भागसूचना
द्वादशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
नकुलका गृहस्थ-धर्मकी प्रशंसा करते हुए राजा युधिष्ठिरको समझाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्जुनस्य वचः श्रुत्वा नकुलो वाक्यमब्रवीत्।
राजानमभिसम्प्रेक्ष्य सर्वधर्मभृतां वरम् ॥ १ ॥
अनुरुध्य महाप्राज्ञो भ्रातुश्चित्तमरिंदम ।
व्यूढोरस्को महाबाहुस्ताम्रास्यो मितभाषिता ॥ २ ॥
मूलम्
अर्जुनस्य वचः श्रुत्वा नकुलो वाक्यमब्रवीत्।
राजानमभिसम्प्रेक्ष्य सर्वधर्मभृतां वरम् ॥ १ ॥
अनुरुध्य महाप्राज्ञो भ्रातुश्चित्तमरिंदम ।
व्यूढोरस्को महाबाहुस्ताम्रास्यो मितभाषिता ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! अर्जुनकी बात सुनकर नकुलने भी सम्पूर्ण धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिरकी ओर देखकर कुछ कहनेको उद्यत हुए। शत्रुओंका दमन करनेवाले जनमेजय! महाबाहु नकुल बड़े बुद्धिमान् थे। उनकी छाती चौड़ी, मुख ताम्रवर्णका था। वे बड़े मितभाषी थे। उन्होंने भाईके चित्तका अनुसरण करते हुए कहा॥१-२॥
मूलम् (वचनम्)
नकुल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशाखयूपे देवानां सर्वेषामग्नयश्चिताः ।
तस्माद् विद्धि महाराज देवाः कर्मफले स्थिताः ॥ ३ ॥
मूलम्
विशाखयूपे देवानां सर्वेषामग्नयश्चिताः ।
तस्माद् विद्धि महाराज देवाः कर्मफले स्थिताः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नकुल बोले— महाराज! विशाखयूप नामक क्षेत्रमें सम्पूर्ण देवताओंद्वारा की हुई अग्निस्थापनाके चिह्न (ईटोंकी बनी हुई वेदियाँ) मौजूद हैं। इससे आपको यह समझना चाहिये कि देवता भी वैदिक कर्मों और उनके फलोंपर विश्वास करते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनास्तिकानां भूतानां प्राणदाः पितरश्च ये।
तेऽपि कर्मैव कुर्वन्ति विधिं सम्प्रेक्ष्य पार्थिव ॥ ४ ॥
मूलम्
अनास्तिकानां भूतानां प्राणदाः पितरश्च ये।
तेऽपि कर्मैव कुर्वन्ति विधिं सम्प्रेक्ष्य पार्थिव ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! आस्तिकताकी बुद्धिसे रहित समस्त प्राणियोंके प्राणदाता पितर भी शास्त्रके विधिवाक्योंपर दृष्टि रखकर कर्म ही करते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदवादापविद्धांस्तु तान् विद्धि भृशनास्तिकान्।
न हि वेदोक्तमुत्सृज्य विप्रः सर्वेषु कर्मसु ॥ ५ ॥
देवयानेन नाकस्य पृष्ठमाप्नोति भारत।
मूलम्
वेदवादापविद्धांस्तु तान् विद्धि भृशनास्तिकान्।
न हि वेदोक्तमुत्सृज्य विप्रः सर्वेषु कर्मसु ॥ ५ ॥
देवयानेन नाकस्य पृष्ठमाप्नोति भारत।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! जो वेदोंकी आज्ञाके विरुद्ध चलते हैं, उन्हें बड़ा भारी नास्तिक समझिये। वेदकी आज्ञाका उल्लंघन करके सब प्रकारके कर्म करनेपर भी कोई ब्राह्मण देवयान मार्गके द्वारा स्वर्गलोककी पृष्ठभूमिमें पैर नहीं रख सकता॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्याश्रमानयं सर्वानित्याहुर्वेदनिश्चयाः ॥ ६ ॥
ब्राह्मणाःश्रुतिसम्पन्नास्तान् निबोध नराधिप ।
मूलम्
अत्याश्रमानयं सर्वानित्याहुर्वेदनिश्चयाः ॥ ६ ॥
ब्राह्मणाःश्रुतिसम्पन्नास्तान् निबोध नराधिप ।
अनुवाद (हिन्दी)
यह गृहस्थ-आश्रम सब आश्रमोंसे ऊँचा है। यह बात वेदोंके सिद्धान्तको जाननेवाले श्रुतिसम्पन्न ब्राह्मण कहते हैं। नरेश्वर! आप उनकी सेवामें उपस्थित होकर इस बातको समझिये॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वित्तानि धर्मलब्धानि क्रतुमुख्येष्ववासृजन् ॥ ७ ॥
कृतात्मा स महाराज स वै त्यागी स्मृतो नरः॥८॥
मूलम्
वित्तानि धर्मलब्धानि क्रतुमुख्येष्ववासृजन् ॥ ७ ॥
कृतात्मा स महाराज स वै त्यागी स्मृतो नरः॥८॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! जो धर्मसे प्राप्त किये हुए धनका श्रेष्ठ यज्ञोंमें उपयोग करता है और अपने मनको वशमें रखता है, वह मनुष्य त्यागी माना गया है॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनवेक्ष्य सुखादानं तथैवोर्ध्वं प्रतिष्ठितः।
आत्मत्यागी महाराज स त्यागी तामसो मतः ॥ ९ ॥
मूलम्
अनवेक्ष्य सुखादानं तथैवोर्ध्वं प्रतिष्ठितः।
आत्मत्यागी महाराज स त्यागी तामसो मतः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! जिसने गृहस्थ-आश्रमके सुखभोगोंको कभी नहीं देखा, फिर भी जो ऊपरवाले वानप्रस्थ आदि आश्रमोंमें प्रतिष्ठित होकर देहत्याग करता है, उसे तामस त्यागी माना गया है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिकेतः परिपतन् वृक्षमूलाश्रयो मुनिः।
अपाचकः सदा योगी स त्यागी पार्थ भिक्षुकः ॥ १० ॥
मूलम्
अनिकेतः परिपतन् वृक्षमूलाश्रयो मुनिः।
अपाचकः सदा योगी स त्यागी पार्थ भिक्षुकः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! जिसका कोई घर-बार नहीं, जो इधर-उधर विचरता और चुपचाप किसी वृक्षके नीचे उसकी जड़पर सो जाता है, जो अपने लिये कभी रसोई नहीं बनाता और सदा योगपरायण रहता है, ऐसे त्यागीको भिक्षुक कहते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोधहर्षावनादृत्य पैशुन्यं च विशेषतः।
विप्रो वेदानधीते यः स त्यागी पार्थ उच्यते ॥ ११ ॥
मूलम्
क्रोधहर्षावनादृत्य पैशुन्यं च विशेषतः।
विप्रो वेदानधीते यः स त्यागी पार्थ उच्यते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! जो ब्राह्मण क्रोध, हर्ष और विशेषतः चुगलीकी अवहेलना करके सदा वेदोंके स्वाध्यायमें लगा रहता है, वह त्यागी कहलाता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्रमांस्तुलया सर्वान् धृतानाहुर्मनीषिणः ।
एकतश्च त्रयो राजन् गृहस्थाश्रम एकतः ॥ १२ ॥
मूलम्
आश्रमांस्तुलया सर्वान् धृतानाहुर्मनीषिणः ।
एकतश्च त्रयो राजन् गृहस्थाश्रम एकतः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! कहते हैं कि एक समय मनीषी पुरुषोंने चारों आश्रमोंको (विवेकके) तराजूपर रखकर तौला था। एक ओर तो अन्य तीनों आश्रम थे और दूसरी ओर अकेला गृहस्थ-आश्रम था॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समीक्ष्य तुलया पार्थ कामं स्वर्गं च भारत।
अयं पन्था महर्षीणामियं लोकविदां गतिः ॥ १३ ॥
मूलम्
समीक्ष्य तुलया पार्थ कामं स्वर्गं च भारत।
अयं पन्था महर्षीणामियं लोकविदां गतिः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतवंशी नरेश! पार्थ! इस प्रकार विवेककी तुलापर रखकर जब देखा गया तो गृहस्थ-आश्रम ही महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ; क्योंकि वहाँ भोग और स्वर्ग दोनों सुलभ थे। तबसे उन्होंने निश्चय किया कि ‘यही मुनियोंका मार्ग है और यही लोकवेत्ताओंकी गति है’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति यः कुरुते भावं स त्यागी भरतर्षभ।
न यः परित्यज्य गृहान् वनमेति विमूढवत् ॥ १४ ॥
मूलम्
इति यः कुरुते भावं स त्यागी भरतर्षभ।
न यः परित्यज्य गृहान् वनमेति विमूढवत् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! जो ऐसा भाव रखता है, वही त्यागी है। जो मूर्खकी तरह घर छोड़कर वनमें चला जाता है, वह त्यागी नहीं है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा कामान् समीक्षेत धर्मवैतंसिको नरः।
अथैनं मृत्युपाशेन कण्ठे बध्नाति मृत्युराट् ॥ १५ ॥
मूलम्
यदा कामान् समीक्षेत धर्मवैतंसिको नरः।
अथैनं मृत्युपाशेन कण्ठे बध्नाति मृत्युराट् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वनमें रहकर भी यदि धर्मध्वजी मनुष्य काम-भोगोंपर दृष्टिपात (उनका स्मरण) करता है तो यमराज उसके गलेमें मौतका फंदा डाल देते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिमानकृतं कर्म नैतत् फलवदुच्यते।
त्यागयुक्तं महाराज सर्वमेव महाफलम् ॥ १६ ॥
मूलम्
अभिमानकृतं कर्म नैतत् फलवदुच्यते।
त्यागयुक्तं महाराज सर्वमेव महाफलम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! यही कर्म यदि अभिमानपूर्वक किया जाय तो वह सफल नहीं होता, और त्यागपूर्वक किया हुआ सारा कर्म ही महान् फलदायक होता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शमो दमस्तथा धैर्यं सत्यं शौचमथार्जवम्।
यज्ञो धृतिश्च धर्मश्च नित्यमार्षो विधिः स्मृतः ॥ १७ ॥
मूलम्
शमो दमस्तथा धैर्यं सत्यं शौचमथार्जवम्।
यज्ञो धृतिश्च धर्मश्च नित्यमार्षो विधिः स्मृतः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शम, दम, धैर्य, सत्य, शौच, सरलता, यज्ञ, धृति तथा धर्म—इन सबका ऋषियोंके लिये निरन्तर पालन करनेका विधान है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितृदेवातिथिकृते समारम्भोऽत्र शस्यते ।
अत्रैव हि महाराज त्रिवर्गः केवलं फलम् ॥ १८ ॥
मूलम्
पितृदेवातिथिकृते समारम्भोऽत्र शस्यते ।
अत्रैव हि महाराज त्रिवर्गः केवलं फलम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! गृहस्थ-आश्रममें ही देवताओं, पितरों तथा अतिथियोंके लिये किये जानेवाले आयोजनकी प्रशंसा की जाती है। केवल यहीं धर्म, अर्थ और काम—ये तीनों सिद्ध होते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन् वर्तमानस्य विधावप्रतिषेधिते ।
त्यागिनः प्रसृतस्येह नोच्छित्तिर्विद्यते क्वचित् ॥ १९ ॥
मूलम्
एतस्मिन् वर्तमानस्य विधावप्रतिषेधिते ।
त्यागिनः प्रसृतस्येह नोच्छित्तिर्विद्यते क्वचित् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ रहकर वेदविहित विधिका पालन करनेवाले निष्ठावान् त्यागीका कभी विनाश नहीं होता—वह पारलौकिक उन्नतिसे कभी वञ्चित नहीं रहता॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असृजद्धि प्रजा राजन् प्रजापतिरकल्मषः।
मां यक्ष्यन्तीति धर्मात्मा यज्ञैर्विविधदक्षिणैः ॥ २० ॥
मूलम्
असृजद्धि प्रजा राजन् प्रजापतिरकल्मषः।
मां यक्ष्यन्तीति धर्मात्मा यज्ञैर्विविधदक्षिणैः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! पापरहित धर्मात्मा प्रजापतिने इस उद्देश्यसे प्रजाओंकी सृष्टि की कि ‘ये नाना प्रकारकी दक्षिणावाले यज्ञोंद्वारा मेरा यजन करेंगी’॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीरुधश्चैव वृक्षांश्च यज्ञार्थं वै तथौषधीः।
पशूंश्चैव तथा मेध्यान् यज्ञार्थानि हवींषि च ॥ २१ ॥
मूलम्
वीरुधश्चैव वृक्षांश्च यज्ञार्थं वै तथौषधीः।
पशूंश्चैव तथा मेध्यान् यज्ञार्थानि हवींषि च ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी उद्देश्यसे उन्होंने यज्ञसम्पादनके लिये नाना प्रकारकी लता-वेलों, वृक्षों, ओषधियों, मेध्य पशुओं तथा यज्ञार्थक हविष्योंकी भी सृष्टि की है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहस्थाश्रमिणस्तच्च यज्ञकर्म विरोधकम् ।
तस्माद् गार्हस्थ्यमेवेह दुष्करं दुर्लभं तथा ॥ २२ ॥
मूलम्
गृहस्थाश्रमिणस्तच्च यज्ञकर्म विरोधकम् ।
तस्माद् गार्हस्थ्यमेवेह दुष्करं दुर्लभं तथा ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह यज्ञकर्म गृहस्थाश्रमी पुरुषको एक मर्यादाके भीतर बाँध रखनेवाला है; इसलिये गार्हस्थ्यधर्म ही इस संसारमें दुष्कर और दुर्लभ है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् सम्प्राप्य गृहस्था ये पशुधान्यधनान्विताः।
न यजन्ते महाराज शाश्वतं तेषु किल्बिषम् ॥ २३ ॥
मूलम्
तत् सम्प्राप्य गृहस्था ये पशुधान्यधनान्विताः।
न यजन्ते महाराज शाश्वतं तेषु किल्बिषम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! जो गृहस्थ उसे पाकर पशु और धन-धान्यसे सम्पन्न होते हुए भी यज्ञ नहीं करते हैं, उन्हें सदा ही पापका भागी होना पड़ता है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वाध्याययज्ञा ऋषयो ज्ञानयज्ञास्तथा परे।
अथापरे महायज्ञान् मनस्येव वितन्वते ॥ २४ ॥
मूलम्
स्वाध्याययज्ञा ऋषयो ज्ञानयज्ञास्तथा परे।
अथापरे महायज्ञान् मनस्येव वितन्वते ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ ऋषि वेद-शास्त्रोंका स्वाध्यायरूप यज्ञ करनेवाले होते हैं, कुछ ज्ञानयज्ञमें तत्पर रहते हैं और कुछ लोग मनमें ही ध्यानरूपी महान् यज्ञोंका विस्तार करते हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं मनःसमाधानं मार्गमातिष्ठतो नृप।
द्विजातेर्ब्रह्मभूतस्य स्पृहयन्ति दिवौकसः ॥ २५ ॥
मूलम्
एवं मनःसमाधानं मार्गमातिष्ठतो नृप।
द्विजातेर्ब्रह्मभूतस्य स्पृहयन्ति दिवौकसः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! चित्तको एकाग्र करना-रूप जो साधन है उसका आश्रय लेकर ब्रह्मभूत हुए द्विजके दर्शनकी अभिलाषा देवता भी रखते हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स रत्नानि विचित्राणि संहृतानि ततस्ततः।
मखेष्वनभिसंत्यज्य नास्तिक्यमभिजल्पसि ॥ २६ ॥
मूलम्
स रत्नानि विचित्राणि संहृतानि ततस्ततः।
मखेष्वनभिसंत्यज्य नास्तिक्यमभिजल्पसि ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर-उधरसे जो विचित्र रत्न संग्रह करके लाये गये हैं, उनका यज्ञोंमें वितरण न करके आप नास्तिकताकी बातें कर रहे हैं॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुटुम्बमास्थिते त्यागं न पश्यामि नराधिप।
राजसूयाश्वमेधेषु सर्वमेधेषु वा पुनः ॥ २७ ॥
मूलम्
कुटुम्बमास्थिते त्यागं न पश्यामि नराधिप।
राजसूयाश्वमेधेषु सर्वमेधेषु वा पुनः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! जिसपर कुटुम्बका भार हो, उसके लिये त्यागका विधान नहीं देखनेमें आता है। उसे तो राजसूय, अश्वमेध अथवा सर्वमेध यज्ञोंमें प्रवृत्त होना चाहिये॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये चान्ये क्रतवस्तात ब्राह्मणैरभिपूजिताः।
तैर्यजस्व महीपाल शक्रो देवपतिर्यथा ॥ २८ ॥
मूलम्
ये चान्ये क्रतवस्तात ब्राह्मणैरभिपूजिताः।
तैर्यजस्व महीपाल शक्रो देवपतिर्यथा ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूपाल! इनके सिवा जो दूसरे भी ब्राह्मणोंद्वारा प्रशंसित यज्ञ हैं, उनके द्वारा देवराज इन्द्रके समान आप भी यज्ञपुरुषकी आराधना कीजिये॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञः प्रमाददोषेण दस्युभिः परिमुष्यताम्।
अशरण्यः प्रजानां यः स राजा कलिरुच्यते ॥ २९ ॥
मूलम्
राज्ञः प्रमाददोषेण दस्युभिः परिमुष्यताम्।
अशरण्यः प्रजानां यः स राजा कलिरुच्यते ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाके प्रमाददोषसे लुटेरे प्रबल होकर प्रजाको लूटने लगते हैं, उस अवस्थामें यदि राजाने प्रजाको शरण नहीं दी तो उसे मूर्तिमान् कलियुग कहा जाता है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वान् गाश्चैव दासीश्च करेणूश्च स्वलंकृताः।
ग्रामाञ्जनपदांश्चैव क्षेत्राणि च गृहाणि च ॥ ३० ॥
अप्रदाय द्विजातिभ्यो मात्सर्याविष्टचेतसः ।
वयं ते राजकलयो भविष्याम विशाम्पते ॥ ३१ ॥
मूलम्
अश्वान् गाश्चैव दासीश्च करेणूश्च स्वलंकृताः।
ग्रामाञ्जनपदांश्चैव क्षेत्राणि च गृहाणि च ॥ ३० ॥
अप्रदाय द्विजातिभ्यो मात्सर्याविष्टचेतसः ।
वयं ते राजकलयो भविष्याम विशाम्पते ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! यदि हमलोग ईर्ष्यायुक्त मनवाले होकर ब्राह्मणोंको घोड़े, गाय, दासी, सजी-सजायी हथिनी, गाँव, जनपद, खेत और घर आदिका दान नहीं करते हैं तो राजाओंमें कलियुग समझे जायँगे॥३०-३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदातारः शरण्याश्च राजकिल्बिषभागिनः ।
दोषाणामेव भोक्तारो न सुखानां कदाचन ॥ ३२ ॥
मूलम्
अदातारः शरण्याश्च राजकिल्बिषभागिनः ।
दोषाणामेव भोक्तारो न सुखानां कदाचन ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो दान नहीं देते, शरणागतोंकी रक्षा नहीं करते, वे राजाओंके पापके भागी होते हैं। उन्हें दुःख-ही-दुःख भोगना पड़ता है, सुख तो कभी नहीं मिलता॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिष्ट्वा च महायज्ञैरकृत्वा च पितृस्वधाम्।
तीर्थेष्वनभिसम्प्लुत्य प्रव्रजिष्यसि चेत् प्रभो ॥ ३३ ॥
छिन्नाभ्रमिव गन्तासि विलयं मारुतेरितम्।
लोकयोरुभयोर्भ्रष्टो ह्यन्तराले व्यवस्थितः ॥ ३४ ॥
मूलम्
अनिष्ट्वा च महायज्ञैरकृत्वा च पितृस्वधाम्।
तीर्थेष्वनभिसम्प्लुत्य प्रव्रजिष्यसि चेत् प्रभो ॥ ३३ ॥
छिन्नाभ्रमिव गन्तासि विलयं मारुतेरितम्।
लोकयोरुभयोर्भ्रष्टो ह्यन्तराले व्यवस्थितः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! बड़े-बड़े यज्ञोंका अनुष्ठान, पितरोंका श्राद्ध तथा तीर्थोंमें स्नान किये बिना ही आप संन्यास ले लेंगे तो हवा-द्वारा छिन्न-भिन्न हुए बादलोंके समान नष्ट हो जायँगे। लोक और परलोक दोनोंसे भ्रष्ट होकर (त्रिशंकुके समान) बीचमें ही लटके रह जायँगे॥३३-३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तर्बहिश्च यत् किंचिन्मनोव्यासंगकारकम् ।
परित्यज्य भवेत् त्यागी न हित्वा प्रतितिष्ठति ॥ ३५ ॥
मूलम्
अन्तर्बहिश्च यत् किंचिन्मनोव्यासंगकारकम् ।
परित्यज्य भवेत् त्यागी न हित्वा प्रतितिष्ठति ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाहर और भीतर जो कुछ भी मनको फँसानेवाली चीजें हैं, उन सबको छोड़नेसे मनुष्य त्यागी होता है। केवल घर छोड़ देनेसे त्यागकी सिद्धि नहीं होती॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन् वर्तमानस्य विधावप्रतिषेधिते ।
ब्राह्मणस्य महाराज नोच्छित्तिर्विद्यते क्वचित् ॥ ३६ ॥
मूलम्
एतस्मिन् वर्तमानस्य विधावप्रतिषेधिते ।
ब्राह्मणस्य महाराज नोच्छित्तिर्विद्यते क्वचित् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! इस गृहस्थ-आश्रममें ही रहकर वेद-विहित कर्ममें लगे हुए ब्राह्मणका कभी उच्छेद (पतन) नहीं होता॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निहत्य शत्रूंस्तरसा समृद्धान्
शक्रो यथा दैत्यबलानि संख्ये।
कः पार्थ शोचेन्निरतः स्वधर्मे
पूर्वैः स्मृते पार्थिव शिष्टजुष्टे ॥ ३७ ॥
मूलम्
निहत्य शत्रूंस्तरसा समृद्धान्
शक्रो यथा दैत्यबलानि संख्ये।
कः पार्थ शोचेन्निरतः स्वधर्मे
पूर्वैः स्मृते पार्थिव शिष्टजुष्टे ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! जैसे इन्द्र युद्धमें दैत्योंकी सेनाओंका संहार करते हैं, उसी प्रकार जो वेगपूर्वक बढ़े-चढ़े शत्रुओंका वध करके विजय पा चुका हो और पूर्ववर्ती राजाओंद्वारा सेवित अपने धर्ममें तत्पर रहता हो, ऐसा (आपके सिवा) कौन राजा शोक करेगा?॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षात्रेण धर्मेण पराक्रमेण
जित्वा महीं मन्त्रविद्भ्यः प्रदाय।
नाकस्य पृष्ठेऽसि नरेन्द्र गन्ता
न शोचितव्यं भवताद्य पार्थ ॥ ३८ ॥
मूलम्
क्षात्रेण धर्मेण पराक्रमेण
जित्वा महीं मन्त्रविद्भ्यः प्रदाय।
नाकस्य पृष्ठेऽसि नरेन्द्र गन्ता
न शोचितव्यं भवताद्य पार्थ ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेन्द्र! कुन्तीकुमार! आप क्षत्रियधर्मके अनुसार पराक्रमद्वारा इस पृथ्वीपर विजय पाकर मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणोंको यज्ञमें बहुत-सी दक्षिणाएँ देकर स्वर्गसे भी ऊपर चले जायँगे? अतः आज आपको शोक नहीं करना चाहिये॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि नकुलवाक्ये द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें नकुलवाक्यविषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२॥