द्रत्वं प्राप्य विभ्राजतेऽसौ
तस्माद् यज्ञे सर्वमेवोपयोज्यम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महातेजस्वी इन्द्र धनरत्नोंसे सम्पन्न नाना प्रकारके यज्ञोंद्वारा यज्ञपुरुषका यजन करके सम्पूर्ण देवताओंसे अधिक उत्कर्षशाली हो गये; इसलिये इन्द्रका पद पाकर वे स्वर्गलोकमें प्रकाशित हो रहे हैं, अतः यज्ञमें ही सम्पूर्ण धनका उपयोग करना चाहिये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महादेवः सर्वयज्ञे महात्मा
हुत्वाऽऽत्मानं देवदेवो बभूव ।
विश्वाल्ँलोकान् व्याप्य विष्टभ्य कीर्त्या
विराजते द्युतिमान् कृत्तिवासाः ॥ १२ ॥
मूलम्
महादेवः सर्वयज्ञे महात्मा
हुत्वाऽऽत्मानं देवदेवो बभूव ।
विश्वाल्ँलोकान् व्याप्य विष्टभ्य कीर्त्या
विराजते द्युतिमान् कृत्तिवासाः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘गजासुरके चर्मको वस्त्रकी भाँति धारण करनेवाले महात्मा महादेवजी सर्वस्वसमर्पणरूप यज्ञमें अपने-आपको होमकर देवताओंके भी देवता हो गये। वे अपने उत्तम कीर्तिसे सम्पूर्ण विश्वको व्याप्त करके तेजस्वी रूपसे प्रकाशित हो रहे हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आविक्षितः पार्थिवोऽसौ मरुत्तो
वृद्ध्या शक्रं योऽजयद् देवराजम्।
यज्ञे यस्य श्रीः स्वयं संनिविष्टा
यस्मिन् भाण्डं काञ्चनं सर्वमासीत् ॥ १३ ॥
मूलम्
आविक्षितः पार्थिवोऽसौ मरुत्तो
वृद्ध्या शक्रं योऽजयद् देवराजम्।
यज्ञे यस्य श्रीः स्वयं संनिविष्टा
यस्मिन् भाण्डं काञ्चनं सर्वमासीत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अविक्षित्के पुत्र सुप्रसिद्ध महाराज मरुत्तने अपनी समृद्धिके द्वारा देवराज इन्द्रको भी पराजित कर दिया था, उनके यज्ञमें लक्ष्मी देवी स्वयं ही पधारी थीं। उस यज्ञके उपयोगमें आये हुए सारे पात्र सोनेके बने हुए थे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरिश्चन्द्रः पार्थिवेन्द्रः श्रुतस्ते
यज्ञैरिष्ट्वा पुण्यभाग् वीतशोकः ।
ऋद्ध्या शक्रं योऽजयन्मानुषः सं-
स्तस्माद् यज्ञे सर्वमेवोपयोज्यम् ॥ १४ ॥
मूलम्
हरिश्चन्द्रः पार्थिवेन्द्रः श्रुतस्ते
यज्ञैरिष्ट्वा पुण्यभाग् वीतशोकः ।
ऋद्ध्या शक्रं योऽजयन्मानुषः सं-
स्तस्माद् यज्ञे सर्वमेवोपयोज्यम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजाधिराज हरिश्चन्द्रका नाम तुमने सुना होगा, जिन्होंने मनुष्य होकर भी अपनी धन-सम्पत्तिके द्वारा इन्द्रको भी परास्त कर दिया था, वे भी अनेक प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान करके पुण्यके भागी एवं शोकशून्य हो गये थे; अतः यज्ञमें ही सारा धन लगा देना चाहिये’॥१४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि देवस्थानवाक्ये विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें देवस्थानवाक्यविषयक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२०॥