भागसूचना
सप्तदशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरद्वारा भीमकी बातका विरोध करते हुए मुनिवृत्तिकी और ज्ञानी महात्माओंकी प्रशंसा
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
असंतोषः प्रमादश्च मदो रागोऽप्रशान्तता।
बलं मोहोऽभिमानश्चाप्युद्वेगश्चैव सर्वशः ॥ १ ॥
एभिः पाप्मभिराविष्टो राज्यं त्वमभिकांक्षसे।
निरामिषो विनिर्मुक्तः प्रशान्तः सुसुखी भव ॥ २ ॥
मूलम्
असंतोषः प्रमादश्च मदो रागोऽप्रशान्तता।
बलं मोहोऽभिमानश्चाप्युद्वेगश्चैव सर्वशः ॥ १ ॥
एभिः पाप्मभिराविष्टो राज्यं त्वमभिकांक्षसे।
निरामिषो विनिर्मुक्तः प्रशान्तः सुसुखी भव ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— भीमसेन! असंतोष, प्रमाद, मद, राग, अशान्ति, बल, मोह, अभिमान तथा उद्वेग—ये सभी पाप तुम्हारे भीतर घुस गये हैं, इसीलिये तुम्हें राज्यकी इच्छा होती है। भाई! सकाम कर्म और बन्धनसे1 रहित होकर सर्वथा मुक्त, शान्त एवं सुखी हो जाओ॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
य इमामखिलां भूमिं शिष्यादेको महीपतिः।
तस्याप्युदरमेकं वै किमिदं त्वं प्रशंससि ॥ ३ ॥
मूलम्
य इमामखिलां भूमिं शिष्यादेको महीपतिः।
तस्याप्युदरमेकं वै किमिदं त्वं प्रशंससि ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सम्राट् इस सारी पृथ्वीका अकेला ही शासन करता है, उसके पास भी एक ही पेट होता है; अतः तुम किसलिये इस राज्यकी प्रशंसा करते हो?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाह्ना पूरयितुं शक्यां न मासैर्भरतर्षभ।
अपूर्यां पूरयन्निच्छामायुषापि न शक्नुयात् ॥ ४ ॥
मूलम्
नाह्ना पूरयितुं शक्यां न मासैर्भरतर्षभ।
अपूर्यां पूरयन्निच्छामायुषापि न शक्नुयात् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! इस इच्छाको एक दिनमें या कई महीनोंमें भी पूर्ण नहीं किया जा सकता। इतना ही नहीं, सारी आयु प्रयत्न करनेपर भी इस अपूरणीय इच्छाकी पूर्ति होनी असम्भव है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथेद्धः प्रज्वलत्यग्निरसमिद्धः प्रशाम्यति ।
अल्पाहारतया त्वग्निं शमयौदर्यमुत्थितम् ॥ ५ ॥
मूलम्
यथेद्धः प्रज्वलत्यग्निरसमिद्धः प्रशाम्यति ।
अल्पाहारतया त्वग्निं शमयौदर्यमुत्थितम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे आगमें जितना ही ईंधन डालो, वह प्रज्वलित होती जायगी और ईंधन न डाला जाय तो वह अपने-आप आप बुझ जाती है। इसी प्रकार तुम भी अपना आहार कम करके इस जगी हुई जठराग्निको शान्त करो॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मोदरकृतेऽप्राज्ञः करोति विघसं बहु।
जयोदरं पृथिव्या ते श्रेयो निर्जितया जितम् ॥ ६ ॥
मूलम्
आत्मोदरकृतेऽप्राज्ञः करोति विघसं बहु।
जयोदरं पृथिव्या ते श्रेयो निर्जितया जितम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अज्ञानी मनुष्य अपने पेटके लिये ही बहुत हिंसा करता है; अतः तुम पहले अपने पेटको ही जीतो। फिर ऐसा समझा जायगा कि इस जीती हुई पृथ्वीके द्वारा तुमने कल्याणपर विजय पा ली है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानुषान् कामभोगांस्त्वमैश्वर्यं च प्रशंससि।
अभोगिनोऽबलाश्चैव यान्ति स्थानमनुत्तमम् ॥ ७ ॥
मूलम्
मानुषान् कामभोगांस्त्वमैश्वर्यं च प्रशंससि।
अभोगिनोऽबलाश्चैव यान्ति स्थानमनुत्तमम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन! तुम मनुष्योंके कामभोग और ऐश्वर्यकी बड़ी प्रशंसा करते हो; परंतु जो भोगरहित हैं और तपस्या करते-करते निर्बल हो गये हैं, वे ऋषि-मुनि ही सर्वोत्तम पदको प्राप्त करते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योगः क्षेमश्च राष्ट्रस्य धर्माधर्मौ त्वयि स्थितौ।
मुच्यस्व महतो भारात् त्यागमेवाभिसंश्रय ॥ ८ ॥
मूलम्
योगः क्षेमश्च राष्ट्रस्य धर्माधर्मौ त्वयि स्थितौ।
मुच्यस्व महतो भारात् त्यागमेवाभिसंश्रय ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राष्ट्रके योग और क्षेम, धर्म तथा अधर्म सब तुममें ही स्थित हैं। तुम इस महान् भारसे मुक्त हो जाओ और त्यागका ही आश्रय लो॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकोदरकृते व्याघ्रः करोति विघसं बहु।
तमन्येऽप्युपजीवन्ति मन्दा लोभवशा मृगाः ॥ ९ ॥
मूलम्
एकोदरकृते व्याघ्रः करोति विघसं बहु।
तमन्येऽप्युपजीवन्ति मन्दा लोभवशा मृगाः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाघ एक ही पेटके लिये बहुत-से प्राणियोंकी हिंसा करता है, दूसरे लोभी और मूर्ख पशु भी उसीके सहारे जीवन-निर्वाह करते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विषयान् प्रतिसंगृह्य संन्यासं कुरुते यतिः।
न च तुष्यन्ति राजानः पश्य बुद्ध्यन्तरं यथा ॥ १० ॥
मूलम्
विषयान् प्रतिसंगृह्य संन्यासं कुरुते यतिः।
न च तुष्यन्ति राजानः पश्य बुद्ध्यन्तरं यथा ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यत्नशील साधक विषयोंका परित्याग करके संन्यास ग्रहण कर लेता है तो वह संतुष्ट हो जाता है। परंतु विषयभोगोंसे सम्पन्न समृद्धिशाली राजा कभी संतुष्ट नहीं होते। देखो, इन दोनोंके विचारोंमें कितना अन्तर है?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पत्राहारैरश्मकुट्टैर्दन्तोलूखलिकैस्तथा ।
अब्भक्षैर्वायुभक्षैश्च तैरयं नरको जितः ॥ ११ ॥
मूलम्
पत्राहारैरश्मकुट्टैर्दन्तोलूखलिकैस्तथा ।
अब्भक्षैर्वायुभक्षैश्च तैरयं नरको जितः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग पत्ते खाकर रहते हैं, जो पत्थरपर पीसकर अथवा दाँतोंसे ही चबाकर भोजन करनेवाले हैं (अर्थात् जो चक्कीका पीसा और ओखलीका कूटा नहीं खाते हैं) तथा जो पानी या हवा पीकर रह जाते हैं, उन तपस्वी पुरुषोंने ही नरकपर विजय पायी है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्त्विमां वसुधां कृत्स्नां प्रशासेदखिलां नृपः।
तुल्याश्मकांचनो यश्च स कृतार्थो न पार्थिवः ॥ १२ ॥
मूलम्
यस्त्विमां वसुधां कृत्स्नां प्रशासेदखिलां नृपः।
तुल्याश्मकांचनो यश्च स कृतार्थो न पार्थिवः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा इस सम्पूर्ण पृथ्वीका शासन करता है और जो सब कुछ छोड़कर पत्थर और सोनेको समान समझनेवाला है—इन दोनोंमेंसे वह त्यागी मुनि ही कृतार्थ होता है, राजा नहीं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संकल्पेषु निरारम्भो निराशो निर्ममो भव।
अशोकं स्थानमातिष्ठ इह चामुत्र चाव्ययम् ॥ १३ ॥
मूलम्
संकल्पेषु निरारम्भो निराशो निर्ममो भव।
अशोकं स्थानमातिष्ठ इह चामुत्र चाव्ययम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने मनोरथोंके पीछे बड़े-बड़े कार्योंका आरम्भ न करो। आशा तथा ममता न रखो और उस शोकरहित पदका आश्रय लो जो इहलोक और परलोकमें भी अविनाशी है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरामिषा न शोचन्ति शोचसि त्वं किमामिषम्।
परित्यज्यामिषं सर्वं मृषावादात् प्रमोक्ष्यसे ॥ १४ ॥
मूलम्
निरामिषा न शोचन्ति शोचसि त्वं किमामिषम्।
परित्यज्यामिषं सर्वं मृषावादात् प्रमोक्ष्यसे ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्होंने भोगोंका परित्याग कर दिया है वे तो कभी शोक नहीं करते हैं; फिर तुम क्यों भोगोंकी चिन्ता करते हो? सारे भोगोंका परित्याग कर देनेपर तुम मिथ्यावादसे छूट जाओगे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पन्थानौ पितृयानश्च देवयानश्च विश्रुतौ।
ईजानाः पितृयानेन देवयानेन मोक्षिणः ॥ १५ ॥
मूलम्
पन्थानौ पितृयानश्च देवयानश्च विश्रुतौ।
ईजानाः पितृयानेन देवयानेन मोक्षिणः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवयान और पितृयान—ये दो परलोकके प्रसिद्ध मार्ग हैं। जो सकाम यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाले हैं वे पितृयानसे जाते हैं और मोक्षके अधिकारी देवयानमार्गसे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपसा ब्रह्मचर्येण स्वाध्यायेन महर्षयः।
विमुच्य देहांस्ते यान्ति मृत्योरविषयं गताः ॥ १६ ॥
मूलम्
तपसा ब्रह्मचर्येण स्वाध्यायेन महर्षयः।
विमुच्य देहांस्ते यान्ति मृत्योरविषयं गताः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षिगण तपस्या, ब्रह्मचर्य तथा स्वाध्यायके बलसे देहत्यागके पश्चात् ऐसे लोकमें पहुँच जाते हैं जहाँ मृत्युका प्रवेश नहीं है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आमिषं बन्धनं लोके कर्मेहोक्तं तथामिषम्।
ताभ्यां विमुक्तः पापाभ्यां पदमाप्नोति तत् परम् ॥ १७ ॥
मूलम्
आमिषं बन्धनं लोके कर्मेहोक्तं तथामिषम्।
ताभ्यां विमुक्तः पापाभ्यां पदमाप्नोति तत् परम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस जगत्में ममता और आसक्तिके बन्धनको आमिष कहा गया है। सकाम कर्म भी आमिष कहलाता है। इन दोनों आमिषस्वरूप पापोंसे जो मुक्त हो गया है वही परमपदको प्राप्त होता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि गाथां पुरा गीतां जनकेन वदन्त्युत।
निर्द्वन्द्वेन विमुक्तेन मोक्षं समनुपश्यता ॥ १८ ॥
मूलम्
अपि गाथां पुरा गीतां जनकेन वदन्त्युत।
निर्द्वन्द्वेन विमुक्तेन मोक्षं समनुपश्यता ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस विषयमें पूर्वकालमें राजा जनककी कही हुई एक गाथाका लोग उल्लेख किया करते हैं। राजा जनक समस्त द्वन्द्वोंसे रहित और जीवन्मुक्त पुरुष थे। उन्होंने मोक्षस्वरूप परमात्मतत्त्वका साक्षात्कार कर लिया था।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनन्तं बत मे वित्तं यस्य मे नास्ति किंचन।
मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किंचन ॥ १९ ॥
मूलम्
अनन्तं बत मे वित्तं यस्य मे नास्ति किंचन।
मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किंचन ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(उनकी वह गाथा इस प्रकार है—) दूसरोंकी दृष्टिमें मेरे पास बहुत धन है; परंतु उसमेंसे कुछ भी मेरा नहीं है। सारी मिथिलामें आग लग जाय तो भी मेरा कुछ नहीं जलेगा॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रज्ञाप्रासादमारुह्य अशोचन् शोचतो जनान्।
जगतीस्थानिवाद्रिस्थो मन्दबुद्धीनवेक्षते ॥ २० ॥
मूलम्
प्रज्ञाप्रासादमारुह्य अशोचन् शोचतो जनान्।
जगतीस्थानिवाद्रिस्थो मन्दबुद्धीनवेक्षते ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पर्वतकी चोटीपर चढ़ा हुआ मनुष्य धरती-पर खड़े हुए प्राणियोंको केवल देखता है उनकी परिस्थितिसे प्रभावित नहीं होता, उसी प्रकार बुद्धिकी अट्टालिकापर चढ़ा हुआ मनुष्य उन शोक करनेवाले मन्दबुद्धि लोगोंको देखता है, किंतु स्वयं उनकी भाँति दुखी नहीं होता॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृश्यं पश्यति यः पश्यन् स चक्षुष्मान् स बुद्धिमान्।
अज्ञातानां च विज्ञानात् सम्बोधाद् बुद्धिरुच्यते ॥ २१ ॥
मूलम्
दृश्यं पश्यति यः पश्यन् स चक्षुष्मान् स बुद्धिमान्।
अज्ञातानां च विज्ञानात् सम्बोधाद् बुद्धिरुच्यते ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो स्वयं द्रष्टारूपसे पृथक् रहकर इस दृश्य-प्रपंचको देखता है, वही आँखवाला है और वही बुद्धिमान् है। अज्ञात तत्त्वोंका ज्ञान एवं सम्यग् बोध करानेके कारण अन्तःकरणकी एक वृत्तिको बुद्धि कहते हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु वाचं विजानाति बहुमानमियात् स वै।
ब्रह्मभावप्रपन्नानां वैद्यानां भावितात्मनाम् ॥ २२ ॥
मूलम्
यस्तु वाचं विजानाति बहुमानमियात् स वै।
ब्रह्मभावप्रपन्नानां वैद्यानां भावितात्मनाम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ब्रह्मभावको प्राप्त हुए शुद्धात्मा विद्वानोंका-सा बोलना जान लेता है, उसे अपने ज्ञानपर बड़ा अभिमान हो जाता है (जैसे कि तुम हो)॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ २३ ॥
मूलम्
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब पुरुष प्राणियोंकी पृथक्-पृथक् सत्ताको एकमात्र परमात्मामें ही स्थित देखता है और उस परमात्मासे ही सम्पूर्ण भूतोंका विस्तार हुआ मानता है, उस समय वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको प्राप्त होता है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते जनास्तां गतिं यान्ति नाविद्वांसोऽल्पचेतसः।
नाबुद्धयो नातपसः सर्वं बुद्धौ प्रतिष्ठितम् ॥ २४ ॥
मूलम्
ते जनास्तां गतिं यान्ति नाविद्वांसोऽल्पचेतसः।
नाबुद्धयो नातपसः सर्वं बुद्धौ प्रतिष्ठितम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमान् और तपस्वी ही उस गतिको प्राप्त होते हैं। जो अज्ञानी, मन्दबुद्धि, शुद्धबुद्धिसे रहित और तपस्यासे शून्य हैं—वे नहीं। क्योंकि सब कुछ बुद्धिमें ही प्रतिष्ठित है॥२४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि युधिष्ठिरवाक्ये सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें युधिष्ठिरका वाक्यविषयक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७॥
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आमिषं बन्धनं लोके कर्मेहोक्तं तथामिषम्। ताभ्यां विमुक्तः पापाभ्यां पदमाप्नोति तत्परम्॥ (१७।१७) ↩︎