भागसूचना
अष्टादशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अर्जुनका राजा जनक और उनकी रानीका दृष्टान्त देते हुए युधिष्ठिरको संन्यास ग्रहण करनेसे रोकना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तूष्णीम्भूतं तु राजानं पुनरेवार्जुनोऽब्रवीत्।
संतप्तः शोकदुःखाभ्यां राजवाक्छल्यपीडितः ॥ १ ॥
मूलम्
तूष्णीम्भूतं तु राजानं पुनरेवार्जुनोऽब्रवीत्।
संतप्तः शोकदुःखाभ्यां राजवाक्छल्यपीडितः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! जब राजा युधिष्ठिर ऐसा कहकर चुप हो गये, तब राजाके वाग्बाणोंसे पीड़ित हो शोक और दुःखसे संतप्त हुए अर्जुन फिर उनसे बोले॥१॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथयन्ति पुरावृत्तमितिहासमिमं जनाः ।
विदेहराज्ञः संवादं भार्यया सह भारत ॥ २ ॥
मूलम्
कथयन्ति पुरावृत्तमितिहासमिमं जनाः ।
विदेहराज्ञः संवादं भार्यया सह भारत ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने कहा— भारत! विज्ञ पुरुष विदेहराज जनक और उनकी रानीका संवादरूप यह प्राचीन इतिहास कहा करते हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्सृज्य राज्यं भिक्षार्थं कृतबुद्धिं नरेश्वरम्।
विदेहराजमहिषी दुःखिता यदभाषत ॥ ३ ॥
मूलम्
उत्सृज्य राज्यं भिक्षार्थं कृतबुद्धिं नरेश्वरम्।
विदेहराजमहिषी दुःखिता यदभाषत ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक समय राजा जनकने भी राज्य छोड़कर भिक्षासे जीवन-निर्वाह कर लेनेका निश्चय कर लिया था। उस समय विदेहराजकी महारानीने दुखी होकर जो कुछ कहा था, वही आपको सुना रहा हूँ॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनान्यपत्यं दाराश्च रत्नानि विविधानि च।
पन्थानं पावकं हित्वा जनको मौढ्यमास्थितः ॥ ४ ॥
तं ददर्श प्रिया भार्या भैक्ष्यवृत्तिमकिंचनम्।
धानामुष्टिमुपासीनं निरीहं गतमत्सरम् ॥ ५ ॥
तमुवाच समागत्य भर्तारमकुतोभयम् ।
क्रुद्धा मनस्विनी भार्या विविक्ते हेतुमद् वचः ॥ ६ ॥
मूलम्
धनान्यपत्यं दाराश्च रत्नानि विविधानि च।
पन्थानं पावकं हित्वा जनको मौढ्यमास्थितः ॥ ४ ॥
तं ददर्श प्रिया भार्या भैक्ष्यवृत्तिमकिंचनम्।
धानामुष्टिमुपासीनं निरीहं गतमत्सरम् ॥ ५ ॥
तमुवाच समागत्य भर्तारमकुतोभयम् ।
क्रुद्धा मनस्विनी भार्या विविक्ते हेतुमद् वचः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहते हैं, एक दिन राजा जनकपर मूढ़ता छा गयी और वे धन, संतान, स्त्री, नाना प्रकारके रत्न, सनातन मार्ग और अग्निहोत्रका भी त्याग करके अकिंचन हो गये। उन्होंने भिक्षुवृत्ति अपना ली और वे मुट्ठीभर भुना हुआ जौ खाकर रहने लगे। उन्होंने सब प्रकारकी चेष्टाएँ छोड़ दीं। उनके मनमें किसीके प्रति ईर्ष्याका भाव नहीं रह गया था। इस प्रकार निर्भय स्थितिमें पहुँचे हुए अपने स्वामीको उनकी भार्याने देखा और उनके पास आकर कुपित हुई उस मनस्विनी एवं प्रिय रानीने एकान्तमें यह युक्तियुक्त बात कही—॥४—६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथमुत्सृज्य राज्यं स्वं धनधान्यसमन्वितम्।
कापालीं वृत्तिमास्थाय धानामुष्टिर्न ते वरः ॥ ७ ॥
मूलम्
कथमुत्सृज्य राज्यं स्वं धनधान्यसमन्वितम्।
कापालीं वृत्तिमास्थाय धानामुष्टिर्न ते वरः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! आपने धन-धान्यसे सम्पन्न अपना राज्य छोड़कर यह खपड़ा लेकर भीख माँगनेका धंधा कैसे अपना लिया? यह मुट्ठीभर जौ आपको शोभा नहीं दे रहा है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिज्ञा तेऽन्यथा राजन् विचेष्टा चान्यथा तव।
यद् राज्यं महदुत्सृज्य स्वल्पे तुष्यसि पार्थिव ॥ ८ ॥
मूलम्
प्रतिज्ञा तेऽन्यथा राजन् विचेष्टा चान्यथा तव।
यद् राज्यं महदुत्सृज्य स्वल्पे तुष्यसि पार्थिव ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! आपकी प्रतिज्ञा तो कुछ और थी और चेष्टा कुछ और ही दिखायी देती है। भूपाल! आपने विशाल राज्य छोड़कर थोड़ी-सी वस्तुमें संतोष कर लिया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतेनातिथयो राजन् देवर्षिपितरस्तथा ।
अद्य शक्यास्त्वया भर्तुं मोघस्तेऽयं परिश्रमः ॥ ९ ॥
मूलम्
नैतेनातिथयो राजन् देवर्षिपितरस्तथा ।
अद्य शक्यास्त्वया भर्तुं मोघस्तेऽयं परिश्रमः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! इस मुट्ठीभर जौसे देवताओं, ऋषियों, पितरों तथा अतिथियोंका आप भरण-पोषण नहीं कर सकते, अतः आपका यह परिश्रम व्यर्थ है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवतातिथिभिश्चैव पितृभिश्चैव पार्थिव ।
सर्वैरेतैः परित्यक्तः परिव्रजसि निष्क्रियः ॥ १० ॥
मूलम्
देवतातिथिभिश्चैव पितृभिश्चैव पार्थिव ।
सर्वैरेतैः परित्यक्तः परिव्रजसि निष्क्रियः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पृथ्वीनाथ! आप सम्पूर्ण देवताओं, अतिथियों और पितरोंसे परित्यक्त होकर अकर्मण्य हो घर छोड़ रहे हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्त्वं त्रैविद्यवृद्धानां ब्राह्मणानां सहस्रशः।
भर्ता भूत्वा च लोकस्य सोऽद्य तैर्भृतिमिच्छसि ॥ ११ ॥
मूलम्
यस्त्वं त्रैविद्यवृद्धानां ब्राह्मणानां सहस्रशः।
भर्ता भूत्वा च लोकस्य सोऽद्य तैर्भृतिमिच्छसि ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तीनों वेदोंके ज्ञानमें बढ़े-चढ़े सहस्रों ब्राह्मणों तथा इस सम्पूर्ण जगत्का भरण-पोषण करनेवाले होकर भी आज आप उन्हींके द्वारा अपना भरण-पोषण चाहते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रियं हित्वा प्रदीप्तां त्वं श्ववत् सम्प्रति वीक्ष्यसे।
अपुत्रा जननी तेऽद्य कौसल्या चापतिस्त्वया ॥ १२ ॥
मूलम्
श्रियं हित्वा प्रदीप्तां त्वं श्ववत् सम्प्रति वीक्ष्यसे।
अपुत्रा जननी तेऽद्य कौसल्या चापतिस्त्वया ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस जगमगाती हुई राजलक्ष्मीको छोड़कर इस समय आप दर-दर भटकनेवाले कुत्तेके समान दिखायी देते हैं। आज आपके जीते-जी आपकी माता पुत्रहीन और यह अभागिनी कौसल्या पतिहीन हो गयी॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमी च धर्मकामास्त्वां क्षत्रियाः पर्युपासते।
त्वदाशामभिकांक्षन्तः कृपणाः फलहेतुकाः ॥ १३ ॥
मूलम्
अमी च धर्मकामास्त्वां क्षत्रियाः पर्युपासते।
त्वदाशामभिकांक्षन्तः कृपणाः फलहेतुकाः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये धर्मकी इच्छा रखनेवाले क्षत्रिय जो सदा आपकी सेवामें बैठे रहते हैं, आपसे बड़ी-बड़ी आशाएँ रखते हैं, इन बेचारोंको सेवाका फल चाहिये॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तांश्च त्वं विफलान् कुर्वन् कं नु लोकं गमिष्यसि।
राजन् संशयिते मोक्षे परतन्त्रेषु देहिषु ॥ १४ ॥
मूलम्
तांश्च त्वं विफलान् कुर्वन् कं नु लोकं गमिष्यसि।
राजन् संशयिते मोक्षे परतन्त्रेषु देहिषु ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! मोक्षकी प्राप्ति संशयास्पद है और प्राणी प्रारब्धके अधीन हैं। ऐसी दशामें उन अर्थार्थी सेवकोंको यदि आप विफल-मनोरथ करते हैं तो पता नहीं किस लोकमें जायँगे?॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव तेऽस्ति परो लोको नापरः पापकर्मणः।
धर्म्यान् दारान् परित्यज्य यस्त्वमिच्छसि जीवितुम् ॥ १५ ॥
मूलम्
नैव तेऽस्ति परो लोको नापरः पापकर्मणः।
धर्म्यान् दारान् परित्यज्य यस्त्वमिच्छसि जीवितुम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप अपनी धर्मपत्नीका परित्याग करके जो अकेला जीवन बिताना चाहते हैं, इससे आप पापकर्मा बन गये हैं; अतः आपके लिये न यह लोक सुखद होगा, न परलोक॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्रजो गन्धानलंकारान् वासांसि विविधानि च।
किमर्थमभिसंत्यज्य परिव्रजसि निष्क्रियः ॥ १६ ॥
मूलम्
स्रजो गन्धानलंकारान् वासांसि विविधानि च।
किमर्थमभिसंत्यज्य परिव्रजसि निष्क्रियः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बताइये तो सही, इन सुन्दर-सुन्दर मालाओं, सुगन्धित पदार्थों, आभूषणों और भाँति-भाँतिके वस्त्रोंको छोड़कर किसलिये कर्महीन होकर घरका परित्याग कर रहे हैं?॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निपानं सर्वभूतानां भूत्वा त्वं पावनं महत्।
आढ्यो वनस्पतिर्भूत्वा सोऽन्यांस्त्वं पर्युपाससे ॥ १७ ॥
मूलम्
निपानं सर्वभूतानां भूत्वा त्वं पावनं महत्।
आढ्यो वनस्पतिर्भूत्वा सोऽन्यांस्त्वं पर्युपाससे ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये पवित्र एवं विशाल प्याऊके समान थे—सभी आपके पास अपनी प्यास बुझाने आते थे। आप फलोंसे भरे हुए वृक्षके समान थे—कितने ही प्राणियोंकी भूख मिटाते थे, परंतु वे ही आप अब (भूख-प्यास मिटानेके लिये) दूसरोंका मुँह जोह रहे हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खादन्ति हस्तिनं न्यासैः क्रव्यादा बहवोऽप्युत।
बहवः कृमयश्चैव किं पुनस्त्वामनर्थकम् ॥ १८ ॥
मूलम्
खादन्ति हस्तिनं न्यासैः क्रव्यादा बहवोऽप्युत।
बहवः कृमयश्चैव किं पुनस्त्वामनर्थकम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि हाथी भी सारी चेष्टा छोड़कर एक जगह पड़ जाय तो मांसभक्षी जीव-जन्तु और कीड़े धीरे-धीरे उसे खा जाते हैं। फिर सब पुरुषार्थोंसे शून्य आप-जैसे मनुष्योंकी तो बात ही क्या है?॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
य इमां कुण्डिकां भिन्द्यात् त्रिविष्टब्धं च यो हरेत्।
वासश्चापि हरेत् तस्मिन् कथं ते मानसं भवेत् ॥ १९ ॥
मूलम्
य इमां कुण्डिकां भिन्द्यात् त्रिविष्टब्धं च यो हरेत्।
वासश्चापि हरेत् तस्मिन् कथं ते मानसं भवेत् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि आपकी कोई यह कुण्डी फोड़ दे, त्रिदण्ड उठा ले जाय और ये वस्त्र भी चुरा ले जाय तो उस समय आपके मनकी कैसी अवस्था होगी?॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्त्वयं सर्वमुत्सृज्य धानामुष्टेरनुग्रहः ।
यदानेन समं सर्वं किमिदं ह्यवसीयसे ॥ २० ॥
मूलम्
यस्त्वयं सर्वमुत्सृज्य धानामुष्टेरनुग्रहः ।
यदानेन समं सर्वं किमिदं ह्यवसीयसे ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि सब कुछ छोड़कर भी आप मुट्ठीभर जौके लिये दूसरोंकी कृपा चाहते हैं तो राज्य आदि अन्य सब वस्तुएँ भी तो इसीके समान हैं। फिर उस राज्यके त्यागकी क्या विशेषता रही?॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धानामुष्टेरिहार्थश्चेत् प्रतिज्ञा ते विनश्यति।
का वाहं तव को मे त्वं कश्च ते मय्यनुग्रहः॥२१॥
मूलम्
धानामुष्टेरिहार्थश्चेत् प्रतिज्ञा ते विनश्यति।
का वाहं तव को मे त्वं कश्च ते मय्यनुग्रहः॥२१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि यहाँ मुट्ठीभर जौकी आवश्यकता बनी ही रह गयी तो सब कुछ त्याग देनेकी जो आपने प्रतिज्ञा की थी, वह नष्ट हो गयी। (सर्वत्यागी हो जानेपर) मैं आपकी कौन हूँ और आप मेरे कौन हैं तथा आपका मुझपर अनुग्रह भी क्या है?॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रशाधि पृथिवीं राजन् यदि तेऽनुग्रहो भवेत्।
प्रासादं शयनं यानं वासांस्याभरणानि च ॥ २२ ॥
मूलम्
प्रशाधि पृथिवीं राजन् यदि तेऽनुग्रहो भवेत्।
प्रासादं शयनं यानं वासांस्याभरणानि च ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! यदि आपका मुझपर अनुग्रह हो तो इस पृथ्वीका शासन कीजिये और राजमहल, शय्या, सवारी, वस्त्र तथा आभूषणोंको भी उपयोगमें लाइये॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रिया विहीनैरधनैस्त्यक्तमित्रैरकिंचनैः ।
सौखिकैः सम्भृतानर्थान् यः संत्यजति किं नु तत् ॥ २३ ॥
मूलम्
श्रिया विहीनैरधनैस्त्यक्तमित्रैरकिंचनैः ।
सौखिकैः सम्भृतानर्थान् यः संत्यजति किं नु तत् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीहीन, निर्धन, मित्रोंद्वारा त्यागे हुए, अकिंचन एवं सुखकी अभिलाषा रखनेवाले लोगोंकी भाँति सब प्रकारसे परिपूर्ण राजलक्ष्मीका जो परित्याग करता है उससे उसे क्या लाभ?॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽत्यन्तं प्रतिगृह्णीयाद् यश्च दद्यात् सदैव हि।
तयोस्त्वमन्तरं विद्धि श्रेयांस्ताभ्यां क उच्यते ॥ २४ ॥
मूलम्
योऽत्यन्तं प्रतिगृह्णीयाद् यश्च दद्यात् सदैव हि।
तयोस्त्वमन्तरं विद्धि श्रेयांस्ताभ्यां क उच्यते ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो बराबर दूसरोंसे दान लेता (भिक्षा ग्रहण करता) तथा जो निरन्तर स्वयं ही दान करता रहता है, उन दोनोंमें क्या अन्तर है और उनमेंसे किसको श्रेष्ठ कहा जाता है? यह आप समझिये॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदैव याचमानेषु तथा दम्भान्वितेषु च।
एतेषु दक्षिणा दत्ता दावाग्नाविव दुर्हुतम् ॥ २५ ॥
मूलम्
सदैव याचमानेषु तथा दम्भान्वितेषु च।
एतेषु दक्षिणा दत्ता दावाग्नाविव दुर्हुतम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सदा ही याचना करनेवालेको और दम्भीको दी हुई दक्षिणा दावानलमें दी गयी आहुतिके समान व्यर्थ है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातवेदा यथा राजन् नादग्ध्वैवोपशाम्यति।
सदैव याचमानो हि तथा शाम्यति न द्विजः ॥ २६ ॥
मूलम्
जातवेदा यथा राजन् नादग्ध्वैवोपशाम्यति।
सदैव याचमानो हि तथा शाम्यति न द्विजः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! जैसे आग लकड़ीको जलाये बिना नहीं बुझती, उसी प्रकार सदा ही याचना करनेवाला ब्राह्मण (याचनाका अन्त किये बिना) कभी शान्त नहीं हो सकता॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतां वै ददतोऽन्नं च लोकेऽस्मिन् प्रकृतिर्ध्रुवा।
न चेद् राजा भवेद् दाता कुतः स्युर्मोक्षकांक्षिणः ॥ २७ ॥
मूलम्
सतां वै ददतोऽन्नं च लोकेऽस्मिन् प्रकृतिर्ध्रुवा।
न चेद् राजा भवेद् दाता कुतः स्युर्मोक्षकांक्षिणः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस संसारमें दाताका अन्न ही साधु पुरुषोंकी जीविकाका निश्चित आधार है। यदि दान करनेवाला राजा न हो तो मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले साधु-संन्यासी कैसे जी सकते हैं?॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्नाद् गृहस्था लोकेऽस्मिन् भिक्षवस्तत एव च।
अन्नात् प्राणः प्रभवति अन्नदः प्राणदो भवेत् ॥ २८ ॥
मूलम्
अन्नाद् गृहस्था लोकेऽस्मिन् भिक्षवस्तत एव च।
अन्नात् प्राणः प्रभवति अन्नदः प्राणदो भवेत् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस जगत्में अन्नसे गृहस्थ और गृहस्थोंसे भिक्षुओंका निर्वाह होता है। अन्नसे प्राणशक्ति प्रकट होती है; अतः अन्नदाता प्राणदाता होता है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहस्थेभ्योऽपि निर्मुक्ता गृहस्थानेव संश्रिताः।
प्रभवं च प्रतिष्ठां च दान्ता विन्दन्त आसते ॥ २९ ॥
मूलम्
गृहस्थेभ्योऽपि निर्मुक्ता गृहस्थानेव संश्रिताः।
प्रभवं च प्रतिष्ठां च दान्ता विन्दन्त आसते ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जितेन्द्रिय संन्यासी गृहस्थ-आश्रमसे अलग होकर भी गृहस्थोंके ही सहारे जीवन धारण करते हैं। वहींसे वह प्रकट होते हैं और वहीं उन्हें प्रतिष्ठा प्राप्त होती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्यागान्न भिक्षुकं विद्यान्न मौढ्यान्न च याचनात्।
ऋजुस्तु योऽर्थं त्यजति न सुखं विद्धि भिक्षुकम् ॥ ३० ॥
मूलम्
त्यागान्न भिक्षुकं विद्यान्न मौढ्यान्न च याचनात्।
ऋजुस्तु योऽर्थं त्यजति न सुखं विद्धि भिक्षुकम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘केवल त्यागसे, मूढ़तासे और याचना करनेसे किसीको भिक्षु नहीं समझना चाहिये। जो सरलभावसे स्वार्थका त्याग करता है और सुखमें आसक्त नहीं होता उसे ही भिक्षु समझिये॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असक्तः सक्तवद् गच्छन् निःसंगो मुक्तबन्धनः।
समः शत्रौ च मित्रे च स वै मुक्तो महीपते॥३१॥
मूलम्
असक्तः सक्तवद् गच्छन् निःसंगो मुक्तबन्धनः।
समः शत्रौ च मित्रे च स वै मुक्तो महीपते॥३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पृथ्वीनाथ! जो आसक्तिरहित होकर आसक्तकी भाँति विचरता है, जो संगरहित एवं सब प्रकारके बन्धनोंको तोड़ चुका है तथा शत्रु और मित्रमें जिसका समान भाव है, वह सदा मुक्त ही है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिव्रजन्ति दानार्थं मुण्डाः काषायवाससः।
सिता बहुविधैः पाशैः संचिन्वन्तो वृथामिषम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
परिव्रजन्ति दानार्थं मुण्डाः काषायवाससः।
सिता बहुविधैः पाशैः संचिन्वन्तो वृथामिषम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बहुत-से मनुष्य दान लेने (पेट पालने)-के लिये मूड़ मुड़ाकर गेरुए वस्त्र पहन लेते हैं और घरसे निकल जाते हैं। वे नाना प्रकारके बन्धनोंमें बँधे होनेके कारण व्यर्थ भोगोंकी ही खोज करते रहते हैं1॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयीं च नाम वार्तां च त्यक्त्वा पुत्रान् व्रजन्ति ये।
त्रिविष्टब्धं च वासश्च प्रतिगृह्णन्त्यबुद्धयः ॥ ३३ ॥
मूलम्
त्रयीं च नाम वार्तां च त्यक्त्वा पुत्रान् व्रजन्ति ये।
त्रिविष्टब्धं च वासश्च प्रतिगृह्णन्त्यबुद्धयः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बहुत-से मूर्ख मनुष्य तीनों वेदोंके अध्ययन, इनमें बताये गये कर्म, कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य तथा अपने पुत्रोंका परित्याग करके चल देते हैं और त्रिदण्ड एवं भगवा वस्त्र धारण कर लेते हैं॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिष्कषाये काषायमीहार्थमिति विद्धि तम्।
धर्मध्वजानां मुण्डानां वृत्यर्थमिति मे मितिः ॥ ३४ ॥
मूलम्
अनिष्कषाये काषायमीहार्थमिति विद्धि तम्।
धर्मध्वजानां मुण्डानां वृत्यर्थमिति मे मितिः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि हृदयका कषाय (राग आदि दोष) दूर न हुआ हो तो काषाय (गेरुआ) वस्त्र धारण करना स्वार्थ-साधनकी चेष्टाके लिये ही समझना चाहिये। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि धर्मका ढोंग रखनेवाले मथमुंडोंके लिये यह जीविका चलानेका एक धंधामात्र है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काषायैरजिनैश्चीरैर्नग्नान् मुण्डान् जटाधरान् ।
बिभ्रत् साधून् महाराज जय लोकान् जितेन्द्रियः ॥ ३५ ॥
मूलम्
काषायैरजिनैश्चीरैर्नग्नान् मुण्डान् जटाधरान् ।
बिभ्रत् साधून् महाराज जय लोकान् जितेन्द्रियः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! आप तो जितेन्द्रिय होकर नंगे रहनेवाले, मूड़ मुड़ाने और जटा रखानेवाले साधुओंका गेरुआ वस्त्र, मृगचर्म एवं वल्कल वस्त्रोंके द्वारा भरण-पोषण करते हुए पुण्यलोकोंपर विजय प्राप्त कीजिये॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्न्याधेयानि गुर्वर्थं क्रतूनपि सुदक्षिणान्।
ददात्यहरहः पूर्वं को नु धर्मरतस्ततः ॥ ३६ ॥
मूलम्
अग्न्याधेयानि गुर्वर्थं क्रतूनपि सुदक्षिणान्।
ददात्यहरहः पूर्वं को नु धर्मरतस्ततः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो प्रतिदिन पहले गुरुके लिये अग्निहोत्रार्थ समिधा लाता है; फिर उत्तम दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञ एवं दान करता रहता है, उससे बढ़कर धर्मपरायण कौन होगा?’॥३६॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्त्वज्ञो जनको राजा लोकेऽस्मिन्निति गीयते।
सोऽप्यासीन्मोहसम्पन्नो मा मोहवशमन्वगाः ॥ ३७ ॥
मूलम्
तत्त्वज्ञो जनको राजा लोकेऽस्मिन्निति गीयते।
सोऽप्यासीन्मोहसम्पन्नो मा मोहवशमन्वगाः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन कहते हैं— महाराज! राजा जनकको इस जगत्में ‘तत्त्वज्ञ’ कहा जाता है; किंतु वे भी मोहमें पड़ गये थे। (रानीके इस तरह समझानेपर राजाने संन्यासका विचार छोड़ दिया। अतः) आप भी मोहके वशीभूत न होइये॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं धर्ममनुक्रान्ताः सदा दानतपःपराः।
आनृशंस्यगुणोपेताः कामक्रोधविवर्जिताः ॥ ३८ ॥
प्रजानां पालने युक्ता दानमुत्तममास्थिताः।
इष्टाल्ँलोकानवाप्स्यामो गुरुवृद्धोपचायिनः ॥ ३९ ॥
मूलम्
एवं धर्ममनुक्रान्ताः सदा दानतपःपराः।
आनृशंस्यगुणोपेताः कामक्रोधविवर्जिताः ॥ ३८ ॥
प्रजानां पालने युक्ता दानमुत्तममास्थिताः।
इष्टाल्ँलोकानवाप्स्यामो गुरुवृद्धोपचायिनः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि हमलोग सदा दान और तपस्यामें तत्पर हो इसी प्रकार धर्मका अनुसरण करेंगे, दया आदि गुणोंसे सम्पन्न रहेंगे, काम-क्रोध आदि दोषोंको त्याग देंगे, उत्तम दान-धर्मका आश्रय ले प्रजापालनमें लगे रहेंगे तथा गुरुजनों और वृद्ध पुरुषोंकी सेवा करते रहेंगे तो हम अपने अभीष्ट लोक प्राप्त कर लेंगे॥३८-३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवतातिथिभूतानां निर्वपन्तो यथाविधि ।
स्थानमिष्टमवाप्स्यामो ब्रह्मण्याः सत्यवादिनः ॥ ४० ॥
मूलम्
देवतातिथिभूतानां निर्वपन्तो यथाविधि ।
स्थानमिष्टमवाप्स्यामो ब्रह्मण्याः सत्यवादिनः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार देवता, अतिथि और समस्त प्राणियोंको विधिपूर्वक उनका भाग अर्पण करते हुए यदि हम ब्राह्मणभक्त और सत्यवादी बने रहेंगे तो हमें अभीष्ट स्थानकी प्राप्ति अवश्य होगी॥४०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि अर्जुनवाक्ये अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें अर्जुनका वाक्यविषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८॥
-
इसी पर्वमें अध्याय १७ श्लोक १७ देखना चाहिये। ↩︎