भागसूचना
त्रयोदशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
सहदेवका युधिष्ठिरको ममता और आसक्तिसे रहित होकर राज्य करनेकी सलाह देना
मूलम् (वचनम्)
सहदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न बाह्यं द्रव्यमुत्सृज्य सिद्धिर्भवति भारत।
शारीरं द्रव्यमुत्सृज्य सिद्धिर्भवति वा न वा ॥ १ ॥
मूलम्
न बाह्यं द्रव्यमुत्सृज्य सिद्धिर्भवति भारत।
शारीरं द्रव्यमुत्सृज्य सिद्धिर्भवति वा न वा ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सहदेव बोले— भरतनन्दन! केवल बाहरी द्रव्यका त्याग कर देनेसे सिद्धि नहीं मिलती, शरीरसम्बन्धी द्रव्यका त्याग करनेसे भी सिद्धि मिलती है या नहीं; इसमें संदेह है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाह्यद्रव्यविमुक्तस्य शारीरेष्वनुगृध्यतः ।
यो धर्मो यत् सुखं वा स्याद् द्विषतां तत् तथास्तु नः॥२॥
मूलम्
बाह्यद्रव्यविमुक्तस्य शारीरेष्वनुगृध्यतः ।
यो धर्मो यत् सुखं वा स्याद् द्विषतां तत् तथास्तु नः॥२॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाहरी द्रव्योंसे दूर होकर दैहिक सुख-भोगोंमें आसक्त रहनेवालेको जो धर्म अथवा जो सुख प्राप्त होता हो, वह उस रूपमें हमारे शत्रुओंको ही मिले॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शारीरं द्रव्यमुत्सृज्य पृथिवीमनुशासतः ।
यो धर्मो यत् सुखं वा स्यात् सुहृदां तत् तथास्तु नः॥३॥
मूलम्
शारीरं द्रव्यमुत्सृज्य पृथिवीमनुशासतः ।
यो धर्मो यत् सुखं वा स्यात् सुहृदां तत् तथास्तु नः॥३॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु शरीरके उपयोगमें आनेवाले द्रव्योंकी ममता त्यागकर अनासक्ताभावसे पृथिवीका शासन करनेवाले राजाको जिस धर्म अथवा जिस सुखकी प्राप्ति होती हो, वह हमारे हितैषी सुहृदोंको मिले॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्व्यक्षरस्तु भवेन्मृत्युस्त्र्यक्षरं ब्रह्म शाश्वतम्।
ममेति च भवेन्मृत्युर्न ममेति च शाश्वतम् ॥ ४ ॥
मूलम्
द्व्यक्षरस्तु भवेन्मृत्युस्त्र्यक्षरं ब्रह्म शाश्वतम्।
ममेति च भवेन्मृत्युर्न ममेति च शाश्वतम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दो अक्षरोंका ‘मम’ (यह मेरा है—ऐसा भाव) मृत्यु है, और तीन अक्षरोंका ‘न मम’ (यह मेरा नहीं है—ऐसा भाव) अमृत—सनातन ब्रह्म है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्ममृत्यू ततो राजन्नात्मन्येव समाश्रितौ।
अदृश्यमानौ भूतानि योधयेतामसंशयम् ॥ ५ ॥
मूलम्
ब्रह्ममृत्यू ततो राजन्नात्मन्येव समाश्रितौ।
अदृश्यमानौ भूतानि योधयेतामसंशयम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इससे सूचित होता है कि मृत्यु और अमृत-ब्रह्म दोनों अपने ही भीतर स्थित हैं। वे ही अदृश्यभावसे रहकर प्राणियोंको एक-दूसरेसे लड़ाते हैं, इसमें संशय नहीं है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविनाशोऽस्य सत्त्वस्य नियतो यदि भारत।
हत्वा शरीरं भूतानां न हिंसा प्रतिपत्स्यते ॥ ६ ॥
मूलम्
अविनाशोऽस्य सत्त्वस्य नियतो यदि भारत।
हत्वा शरीरं भूतानां न हिंसा प्रतिपत्स्यते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! यदि इस जीवात्माका अविनाशी होना निश्चित है, तब तो प्राणियोंके शरीरका वध करनेमात्रसे उनकी हिंसा नहीं हो सकेगी॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथापि च सहोत्पत्तिः सत्त्वस्य प्रलयस्तथा।
नष्टे शरीरे नष्टः स्याद् वृथा च स्यात् क्रियापथः॥७॥
मूलम्
अथापि च सहोत्पत्तिः सत्त्वस्य प्रलयस्तथा।
नष्टे शरीरे नष्टः स्याद् वृथा च स्यात् क्रियापथः॥७॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके विपरीत यदि शरीरके साथ ही जीवकी उत्पत्ति तथा उसके नष्ट होनेके साथ ही जीवका नाश होना माना जाय तब तो शरीर नष्ट होनेपर जीव भी नष्ट ही हो जायगा; उस दशामें सारा वैदिक कर्ममार्ग ही व्यर्थ सिद्ध होगा॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादेकान्तमुत्सृज्य पूर्वैः पूर्वतरैश्च यः।
पन्था निषेवितः सद्भिः स निषेव्यो विजानता ॥ ८ ॥
मूलम्
तस्मादेकान्तमुत्सृज्य पूर्वैः पूर्वतरैश्च यः।
पन्था निषेवितः सद्भिः स निषेव्यो विजानता ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये विज्ञ पुरुषको एकान्तमें रहनेका विचार छोड़कर पूर्ववर्ती तथा अत्यन्त पूर्ववर्ती श्रेष्ठ पुरुषोंने जिस मार्गका सेवन किया है, उसीका आश्रय लेना चाहिये॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(स्वायम्भुवेन मनुना तथान्यैश्चक्रवर्तिभिः ।
यद्ययं ह्यधमः पन्थाः कस्मात् तैस्तैर्निषेवितः॥
मूलम्
(स्वायम्भुवेन मनुना तथान्यैश्चक्रवर्तिभिः ।
यद्ययं ह्यधमः पन्थाः कस्मात् तैस्तैर्निषेवितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि आपकी दृष्टिमें गृहस्थ-धर्मका पालन करते हुए राज्यशासन करना अधम मार्ग है तो स्वायम्भुव मनु तथा उन-उन अन्य चक्रवर्ती नरेशोंने इसका सेवन क्यों किया था?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतत्रेतादियुक्तानि गुणवन्ति च भारत।
युगानि बहुशस्तैश्च भुक्तेयमवनी नृप॥)
मूलम्
कृतत्रेतादियुक्तानि गुणवन्ति च भारत।
युगानि बहुशस्तैश्च भुक्तेयमवनी नृप॥)
अनुवाद (हिन्दी)
भरतवंशी नरेश! उन नरपतियोंने उत्तम गुणवाले सत्ययुग-त्रेता आदि अनेक युगोंतक इस पृथ्वीका उपभोग किया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लब्ध्वापि पृथिवीं कृत्स्नां सहस्थावरजंगमाम्।
न भुंक्ते यो नृपःसम्यङ् निष्फलं तस्य जीवितम् ॥ ९ ॥
मूलम्
लब्ध्वापि पृथिवीं कृत्स्नां सहस्थावरजंगमाम्।
न भुंक्ते यो नृपःसम्यङ् निष्फलं तस्य जीवितम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा चराचर प्राणियोंसे युक्त इस सारी पृथ्वीको पाकर इसका अच्छे ढंगसे उपभोग नहीं करता, उसका जीवन निष्फल है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा वसतो राजन् वने वन्येन जीवतः।
द्रव्येषु यस्य ममता मृत्योरास्ये स वर्तते ॥ १० ॥
मूलम्
अथवा वसतो राजन् वने वन्येन जीवतः।
द्रव्येषु यस्य ममता मृत्योरास्ये स वर्तते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा राजन्! वनमें रहकर वनके ही फल-फूलोंसे जीवन-निर्वाह करते हुए भी जिस पुरुषकी द्रव्योंमें ममता बनी रहती है, वह मौतके ही मुखमें है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाह्यान्तरं च भूतानां स्वभावं पश्य भारत।
ये तु पश्यन्ति तद् भूतं मुच्यन्ते ते महाभयात्॥११॥
मूलम्
बाह्यान्तरं च भूतानां स्वभावं पश्य भारत।
ये तु पश्यन्ति तद् भूतं मुच्यन्ते ते महाभयात्॥११॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! प्राणियोंका बाह्य स्वभाव कुछ और होता है और आन्तरिक स्वभाव कुछ और। आप उसपर गौर कीजिये। जो सबके भीतर विराजमान परमात्माको देखते हैं, वे महान् भयसे मुक्त हो जाते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवान् पिता भवान् माता भवान् भ्राता भवान् गुरुः।
दुःखप्रलापानार्तस्य तन्मे त्वं क्षन्तुमर्हसि ॥ १२ ॥
मूलम्
भवान् पिता भवान् माता भवान् भ्राता भवान् गुरुः।
दुःखप्रलापानार्तस्य तन्मे त्वं क्षन्तुमर्हसि ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आप मेरे पिता, माता, भ्राता और गुरु हैं। मैंने आर्त होकर दुःखमें जो-जो प्रलाप किये हैं, उन सबको आप क्षमा करें॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथ्यं वा यदि वातथ्यं यन्मयैतत् प्रभाषितम्।
तद् विद्धि पृथिवीपाल भक्त्या भरतसत्तम ॥ १३ ॥
मूलम्
तथ्यं वा यदि वातथ्यं यन्मयैतत् प्रभाषितम्।
तद् विद्धि पृथिवीपाल भक्त्या भरतसत्तम ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतवंशभूषण भूपाल! मैंने जो कुछ भी कहा है, वह यथार्थ हो या अयथार्थ, आपके प्रति भक्ति होनेके कारण ही ये बातें मेरे मुँहसे निकली हैं, यह आप अच्छी तरह समझ लें॥१३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि सहदेववाक्ये त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें सहदेववाक्यविषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल १५ श्लोक हैं)