भागसूचना
चतुर्दशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
द्रौपदीका युधिष्ठिरको राजदण्डधारणपूर्वक पृथ्वीका शासन करनेके लिये प्रेरित करना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्याहरति कौन्तेये धर्मराजे युधिष्ठिरे।
भ्रातॄणां ब्रुवतां तांस्तान् विविधान् वेदनिश्चयान् ॥ १ ॥
महाभिजनसम्पन्ना श्रीमत्यायतलोचना ।
अभ्यभाषत राजेन्द्र द्रौपदी योषितां वरा ॥ २ ॥
आसीनमृषभं राज्ञां भ्रातृभिः परिवारितम्।
सिंहशार्दूलसदृशैर्वारणैरिव यूथपम् ॥ ३ ॥
अभिमानवती नित्यं विशेषेण युधिष्ठिरे।
लालिता सततं राज्ञा धर्मज्ञा धर्मदर्शिनी ॥ ४ ॥
आमन्त्र्य विपुलश्रोणी साम्ना परमवल्गुना।
भर्तारमभिसम्प्रेक्ष्य ततो वचनमब्रवीत् ॥ ५ ॥
मूलम्
अव्याहरति कौन्तेये धर्मराजे युधिष्ठिरे।
भ्रातॄणां ब्रुवतां तांस्तान् विविधान् वेदनिश्चयान् ॥ १ ॥
महाभिजनसम्पन्ना श्रीमत्यायतलोचना ।
अभ्यभाषत राजेन्द्र द्रौपदी योषितां वरा ॥ २ ॥
आसीनमृषभं राज्ञां भ्रातृभिः परिवारितम्।
सिंहशार्दूलसदृशैर्वारणैरिव यूथपम् ॥ ३ ॥
अभिमानवती नित्यं विशेषेण युधिष्ठिरे।
लालिता सततं राज्ञा धर्मज्ञा धर्मदर्शिनी ॥ ४ ॥
आमन्त्र्य विपुलश्रोणी साम्ना परमवल्गुना।
भर्तारमभिसम्प्रेक्ष्य ततो वचनमब्रवीत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! अपने भाइयोंके मुखसे नाना प्रकारके वेदोंके सिद्धान्तोंको सुनकर भी जब कुन्तीपुत्र धर्मराज युधिष्ठिर कुछ नहीं बोले, तब महान् कुलमें उत्पन्न हुई, युवतियोंमें श्रेष्ठ, स्थूल, नितम्ब और विशाल नेत्रोंवाली, पतियों एवं विशेषतः राजा युधिष्ठिरके प्रति अभिमान रखनेवाली, राजाकी सदा ही लाड़िली, धर्मपर दृष्टि रखनेवाली तथा धर्मको जाननेवाली श्रीमती महारानी द्रौपदी हाथियोंसे घिरे हुए यूथपति गजराजकी भाँति सिंहशार्दूल-सदृश पराक्रमी भाइयोंसे घिरकर बैठे हुए पतिदेव नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिरकी ओर देखकर उन्हें सम्बोधित करके सान्त्वनापूर्ण परम मधुर वाणीमें इस प्रकार बोलीं॥१—५॥
मूलम् (वचनम्)
द्रौपद्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमे ते भ्रातरः पार्थ शुष्यन्ते स्तोकका इव।
वावाश्यमानास्तिष्ठन्ति न चैनानभिनन्दसे ॥ ६ ॥
मूलम्
इमे ते भ्रातरः पार्थ शुष्यन्ते स्तोकका इव।
वावाश्यमानास्तिष्ठन्ति न चैनानभिनन्दसे ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीकुमार! आपके ये भाई आपका संकल्प सुनकर सूख गये हैं; पपीहोंके समान आपसे राज्य करनेकी रट लगा रहे हैं; फिर भी आप इनका अभिनन्दन नहीं करते?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नन्दयैतान् महाराज मत्तानिव महाद्विपान्।
उपपन्नेन वाक्येन सततं दुःखभागिनः ॥ ७ ॥
मूलम्
नन्दयैतान् महाराज मत्तानिव महाद्विपान्।
उपपन्नेन वाक्येन सततं दुःखभागिनः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उन्मत्त गजराजोंके समान आपके ये बन्धु सदा आपके लिये दुःख ही-दुःख उठाते आये हैं। अब तो इन्हें युक्तियुक्त वचनोंद्वारा आनन्दित कीजिये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं द्वैतवने राजन् पूर्वमुक्त्वा तथा वचः।
भ्रातॄनेतान् स्म सहितान् शीतवातातपार्दितान् ॥ ८ ॥
वयं दुर्योधनं हत्वा मृधे भोक्ष्याम मेदिनीम्।
सम्पूर्णा सर्वकामानामाहवे विजयैषिणः ॥ ९ ॥
विरथांश्च रथान् कृत्वा निहत्य च महागजान्।
संस्तीर्य च रथैर्भूमिं ससादिभिररिंदमाः ॥ १० ॥
यजतां विविधैर्यज्ञैः समृद्धैराप्तदक्षिणैः ।
वनवासकृतं दुःखं भविष्यति सुखाय वः ॥ ११ ॥
इत्येतानेवमुक्त्वा त्वं स्वयं धर्मभृतां वर।
कथमद्य पुनर्वीर विनिहंसि मनांसि नः ॥ १२ ॥
मूलम्
कथं द्वैतवने राजन् पूर्वमुक्त्वा तथा वचः।
भ्रातॄनेतान् स्म सहितान् शीतवातातपार्दितान् ॥ ८ ॥
वयं दुर्योधनं हत्वा मृधे भोक्ष्याम मेदिनीम्।
सम्पूर्णा सर्वकामानामाहवे विजयैषिणः ॥ ९ ॥
विरथांश्च रथान् कृत्वा निहत्य च महागजान्।
संस्तीर्य च रथैर्भूमिं ससादिभिररिंदमाः ॥ १० ॥
यजतां विविधैर्यज्ञैः समृद्धैराप्तदक्षिणैः ।
वनवासकृतं दुःखं भविष्यति सुखाय वः ॥ ११ ॥
इत्येतानेवमुक्त्वा त्वं स्वयं धर्मभृतां वर।
कथमद्य पुनर्वीर विनिहंसि मनांसि नः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! द्वैतवनमें ये सभी भाई जब आपके साथ सर्दी-गर्मी और आँधी-पानीका कष्ट भोग रहे थे, उन दिनों आपने इन्हें धैर्य देते हुए कहा था—‘शत्रुओंका दमन करनेवाले वीर बन्धुओ! विजयकी इच्छावाले हमलोग युद्धमें दुर्योधनको मारकर रथियोंको रथहीन करके बड़े-बड़े हाथियोंका वध कर डालेंगे और घुड़सवारसहित रथोंसे इस पृथ्वीको पाट देंगे। तत्पश्चात् सम्पूर्ण भोगोंसे सम्पन्न वसुधाका उपभोग करेंगे। उस समय पर्याप्त दान-दक्षिणावाले नाना प्रकारके समृद्धिशाली यज्ञोंके द्वारा भगवान्की आराधनामें लगे रहनेसे तुमलोगोंका यह वनवासजनित दुःख सुखरूपमें परिणत हो जायगा।’ धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ! वीर महाराज! पहले द्वैतवनमें इन भाइयोंसे स्वयं ही ऐसी बातें कहकर आज क्यों आप फिर हमलोगोंका दिल तोड़ रहे हैं॥८—१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न क्लीबो वसुधां भुङ्क्ते न क्लीबो धनमश्नुते।
न क्लीबस्य गृहे पुत्रा मत्स्याः पंक इवासते ॥ १३ ॥
मूलम्
न क्लीबो वसुधां भुङ्क्ते न क्लीबो धनमश्नुते।
न क्लीबस्य गृहे पुत्रा मत्स्याः पंक इवासते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कायर और नपुंसक है, वह पृथ्वीका उपभोग नहीं कर सकता। वह न तो धनका उपार्जन कर सकता है और न उसे भोग ही सकता है। जैसे केवल कीचड़में मछलियाँ नहीं होतीं, उसी प्रकार नपुंसकके घरमें पुत्र नहीं होते॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नादण्डः क्षत्रियो भाति नादण्डो भूमिमश्नुते।
नादण्डस्य प्रजा राज्ञः सुखं विन्दन्ति भारत ॥ १४ ॥
मूलम्
नादण्डः क्षत्रियो भाति नादण्डो भूमिमश्नुते।
नादण्डस्य प्रजा राज्ञः सुखं विन्दन्ति भारत ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो दण्ड देनेकी शक्ति नहीं रखता, उस क्षत्रियकी शोभा नहीं होती, दण्ड न देनेवाला राजा इस पृथ्वीका उपभोग नहीं कर सकता। भारत! दण्डहीन राजाकी प्रजाओंको कभी सुख नहीं मिलता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मित्रता सर्वभूतेषु दानमध्ययनं तपः।
ब्राह्मणस्यैव धर्मः स्यान्न राज्ञो राजसत्तम ॥ १५ ॥
मूलम्
मित्रता सर्वभूतेषु दानमध्ययनं तपः।
ब्राह्मणस्यैव धर्मः स्यान्न राज्ञो राजसत्तम ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! समस्त प्राणियोंके प्रति मैत्रीभाव, दान लेना, देना, अध्ययन और तपस्या—यह ब्राह्मणका ही धर्म है, राजाका नहीं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असतां प्रतिषेधश्च सतां च परिपालनम्।
एष राज्ञां परो धर्मः समरे चापलायनम् ॥ १६ ॥
मूलम्
असतां प्रतिषेधश्च सतां च परिपालनम्।
एष राज्ञां परो धर्मः समरे चापलायनम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाओंका परम धर्म तो यही है कि वे दुष्टोंको दण्ड दें, सत्पुरुषोंका पालन करें और युद्धमें कभी पीठ न दिखावें॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मिन् क्षमा च क्रोधश्च दानादाने भयाभये।
निग्रहानुग्रहौ चोभौ स वै धर्मविदुच्यते ॥ १७ ॥
मूलम्
यस्मिन् क्षमा च क्रोधश्च दानादाने भयाभये।
निग्रहानुग्रहौ चोभौ स वै धर्मविदुच्यते ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसमें समयानुसार क्षमा और क्रोध दोनों प्रकट होते हैं, जो दान देता और कर लेता है, जिसमें शत्रुओंको भय दिखाने और शरणागतोंको अभय देनेकी शक्ति है, जो दुष्टोंको दण्ड देता और दीनोंपर अनुग्रह करता है, वही धर्मज्ञ कहलाता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न श्रुतेन न दानेन न सान्त्वेन न चेज्यया।
त्वयेयं पृथिवी लब्धा न संकोचेन चाप्युत ॥ १८ ॥
मूलम्
न श्रुतेन न दानेन न सान्त्वेन न चेज्यया।
त्वयेयं पृथिवी लब्धा न संकोचेन चाप्युत ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपको यह पृथिवी न तो शास्त्रोंके श्रवणसे मिली है, न दानमें प्राप्त हुई है, न किसीको समझाने-बुझानेसे उपलब्ध हुई है, न यज्ञ करानेसे और न कहीं भीख माँगनेसे ही प्राप्त हुई है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् तद् बलममित्राणां तथा वीर्यसमुद्यतम्।
हस्त्यश्वरथसम्पन्नं त्रिभिरङ्गैरनुत्तमम् ॥ १९ ॥
रक्षितं द्रोणकर्णाभ्यामश्वत्थाम्ना कृपेण च।
तत् त्वया निहतं वीर तस्माद् भुङ्क्ष्व वसुन्धराम् ॥ २० ॥
मूलम्
यत् तद् बलममित्राणां तथा वीर्यसमुद्यतम्।
हस्त्यश्वरथसम्पन्नं त्रिभिरङ्गैरनुत्तमम् ॥ १९ ॥
रक्षितं द्रोणकर्णाभ्यामश्वत्थाम्ना कृपेण च।
तत् त्वया निहतं वीर तस्माद् भुङ्क्ष्व वसुन्धराम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह जो शत्रुओंकी पराक्रम-सम्पन्न एवं श्रेष्ठ सेना हाथी, घोड़े और रथ तीनों अंगोंसे सम्पन्न थी तथा द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा और कृपाचार्य जिसकी रक्षा करते थे, उसका आपने वध किया है, तब यह पृथ्वी आपके अधिकारमें आयी है। अतः वीर! आप इसका उपभोग करें॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जम्बूद्वीपो महाराज नानाजनपदैर्युतः ।
त्वया पुरुषशार्दूल दण्डेन मृदितः प्रभो ॥ २१ ॥
मूलम्
जम्बूद्वीपो महाराज नानाजनपदैर्युतः ।
त्वया पुरुषशार्दूल दण्डेन मृदितः प्रभो ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! महाराज! पुरुषसिंह! आपने अनेक जनपदोंसे युक्त इस जम्बूद्वीपको अपने दण्डसे रौंद डाला है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जम्बूद्वीपेन सदृशः क्रौञ्चद्वीपो नराधिप।
अधरेण महामेरोर्दण्डेन मृदितस्त्वया ॥ २२ ॥
मूलम्
जम्बूद्वीपेन सदृशः क्रौञ्चद्वीपो नराधिप।
अधरेण महामेरोर्दण्डेन मृदितस्त्वया ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! जम्बूद्वीपके समान ही क्रौञ्चद्वीपको जो महामेरुसे पश्चिम है, आपने दण्डसे कुचल दिया है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रौञ्चद्वीपेन सदृशः शाकद्वीपो नराधिप।
पूर्वेण तु महामेरोर्दण्डेन मृदितास्त्वया ॥ २३ ॥
मूलम्
क्रौञ्चद्वीपेन सदृशः शाकद्वीपो नराधिप।
पूर्वेण तु महामेरोर्दण्डेन मृदितास्त्वया ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेन्द्र! क्रौञ्चद्वीपके समान ही शाकद्वीपको जो महामेरुसे पूर्व है, आपने दण्ड देकर दबा दिया है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तरेण महामेरोः शाकद्वीपेन सम्मितः।
भद्राश्वः पुरुषव्याघ्र दण्डेन मृदितस्त्वया ॥ २४ ॥
मूलम्
उत्तरेण महामेरोः शाकद्वीपेन सम्मितः।
भद्राश्वः पुरुषव्याघ्र दण्डेन मृदितस्त्वया ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह! महामेरुसे उत्तर शाकद्वीपके बराबर ही जो भद्राश्व वर्ष है, उसे भी आपके दण्डसे दबना पड़ा है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वीपाश्च सान्तरद्वीपा नानाजनपदाश्रयाः ।
विगाह्य सागरं वीर दण्डेन मृदितास्त्वया ॥ २५ ॥
मूलम्
द्वीपाश्च सान्तरद्वीपा नानाजनपदाश्रयाः ।
विगाह्य सागरं वीर दण्डेन मृदितास्त्वया ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर! इनके अतिरिक्त भी जो बहुत-से देशोंके आश्रयभूत द्वीप और अन्तर्द्वीप हैं, समुद्र लाँघकर उन्हें भी आपने दण्डद्वारा दबाकर अपने अधिकारमें कर लिया है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतान्यप्रतिमेयानि कृत्वा कर्माणि भारत।
न प्रीयसे महाराज पूज्यमानो द्विजातिभिः ॥ २६ ॥
मूलम्
एतान्यप्रतिमेयानि कृत्वा कर्माणि भारत।
न प्रीयसे महाराज पूज्यमानो द्विजातिभिः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! महाराज! आप ऐसे-ऐसे अनुपम पराक्रम करके द्विजातियोंद्वारा सम्मानित होकर भी प्रसन्न नहीं हो रहे हैं?॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वं भ्रातॄनिमान् दृष्ट्वा प्रतिनन्दस्व भारत।
ऋषभानिव सम्मत्तान् गजेन्द्रानूर्जितानिव ॥ २७ ॥
मूलम्
स त्वं भ्रातॄनिमान् दृष्ट्वा प्रतिनन्दस्व भारत।
ऋषभानिव सम्मत्तान् गजेन्द्रानूर्जितानिव ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! मतवाले साँड़ों और बलशाली गजराजोंके समान अपने इन भाइयोंको देखकर आप इनका अभिनन्दन कीजिये॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमरप्रतिमाः सर्वे शत्रुसाहाः परंतपाः।
एकोऽपि हि सुखायैषां मम स्यादिति मे मतिः ॥ २८ ॥
किं पुनः पुरुषव्याघ्र पतयो मे नरर्षभाः।
समस्तानीन्द्रियाणीव शरीरस्य विचेष्टने ॥ २९ ॥
मूलम्
अमरप्रतिमाः सर्वे शत्रुसाहाः परंतपाः।
एकोऽपि हि सुखायैषां मम स्यादिति मे मतिः ॥ २८ ॥
किं पुनः पुरुषव्याघ्र पतयो मे नरर्षभाः।
समस्तानीन्द्रियाणीव शरीरस्य विचेष्टने ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह! शत्रुओंको संताप देनेवाले आपके ये सभी भाई शत्रु-सैनिकोंका वेग सहन करनेमें समर्थ हैं, देवताओंके समान तेजस्वी हैं, मेरा विश्वास है कि इनमेंसे एक वीर भी मुझे पूर्ण सुखी बना सकता है, फिर ये मेरे पाँचों नरश्रेष्ठ पति क्या नहीं कर सकते हैं? शरीरको चेष्टाशील बनानेमें सम्पूर्ण इन्द्रियोंका जो स्थान है, वही मेरे जीवनको सुखी बनानेमें इन सबका है॥२८-२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनृतं नाब्रवीच्छ्वश्रूः सर्वज्ञा सर्वदर्शिनी।
युधिष्ठिरस्त्वां पाञ्चालि सुखे धास्यत्यनुत्तमे ॥ ३० ॥
हत्वा राजसहस्राणि बहून्याशुपराक्रमः ।
तद् व्यर्थं सम्प्रपश्यामि मोहात् तव जनाधिप ॥ ३१ ॥
मूलम्
अनृतं नाब्रवीच्छ्वश्रूः सर्वज्ञा सर्वदर्शिनी।
युधिष्ठिरस्त्वां पाञ्चालि सुखे धास्यत्यनुत्तमे ॥ ३० ॥
हत्वा राजसहस्राणि बहून्याशुपराक्रमः ।
तद् व्यर्थं सम्प्रपश्यामि मोहात् तव जनाधिप ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! मेरी सास कभी झूठ नहीं बोलीं। वे सर्वज्ञ हैं और सब कुछ देखनेवाली हैं। उन्होंने मुझसे कहा था—‘पाञ्चालराजकुमारि! युधिष्ठिर शीघ्रतापूर्वक पराक्रम दिखानेवाले हैं। ये कई सहस्र राजाओंका संहार करके तुम्हें सुखके सिंहासनपर प्रतिष्ठित करेंगे।’ किंतु जनेश्वर! आज आपका यह मोह देखकर मुझे अपनी सासकी कही हुई बात भी व्यर्थ होती दिखायी देती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येषामुन्मत्तको ज्येष्ठः सर्वे तेऽप्यनुसारिणः।
तवोन्मादान्महाराज सोन्मादाः सर्वपाण्डवाः ॥ ३२ ॥
मूलम्
येषामुन्मत्तको ज्येष्ठः सर्वे तेऽप्यनुसारिणः।
तवोन्मादान्महाराज सोन्मादाः सर्वपाण्डवाः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनका जेठा भाई उन्मत्त हो जाता है, वे सभी उसीका अनुकरण करने लगते हैं। महाराज! आपके उन्मादसे सारे पाण्डव भी उन्मत्त हो गये हैं॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि हि स्युरनुन्मत्ता भ्रातरस्ते नराधिप।
बद्ध्वा त्वां नास्तिकैः सार्धं प्रशासेयुर्वसुन्धराम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
यदि हि स्युरनुन्मत्ता भ्रातरस्ते नराधिप।
बद्ध्वा त्वां नास्तिकैः सार्धं प्रशासेयुर्वसुन्धराम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! यदि ये आपके भाई उन्मत्त नहीं हुए होते तो नास्तिकोंके साथ आपको भी बाँधकर स्वयं इस वसुधाका शासन करते॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुरुते मूढ एवं हि यः श्रेयो नाधिगच्छति।
धूपैरञ्जनयोगैश्च नस्यकर्मभिरेव च ॥ ३४ ॥
भेषजैः स चिकित्सः स्याद् य उन्मार्गेण गच्छति।
मूलम्
कुरुते मूढ एवं हि यः श्रेयो नाधिगच्छति।
धूपैरञ्जनयोगैश्च नस्यकर्मभिरेव च ॥ ३४ ॥
भेषजैः स चिकित्सः स्याद् य उन्मार्गेण गच्छति।
अनुवाद (हिन्दी)
जो मूर्ख इस प्रकारका काम करता है, वह कभी कल्याणका भागी नहीं होता। जो उन्मादग्रस्त होकर उलटे मार्गसे चलने लगता है, उसके लिये धूपकी सुगंध देकर, आँखोंमें सिद्ध अंजन लगाकर, नाकमें सुँघनी सुँघाकर अथवा और कोई औषध खिलाकर उसके रोगकी चिकित्सा करनी चाहिये॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साहं सर्वाधमा लोके स्त्रीणां भरतसत्तम ॥ ३५ ॥
तथा विनिकृता पुत्रैर्याहमिच्छामि जीवितुम्।
मूलम्
साहं सर्वाधमा लोके स्त्रीणां भरतसत्तम ॥ ३५ ॥
तथा विनिकृता पुत्रैर्याहमिच्छामि जीवितुम्।
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! मैं ही संसारकी सब स्त्रियोंमें अधम हूँ, जो कि पुत्रोंसे हीन हो जानेपर भी जीवित रहना चाहती हूँ॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतेषां यतमानानां न मेऽद्य वचनं मृषा ॥ ३६ ॥
त्वं तु सर्वां महीं त्यक्त्वा कुरुषे स्वयमापदम्।
मूलम्
एतेषां यतमानानां न मेऽद्य वचनं मृषा ॥ ३६ ॥
त्वं तु सर्वां महीं त्यक्त्वा कुरुषे स्वयमापदम्।
अनुवाद (हिन्दी)
ये सब लोग आपको समझानेका प्रयत्न कर रहे हैं, फिर भी आप ध्यान नहीं देते। मैं इस समय जो कुछ कह रही हूँ मेरी यह बात झूठी नहीं है। आप सारी पृथ्वीका राज्य छोड़कर अपने लिये स्वयं ही विपत्ति खड़ी कर रहे हैं॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाऽऽस्तां सम्मतौ राज्ञां पृथिव्यां राजसत्तम ॥ ३७ ॥
मान्धाता चाम्बरीषश्च तथा राजन् विराजसे।
मूलम्
यथाऽऽस्तां सम्मतौ राज्ञां पृथिव्यां राजसत्तम ॥ ३७ ॥
मान्धाता चाम्बरीषश्च तथा राजन् विराजसे।
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! जैसे मान्धाता और अम्बरीष भूमण्डलके समस्त राजाओंमें सम्मानित थे, राजन्! वैसे ही आप भी सुशोभित हो रहे हैं॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रशाधि पृथिवीं देवीं प्रजा धर्मेण पालयन् ॥ ३८ ॥
सपर्वतवनद्वीपां मा राजन् विमना भव।
मूलम्
प्रशाधि पृथिवीं देवीं प्रजा धर्मेण पालयन् ॥ ३८ ॥
सपर्वतवनद्वीपां मा राजन् विमना भव।
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करते हुए पर्वत, वन और द्वीपोंसहित पृथ्वी देवीका शासन कीजिये। इस उदासीन न होइये॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यजस्व विविधैर्यज्ञैर्युध्यस्वारीन् प्रयच्छ च।
धनानि भोगान् वासांसि द्विजातिभ्यो नृपोत्तम ॥ ३९ ॥
मूलम्
यजस्व विविधैर्यज्ञैर्युध्यस्वारीन् प्रयच्छ च।
धनानि भोगान् वासांसि द्विजातिभ्यो नृपोत्तम ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! नाना प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान और शत्रुओंके साथ युद्ध कीजिये। ब्राह्मणोंको धन, भोगसामग्री और वस्त्रोंका दान कीजिये॥३९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि द्रौपदीवाक्ये चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें द्रौपदीवाक्यविषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४॥