भागसूचना
एकोनविंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरद्वारा अपने मतकी यथार्थताका प्रतिपादन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदाहं तात शास्त्राणि अपराणि पराणि च।
उभयं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च ॥ १ ॥
मूलम्
वेदाहं तात शास्त्राणि अपराणि पराणि च।
उभयं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— तात! मैं धर्म और ब्रह्मका प्रतिपादन करनेवाले अपर तथा पर दोनों प्रकारके शास्त्रोंको जानता हूँ। वेदमें दोनों प्रकारके वचन उपलब्ध होते हैं—‘कर्म करो और कर्म छोड़ो’—इन दोनोंका ही मुझे ज्ञान है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकुलानि च शास्त्राणि हेतुभिश्चिन्तितानि च।
निश्चयश्चैव यो मन्त्रे वेदाहं तं यथाविधि ॥ २ ॥
मूलम्
आकुलानि च शास्त्राणि हेतुभिश्चिन्तितानि च।
निश्चयश्चैव यो मन्त्रे वेदाहं तं यथाविधि ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परस्परविरोधी भावोंसे युक्त जो शास्त्र-वाक्य हैं, उनपर भी मैंने युक्तिपूर्वक विचार किया है। वेदमें उन दोनों प्रकारके वाक्योंका जो सुनिश्चित सिद्धान्त है, उसे भी मैं विधिपूर्वक जानता हूँ॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं तु केवलमस्त्रज्ञो वीरव्रतसमन्वितः।
शास्त्रार्थं तत्त्वतो गन्तुं न समर्थः कथंचन ॥ ३ ॥
मूलम्
त्वं तु केवलमस्त्रज्ञो वीरव्रतसमन्वितः।
शास्त्रार्थं तत्त्वतो गन्तुं न समर्थः कथंचन ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम तो केवल अस्त्रविद्याके पण्डित हो और वीरव्रतका पालन करनेवाले हो। शास्त्रोंके तात्पर्यको यथार्थरूपसे जाननेकी शक्ति तुममें किसी प्रकार नहीं है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शास्त्रार्थसूक्ष्मदर्शी यो धर्मनिश्चयकोविदः ।
तेनाप्येवं न वाच्योऽहं यदि धर्मं प्रपश्यसि ॥ ४ ॥
मूलम्
शास्त्रार्थसूक्ष्मदर्शी यो धर्मनिश्चयकोविदः ।
तेनाप्येवं न वाच्योऽहं यदि धर्मं प्रपश्यसि ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग शास्त्रोंके सूक्ष्म रहस्यको समझनेवाले हैं और धर्मका निर्णय करनेमें कुशल हैं, वे भी मुझे इस प्रकार उपदेश नहीं दे सकते। यदि तुम धर्मपर दृष्टि रखते हो तो मेरे इस कथनकी यथार्थताका अनुभव करोगे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातृसौहृदमास्थाय यदुक्तं वचनं त्वया।
न्याय्यं युक्तं च कौन्तेय प्रीतोऽहं तेन तेऽर्जुन ॥ ५ ॥
मूलम्
भ्रातृसौहृदमास्थाय यदुक्तं वचनं त्वया।
न्याय्यं युक्तं च कौन्तेय प्रीतोऽहं तेन तेऽर्जुन ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन! कुन्तीनन्दन! तुमने भ्रातृस्नेहवश जो बात कही है, वह न्यायसंगत और उचित है। मैं उससे तुमपर प्रसन्न ही हुआ हूँ॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युद्धधर्मेषु सर्वेषु क्रियाणां नैपुणेषु च।
न त्वया सदृशः कश्चित् त्रिषु लोकेषु विद्यते ॥ ६ ॥
मूलम्
युद्धधर्मेषु सर्वेषु क्रियाणां नैपुणेषु च।
न त्वया सदृशः कश्चित् त्रिषु लोकेषु विद्यते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण युद्धधर्मोंमें और संग्राम करनेकी कुशलतामें तुम्हारी समानता करनेवाला तीनों लोकोंमें कोई नहीं है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मं सूक्ष्मतरं वाच्यं तत्र दुष्प्रतरं त्वया।
धनञ्जय न मे बुद्धिमभिशङ्कितुमर्हसि ॥ ७ ॥
मूलम्
धर्मं सूक्ष्मतरं वाच्यं तत्र दुष्प्रतरं त्वया।
धनञ्जय न मे बुद्धिमभिशङ्कितुमर्हसि ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनंजय! धर्मका स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म एवं दुर्बोध कहा गया है। उसमें तुम्हारा प्रवेश होना अत्यन्त कठिन है। मेरी बुद्धि भी उसे समझती है या नहीं, यह आशंका तुम्हें नहीं करनी चाहिये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युद्धशास्त्रविदेव त्वं न वृद्धाः सेवितास्त्वया।
संक्षिप्तविस्तरविदां न तेषां वेत्सि निश्चयम् ॥ ८ ॥
मूलम्
युद्धशास्त्रविदेव त्वं न वृद्धाः सेवितास्त्वया।
संक्षिप्तविस्तरविदां न तेषां वेत्सि निश्चयम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम युद्धशास्त्रके ही विद्वान् हो, तुमने कभी वृद्ध पुरुषोंका सेवन नहीं किया है, अतः संक्षेप और विस्तारके साथ धर्मको जाननेवाले उन महापुरुषोंका क्या सिद्धान्त है, इसका तुम्हें पता नहीं है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपस्त्यागोऽविधिरिति निश्चयस्त्वेष धीमताम् ।
परं परं ज्याय एषां येषां नैश्रेयसी मतिः ॥ ९ ॥
मूलम्
तपस्त्यागोऽविधिरिति निश्चयस्त्वेष धीमताम् ।
परं परं ज्याय एषां येषां नैश्रेयसी मतिः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन महानुभावोंकी बुद्धि परम कल्याणमें लगी हुई है, उन बुद्धिमानोंका निर्णय इस प्रकार है। तपस्या, त्याग और विधिविधानसे अतीत (ब्रह्मज्ञान) इनमेंसे पूर्व-पूर्वकी अपेक्षा उत्तरोत्तर श्रेष्ठ है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्त्वेतन्मन्यसे पार्थ न ज्यायोऽस्ति धनादिति।
तत्र ते वर्तयिष्यामि यथा नैतत् प्रधानतः ॥ १० ॥
मूलम्
यस्त्वेतन्मन्यसे पार्थ न ज्यायोऽस्ति धनादिति।
तत्र ते वर्तयिष्यामि यथा नैतत् प्रधानतः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! तुम जो यह मानते हो कि धनसे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है, उसके विषयमें मैं तुम्हें ऐसी बात बता रहा हूँ, जिससे तुम्हारी समझमें आ जायगा कि धन प्रधान नहीं है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपःस्वाध्यायशीला हि दृश्यन्ते धार्मिका जनाः।
ऋषयस्तपसा युक्ता येषां लोकाः सनातनाः ॥ ११ ॥
मूलम्
तपःस्वाध्यायशीला हि दृश्यन्ते धार्मिका जनाः।
ऋषयस्तपसा युक्ता येषां लोकाः सनातनाः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस जगत्में बहुत-से तपस्या और स्वाध्यायमें लगे हुए धर्मात्मा पुरुष देखे जाते हैं तथा ऋषि तो तपस्वी होते ही हैं। इन सबको सनातन लोकोंकी प्राप्ति होती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजातशत्रवो धीरास्तथान्ये वनवासिनः ।
अरण्ये बहवश्चैव स्वाध्यायेन दिवं गताः ॥ १२ ॥
मूलम्
अजातशत्रवो धीरास्तथान्ये वनवासिनः ।
अरण्ये बहवश्चैव स्वाध्यायेन दिवं गताः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही ऐसे धीर पुरुष हैं, जिनके शत्रु पैदा ही नहीं हुए। ये तथा और भी बहुत-से वनवासी हैं, जो वनमें स्वाध्याय करके स्वर्गलोकमें चले गये हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तरेण तु पन्थानमार्या विषयनिग्रहात्।
अबुद्धिजं तमस्त्यक्त्वा लोकांस्त्यागवतां गताः ॥ १३ ॥
मूलम्
उत्तरेण तु पन्थानमार्या विषयनिग्रहात्।
अबुद्धिजं तमस्त्यक्त्वा लोकांस्त्यागवतां गताः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत-से आर्य पुरुष इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे रोककर अविवेकजनित अज्ञानका त्याग करके उत्तरमार्ग (देवयान)-के द्वारा त्यागी पुरुषोंके लोकोमें चले गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दक्षिणेन तु पंथानं यं भास्वन्तं प्रचक्षते।
एते क्रियावतां लोका ये श्मशानानि भेजिरे ॥ १४ ॥
मूलम्
दक्षिणेन तु पंथानं यं भास्वन्तं प्रचक्षते।
एते क्रियावतां लोका ये श्मशानानि भेजिरे ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके सिवा जो दक्षिण मार्ग है, जिसे प्रकाशपूर्ण बताया गया है, वहाँ जो लोक हैं, वे सकाम कर्म करनेवाले उन गृहस्थोंके लिये हैं, जो श्मशान-भूमिका सेवन करते हैं (जन्म-मरणके चक्करमें पड़े रहते हैं)॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिर्देश्या गतिः सा तु यां प्रपश्यन्ति मोक्षिणः।
तस्माद् योगः प्रधानेष्टः स तु दुःखं प्रवेदितुम् ॥ १५ ॥
मूलम्
अनिर्देश्या गतिः सा तु यां प्रपश्यन्ति मोक्षिणः।
तस्माद् योगः प्रधानेष्टः स तु दुःखं प्रवेदितुम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु मोक्ष-मार्गसे चलनेवाले पुरुष जिस गतिका साक्षात्कार करते हैं, वह अनिर्देश्य है; अतः ज्ञानयोग ही सब साधनोंमें प्रधान एवं अभीष्ट है, किंतु उसके स्वरूपको समझना बहुत कठिन है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुस्मृत्य तु शास्त्राणि कवयः समवस्थिताः।
अपीह स्यादपीह स्यात् सारासारदिदृक्षया ॥ १६ ॥
मूलम्
अनुस्मृत्य तु शास्त्राणि कवयः समवस्थिताः।
अपीह स्यादपीह स्यात् सारासारदिदृक्षया ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहते हैं, किसी समय विद्वान् पुरुषोंने सार और असार वस्तुका निर्णय करनेकी इच्छासे इकट्ठे होकर समस्त शास्त्रोंका बार-बार स्मरण करते हुए यह विचार आरम्भ किया कि क्या इस गार्हस्थ्य-जीवनमें कुछ सार है या इसके त्यागमें सार है?॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदवादानतिक्रम्य शास्त्राण्यारण्यकानि च ।
विपाट्य कदलीस्तम्भं सारं ददृशिरे न ते ॥ १७ ॥
मूलम्
वेदवादानतिक्रम्य शास्त्राण्यारण्यकानि च ।
विपाट्य कदलीस्तम्भं सारं ददृशिरे न ते ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने वेदोंके सम्पूर्ण वाक्यों तथा शास्त्रों और बृहदारण्यक आदि वेदान्तग्रन्थोंको भी पढ़ लिया, परंतु जैसे केलेके खम्भेको फाड़नेसे कुछ सार नहीं दिखायी देता, उसी प्रकार उन्हें इस जगत्में सार वस्तु नहीं दिखायी दी॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथैकान्तव्युदासेन शरीरे पाञ्चभौतिके ।
इच्छाद्वेषसमासक्तमात्मानं प्राहुरिङ्गितैः ॥ १८ ॥
मूलम्
अथैकान्तव्युदासेन शरीरे पाञ्चभौतिके ।
इच्छाद्वेषसमासक्तमात्मानं प्राहुरिङ्गितैः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ लोग एकान्तभावका परित्याग करके इस पांचभौतिक शरीरमें विभिन्न संकेतोंद्वारा इच्छा, द्वेष आदिमें आसक्त आत्माकी स्थिति बताते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्राह्यं चक्षुषा सूक्ष्ममनिर्देश्यं च तद्गिरा।
कर्महेतुपुरस्कारं भूतेषु परिवर्तते ॥ १९ ॥
मूलम्
अग्राह्यं चक्षुषा सूक्ष्ममनिर्देश्यं च तद्गिरा।
कर्महेतुपुरस्कारं भूतेषु परिवर्तते ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु आत्माका स्वरूप तो अत्यन्त सूक्ष्म है। उसे नेत्रोंद्वारा देखा नहीं जा सकता, वाणीद्वारा उसका कोई लक्षण नहीं बताया जा सकता। वह समस्त प्राणियोंमें कर्मकी हेतुभूत अविद्याको आगे रखकर—उसीके द्वारा अपने स्वरूपको छिपाकर विद्यमान है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कल्याणगोचरं कृत्वा मनस्तृष्णां निगृह्य च।
कर्मसंततिमुत्सृज्य स्यान्निरालम्बनः सुखी ॥ २० ॥
मूलम्
कल्याणगोचरं कृत्वा मनस्तृष्णां निगृह्य च।
कर्मसंततिमुत्सृज्य स्यान्निरालम्बनः सुखी ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः (मनुष्यको चाहिये कि) मनको कल्याणके मार्गमें लगाकर तृष्णाको रोके और कर्मोंकी परम्पराका परित्याग करके धन-जन आदिके अवलम्बसे दूर हो सुखी हो जाय॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मिन्नेवं सूक्ष्मगम्ये मार्गे सद्भिर्निषेविते।
कथमर्थमनर्थाढ्यमर्जुन त्वं प्रशंससि ॥ २१ ॥
मूलम्
अस्मिन्नेवं सूक्ष्मगम्ये मार्गे सद्भिर्निषेविते।
कथमर्थमनर्थाढ्यमर्जुन त्वं प्रशंससि ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन! इस प्रकार सूक्ष्म बुद्धिसे जाननेयोग्य एवं साधु पुरुषोंसे सेवित इस उत्तम मार्गके रहते हुए तुम अनर्थोंसे भरे हुए अर्थ (धन) की प्रशंसा कैसे करते हो?॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वशास्त्रविदोऽप्येवं जनाः पश्यन्ति भारत।
क्रियासु निरता नित्यं दाने यज्ञे च कर्मणि ॥ २२ ॥
मूलम्
पूर्वशास्त्रविदोऽप्येवं जनाः पश्यन्ति भारत।
क्रियासु निरता नित्यं दाने यज्ञे च कर्मणि ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! दान, यज्ञ तथा अतिथिसेवा आदि अन्य कर्मोंमें नित्य लगे रहनेवाले प्राचीन शास्त्रज्ञ भी इस विषयमें ऐसी ही दृष्टि रखते हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवन्ति सुदुरावर्ता हेतुमन्तोऽपि पण्डिताः।
दृढपूर्वे स्मृता मूढा नैतदस्तीतिवादिनः ॥ २३ ॥
मूलम्
भवन्ति सुदुरावर्ता हेतुमन्तोऽपि पण्डिताः।
दृढपूर्वे स्मृता मूढा नैतदस्तीतिवादिनः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ तर्कवादी पण्डित भी अपने पूर्वजन्मके दृढ़ संस्कारोंसे प्रभावित होकर ऐसे मूढ़ हो जाते हैं कि उन्हें शास्त्रके सिद्धान्तको ग्रहण कराना अत्यन्त कठिन हो जाता है। वे आग्रहपूर्वक यही कहते रहते हैं कि ‘यह (आत्मा, धर्म, परलोक, मर्यादा आदि) कुछ नहीं है’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनृतस्यावमन्तारो वक्तारो जनसंसदि ।
चरन्ति वसुधां कृत्स्नां बावदूका बहुश्रुताः ॥ २४ ॥
मूलम्
अनृतस्यावमन्तारो वक्तारो जनसंसदि ।
चरन्ति वसुधां कृत्स्नां बावदूका बहुश्रुताः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु बहुत-से ऐसे बहुश्रुत, बोलनेमें चतुर और विद्वान् भी हैं, जो जनताकी सभामें व्याख्यान देते और उपर्युक्त असत्य मतका खण्डन करते हुए सारी पृथ्वीपर विचरते रहते हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पार्थ यान्न विजानीमः कस्तान् ज्ञातुमिहार्हति।
एवं प्राज्ञाः श्रुताश्चापि महान्तः शास्त्रवित्तमाः ॥ २५ ॥
मूलम्
पार्थ यान्न विजानीमः कस्तान् ज्ञातुमिहार्हति।
एवं प्राज्ञाः श्रुताश्चापि महान्तः शास्त्रवित्तमाः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! जिन विद्वानोंको हम नहीं जान पाते हैं, उन्हें कोई साधारण मनुष्य कैसे जान सकता है? इस प्रकार शास्त्रोंके अच्छे-अच्छे ज्ञाता एवं महान् विद्वान् सुननेमें आये हैं (जिनको पहचानना बड़ा कठिन है)॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपसा महदाप्नोति बुद्ध्या वै विन्दते महत्।
त्यागेन सुखमाप्नोति सदा कौन्तेय तत्त्ववित् ॥ २६ ॥
मूलम्
तपसा महदाप्नोति बुद्ध्या वै विन्दते महत्।
त्यागेन सुखमाप्नोति सदा कौन्तेय तत्त्ववित् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! तत्त्ववेत्ता पुरुष तपस्याद्वारा महान् पदको प्राप्त कर लेता है, ज्ञानयोगसे उस परमतत्त्वको उपलब्ध कर लेता है और स्वार्थत्यागके द्वारा सदा नित्य सुखका अनुभव करता रहता है॥२६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि युधिष्ठिरवाक्ये एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें युधिष्ठिरका वाक्यविषयक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१९॥