भागसूचना
दशमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भीमसेनका राजाके लिये संन्यासका विरोध करते हुए अपने कर्तव्यके ही पालनपर जोर देना
मूलम् (वचनम्)
भीम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रोत्रियस्येव ते राजन् मन्दकस्याविपश्चितः।
अनुवाकहता बुद्धिर्नैषा तत्त्वार्थदर्शिनी ॥ १ ॥
मूलम्
श्रोत्रियस्येव ते राजन् मन्दकस्याविपश्चितः।
अनुवाकहता बुद्धिर्नैषा तत्त्वार्थदर्शिनी ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन बोले— राजन्! जैसे मन्द और अर्थज्ञानसे शून्य श्रोत्रियकी बुद्धि केवल मन्त्रपाठद्वारा मारी जाती है, उसी प्रकार आपकी बुद्धि भी तात्त्विक अर्थको देखने या समझनेवाली नहीं है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आलस्ये कृतचित्तस्य राजधर्मानसूयतः ।
विनाशे धार्तराष्ट्राणां किं फलं भरतर्षभ ॥ २ ॥
मूलम्
आलस्ये कृतचित्तस्य राजधर्मानसूयतः ।
विनाशे धार्तराष्ट्राणां किं फलं भरतर्षभ ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! यदि राजधर्मकी निन्दा करते हुए आपने आलस्यपूर्ण जीवन बितानेका ही निश्चय किया था तो धृतराष्ट्रके पुत्रोंका विनाश करानेसे क्या फल मिला?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षमानुकम्पा कारुण्यमानृशंस्यं न विद्यते।
क्षात्रमाचरतो मार्गमपि बन्धोस्त्वदन्तरे ॥ ३ ॥
मूलम्
क्षमानुकम्पा कारुण्यमानृशंस्यं न विद्यते।
क्षात्रमाचरतो मार्गमपि बन्धोस्त्वदन्तरे ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रियोचित मार्गपर चलनेवाले पुरुषके हृदयमें अपने भाईपर भी क्षमा, दया, करुणा और कोमलताका भाव नहीं रह जाता; फिर आपके हृदयमें यह सब क्यों है?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदीमां भवतो बुद्धिं विद्याम वयमीदृशीम्।
शस्त्रं नैव ग्रहीष्यामो न वधिष्याम कंचन ॥ ४ ॥
मूलम्
यदीमां भवतो बुद्धिं विद्याम वयमीदृशीम्।
शस्त्रं नैव ग्रहीष्यामो न वधिष्याम कंचन ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि हम पहले ही जान लेते कि आपका विचार इस तरहका है तो हम हथियार नहीं उठाते और न किसीका वध ही करते॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भैक्ष्यमेवाचरिष्याम शरीरस्याविमोक्षणात् ।
न चेदं दारुणं युद्धमभविष्यन्महीक्षिताम् ॥ ५ ॥
मूलम्
भैक्ष्यमेवाचरिष्याम शरीरस्याविमोक्षणात् ।
न चेदं दारुणं युद्धमभविष्यन्महीक्षिताम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हम भी आपकी ही तरह शरीर छूटनेतक भीख माँगकर ही जीवन-निर्वाह करते। फिर तो राजाओंमें यह भयंकर युद्ध होता ही नहीं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणस्यान्नमिदं सर्वमिति वै कवयो विदुः।
स्थावरं जङ्गमं चैव सर्वं प्राणस्य भोजनम् ॥ ६ ॥
मूलम्
प्राणस्यान्नमिदं सर्वमिति वै कवयो विदुः।
स्थावरं जङ्गमं चैव सर्वं प्राणस्य भोजनम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वान् पुरुष कहते हैं कि यह सब कुछ प्राणका अन्न है, स्थावर और जङ्गम सारा जगत् प्राणका भोजन है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आददानस्य चेद् राज्यं ये केचित् परिपन्थिनः।
हन्तव्यास्त इति प्राज्ञाः क्षत्रधर्मविदो विदुः ॥ ७ ॥
मूलम्
आददानस्य चेद् राज्यं ये केचित् परिपन्थिनः।
हन्तव्यास्त इति प्राज्ञाः क्षत्रधर्मविदो विदुः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रिय-धर्मके ज्ञाता विद्वान् पुरुष यह जानते और बताते हैं कि अपना राज्य ग्रहण करते समय जो कोई भी उसमें बाधक या विरोधी खड़े हों, उन्हें मार डालना चाहिये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते सदोषा हतास्माभी राज्यस्य परिपन्थिनः।
तान् हत्वा भुङ्क्ष्व धर्मेण युधिष्ठिर महीमिमाम् ॥ ८ ॥
मूलम्
ते सदोषा हतास्माभी राज्यस्य परिपन्थिनः।
तान् हत्वा भुङ्क्ष्व धर्मेण युधिष्ठिर महीमिमाम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! जो लोग हमारे राज्यके बाधक या लुटेरे थे, वे सभी अपराधी ही थे; अतः हमने उन्हें मार डाला। उन्हें मारकर धर्मतः प्राप्त हुई इस पृथ्वीका आप उपभोग कीजिये॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा हि पुरुषः खात्वा कूपमप्राप्य चोदकम्।
पङ्कदिग्धो निवर्तेत कर्मेदं नस्तथोपमम् ॥ ९ ॥
मूलम्
यथा हि पुरुषः खात्वा कूपमप्राप्य चोदकम्।
पङ्कदिग्धो निवर्तेत कर्मेदं नस्तथोपमम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कोई मनुष्य परिश्रम करके कुँआ खोदे और वहाँ जल न मिलनेपर देहमें कीचड़ लपेटे हुए वहाँसे निराश लौट आये, उसी प्रकार हमारा किया-कराया यह सारा पराक्रम व्यर्थ होना चाहता है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाऽऽरुह्य महावृक्षमपहृत्य ततो मधु।
अप्राश्य निधनं गच्छेत् कर्मेदं नस्तथोपमम् ॥ १० ॥
मूलम्
यथाऽऽरुह्य महावृक्षमपहृत्य ततो मधु।
अप्राश्य निधनं गच्छेत् कर्मेदं नस्तथोपमम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कोई विशाल वृक्षपर आरूढ़ हो वहाँसे मधु उतार लाये परंतु उसे खानेके पूर्व ही उसकी मृत्यु हो जाय; हमारा यह प्रयत्न भी वैसा ही हो रहा है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा महान्तमध्वानमाशया पुरुषः पतन्।
स निराशो निवर्तेत कर्मैतन्नस्तथोपमम् ॥ ११ ॥
मूलम्
यथा महान्तमध्वानमाशया पुरुषः पतन्।
स निराशो निवर्तेत कर्मैतन्नस्तथोपमम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कोई मनुष्य मनमें कोई आशा लेकर बहुत बड़ा मार्ग तै करे और वहाँ पहुँचनेपर निराश लौटे, हमारा यह कार्य भी उसी तरह निष्फल हो रहा है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा शत्रून् घातयित्वा पुरुषः कुरुनन्दन।
आत्मानं घातयेत् पश्चात् कर्मेदं नस्तथोपमम् ॥ १२ ॥
मूलम्
यथा शत्रून् घातयित्वा पुरुषः कुरुनन्दन।
आत्मानं घातयेत् पश्चात् कर्मेदं नस्तथोपमम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! जैसे कोई मनुष्य शत्रुओंका वध करनेके पश्चात् अपनी भी हत्या कर डाले, हमारा यह कर्म भी वैसा ही है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथान्नं क्षुधितो लब्ध्वा न भुञ्जीयाद् यदृच्छया।
कामीव कामिनीं लब्ध्वा कर्मेदं नस्तथोपमम् ॥ १३ ॥
मूलम्
यथान्नं क्षुधितो लब्ध्वा न भुञ्जीयाद् यदृच्छया।
कामीव कामिनीं लब्ध्वा कर्मेदं नस्तथोपमम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे भूखा मनुष्य भोजन और कामी पुरुष कामिनीको पाकर दैववश उसका उपभोग न करे, हमारा यह कर्म भी वैसा ही निष्फल हो रहा है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयमेवात्र गर्ह्या हि यद् वयं मन्दचेतसम्।
त्वां राजन्ननुगच्छामो ज्येष्ठोऽयमिति भारत ॥ १४ ॥
मूलम्
वयमेवात्र गर्ह्या हि यद् वयं मन्दचेतसम्।
त्वां राजन्ननुगच्छामो ज्येष्ठोऽयमिति भारत ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतवंशी नरेश! हमलोग ही यहाँ निन्दाके पात्र हैं कि आप-जैसे अल्पबुद्धि पुरुषको बड़ा भाई समझकर आपके पीछे-पीछे चलते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं हि बाहुबलिनः कृतविद्या मनस्विनः।
क्लीबस्य वाक्ये तिष्ठामो यथैवाशक्तयस्तथा ॥ १५ ॥
मूलम्
वयं हि बाहुबलिनः कृतविद्या मनस्विनः।
क्लीबस्य वाक्ये तिष्ठामो यथैवाशक्तयस्तथा ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हम बाहुबलसे सम्पन्न, अस्र-शस्त्रोंके विद्वान् और मनस्वी हैं तो भी असमर्थ पुरुषोंके समान एक कायर भाईकी आज्ञामें रहते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगतीकगतीनस्मान् नष्टार्थानर्थसिद्धये ।
कथं वै नानुपश्येयुर्जनाः पश्यत यादृशम् ॥ १६ ॥
मूलम्
अगतीकगतीनस्मान् नष्टार्थानर्थसिद्धये ।
कथं वै नानुपश्येयुर्जनाः पश्यत यादृशम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमलोग पहले अशरण मनुष्योंको शरण देनेवाले थे; किंतु अब हमारा ही अर्थ नष्ट हो गया है। ऐसी दशामें अर्थसिद्धिके लिये हमारा आश्रय लेनेवाले लोग हमारी इस दुर्बलतापर कैसे दृष्टि नहीं डालेंगे? बन्धुओ! मेरा कथन कैसा है? इसपर विचार करो॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपत्काले हि संन्यासः कर्तव्य इति शिष्यते।
जरयाभिपरीतेन शत्रुभिर्व्यंसितेन वा ॥ १७ ॥
मूलम्
आपत्काले हि संन्यासः कर्तव्य इति शिष्यते।
जरयाभिपरीतेन शत्रुभिर्व्यंसितेन वा ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शास्त्रका उपदेश यह है कि आपत्तिकालमें या बुढ़ापेसे जर्जर हो जानेपर अथवा शत्रुओंद्वारा धन-सम्पत्तिसे वञ्चित कर दिये जानेपर मनुष्यको संन्यास ग्रहण करना चाहिये॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादिह कृतप्रज्ञास्त्यागं न परिचक्षते।
धर्मव्यतिक्रमं चैव मन्यन्ते सूक्ष्मदर्शिनः ॥ १८ ॥
मूलम्
तस्मादिह कृतप्रज्ञास्त्यागं न परिचक्षते।
धर्मव्यतिक्रमं चैव मन्यन्ते सूक्ष्मदर्शिनः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः (जब कि हमारे ऊपर पूर्वोक्त संकट नहीं आया है) विद्वान् पुरुष ऐसे अवसरमें त्याग या संन्यासकी प्रशंसा नहीं करते हैं। सूक्ष्मदर्शी पुरुष तो ऐसे समयमें क्षत्रियके लिये संन्यास लेना उलटे धर्मका उल्लंघन मानते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं तस्मात् समुत्पन्नास्तन्निष्ठास्तदुपाश्रयाः ।
तदेव निन्दां भाषेयुर्धाता तत्र न गर्ह्यते ॥ १९ ॥
मूलम्
कथं तस्मात् समुत्पन्नास्तन्निष्ठास्तदुपाश्रयाः ।
तदेव निन्दां भाषेयुर्धाता तत्र न गर्ह्यते ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये जिनकी क्षात्रधर्मके लिए उत्पत्ति हुई है, जो क्षात्रधर्ममें ही तत्पर रहते हैं, तथा क्षात्रधर्मका ही आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करते हैं, वे क्षत्रिय स्वयं ही उस क्षात्रधर्मकी निन्दा कैसे कर सकते हैं? इसके लिये उस विधाताकी ही निन्दा क्यों न की जाय, जिन्होंने क्षत्रियोंके लिये युद्धधर्मका विधान किया है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रिया विहीनैरधनैर्नास्तिकैः सम्प्रवर्तितम् ।
वेदवादस्य विज्ञानं सत्याभासमिवानृतम् ॥ २० ॥
मूलम्
श्रिया विहीनैरधनैर्नास्तिकैः सम्प्रवर्तितम् ।
वेदवादस्य विज्ञानं सत्याभासमिवानृतम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीहीन, निर्धन एवं नास्तिकोंने वेदके अर्थवादवाक्यों द्वारा प्रतिपादित विज्ञानका आश्रय ले सत्य-सा प्रतीत होनेवाले मिथ्या मतका प्रचार किया है (वैसे वचनोंद्वारा क्षत्रियका संन्यासमें अधिकार नहीं सिद्ध होता है)॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्यं तु मौनमास्थाय बिभ्रताऽऽत्मानमात्मना।
धर्मच्छद्म समास्थाय च्यवितुं न तु जीवितुम् ॥ २१ ॥
मूलम्
शक्यं तु मौनमास्थाय बिभ्रताऽऽत्मानमात्मना।
धर्मच्छद्म समास्थाय च्यवितुं न तु जीवितुम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मका बहाना लेकर अपनेद्वारा केवल अपना पेट पालते हुए मौनी बाबा बनकर बैठ जानेसे कर्तव्यसे भ्रष्ट होना ही सम्भव है, जीवनको सार्थक बनाना नहीं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्यं पुनररण्येषु सुखमेकेन जीवितुम्।
अबिभ्रता पुत्रपौत्रान् देवर्षीनतिथीन् पितॄन् ॥ २२ ॥
मूलम्
शक्यं पुनररण्येषु सुखमेकेन जीवितुम्।
अबिभ्रता पुत्रपौत्रान् देवर्षीनतिथीन् पितॄन् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुत्रों और पौत्रोंके पालनमें असमर्थ हो, देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंको तृप्त न कर सकता हो और अतिथियोंको भोजन देनेकी भी शक्ति न रखता हो, ऐसा मनुष्य ही अकेला जंगलोंमें रहकर सुखसे जीवन बिता सकता है (आप-जैसे शक्तिशाली पुरुषोंका यह काम नहीं है)॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेमे मृगाः स्वर्गजितो न वराहा न पक्षिणः।
अथान्येन प्रकारेण पुण्यमाहुर्न तं जनाः ॥ २३ ॥
मूलम्
नेमे मृगाः स्वर्गजितो न वराहा न पक्षिणः।
अथान्येन प्रकारेण पुण्यमाहुर्न तं जनाः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सदा ही वनमें रहनेपर भी न तो ये मृग स्वर्गलोकपर अधिकार पा सके हैं, न सूअर और पक्षी ही। पुण्यकी प्राप्ति तो अन्य प्रकारसे ही बतलायी गयी है। श्रेष्ठ पुरुष केवल वनवासको ही पुण्यकारक नहीं मानते॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि संन्यासतः सिद्धिं राजा कश्चिदवाप्नुयात्।
पर्वताश्च द्रुमाश्चैव क्षिप्रं सिद्धिमवाप्नुयुः ॥ २४ ॥
मूलम्
यदि संन्यासतः सिद्धिं राजा कश्चिदवाप्नुयात्।
पर्वताश्च द्रुमाश्चैव क्षिप्रं सिद्धिमवाप्नुयुः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि कोई राजा संन्याससे सिद्धि प्राप्त कर ले, तब तो पर्वत और वृक्ष बहुत जल्दी सिद्धि पा सकते हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते हि नित्यसंन्यासा दृश्यन्ते निरुपद्रवाः।
अपरिग्रहवन्तश्च सततं ब्रह्मचारिणः ॥ २५ ॥
मूलम्
एते हि नित्यसंन्यासा दृश्यन्ते निरुपद्रवाः।
अपरिग्रहवन्तश्च सततं ब्रह्मचारिणः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि ये नित्य संन्यासी, उपद्रवशून्य, परिग्रहरहित तथा निरन्तर ब्रह्मचर्यका पालन करनेवाले देखे जाते हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ चेदात्मभाग्येषु नान्येषां सिद्धिमश्नुते।
तस्मात् कर्मैव कर्तव्यं नास्ति सिद्धिरकर्मणः ॥ २६ ॥
मूलम्
अथ चेदात्मभाग्येषु नान्येषां सिद्धिमश्नुते।
तस्मात् कर्मैव कर्तव्यं नास्ति सिद्धिरकर्मणः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि अपने भाग्यमें दूसरोंके कर्मोंसे प्राप्त हुई सिद्धि नहीं आती, तब तो सभीको कर्म ही करना चाहिये। अकर्मण्य पुरुषको कभी कोई सिद्धि नहीं मिलती॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
औदकाः सृष्टयश्चैव जन्तवः सिद्धिमाप्नुयुः।
तेषामात्मैव भर्तव्यो नान्यः कश्चन विद्यते ॥ २७ ॥
मूलम्
औदकाः सृष्टयश्चैव जन्तवः सिद्धिमाप्नुयुः।
तेषामात्मैव भर्तव्यो नान्यः कश्चन विद्यते ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(यदि अपने शरीरमात्रका भरण-पोषण करनेसे सिद्धि मिलती हो, तब तो) जलमें रहनेवाले जीवों तथा स्थावर प्राणियोंको भी सिद्धि प्राप्त कर लेनी चाहिये; क्योंकि उन्हें केवल अपना ही भरण-पोषण करना रहता है। उनके पास दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जिसके भरण-पोषणका भार वे उठाते हों॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवेक्षस्व यथा स्वैः स्वैः कर्मभिर्व्यापृतं जगत्।
तस्मात् कर्मैव कर्तव्यं नास्ति सिद्धिरकर्मणः ॥ २८ ॥
मूलम्
अवेक्षस्व यथा स्वैः स्वैः कर्मभिर्व्यापृतं जगत्।
तस्मात् कर्मैव कर्तव्यं नास्ति सिद्धिरकर्मणः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखिये और विचार कीजिये कि सारा संसार किस तरह अपने कर्मोंमें लगा हुआ है; अतः आपको भी क्षत्रियोचित कर्तव्यका ही पालन करना चाहिये। जो कर्मोंको छोड़ बैठता है, उसे कभी सिद्धि नहीं मिलती॥२८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि भीमवाक्ये दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें भीमसेनका वचनविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०॥