भागसूचना
पञ्चदशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अर्जुनके द्वारा राजदण्डकी महत्ताका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
याज्ञसेन्या वचः श्रुत्वा पुनरेवार्जुनोऽब्रवीत्।
अनुमान्य महाबाहुं ज्येष्ठं भ्रातरमच्युतम् ॥ १ ॥
मूलम्
याज्ञसेन्या वचः श्रुत्वा पुनरेवार्जुनोऽब्रवीत्।
अनुमान्य महाबाहुं ज्येष्ठं भ्रातरमच्युतम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! द्रुपदकुमारीका यह वचन सुनकर अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले बड़े भाई महाबाहु युधिष्ठिरका सम्मान करते हुए अर्जुनने फिर इस प्रकार कहा॥१॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः ॥ २ ॥
मूलम्
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन बोले— राजन्! दण्ड समस्त प्रजाओंका शासन करता है, दण्ड ही उनकी सब ओरसे रक्षा करता है, सबके सो जानेपर भी दण्ड जागता रहता है; इसलिये विद्वान् पुरुषोंने दण्डको राजाका धर्म माना है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दण्डः संरक्षते धर्मं तथैवार्थं जनाधिप।
कार्म संरक्षते दण्डस्त्रिवर्गो दण्ड उच्यते ॥ ३ ॥
मूलम्
दण्डः संरक्षते धर्मं तथैवार्थं जनाधिप।
कार्म संरक्षते दण्डस्त्रिवर्गो दण्ड उच्यते ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनेश्वर! दण्ड ही धर्म और अर्थकी रक्षा करता है, वही कामका भी रक्षक है, अतः दण्ड त्रिवर्गरूप कहा जाता है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दण्डेन रक्ष्यते धान्यं धनं दण्डेन रक्ष्यते।
एवं विद्वानुपाधत्स्व भावं पश्यस्व लौकिकम् ॥ ४ ॥
मूलम्
दण्डेन रक्ष्यते धान्यं धनं दण्डेन रक्ष्यते।
एवं विद्वानुपाधत्स्व भावं पश्यस्व लौकिकम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दण्डसे धान्यकी रक्षा होती है, उसीसे धनकी भी रक्षा होती है; ऐसा जानकर आप भी दण्ड धारण कीजिये और जगत्के व्यवहारपर दृष्टि डालिये॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजदण्डभयादेके पापाः पापं न कुर्वते।
यमदण्डभयादेके परलोकभयादपि ॥ ५ ॥
परस्परभयादेके पापाः पापं न कुर्वते।
एवं सांसिद्धिके लोके सर्वं दण्डे प्रतिष्ठितम् ॥ ६ ॥
मूलम्
राजदण्डभयादेके पापाः पापं न कुर्वते।
यमदण्डभयादेके परलोकभयादपि ॥ ५ ॥
परस्परभयादेके पापाः पापं न कुर्वते।
एवं सांसिद्धिके लोके सर्वं दण्डे प्रतिष्ठितम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही पापी राजदण्डके भयसे पाप नहीं करते हैं। कुछ लोग यमदण्डके भयसे, कोई परलोकके भयसे और कितने ही पापी आपसमें एक-दूसरेके भयसे पाप नहीं करते हैं। जगत्की ऐसी ही स्वाभाविक स्थिति है; इसलिये सब कुछ दण्डमें ही प्रतिष्ठित है॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दण्डस्यैव भयादेके न खादन्ति परस्परम्।
अन्धे तमसि मज्जेयुर्यदि दण्डो न पालयेत् ॥ ७ ॥
मूलम्
दण्डस्यैव भयादेके न खादन्ति परस्परम्।
अन्धे तमसि मज्जेयुर्यदि दण्डो न पालयेत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत-से मनुष्य दण्डके ही भयसे एक-दूसरेको खा नहीं जाते हैं, यदि दण्ड रक्षा न करे तो सब लोग घोर अन्धकारमें डूब जायँ॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्माददान्तान् दमयत्यशिष्टान् दण्डयत्यपि ।
दमनाद् दण्डनाच्चैव तस्माद् दण्डं विदुर्बुधाः ॥ ८ ॥
मूलम्
यस्माददान्तान् दमयत्यशिष्टान् दण्डयत्यपि ।
दमनाद् दण्डनाच्चैव तस्माद् दण्डं विदुर्बुधाः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह उद्दण्ड मनुष्योंका दमन करता और दुष्टोंको दण्ड देता है, अतः उस दमन और दण्डके कारण ही विद्वान् पुरुष इसे दण्ड कहते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाचा दण्डो ब्राह्मणानां क्षत्रियाणां भुजार्पणम्।
दानदण्डाः स्मृता वैश्या निर्दण्डः शूद्र उच्यते ॥ ९ ॥
मूलम्
वाचा दण्डो ब्राह्मणानां क्षत्रियाणां भुजार्पणम्।
दानदण्डाः स्मृता वैश्या निर्दण्डः शूद्र उच्यते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि ब्राह्मण अपराध करे तो वाणीसे उसको अपमानित करना ही उसका दण्ड है, क्षत्रियको भोजनमात्रके लिये वेतन देकर उससे काम लेना उसका दण्ड है, वैश्योंसे जुर्मानाके रूपमें धन वसूल करना उनका दण्ड है, परंतु शूद्र दण्डरहित कहा गया है। उससे सेवा लेनेके सिवा और कोई दण्ड उसके लिये नहीं है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असम्मोहाय मर्त्यानामर्थसंरक्षणाय च ।
मर्यादा स्थापिता लोके दण्डसंज्ञा विशाम्पते ॥ १० ॥
मूलम्
असम्मोहाय मर्त्यानामर्थसंरक्षणाय च ।
मर्यादा स्थापिता लोके दण्डसंज्ञा विशाम्पते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! मनुष्योंको प्रमादसे बचाने और उनके धनकी रक्षा करनेके लिये लोकमें जो मर्यादा स्थापित की गयी है, उसीका नाम दण्ड है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्चरति सूद्यतः।
प्रजास्तत्र न मुह्यन्ते नेता चेत् साधु पश्यति ॥ ११ ॥
मूलम्
यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्चरति सूद्यतः।
प्रजास्तत्र न मुह्यन्ते नेता चेत् साधु पश्यति ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दण्डनीयपर ऐसी जोरकी मार पड़ती है कि उसकी आँखोंके सामने अँधेरा छा जाता है; इसलिये दण्डको काला कहा गया है। दण्ड देनेवालेकी आँखें क्रोधसे लाल रहती हैं; इसलिये उसे लोहिताक्ष कहते हैं। ऐसा दण्ड जहाँ सर्वथा शासनके लिये उद्यत होकर विचरता रहता है और नेता या शासक अच्छी तरह अपराधोंपर दृष्टि रखता है, वहाँ प्रजा प्रमाद नहीं करती॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थश्च भिक्षुकः।
दण्डस्यैव भयादेते मनुष्या वर्त्मनि स्थिताः ॥ १२ ॥
मूलम्
ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थश्च भिक्षुकः।
दण्डस्यैव भयादेते मनुष्या वर्त्मनि स्थिताः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी—ये सभी मनुष्य दण्डके ही भयसे अपने-अपने मार्गपर स्थिर रहते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाभीतो यजते राजन् नाभीतो दातुमिच्छति।
नाभीतः पुरुषः कश्चित् समये स्थातुमिच्छति ॥ १३ ॥
मूलम्
नाभीतो यजते राजन् नाभीतो दातुमिच्छति।
नाभीतः पुरुषः कश्चित् समये स्थातुमिच्छति ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! बिना भयके कोई यज्ञ नहीं करता है, बिना भयके कोई दान नहीं करना चाहता है, और दण्डका भय न हो तो कोई पुरुष मर्यादा या प्रतिज्ञाके पालनपर भी स्थिर नहीं रहना चाहता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाच्छित्त्वा परमर्माणि नाकृत्वा कर्म दुष्करम्।
नाहत्वा मत्स्यघातीव प्राप्नोति महतीं श्रियम् ॥ १४ ॥
मूलम्
नाच्छित्त्वा परमर्माणि नाकृत्वा कर्म दुष्करम्।
नाहत्वा मत्स्यघातीव प्राप्नोति महतीं श्रियम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मछली मारनेवाले मल्लाहोंकी तरह दूसरोंके मर्मस्थानोंका उच्छेद और दुष्कर कर्म किये बिना तथा बहुसंख्यक प्राणियोंको मारे बिना कोई बड़ी भारी सम्पत्ति नहीं प्राप्त कर सकता॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाघ्नतः कीर्तिरस्तीह न वित्तं न पुनः प्रजाः।
इन्द्रो वृत्रवधेनैव महेन्द्रः समपद्यत ॥ १५ ॥
मूलम्
नाघ्नतः कीर्तिरस्तीह न वित्तं न पुनः प्रजाः।
इन्द्रो वृत्रवधेनैव महेन्द्रः समपद्यत ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो दूसरोंका वध नहीं करता, उसे इस संसारमें न तो कीर्ति मिलती है, न धन प्राप्त होता है और न प्रजा ही उपलब्ध होती है। इन्द्र वृत्रासुरका वध करनेसे ही महेन्द्र हो गये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एव देवा हन्तारस्ताल्ँलोकोऽर्चयते भृशम्।
हन्ता रुद्रस्तथा स्कन्दः शक्रोऽग्निर्वरुणो यमः ॥ १६ ॥
हन्ता कालस्तथा वायुर्मृत्युर्वैश्रवणो रविः।
वसवो मरुतः साध्या विश्वेदेवाश्च भारत ॥ १७ ॥
एतान् देवान् नमस्यन्ति प्रतापप्रणता जनाः।
मूलम्
य एव देवा हन्तारस्ताल्ँलोकोऽर्चयते भृशम्।
हन्ता रुद्रस्तथा स्कन्दः शक्रोऽग्निर्वरुणो यमः ॥ १६ ॥
हन्ता कालस्तथा वायुर्मृत्युर्वैश्रवणो रविः।
वसवो मरुतः साध्या विश्वेदेवाश्च भारत ॥ १७ ॥
एतान् देवान् नमस्यन्ति प्रतापप्रणता जनाः।
अनुवाद (हिन्दी)
जो देवता दूसरोंका वध करनेवाले हैं, उन्हींकी संसार अधिक पूजा करता है। रुद्र, स्कन्द, इन्द्र, अग्नि, वरुण, यम, काल, वायु, मृत्यु, कुबेर, सूर्य, वसु, मरुद्गण, साध्य तथा विश्वेदेव—से सब देवता दूसरोंका वध करते हैं; इनके प्रतापके सामने नतमस्तक होकर सब लोग इन्हें नमस्कार करते हैं॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ब्रह्माणं न धातारं न पूषाणं कथंचन ॥ १८ ॥
मध्यस्थान् सर्वभूतेषु दान्तान् शमपरायणान्।
यजन्ते मानवाः केचित् प्रशान्ताः सर्वकर्मसु ॥ १९ ॥
मूलम्
न ब्रह्माणं न धातारं न पूषाणं कथंचन ॥ १८ ॥
मध्यस्थान् सर्वभूतेषु दान्तान् शमपरायणान्।
यजन्ते मानवाः केचित् प्रशान्ताः सर्वकर्मसु ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु ब्रह्मा, धाता और पूषाकी कोई किसी तरह भी पूजा-अर्चा नहीं करते हैं; क्योंकि वे सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति समभाव रखनेके कारण मध्यस्थ, जितेन्द्रिय एवं शान्तिपरायण हैं। जो शान्त स्वभावके मनुष्य हैं, वे ही समस्त कर्मोंमें इन धाता आदिकी पूजा करते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि पश्यामि जीवन्तं लोके कञ्चिदहिंसया।
सत्त्वैः सत्त्वा हि जीवन्ति दुर्बलैर्बलवत्तराः ॥ २० ॥
मूलम्
न हि पश्यामि जीवन्तं लोके कञ्चिदहिंसया।
सत्त्वैः सत्त्वा हि जीवन्ति दुर्बलैर्बलवत्तराः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें किसी भी ऐसे पुरुषको मैं नहीं देखता जो अहिंसासे जीविका चलाता हो। क्योंकि प्रबल जीव दुर्बल जीवोंद्वारा जीवन-निर्वाह करते हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नकुलो मूषिकानत्ति बिडालो नकुलं तथा।
बिडालमत्ति श्वा राजन् श्वानं व्यालमृगस्तथा ॥ २१ ॥
मूलम्
नकुलो मूषिकानत्ति बिडालो नकुलं तथा।
बिडालमत्ति श्वा राजन् श्वानं व्यालमृगस्तथा ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! नेवला चूहेको खा जाता है और नेवलेको बिलाव। बिलावको कुत्ता और कुत्तेको चीता चबा जाता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानत्ति पुरुषः सर्वान् पश्य कालो यथागतः।
प्राणस्यान्नमिदं सर्वं जङ्गमं स्थावरं च यत् ॥ २२ ॥
मूलम्
तानत्ति पुरुषः सर्वान् पश्य कालो यथागतः।
प्राणस्यान्नमिदं सर्वं जङ्गमं स्थावरं च यत् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु इन सबको मनुष्य मारकर खा जाता है। देखो, कैसा काल आ गया है? यह सम्पूर्ण चराचर जगत् प्राणका अन्न है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विधानं दैवविहितं तत्र विद्वान् न मुह्यति।
यथा सृष्टोऽसि राजेन्द्र तथा भवितुमर्हसि ॥ २३ ॥
मूलम्
विधानं दैवविहितं तत्र विद्वान् न मुह्यति।
यथा सृष्टोऽसि राजेन्द्र तथा भवितुमर्हसि ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सब दैवका विधान है। इसमें विद्वान् पुरुषको मोह नहीं होता है। राजेन्द्र! आपको विधाताने जैसा बनाया है, (जिस जाति और कुलमें आपको जन्म दिया है) वैसा ही आपको होना चाहिये॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विनीतक्रोधहर्षा हि मन्दा वनमुपाश्रिताः।
विना वधं न कुर्वन्ति तापसाः प्राणयापनम् ॥ २४ ॥
मूलम्
विनीतक्रोधहर्षा हि मन्दा वनमुपाश्रिताः।
विना वधं न कुर्वन्ति तापसाः प्राणयापनम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनमें क्रोध और हर्ष दोनों ही नहीं रह गये हैं, वे मन्दबुद्धि क्षत्रिय वनमें जाकर तपस्वी बन जाते हैं। परंतु बिना हिंसा किये वे भी जीवन-निर्वाह नहीं कर पाते हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदके बहवः प्राणाः पृथिव्यां च फलेषु च।
न च कश्चिन्न तान् हन्ति किमन्यत् प्राणयापनात् ॥ २५ ॥
मूलम्
उदके बहवः प्राणाः पृथिव्यां च फलेषु च।
न च कश्चिन्न तान् हन्ति किमन्यत् प्राणयापनात् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जलमें बहुतेरे जीव हैं, पृथ्वीपर तथा वृक्षके फलोंमें भी बहुत-से कीड़े होते हैं। कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं है, जो इनमेंसे किसीको कभी न मारता हो। यह सब जीवन-निर्वाहके सिवा और क्या है?॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्कगम्यानि कानिचित्।
पक्ष्मणोऽपि निपातेन येषां स्यात् स्कन्धपर्ययः ॥ २६ ॥
मूलम्
सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्कगम्यानि कानिचित्।
पक्ष्मणोऽपि निपातेन येषां स्यात् स्कन्धपर्ययः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही ऐसे सूक्ष्म योनिके जीव हैं जो अनुमानसे ही जाने जाते हैं। मनुष्यकी पलकोंके गिरनेमात्रसे जिनके कंधे टूट जाते हैं (ऐसे जीवोंकी हिंसासे कोई कहाँ-तक बच सकता है?)॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रामान् निष्क्रम्य मुनयो विगतक्रोधमत्सराः।
वने कुटुम्बधर्माणो दृश्यन्ते परिमोहिताः ॥ २७ ॥
मूलम्
ग्रामान् निष्क्रम्य मुनयो विगतक्रोधमत्सराः।
वने कुटुम्बधर्माणो दृश्यन्ते परिमोहिताः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही मुनि क्रोध और ईर्ष्यासे रहित हो गाँवसे निकलकर वनमें चले जाते हैं, और वहीं मोहवश गृहस्थधर्ममें अनुरक्त दिखायी देते हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूमिं भित्वौषधीश्छित्त्वा वृक्षादीनण्डजान् पशून्।
मनुष्यास्तन्वते यज्ञांस्ते स्वर्गं प्राप्नुवन्ति च ॥ २८ ॥
मूलम्
भूमिं भित्वौषधीश्छित्त्वा वृक्षादीनण्डजान् पशून्।
मनुष्यास्तन्वते यज्ञांस्ते स्वर्गं प्राप्नुवन्ति च ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य धरतीको खोदकर तथा ओषधियों, वृक्षों, लताओं, पक्षियों और पशुओंका उच्छेद करके यज्ञका अनुष्ठान करते हैं, और वे स्वर्गमें भी चले जाते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दण्डनीत्यां प्रणीतायां सर्वे सिद्ध्यन्त्युपक्रमाः।
कौन्तेय सर्वभूतानां तत्र मे नास्ति संशयः ॥ २९ ॥
मूलम्
दण्डनीत्यां प्रणीतायां सर्वे सिद्ध्यन्त्युपक्रमाः।
कौन्तेय सर्वभूतानां तत्र मे नास्ति संशयः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! दण्डनीतिका ठीक-ठीक प्रयोग होनेपर समस्त प्राणियोंके सभी कार्य अच्छी तरह सिद्ध होते हैं, इसमें मुझे संशय नहीं है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दण्डश्चेन्न भवेल्लोके विनश्येयुरिमाः प्रजाः।
जले मत्स्यानिवाभक्ष्यन् दुर्बलान् बलवत्तराः ॥ ३० ॥
मूलम्
दण्डश्चेन्न भवेल्लोके विनश्येयुरिमाः प्रजाः।
जले मत्स्यानिवाभक्ष्यन् दुर्बलान् बलवत्तराः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि संसारमें दण्ड न रहे तो यह सारी प्रजा नष्ट हो जाय; और जैसे जलमें बड़े मत्स्य छोटी मछलियोंको खा जाते हैं उसी प्रकार प्रबल जीव दुर्बल जीवोंको अपना आहार बना लें॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यं चेदं ब्रह्मणा पूर्वमुक्तं
दण्डः प्रजा रक्षति साधु नीतः।
पश्याग्नयश्च प्रतिशाम्य भीताः
संतर्जिता दण्डभयाज्ज्वलन्ति ॥ ३१ ॥
मूलम्
सत्यं चेदं ब्रह्मणा पूर्वमुक्तं
दण्डः प्रजा रक्षति साधु नीतः।
पश्याग्नयश्च प्रतिशाम्य भीताः
संतर्जिता दण्डभयाज्ज्वलन्ति ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने पहले ही इस सत्यको बता दिया है कि अच्छी तरह प्रयोगमें लाया हुआ दण्ड प्रजाजनोंकी रक्षा करता है। देखो, जब आग बुझने लगती है तब वह फूँककी फटकार पड़नेपर डर जाती और दण्डके भयसे फिर प्रज्वलित हो उठती है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्धं तम इवेदं स्यान्न प्राज्ञायत किंचन।
दण्डश्चेन्न भवेल्लोके विभजन् साध्वसाधुनी ॥ ३२ ॥
मूलम्
अन्धं तम इवेदं स्यान्न प्राज्ञायत किंचन।
दण्डश्चेन्न भवेल्लोके विभजन् साध्वसाधुनी ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि संसारमें भले-बुरेका विभाग करनेवाला दण्ड न हो तो सब जगह अंधेर मच जाय और किसीको कुछ सूझ न पड़े॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येऽपि सम्भिन्नमर्यादा नास्तिका वेदनिन्दकाः।
तेऽपि भोगाय कल्पन्ते दण्डेनाशु निपीडिताः ॥ ३३ ॥
मूलम्
येऽपि सम्भिन्नमर्यादा नास्तिका वेदनिन्दकाः।
तेऽपि भोगाय कल्पन्ते दण्डेनाशु निपीडिताः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो धर्मकी मर्यादा नष्ट करके वेदोंकी निन्दा करनेवाले नास्तिक मनुष्य हैं, वे भी डंडे पड़नेपर उससे पीड़ित हो शीघ्र ही राहपर आ जाते हैं—मर्यादापालनके लिये तैयार हो जाते हैं॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वो दण्डजितो लोको दुर्लभो हि शुचिर्जनः।
दण्डस्य हि भयाद् भीतो भोगायैव प्रवर्तते ॥ ३४ ॥
मूलम्
सर्वो दण्डजितो लोको दुर्लभो हि शुचिर्जनः।
दण्डस्य हि भयाद् भीतो भोगायैव प्रवर्तते ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सारा जगत् दण्डसे विवश होकर ही रास्तेपर रहता है; क्योंकि स्वभावतः सर्वथा शुद्ध मनुष्य मिलना कठिन है। दण्डके भयसे डरा हुआ मनुष्य ही मर्यादा-पालनमें प्रवृत्त होता है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चातुर्वर्ण्यप्रमोदाय सुनीतिनयनाय च ।
दण्डो विधात्रा विहितो धर्मार्थौ भुवि रक्षितुम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
चातुर्वर्ण्यप्रमोदाय सुनीतिनयनाय च ।
दण्डो विधात्रा विहितो धर्मार्थौ भुवि रक्षितुम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विधाताने दण्डका विधान इस उद्देश्यसे किया है कि चारों वर्णोंके लोग आनन्दसे रहें, सबमें अच्छी नीतिका बर्ताव हो तथा पृथ्वीपर धर्म और अर्थकी रक्षा रहे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि दण्डान्न बिभ्येयुर्वयांसि श्वापदानि च।
अद्युः पशून् मनुष्यांश्च यज्ञार्थानि हवींषि च ॥ ३६ ॥
मूलम्
यदि दण्डान्न बिभ्येयुर्वयांसि श्वापदानि च।
अद्युः पशून् मनुष्यांश्च यज्ञार्थानि हवींषि च ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि पक्षी और हिंसक जीव दण्डके भयसे डरते न होते तो वे पशुओं, मनुष्यों और यज्ञके लिये रखे हुए हविष्योंको खा जाते॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ब्रह्मचार्यधीयीत कल्याणी गौर्न दुह्यते।
न कन्योद्वहनं गच्छेद् यदि दण्डो न पालयेत् ॥ ३७ ॥
मूलम्
न ब्रह्मचार्यधीयीत कल्याणी गौर्न दुह्यते।
न कन्योद्वहनं गच्छेद् यदि दण्डो न पालयेत् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि दण्ड मर्यादाकी रक्षा न करे तो ब्रह्मचारी वेदोंके अध्ययनमें न लगे, सीधी गौ भी दूध न दुहावे और कन्या ब्याह न करे॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्वग्लोपः प्रवर्तेत भिद्येरन् सर्वसेतवः।
ममत्वं न प्रजानीयुर्यदि दण्डो न पालयेत् ॥ ३८ ॥
मूलम्
विष्वग्लोपः प्रवर्तेत भिद्येरन् सर्वसेतवः।
ममत्वं न प्रजानीयुर्यदि दण्डो न पालयेत् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि दण्ड मर्यादाका पालन न करावे तो चारों ओरसे धर्म-कर्मका लोप हो जाय, सारी मर्यादाएँ टूट जायँ और लोग यह भी न जानें कि कौन वस्तु मेरी है और कौन नहीं?॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न संवत्सरसत्राणि तिष्ठेयुरकुतोभयाः ।
विधिवद् दक्षिणावन्ति यदि दण्डो न पालयेत् ॥ ३९ ॥
मूलम्
न संवत्सरसत्राणि तिष्ठेयुरकुतोभयाः ।
विधिवद् दक्षिणावन्ति यदि दण्डो न पालयेत् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि दण्ड धर्मका पालन न करावे तो विधि-पूर्वक दक्षिणाओंसे युक्त संवत्सरयज्ञ भी बेखटके न होने पावे॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरेयुर्नाश्रमे धर्मं यथोक्तं विधिमाश्रिताः।
न विद्यां प्राप्नुयात् कश्चिद् यदि दण्डो न पालयेत्॥४०॥
मूलम्
चरेयुर्नाश्रमे धर्मं यथोक्तं विधिमाश्रिताः।
न विद्यां प्राप्नुयात् कश्चिद् यदि दण्डो न पालयेत्॥४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि दण्ड मर्यादाका पालन न करावे तो लोग आश्रमोंमें रहकर विधिपूर्वक शास्त्रोक्त धर्मका पालन न करें और कोई विद्या भी न पढ़ सके॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चोष्ट्रा न बलीवर्दा नाश्वाश्वतरगर्दभाः।
युक्ता वहेयुर्यानानि यदि दण्डो न पालयेत् ॥ ४१ ॥
मूलम्
न चोष्ट्रा न बलीवर्दा नाश्वाश्वतरगर्दभाः।
युक्ता वहेयुर्यानानि यदि दण्डो न पालयेत् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि दण्ड कर्तव्यका पालन न करावे तो ऊँट, बैल, घोड़े, खच्चर और गदहे रथोंमें जोत दिये जानेपर भी उन्हें ढोकर ले न जायँ॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न प्रेष्या वचनं कुर्युर्न बाला जातु कर्हिचित्।
न तिष्ठेद् युवती धर्मे यदि दण्डो न पालयेत्॥४२॥
मूलम्
न प्रेष्या वचनं कुर्युर्न बाला जातु कर्हिचित्।
न तिष्ठेद् युवती धर्मे यदि दण्डो न पालयेत्॥४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि दण्ड धर्म और कर्तव्यका पालन न करावे तो सेवक स्वामीकी बात न माने, बालक भी कभी माँ-बापकी आज्ञाका पालन न करें और युवती स्त्री भी अपने सतीधर्ममें स्थिर न रहे॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दण्डे स्थिताः प्रजाः सर्वा भयं दण्डे विदुर्बुधाः।
दण्डे स्वर्गो मनुष्याणां लोकोऽयं सुप्रतिष्ठितः ॥ ४३ ॥
मूलम्
दण्डे स्थिताः प्रजाः सर्वा भयं दण्डे विदुर्बुधाः।
दण्डे स्वर्गो मनुष्याणां लोकोऽयं सुप्रतिष्ठितः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दण्डपर ही सारी प्रजा टिकी हुई है, दण्डसे ही भय होता है, ऐसी विद्वानोंकी मान्यता है। मनुष्योंका इहलोक और स्वर्गलोक दण्डपर ही प्रतिष्ठित है॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तत्र कूटं पापं वा वञ्चना वापि दृश्यते।
यत्र दण्डः सुविहितश्चरत्यरिविनाशनः ॥ ४४ ॥
मूलम्
न तत्र कूटं पापं वा वञ्चना वापि दृश्यते।
यत्र दण्डः सुविहितश्चरत्यरिविनाशनः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ शत्रुओंका विनाश करनेवाला दण्ड सुन्दर ढंगसे संचालित हो रहा है, वहाँ छल, पाप और ठगी भी नहीं देखनेमें आती है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हविःश्वा प्रलिहेद् दृष्ट्वा दण्डश्चेन्नोद्यतो भवेत्।
हरेत् काकः पुरोडाशं यदि दण्डो न पालयेत् ॥ ४५ ॥
मूलम्
हविःश्वा प्रलिहेद् दृष्ट्वा दण्डश्चेन्नोद्यतो भवेत्।
हरेत् काकः पुरोडाशं यदि दण्डो न पालयेत् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि दण्ड रक्षाके लिये सदा उद्यत न रहे तो कुत्ता हविष्यको देखते ही चाट जाय और यदि दण्ड रक्षा न करे तो कौआ पुरोडाशको उठा ले जाय॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदीदं धर्मतो राज्यं विहितं यद्यधर्मतः।
कार्यस्तत्र न शोको वै भुङ्क्ष्व भोगान् यजस्व च॥४६॥
मूलम्
यदीदं धर्मतो राज्यं विहितं यद्यधर्मतः।
कार्यस्तत्र न शोको वै भुङ्क्ष्व भोगान् यजस्व च॥४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह राज्य धर्मसे प्राप्त हुआ हो या अधर्मसे, इसके लिये शोक नहीं करना चाहिये। आप भोग भोगिये और यज्ञ कीजिये॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखेन धर्मं श्रीमन्तश्चरन्ति शुचिवाससः।
संवर्षन्तः फलैर्दानैर्भुञ्जनाश्चान्नमुत्तमम् ॥ ४७ ॥
मूलम्
सुखेन धर्मं श्रीमन्तश्चरन्ति शुचिवाससः।
संवर्षन्तः फलैर्दानैर्भुञ्जनाश्चान्नमुत्तमम् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुद्ध वस्त्र धारण करनेवाले धनवान् पुरुष सुखपूर्वक धर्मका आचरण करते हैं और उत्तम अन्न भोजन करते हुए फलों और दानोंकी वर्षा करते हैं॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थे सर्वे समारम्भाः समायत्ता न संशयः।
स च दण्डे समायत्तः पश्य दण्डस्य गौरवम् ॥ ४८ ॥
मूलम्
अर्थे सर्वे समारम्भाः समायत्ता न संशयः।
स च दण्डे समायत्तः पश्य दण्डस्य गौरवम् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें संदेह नहीं कि सारे कार्य धनके अधीन हैं, परंतु धन दण्डके अधीन है। देखिये, दण्डकी कैसी महिमा है?॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकयात्रार्थमेवेह धर्मप्रवचनं कृतम् ।
अहिंसासाधुहिंसेति श्रेयान् धर्मपरिग्रहः ॥ ४९ ॥
मूलम्
लोकयात्रार्थमेवेह धर्मप्रवचनं कृतम् ।
अहिंसासाधुहिंसेति श्रेयान् धर्मपरिग्रहः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोकयात्राका निर्वाह करनेके लिये ही धर्मका प्रतिपादन किया गया है। सर्वथा हिंसा न की जाय अथवा दुष्टकी हिंसा की जाय, यह प्रश्न उपस्थित होनेपर जिसमें धर्मकी रक्षा हो, वही कार्य श्रेष्ठ मानना चाहिये1॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नात्यन्तं गुणवत् किंचिन्न चाप्यत्यन्तनिर्गुणम्।
उभयं सर्वकार्येषु दृश्यते साध्वसाधु वा ॥ ५० ॥
मूलम्
नात्यन्तं गुणवत् किंचिन्न चाप्यत्यन्तनिर्गुणम्।
उभयं सर्वकार्येषु दृश्यते साध्वसाधु वा ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसमें सर्वथा गुण-ही-गुण हो। ऐसी भी वस्तु नहीं है जो सर्वथा गुणोंसे वंचित ही हो। सभी कार्योंमें अच्छाई और बुराई दोनों ही देखनेमें आती हैं॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पशूनां वृषणं छित्त्वा ततो भिन्दन्ति मस्तकम्।
वहन्ति बहवो भारान् बध्नन्ति दमयन्ति च ॥ ५१ ॥
मूलम्
पशूनां वृषणं छित्त्वा ततो भिन्दन्ति मस्तकम्।
वहन्ति बहवो भारान् बध्नन्ति दमयन्ति च ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत-से मनुष्य पशुओं (बैलों)-का अण्डकोश काटकर फिर उसके मस्तकपर उगे हुए दोनों सींगोंको भी विदीर्ण कर देते हैं, जिससे वे अधिक बढ़ने न पावें। फिर उनसे भार ढुलाते हैं, उन्हें घरमें बाँधे रखते हैं और नये बच्छेको गाड़ी आदिमें जोतकर उसका दमन करते हैं—उनकी उद्दण्डता दूर करके उनसे काम करनेका अभ्यास कराते हैं॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं पर्याकुले लोके वितथैर्जर्जरीकृते।
तैस्तैर्न्यायैर्महाराज पुराणं धर्ममाचर ॥ ५२ ॥
मूलम्
एवं पर्याकुले लोके वितथैर्जर्जरीकृते।
तैस्तैर्न्यायैर्महाराज पुराणं धर्ममाचर ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! इस प्रकार सारा जगत् मिथ्या व्यवहारोंसे आकुल और दण्डसे जर्जर हो गया है। आप भी उन्हीं-उन्हीं न्यायोंका अनुसरण करके प्राचीन धर्मका आचरण कीजिये॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज देहि प्रजां रक्ष धर्मं समनुपालय।
अमित्रान् जहि कौन्तेय मित्राणि परिपालय ॥ ५३ ॥
मूलम्
यज देहि प्रजां रक्ष धर्मं समनुपालय।
अमित्रान् जहि कौन्तेय मित्राणि परिपालय ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञ कीजिये, दान दीजिये, प्रजाकी रक्षा कीजिये और धर्मका निरन्तर पालन करते रहिये। कुन्तीनन्दन! आप शत्रुओंका वध और मित्रोंका पालन कीजिये॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा च ते निघ्नतः शत्रून् मन्युर्भवतु पार्थिव।
न तत्र किल्बिषं किंचित् कर्तुर्भवति भारत ॥ ५४ ॥
मूलम्
मा च ते निघ्नतः शत्रून् मन्युर्भवतु पार्थिव।
न तत्र किल्बिषं किंचित् कर्तुर्भवति भारत ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! शत्रुओंका वध करते समय आपके मनमें दीनता नहीं आनी चाहिये। भारत! शत्रुओंका वध करनेसे कर्ताको कोई पाप नहीं लगता॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आततायी हि यो हन्यादाततायिनमागतम्।
न तेन भ्रूणहा स स्यान्मन्युस्तं मन्युमार्छति ॥ ५५ ॥
मूलम्
आततायी हि यो हन्यादाततायिनमागतम्।
न तेन भ्रूणहा स स्यान्मन्युस्तं मन्युमार्छति ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो हाथमें हथियार लेकर मारने आया हो, उस आततायीको जो स्वयं भी आततायी बनकर मार डाले, उससे वह भ्रूण-हत्याका भागी नहीं होता; क्योंकि मारनेके लिये आये हुए उस मनुष्यका क्रोध ही उसका वध करनेवालेके मनमें भी क्रोध पैदा कर देता है॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवध्यः सर्वभूतानामन्तरात्मा न संशयः।
अवध्ये चात्मनि कथं वध्यो भवति कस्यचित् ॥ ५६ ॥
मूलम्
अवध्यः सर्वभूतानामन्तरात्मा न संशयः।
अवध्ये चात्मनि कथं वध्यो भवति कस्यचित् ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त प्राणियोंका अन्तरात्मा अवध्य है, इसमें संशय नहीं है। जब आत्माका वध हो ही नहीं सकता तब वह किसीका वध्य कैसे होगा?॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा हि पुरुषः शालां पुनः सम्प्रविशेन्नवाम्।
एवं जीवः शरीराणि तानि तानि प्रपद्यते ॥ ५७ ॥
देहान् पुराणानुत्सृज्य नवान् सम्प्रतिपद्यते।
एवं मृत्युमुखं प्राहुर्जना ये तत्त्वदर्शिनः ॥ ५८ ॥
मूलम्
यथा हि पुरुषः शालां पुनः सम्प्रविशेन्नवाम्।
एवं जीवः शरीराणि तानि तानि प्रपद्यते ॥ ५७ ॥
देहान् पुराणानुत्सृज्य नवान् सम्प्रतिपद्यते।
एवं मृत्युमुखं प्राहुर्जना ये तत्त्वदर्शिनः ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मनुष्य बारंबार नये घरोंमें प्रवेश करता है, उसी प्रकार जीव भिन्न-भिन्न शरीरोंको ग्रहण करता है। पुराने शरीरोंको छोड़कर नये शरीरोंको अपना लेता है। इसीको तत्त्वदर्शी मनुष्य मृत्युका मुख बताते हैं॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि अर्जुनवाक्ये पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें अर्जुनवाक्यविषयक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५॥
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यदि गोशालामें बाघ आ जाय तो उसकी हिंसा ही उचित होगी, क्योंकि उसका वध न करनेसे कितनी ही गौओंकी हिंसा हो जायगी। अतः ‘आर्त-रक्षा’ रूप धर्मकी सिद्धिके लिये उस हिंसक प्राणीका वध ही वहाँ श्रेयस्कर होगा। ↩︎