०१६ भीमवाक्ये

भागसूचना

षोडशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भीमसेनका राजाको भुक्त दुःखोंकी स्मृति कराते हुए मोह छोड़कर मनको काबूमें करके राज्यशासन और यज्ञके लिये प्रेरित करना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्जुनस्य वचः श्रुत्वा भीमसेनोऽत्यमर्षणः।
धैर्यमास्थाय तेजस्वी ज्येष्ठं भ्रातरमब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

अर्जुनस्य वचः श्रुत्वा भीमसेनोऽत्यमर्षणः।
धैर्यमास्थाय तेजस्वी ज्येष्ठं भ्रातरमब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! अर्जुनकी बात सुनकर अत्यन्त अमर्षशील तेजस्वी भीमसेनने धैर्य धारण करके अपने बड़े भाईसे कहा—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन् विदितधर्मोऽसि न तेऽस्त्यविदितं क्वचित्।
उपशिक्षाम ते वृत्तं सदैव न च शक्नुमः ॥ २ ॥

मूलम्

राजन् विदितधर्मोऽसि न तेऽस्त्यविदितं क्वचित्।
उपशिक्षाम ते वृत्तं सदैव न च शक्नुमः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! आप सब धर्मोंके ज्ञाता हैं। आपसे कुछ भी अज्ञात नहीं है। हमलोग आपसे सदा ही सदाचारकी शिक्षा पाते हैं। हम आपको शिक्षा दे नहीं सकते॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न वक्ष्यामि न वक्ष्यामीत्येवं मे मनसि स्थितम्।
अतिदुःखात्तु वक्ष्यामि तन्निबोध जनाधिप ॥ ३ ॥

मूलम्

न वक्ष्यामि न वक्ष्यामीत्येवं मे मनसि स्थितम्।
अतिदुःखात्तु वक्ष्यामि तन्निबोध जनाधिप ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जनेश्वर! मैंने कई बार मनमें निश्चय किया कि ‘अब नहीं बोलूँगा, नहीं बोलूँगा;’ परंतु अधिक दुःख होनेके कारण बोलना ही पड़ता है। आप मेरी बात सुनें॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवतः सम्प्रमोहेन सर्वं संशयितं कृतम्।
विक्लवत्वं च नः प्राप्तमबलत्वं तथैव च ॥ ४ ॥

मूलम्

भवतः सम्प्रमोहेन सर्वं संशयितं कृतम्।
विक्लवत्वं च नः प्राप्तमबलत्वं तथैव च ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपके इस मोहसे सब कुछ संशयमें पड़ गया है। हमारे तन-मनमें व्याकुलता और निर्बलता प्राप्त हो गयी है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं हि राजा लोकस्य सर्वशास्त्रविशारदः।
मोहमापद्यसे दैन्याद् यथा कापुरुषस्तथा ॥ ५ ॥
अगतिश्च गतिश्चैव लोकस्य विदिता तव।
आयत्यां च तदात्वे च न तेऽस्त्यविदितं प्रभो ॥ ६ ॥

मूलम्

कथं हि राजा लोकस्य सर्वशास्त्रविशारदः।
मोहमापद्यसे दैन्याद् यथा कापुरुषस्तथा ॥ ५ ॥
अगतिश्च गतिश्चैव लोकस्य विदिता तव।
आयत्यां च तदात्वे च न तेऽस्त्यविदितं प्रभो ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता और इस जगत्‌के राजा होकर क्यों कायर मनुष्यके समान दीनतावश मोहमें पड़े हुए हैं। आपको संसारकी गति और अगति दोनोंका ज्ञान है। प्रभो! आपसे न तो वर्तमान छिपा है और न भविष्य ही॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं गते महाराज राज्यं प्रति जनाधिप।
हेतुमत्र प्रवक्ष्यामि तमिहैकमनाः शृणु ॥ ७ ॥

मूलम्

एवं गते महाराज राज्यं प्रति जनाधिप।
हेतुमत्र प्रवक्ष्यामि तमिहैकमनाः शृणु ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! जनेश्वर! ऐसी स्थितिमें आपको राज्यके प्रति आकृष्ट करनेका जो कारण है, उसे ही यहाँ बता रहा हूँ। आप एकाग्रचित्त होकर सुनें॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्विविधो जायते व्याधिः शारीरो मानसस्तथा।
परस्परं तयोर्जन्म निर्द्वन्द्वं नोपलभ्यते ॥ ८ ॥

मूलम्

द्विविधो जायते व्याधिः शारीरो मानसस्तथा।
परस्परं तयोर्जन्म निर्द्वन्द्वं नोपलभ्यते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मनुष्यको दो प्रकारकी व्याधियाँ होती हैं—एक शारीरिक और दूसरी मानसिक। इन दोनोंकी उत्पत्ति एक-दूसरेके आश्रित है। एकके बिना दूसरीका होना सम्भव नहीं है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शारीराज्जायते व्याधिर्मानसो नात्र संशयः।
मानसाज्जायते वापि शारीर इति निश्चयः ॥ ९ ॥

मूलम्

शारीराज्जायते व्याधिर्मानसो नात्र संशयः।
मानसाज्जायते वापि शारीर इति निश्चयः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कभी शारीरिक व्याधिसे मानसिक व्याधि होती है, इसमें संशय नहीं है। इसी प्रकार कभी मानसिक व्याधिसे शारीरिक व्याधिका होना भी निश्चित ही है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शारीरं मानसं दुःखं योऽतीतमनुशोचति।
दुःखेन लभते दुःखं द्वावनर्थौ च विन्दति ॥ १० ॥

मूलम्

शारीरं मानसं दुःखं योऽतीतमनुशोचति।
दुःखेन लभते दुःखं द्वावनर्थौ च विन्दति ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो मनुष्य बीते हुए मानसिक अथवा शारीरिक दुःखके लिये बारंबार शोक करता है, वह एक दुःखसे दूसरे दुःखको प्राप्त होता है। उसे दो-दो अनर्थ भोगने पड़ते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शीतोष्णे चैव वायुश्च त्रयः शारीरजा गुणाः।
तेषां गुणानां साम्यं यत्तदाहुः स्वस्थलक्षणम् ॥ ११ ॥

मूलम्

शीतोष्णे चैव वायुश्च त्रयः शारीरजा गुणाः।
तेषां गुणानां साम्यं यत्तदाहुः स्वस्थलक्षणम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सर्दी, गर्मी और वायु (कफ, पित्त और वात) ये तीन शारीरिक गुण हैं। इन गुणोंका साम्यावस्थामें रहना ही स्वस्थताका लक्षण बताया गया है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषामन्यतमोद्रेके विधानमुपदिश्यते ।
उष्णेन बाध्यते शीतं शीतेनोष्णं प्रबाध्यते ॥ १२ ॥

मूलम्

तेषामन्यतमोद्रेके विधानमुपदिश्यते ।
उष्णेन बाध्यते शीतं शीतेनोष्णं प्रबाध्यते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन तीनोंमेंसे यदि किसी एककी वृद्धि हो जाय तो उसकी चिकित्सा बतायी जाती है। उष्ण द्रव्यसे सर्दी और शीत पदार्थसे गर्मीका निवारण होता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्त्वं रजस्तम इति मानसाः स्युस्त्रयो गुणाः।
तेषां गुणानां साम्यं यत्तदाहुः स्वस्थलक्षणम् ॥ १३ ॥

मूलम्

सत्त्वं रजस्तम इति मानसाः स्युस्त्रयो गुणाः।
तेषां गुणानां साम्यं यत्तदाहुः स्वस्थलक्षणम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सत्त्व, रज और तम—ये तीन मानसिक गुण हैं। इन तीनों गुणोंका सम अवस्थामें रहना मानसिक स्वास्थ्यका लक्षण बताया गया है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषामन्यतमोत्सेके विधानमुपदिश्यते ।
हर्षेण बाध्यते शोको हर्षः शोकेन बाध्यते ॥ १४ ॥

मूलम्

तेषामन्यतमोत्सेके विधानमुपदिश्यते ।
हर्षेण बाध्यते शोको हर्षः शोकेन बाध्यते ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इनमेंसे किसी एककी वृद्धि होनेपर उपचार बताया जाता है। हर्ष (सत्त्व)-के द्वारा शोक (रजोगुण)-का निवारण होता है और शोकके द्वारा हर्षका॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कश्चित्‌ सुखे वर्तमानो दुःखस्य स्मर्तुमिच्छति।
कश्चिद् दुःखे वर्तमानः सुखस्य स्मर्तुमिच्छति ॥ १५ ॥

मूलम्

कश्चित्‌ सुखे वर्तमानो दुःखस्य स्मर्तुमिच्छति।
कश्चिद् दुःखे वर्तमानः सुखस्य स्मर्तुमिच्छति ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कोई सुखमें रहकर दुःखकी बातें याद करना चाहता है और कोई दुःखमें रहकर सुखका स्मरण करना चाहता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वं न दुःखी दुःखस्य न सुखी च सुखस्य वा।
न दुःखी सुखजातस्य न सुखी दुःखजस्य वा ॥ १६ ॥
स्मर्तुमिच्छसि कौरव्य दिष्टं हि बलवत्तरम्।
अथवा ते स्वभावोऽयं येन पार्थिव क्लिश्यसे ॥ १७ ॥

मूलम्

स त्वं न दुःखी दुःखस्य न सुखी च सुखस्य वा।
न दुःखी सुखजातस्य न सुखी दुःखजस्य वा ॥ १६ ॥
स्मर्तुमिच्छसि कौरव्य दिष्टं हि बलवत्तरम्।
अथवा ते स्वभावोऽयं येन पार्थिव क्लिश्यसे ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुनन्दन! परंतु आप न दुखी होकर दुःखकी, न सुखी होकर सुखकी, न दुःखकी अवस्थामें सुखकी और न सुखकी अवस्थामें दुःखकी ही बातें याद करना चाहते हैं; क्योंकि भाग्य बड़ा प्रबल होता है। अथवा महाराज! आपका स्वभाव ही ऐसा है जिससे आप क्लेश उठाकर रहते हैं॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा सभागतां कृष्णामेकवस्त्रां रजस्वलाम्।
मिषतां पाण्डुपुत्राणां न तस्य स्मर्तुमर्हसि ॥ १८ ॥

मूलम्

दृष्ट्वा सभागतां कृष्णामेकवस्त्रां रजस्वलाम्।
मिषतां पाण्डुपुत्राणां न तस्य स्मर्तुमर्हसि ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कौरव-सभामें पाण्डुपुत्रोंके देखते-देखते जो एक वस्त्रधारिणी रजस्वला कृष्णाको लाया गया था, उसे आपने अपनी आँखों देखा था। क्या आपको उस घटनाका स्मरण नहीं होना चाहिये?॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रव्राजनं च नगरादजिनैश्च विवासनम्।
महारण्यनिवासश्च न तस्य स्मर्तुमर्हसि ॥ १९ ॥

मूलम्

प्रव्राजनं च नगरादजिनैश्च विवासनम्।
महारण्यनिवासश्च न तस्य स्मर्तुमर्हसि ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप नगरसे निकाले गये, आपको मृगछाला पहनाकर वनवास दे दिया गया और बड़े-बड़े जंगलोंमें आपको रहना पड़ा। क्या इन सब बातोंको आप याद नहीं कर सकते?॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जटासुरात् परिक्लेशं चित्रसेनेन चाहवम्।
सैन्धवाच्च परिक्लेशं कथं विस्मृतवानसि ॥ २० ॥

मूलम्

जटासुरात् परिक्लेशं चित्रसेनेन चाहवम्।
सैन्धवाच्च परिक्लेशं कथं विस्मृतवानसि ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जटासुरसे जो कष्ट प्राप्त हुआ, चित्रसेनके साथ जो युद्ध करना पड़ा और सिंधुराज जयद्रथके कारण जो अपमानजनक दुःख भोगना पड़ा—ये सारी बातें आप कैसे भूल गये?॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनरज्ञातचर्यायां कीचकेन पदा वधम्।
द्रौपद्या राजपुत्र्याश्च कथं विस्मृतवानसि ॥ २१ ॥

मूलम्

पुनरज्ञातचर्यायां कीचकेन पदा वधम्।
द्रौपद्या राजपुत्र्याश्च कथं विस्मृतवानसि ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘फिर अज्ञातवासके समय कीचकने जो आपके सामने ही राजकुमारी द्रौपदीको लात मारी थी, उस घटनाको आपने सहसा कैसे भुला दिया?॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(बलिनो हि वयं राजन् देवैरपि सुदुर्जयाः।
कथं भृत्यत्वमापन्ना विराटनगरे स्मर॥)

मूलम्

(बलिनो हि वयं राजन् देवैरपि सुदुर्जयाः।
कथं भृत्यत्वमापन्ना विराटनगरे स्मर॥)

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! हम बलवान् हैं, देवताओंके लिये भी हमें परास्त करना कठिन होगा तो भी विराटनगरमें हमें कैसे दासता करनी पड़ी थी, इसे याद कीजिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च ते द्रोणभीष्माभ्यां युद्धमासीदरिंदम।
मनसैकेन योद्धव्यं तत्ते युद्धमुपस्थितम् ॥ २२ ॥

मूलम्

यच्च ते द्रोणभीष्माभ्यां युद्धमासीदरिंदम।
मनसैकेन योद्धव्यं तत्ते युद्धमुपस्थितम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुदमन नरेश! द्रोणाचार्य और भीष्मके साथ जो आपका युद्ध हुआ था, वैसा ही दूसरा युद्ध आपके सामने उपस्थित है, इस समय आपको एकमात्र अपने मनके साथ युद्ध करना है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र नास्ति शरैः कार्यं न मित्रैर्न च बन्धुभिः।
आत्मनैकेन योद्धव्यं तत्ते युद्धमुपस्थितम् ॥ २३ ॥

मूलम्

यत्र नास्ति शरैः कार्यं न मित्रैर्न च बन्धुभिः।
आत्मनैकेन योद्धव्यं तत्ते युद्धमुपस्थितम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस युद्धमें न तो बाणोंका काम है, न मित्रों और बन्धुओंकी सहायताका। अकेले आपको ही लड़ना है। वह युद्ध आपके सामने उपस्थित है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन्ननिर्जिते युद्धे प्राणान् यदि विमोक्ष्यसे।
अन्यं देहं समास्थाय ततस्तैरपि योत्स्यसे ॥ २४ ॥

मूलम्

तस्मिन्ननिर्जिते युद्धे प्राणान् यदि विमोक्ष्यसे।
अन्यं देहं समास्थाय ततस्तैरपि योत्स्यसे ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस युद्धमें विजय पाये बिना यदि आप प्राणोंका परित्याग कर देंगे तो दूसरा देह धारण करके पुनःउन्हीं शत्रुओंके साथ आपको युद्ध करना पड़ेगा॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादद्यैव गन्तव्यं युद्ध्यस्व भरतर्षभ।
परमव्यक्तरूपस्य व्यक्तं त्यक्त्वा स्वकर्मभिः ॥ २५ ॥

मूलम्

तस्मादद्यैव गन्तव्यं युद्ध्यस्व भरतर्षभ।
परमव्यक्तरूपस्य व्यक्तं त्यक्त्वा स्वकर्मभिः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! इसलिये प्रत्यक्ष दिखायी देनेवाले साकार शत्रुको छोड़कर अव्यक्त (सूक्ष्म) शत्रु मनके साथ युद्ध करनेके लिये आपको अभी चल देना चाहिये। विचार आदि अपनी बौद्धिक क्रियाओंद्वारा उसके साथ आप अवश्य युद्ध करें॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन्ननिर्जिते युद्धे कामवस्थां गमिष्यसि।
एतज्जित्वा महाराज कृतकृत्यो भविष्यसि ॥ २६ ॥
एतां बुद्धिं विनिश्चित्य भूतानामागतिं गतिम्।
पितृपैतामहे वृत्ते शाधि राज्यं यथोचितम् ॥ २७ ॥

मूलम्

तस्मिन्ननिर्जिते युद्धे कामवस्थां गमिष्यसि।
एतज्जित्वा महाराज कृतकृत्यो भविष्यसि ॥ २६ ॥
एतां बुद्धिं विनिश्चित्य भूतानामागतिं गतिम्।
पितृपैतामहे वृत्ते शाधि राज्यं यथोचितम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! यदि युद्धमें आपने मनको परास्त नहीं किया तो पता नहीं आप किस अवस्थाको पहुँच जायँगे? और यदि मनको जीत लिया तो अवश्य कृतकृत्य हो जायँगे। प्राणियोंके आवागमनको देखते हुए इस विचारधाराको बुद्धिमें स्थिर करके आप पिता-पितामहोंके आचारमें प्रतिष्ठित हो यथोचित रूपसे राज्यका शासन कीजिये॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या दुर्योधनः पापो निहतः सानुगो युधि।
द्रौपद्याः केशपाशस्य दिष्ट्या त्वं पदवीं गतः ॥ २८ ॥

मूलम्

दिष्ट्या दुर्योधनः पापो निहतः सानुगो युधि।
द्रौपद्याः केशपाशस्य दिष्ट्या त्वं पदवीं गतः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सौभाग्यकी बात है कि पापी दुर्योधन सेवकोंसहित युद्धमें मारा गया; और सौभाग्यसे ही आप दुःशासनके हाथसे मुक्त हुए द्रौपदीके केशपाशकी भाँति युद्धसे छुटकारा पा गये॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यजस्व वाजिमेधेन विधिवद् दक्षिणावता।
वयं ते किंकराः पार्थ वासुदेवश्च वीर्यवान् ॥ २९ ॥

मूलम्

यजस्व वाजिमेधेन विधिवद् दक्षिणावता।
वयं ते किंकराः पार्थ वासुदेवश्च वीर्यवान् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीनन्दन! आप विधिपूर्वक दक्षिणा देते हुए अश्वमेधयज्ञका अनुष्ठान करें। हम सभी भाई और पराक्रमी श्रीकृष्ण आपके आज्ञापालक हैं॥२९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि भीमवाक्ये षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें भीमवाक्यविषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ३० श्लोक हैं)