०११ ऋषिशकुनिसंवादकथने

भागसूचना

एकादशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अर्जुनका पक्षिरूपधारी इन्द्र और ऋषिबालकोंके संवादका उल्लेखपूर्वक गृहस्थ-धर्मके पालनपर जोर देना

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
तापसैः सह संवादं शक्रस्य भरतर्षभ ॥ १ ॥

मूलम्

अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
तापसैः सह संवादं शक्रस्य भरतर्षभ ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने कहा— भरतश्रेष्ठ! इसी विषयमें जानकार लोग तापसोंके साथ जो इन्द्रका संवाद हुआ था, उस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केचिद् गृहान् परित्यज्य वनमभ्यागमन् द्विजाः।
अजातश्मश्रवो मन्दाः कुले जाताः प्रवव्रजुः ॥ २ ॥

मूलम्

केचिद् गृहान् परित्यज्य वनमभ्यागमन् द्विजाः।
अजातश्मश्रवो मन्दाः कुले जाताः प्रवव्रजुः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक समय कुछ मन्दबुद्धि कुलीन ब्राह्मण-बालक घरको छोड़कर वनमें चले आये। अभी उन्हें मूँछ-दाढ़ीतक नहीं आयी थी, उसी अवस्थामें उन्होंने घर त्याग दिया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मोऽयमिति मन्वानाः समृद्धा ब्रह्मचारिणः।
त्यक्त्वा भ्रातॄन् पितॄंश्चैव तानिन्द्रोऽन्वकृपायत ॥ ३ ॥

मूलम्

धर्मोऽयमिति मन्वानाः समृद्धा ब्रह्मचारिणः।
त्यक्त्वा भ्रातॄन् पितॄंश्चैव तानिन्द्रोऽन्वकृपायत ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि वे सब-के-सब धनी थे, तथापि भाई-बन्धु और माता-पिताको छोड़कर इसीको धर्म मानते हुए वनमें आकर ब्रह्मचर्यका पालन करने लगे। एक दिन इन्द्रदेवने उनपर कृपा की॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानाबभाषे भगवान् पक्षी भूत्वा हिरण्मयः।
सुदुष्करं मनुष्यैश्च यत् कृतं विघसाशिभिः ॥ ४ ॥
पुण्यं भवति कर्मेदं प्रशस्तं चैव जीवितम्।
सिद्धार्थास्ते गतिं मुख्यां प्राप्ता धर्मपरायणाः ॥ ५ ॥

मूलम्

तानाबभाषे भगवान् पक्षी भूत्वा हिरण्मयः।
सुदुष्करं मनुष्यैश्च यत् कृतं विघसाशिभिः ॥ ४ ॥
पुण्यं भवति कर्मेदं प्रशस्तं चैव जीवितम्।
सिद्धार्थास्ते गतिं मुख्यां प्राप्ता धर्मपरायणाः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् इन्द्र सुवर्णमय पक्षीका रूप धारण करके वहाँ आये और उनसे इस प्रकार कहने लगे—‘यज्ञशिष्ट अन्न भोजन करनेवाले श्रेष्ठ पुरुषोंने जो कर्म किया है, वह दूसरोंसे होना अत्यन्त कठिन है। उनका यह कर्म बड़ा पवित्र और जीवन बहुत उत्तम है। वे धर्मपरायण पुरुष सफलमनोरथ हो श्रेष्ठ गतिको प्राप्त हुए हैं’॥४-५॥

मूलम् (वचनम्)

ऋषय ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो बतायं शकुनिर्विघसाशान् प्रशंसति।
अस्मान् नूनमयं शास्ति वयं च विघसाशिनः ॥ ६ ॥

मूलम्

अहो बतायं शकुनिर्विघसाशान् प्रशंसति।
अस्मान् नूनमयं शास्ति वयं च विघसाशिनः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषि बोले— अहो! यह पक्षी तो विघसाशी (यज्ञशेष अन्न भोजन करनेवाले) पुरुषोंकी प्रशंसा करता है। निश्चय ही यह हमलोगोंकी बड़ाई करता है; क्योंकि यहाँ हमलोग ही विघसाशी हैं॥६॥

मूलम् (वचनम्)

शकुनिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं युष्मान् प्रशंसामि पंकदिग्धान् रजस्वलान्।
उच्छिष्टभोजिनो मन्दानन्ये वै विघसाशिनः ॥ ७ ॥

मूलम्

नाहं युष्मान् प्रशंसामि पंकदिग्धान् रजस्वलान्।
उच्छिष्टभोजिनो मन्दानन्ये वै विघसाशिनः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस पक्षीने कहा— अरे! देहमें कीचड़ लपेटे और धूल पोते हुए जूठन खानेवाले तुम-जैसे मूर्खोंकी मैं प्रशंसा नहीं कर रहा हूँ। विघसाशी तो दूसरे ही होते हैं॥

मूलम् (वचनम्)

ऋषय ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं श्रेयः परमिति वयमेवाभ्युपास्महे।
शकुने ब्रूहि यच्छ्रेयो भृशं ते श्रद्दधामहे ॥ ८ ॥

मूलम्

इदं श्रेयः परमिति वयमेवाभ्युपास्महे।
शकुने ब्रूहि यच्छ्रेयो भृशं ते श्रद्दधामहे ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषि बोले— पक्षी! यही श्रेष्ठ एवं कल्याणकारी साधन है, ऐसा समझकर ही हम इस मार्गपर चल रहे हैं। तुम्हारी दृष्टिमें जो श्रेष्ठ धर्म हो, उसे तुम्हीं बताओ। हम तुम्हारी बातपर अधिक श्रद्धा करते हैं॥८॥

मूलम् (वचनम्)

शकुनिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि मां नाभिशंकध्वं विभज्यात्मानमात्मना।
ततोऽहं वः प्रवक्ष्यामि याथातथ्यं हितं वचः ॥ ९ ॥

मूलम्

यदि मां नाभिशंकध्वं विभज्यात्मानमात्मना।
ततोऽहं वः प्रवक्ष्यामि याथातथ्यं हितं वचः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पक्षीने कहा— यदि आपलोग मुझपर संदेह न करें तो मैं स्वयं ही अपने आपको वक्ताके रूपमें विभक्त करके आपलोगोंको यथावत्‌रूपसे हितकी बात बताऊँगा॥९॥

मूलम् (वचनम्)

ऋषय ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणुमस्ते वचस्तात पन्थानो विदितास्तव।
नियोगे चैव धर्मात्मन् स्थातुमिच्छाम शाधि नः ॥ १० ॥

मूलम्

शृणुमस्ते वचस्तात पन्थानो विदितास्तव।
नियोगे चैव धर्मात्मन् स्थातुमिच्छाम शाधि नः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषि बोले— तात! हम तुम्हारी बात सुनेंगे। तुम्हें सब मार्ग विदित हैं। धर्मात्मन्! हम तुम्हारी आज्ञाके अधीन रहना चाहते हैं। तुम हमें उपदेश दो॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

शकुनिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुष्पदां गौः प्रवरा लोहानां काञ्चनं वरम्।
शब्दानां प्रवरो मन्त्रो ब्राह्मणो द्विपदां वरः ॥ ११ ॥

मूलम्

चतुष्पदां गौः प्रवरा लोहानां काञ्चनं वरम्।
शब्दानां प्रवरो मन्त्रो ब्राह्मणो द्विपदां वरः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पक्षीने कहा— चौपायोंमें गौ श्रेष्ठ है, धातुओंमें सोना उत्तम है, शब्दोंमें मन्त्र उत्कृष्ट है और मनुष्योंमें ब्राह्मण प्रधान है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्त्रोऽयं जातकर्मादिर्ब्राह्मणस्य विधीयते ।
जीवतोऽपि यथाकालं श्मशाननिधनादिभिः ॥ १२ ॥

मूलम्

मन्त्रोऽयं जातकर्मादिर्ब्राह्मणस्य विधीयते ।
जीवतोऽपि यथाकालं श्मशाननिधनादिभिः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणोंके लिये मन्त्रयुक्त जातकर्म आदि संस्कारका विधान है। वह जबतक जीवित रहे, समय-समयपर उसके आवश्यक संस्कार होते रहने चाहिये, मरनेपर भी यथासमय श्मशानभूमिमें अन्त्येष्टिसंस्कार तथा घरपर श्राद्ध आदि वैदिक विधिके अनुसार सम्पन्न होने चाहिये॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्माणि वैदिकान्यस्य स्वर्ग्यः पन्थास्त्वनुत्तमः।
अथ सर्वाणि कर्माणि मन्त्रसिद्धानि चक्षते ॥ १३ ॥
आम्नायदृढवादीनि तथा सिद्धिरिहेष्यते ।
मासार्धमासा ऋतव आदित्यशशितारकम् ॥ १४ ॥
ईहन्ते सर्वभूतानि तदिदं कर्मसंज्ञितम्।
सिद्धिक्षेत्रमिदं पुण्यमयमेवाश्रमो महान् ॥ १५ ॥

मूलम्

कर्माणि वैदिकान्यस्य स्वर्ग्यः पन्थास्त्वनुत्तमः।
अथ सर्वाणि कर्माणि मन्त्रसिद्धानि चक्षते ॥ १३ ॥
आम्नायदृढवादीनि तथा सिद्धिरिहेष्यते ।
मासार्धमासा ऋतव आदित्यशशितारकम् ॥ १४ ॥
ईहन्ते सर्वभूतानि तदिदं कर्मसंज्ञितम्।
सिद्धिक्षेत्रमिदं पुण्यमयमेवाश्रमो महान् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैदिक कर्म ही ब्राह्मणके लिये स्वर्गलोककी प्राप्ति करानेवाले उत्तम मार्ग हैं। इसके सिवा, मुनियोंने समस्त कर्मोंको वैदिक मन्त्रोंद्वारा ही सिद्ध होनेवाला बताया है। वेदमें इन कर्मोंका प्रतिपादन दृढ़तापूर्वक किया गया है; इसलिये उन कर्मोंके अनुष्ठानसे ही यहाँ अभीष्ट-सिद्धि होती है। मास, पक्ष, ऋतु, सूर्य, चन्द्रमा और तारोंसे उपलक्षित जो यज्ञ होते हैं, उन्हें यथासम्भव सम्पन्न करनेकी चेष्टा प्रायः सभी प्राणी करते हैं। यज्ञोंका सम्पादन ही कर्म कहलाता है। जहाँ ये कर्म किये जाते हैं, वह गृहस्थ-आश्रम ही सिद्धिका पुण्यमय क्षेत्र है और यही सबसे महान् आश्रम है॥१३-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ ये कर्म निन्दन्तो मनुष्याः कापथं गताः।
मूढानामर्थहीनानां तेषामेनस्तु विद्यते ॥ १६ ॥

मूलम्

अथ ये कर्म निन्दन्तो मनुष्याः कापथं गताः।
मूढानामर्थहीनानां तेषामेनस्तु विद्यते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य कर्मकी निन्दा करते हुए कुमार्गका आश्रय लेते हैं, उन पुरुषार्थहीन मूढ़ पुरुषोंको पाप लगता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देववंशान् पितृवंशान् ब्रह्मवंशांश्च शाश्वतान्।
संत्यज्य मूढा वर्तन्ते ततो यान्त्यश्रुतीपथम् ॥ १७ ॥

मूलम्

देववंशान् पितृवंशान् ब्रह्मवंशांश्च शाश्वतान्।
संत्यज्य मूढा वर्तन्ते ततो यान्त्यश्रुतीपथम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवसमूह और पितृसमूहोंका यजन तथा ब्रह्मवंश (वेद-शास्त्र आदिके स्वाध्यायद्वारा ऋषि-मुनियों)-की तृप्ति—ये तीन ही सनातन मार्ग हैं। जो मूर्ख इनका परित्याग करके और किसी मार्गसे चलते हैं, वे वेदविरुद्ध पथका आश्रय लेते हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद्वोऽस्तु तपोयुक्तं ददामीत्यृषिचोदितम् ।
तस्मात् तत् तद् व्यवस्थानं तपस्वितप उच्यते ॥ १८ ॥

मूलम्

एतद्वोऽस्तु तपोयुक्तं ददामीत्यृषिचोदितम् ।
तस्मात् तत् तद् व्यवस्थानं तपस्वितप उच्यते ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्त्रद्रष्टा ऋषिने एक मन्त्रमें कहा है कि ‘यह यज्ञरूप कर्म तुम सब यजमानोंद्वारा सम्पादित हो, परंतु यह होना चाहिये तपस्यासे युक्त। तुम इसका अनुष्ठान करोगे तो मैं तुम्हें मनोवांछित फल प्रदान करूँगा।’ अतः उन-उन वैदिक कर्मोंमें पूर्णतः संलग्न हो जाना ही तपस्वीका ‘तप’ कहलाता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देववंशान् ब्रह्मवंशान् पितृवंशांश्च शाश्वतान्।
संविभज्य गुरोश्चर्यां तद् वै दुष्करमुच्यते ॥ १९ ॥

मूलम्

देववंशान् ब्रह्मवंशान् पितृवंशांश्च शाश्वतान्।
संविभज्य गुरोश्चर्यां तद् वै दुष्करमुच्यते ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हवन-कर्मके द्वारा देवताओंको, स्वाध्यायद्वारा ब्रह्मर्षियोंको तथा श्राद्धद्वारा सनातन पितरोंको उनका भाग समर्पित करके गुरुकी परिचर्या करना दुष्कर व्रत कहलाता है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवा वै दुष्करं कृत्वा विभूतिं परमां गताः।
तस्माद् गार्हस्थ्यमुद्वोढुं दुष्करं प्रब्रवीमि वः ॥ २० ॥

मूलम्

देवा वै दुष्करं कृत्वा विभूतिं परमां गताः।
तस्माद् गार्हस्थ्यमुद्वोढुं दुष्करं प्रब्रवीमि वः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस दुष्कर व्रतका अनुष्ठान करके देवताओंने उत्तम वैभव प्राप्त किया है। यह गृहस्थधर्मका पालन ही दुष्कर व्रत है। मैं तुमलोगोंसे इसी दुष्कर व्रतका भार उठानेके लिये कह रहा हूँ॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपः श्रेष्ठं प्रजानां हि मूलमेतन्न संशयः।
कुटुम्बविधिनानेन यस्मिन् सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥ २१ ॥

मूलम्

तपः श्रेष्ठं प्रजानां हि मूलमेतन्न संशयः।
कुटुम्बविधिनानेन यस्मिन् सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तपस्या श्रेष्ठ कर्म है। इसमें संदेह नहीं कि यही प्रजावर्गका मूल कारण है। परंतु गार्हस्थ्यविधायक शास्त्रके अनुसार इस गार्हस्थ्य-धर्ममें ही सारी तपस्या प्रतिष्ठित है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् विदुस्तपो विप्रा द्वन्द्वातीता विमत्सराः।
तस्माद् व्रतं मध्यमं तु लोकेषु तप उच्यते ॥ २२ ॥

मूलम्

एतद् विदुस्तपो विप्रा द्वन्द्वातीता विमत्सराः।
तस्माद् व्रतं मध्यमं तु लोकेषु तप उच्यते ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके मनमें किसीके प्रति ईर्ष्या नहीं है, जो सब प्रकारके द्वन्द्वोंसे रहित हैं, वे ब्राह्मण इसीको तप मानते हैं। यद्यपि लोकमें व्रतको भी तप कहा जाता है, किंतु वह पंचयज्ञके अनुष्ठानकी अपेक्षा मध्यम श्रेणीका है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुराधर्षं पदं चैव गच्छन्ति विघसाशिनः।
सायंप्रातर्विभज्यान्नं स्वकुटुम्बे यथाविधि ॥ २३ ॥
दत्त्वातिथिभ्यो देवेभ्यः पितृभ्यः स्वजनाय च।
अवशिष्टानि येऽश्नन्ति तानाहुर्विघसाशिनः ॥ २४ ॥

मूलम्

दुराधर्षं पदं चैव गच्छन्ति विघसाशिनः।
सायंप्रातर्विभज्यान्नं स्वकुटुम्बे यथाविधि ॥ २३ ॥
दत्त्वातिथिभ्यो देवेभ्यः पितृभ्यः स्वजनाय च।
अवशिष्टानि येऽश्नन्ति तानाहुर्विघसाशिनः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि विघसाशी पुरुष प्रातः-सायंकाल विधि-विधानपूर्वक अपने कुटुम्बमें अन्नका विभाग करके दुर्जय अविनाशी पदको प्राप्त कर लेते हैं। देवताओं, पितरों, अतिथियों तथा अपने परिवारके अन्य सब लोगोंको अन्न देकर जो सबसे पीछे अवशिष्ट अन्न खाते हैं, उन्हें विघसाशी कहा गया है॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् स्वधर्ममास्थाय सुव्रताः सत्यवादिनः।
लोकस्य गुरवो भूत्वा ते भवन्त्यनुपस्कृताः ॥ २५ ॥

मूलम्

तस्मात् स्वधर्ममास्थाय सुव्रताः सत्यवादिनः।
लोकस्य गुरवो भूत्वा ते भवन्त्यनुपस्कृताः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये अपने धर्मपर आरूढ़ हो उत्तम व्रतका पालन और सत्यभाषण करते हुए वे जगद्‌गुरु होकर सर्वथा संदेहरहित हो जाते हैं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिदिवं प्राप्य शक्रस्य स्वर्गलोके विमत्सराः।
वसन्ति शाश्वतान् वर्षाञ्जना दुष्करकारिणः ॥ २६ ॥

मूलम्

त्रिदिवं प्राप्य शक्रस्य स्वर्गलोके विमत्सराः।
वसन्ति शाश्वतान् वर्षाञ्जना दुष्करकारिणः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे ईर्ष्यारहित दुष्कर व्रतका पालन करनेवाले पुण्यात्मा पुरुष इन्द्रके स्वर्गलोकमें पहुँचकर अनन्त वर्षोंतक वहाँ निवास करते हैं॥२६॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते तद् वचः श्रुत्वा धर्मार्थसहितं हितम्।
उत्सृज्य नास्तीति गता गार्हस्थ्यं समुपाश्रिताः ॥ २७ ॥

मूलम्

ततस्ते तद् वचः श्रुत्वा धर्मार्थसहितं हितम्।
उत्सृज्य नास्तीति गता गार्हस्थ्यं समुपाश्रिताः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन कहते हैं— महाराज! वे ब्राह्मणकुमार पक्षिरूपधारी इन्द्रकी धर्म और अर्थयुक्त हितकर बातें सुनकर इस निश्चयपर पहुँचे कि हमलोग जिस मार्गपर चल रहे हैं वह हमारे लिये हितकर नहीं है। अतः वे उसे छोड़कर घर लौट गये और गृहस्थ-धर्मका पालन करते हुए वहाँ रहने लगे॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात्त्वमपि सर्वज्ञ धैर्यमालम्ब्य शाश्वतम्।
प्रशाधि पृथिवीं कृत्स्नां हतामित्रां नरोत्तम ॥ २८ ॥

मूलम्

तस्मात्त्वमपि सर्वज्ञ धैर्यमालम्ब्य शाश्वतम्।
प्रशाधि पृथिवीं कृत्स्नां हतामित्रां नरोत्तम ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्वज्ञ नरश्रेष्ठ! अतः आप भी सदाके लिये धैर्य धारण करके शत्रुहीन हुई इस सम्पूर्ण पृथ्वीका शासन कीजिये॥२८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि अर्जुनवाक्ये ऋषिशकुनिसंवादकथने एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें अर्जुनके वचनके प्रसंगमें ऋषियों और पक्षिरूपधारी इन्द्रके संवादका वर्णनविषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११॥