भागसूचना
नवमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरका वानप्रस्थ एवं संन्यासीके अनुसार जीवन व्यतीत करनेका निश्चय
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुहूर्तं तावदेकाग्रो मनःश्रोत्रेऽन्तरात्मनि ।
धारयन्नपि तच्छ्रुत्वा रोचेत वचनं मम ॥ १ ॥
मूलम्
मुहूर्तं तावदेकाग्रो मनःश्रोत्रेऽन्तरात्मनि ।
धारयन्नपि तच्छ्रुत्वा रोचेत वचनं मम ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— अर्जुन! तुम अपने मन और कानोंको अन्तःकरणमें स्थापित करके दो घड़ीतक एकाग्र हो जाओ, तब मेरी बात सुनकर तुम इसे पसंद करोगे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधुगम्यमहं मार्गं न जातु त्वत्कृते पुनः।
गच्छेयं तद् गमिष्यामि हित्वा ग्राम्यसुखान्युत ॥ २ ॥
मूलम्
साधुगम्यमहं मार्गं न जातु त्वत्कृते पुनः।
गच्छेयं तद् गमिष्यामि हित्वा ग्राम्यसुखान्युत ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं ग्राम्य सुखोंका परित्याग करके साधु पुरुषोंके चले हुए मार्गपर तो चल सकता हूँ; परंतु तुम्हारे आग्रहके कारण कदापि राज्य नहीं स्वीकार करूँगा॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षेम्यश्चैकाकिना गम्यः पन्थाः कोऽस्तीति पृच्छ माम्।
अथवा नेच्छसि प्रष्टुमपृच्छन्नपि मे शृणु ॥ ३ ॥
मूलम्
क्षेम्यश्चैकाकिना गम्यः पन्थाः कोऽस्तीति पृच्छ माम्।
अथवा नेच्छसि प्रष्टुमपृच्छन्नपि मे शृणु ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एकाकी पुरुषके चलनेयोग्य कल्याणकारी मार्ग कौन-सा है? यह मुझसे पूछो अथवा यदि पूछना नहीं चाहते हो तो बिना पूछे भी मुझसे सुनो॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हित्वा ग्राम्यसुखाचारं तप्यमानो महत् तपः।
अरण्ये फलमूलाशी चरिष्यामि मृगैः सह ॥ ४ ॥
मूलम्
हित्वा ग्राम्यसुखाचारं तप्यमानो महत् तपः।
अरण्ये फलमूलाशी चरिष्यामि मृगैः सह ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं गँवारोंके सुख और आचारपर लात मारकर वनमें रहकर अत्यन्त कठोर तपस्या करूँगा, फल-मूल खाकर मृगोंके साथ विचरूँगा॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जुह्वानोऽग्निं यथाकालमुभौ कालावुपस्पृशन् ।
कृशः परिमिताहारश्चर्मचीरजटाधरः ॥ ५ ॥
मूलम्
जुह्वानोऽग्निं यथाकालमुभौ कालावुपस्पृशन् ।
कृशः परिमिताहारश्चर्मचीरजटाधरः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दोनों समय स्नान करके यथासमय अग्निहोत्र करूँगा और परिमित आहार करके शरीरको दुर्बल कर दूँगा। मृगचर्म तथा वल्कल वस्त्र धारण करके सिरपर जटा रखूँगा॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शीतवातातपसहः क्षुत्पिपासाश्रमक्षमः ।
तपसा विधिदृष्टेन शरीरमुपशोषयन् ॥ ६ ॥
मूलम्
शीतवातातपसहः क्षुत्पिपासाश्रमक्षमः ।
तपसा विधिदृष्टेन शरीरमुपशोषयन् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्दी, गर्मी और हवाको सहूँगा, भूख, प्यास और परिश्रमको सहनेका अभ्यास डालूँगा, शास्त्रोक्त तपस्याद्वारा इस शरीरको सुखाता रहूँगा॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनःकर्णसुखा नित्यं शृण्वन्नुच्चावचा गिरः।
मुदितानामरण्येषु वसतां मृगपक्षिणाम् ॥ ७ ॥
मूलम्
मनःकर्णसुखा नित्यं शृण्वन्नुच्चावचा गिरः।
मुदितानामरण्येषु वसतां मृगपक्षिणाम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वनमें प्रसन्नतापूर्वक निवास करनेवाले पशु-पक्षियोंकी भाँति-भाँतिकी बोली, जो मन और कानोंको सुख देनेवाली होगी, नित्य सुनता रहूँगा॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आजिघ्रन् पेशलान् गन्धान् फुल्लानां वृक्षवीरुधाम्।
नानारूपान् वने पश्यन् रमणीयान् वनौकसः ॥ ८ ॥
मूलम्
आजिघ्रन् पेशलान् गन्धान् फुल्लानां वृक्षवीरुधाम्।
नानारूपान् वने पश्यन् रमणीयान् वनौकसः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वनमें खिले हुए वृक्षों और लताओंकी मनोहर सुगन्ध सूँघता हुआ अनेक रूपवाले सुन्दर वनवासियोंको देखा करूँगा॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वानप्रस्थजनस्यापि दर्शनं कुलवासिनाम् ।
नाप्रियाण्याचरिष्यामि किंपुनर्ग्रामवासिनाम् ॥ ९ ॥
मूलम्
वानप्रस्थजनस्यापि दर्शनं कुलवासिनाम् ।
नाप्रियाण्याचरिष्यामि किंपुनर्ग्रामवासिनाम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ वानप्रस्थ महात्माओं तथा ऋषिकुलवासी ब्रह्मचारी ऋषि-मुनियोंका भी दर्शन होगा। मैं किसी वनवासीका भी अप्रिय नहीं करूँगा; फिर ग्रामवासियोंकी तो बात ही क्या है?॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकान्तशीली विमृशन् पक्वापक्वेन वर्तयन्।
पितॄन् देवांश्च वन्येन वाग्भिरद्भिश्च तर्पयन् ॥ १० ॥
मूलम्
एकान्तशीली विमृशन् पक्वापक्वेन वर्तयन्।
पितॄन् देवांश्च वन्येन वाग्भिरद्भिश्च तर्पयन् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एकान्तमें रहकर आध्यात्मिक तत्त्वका विचार किया करूँगा और कच्चा-पक्का जैसा भी फल मिल जायगा, उसीको खाकर जीवन-निर्वाह करूँगा। जंगली फल-मूल, मधुर वाणी और जलके द्वारा देवताओं तथा पितरोंको तृप्त करता रहूँगा॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमारण्यशास्त्राणामुग्रमुग्रतरं विधिम् ।
सेवमानः प्रतीक्षिष्ये देहस्यास्य समापनम् ॥ ११ ॥
मूलम्
एवमारण्यशास्त्राणामुग्रमुग्रतरं विधिम् ।
सेवमानः प्रतीक्षिष्ये देहस्यास्य समापनम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वनवासी मुनियोंके लिये शास्त्रमें बताये हुए कठोर-से-कठोर नियमोंका पालन करता हुआ इस शरीरकी आयु समाप्त होनेकी बाट देखता रहूँगा॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवैकोऽहमेकाहमेकैकस्मिन् वनस्पतौ ।
चरन् भैक्ष्यं मुनिर्मुण्डः क्षपयिष्ये कलेवरम् ॥ १२ ॥
मूलम्
अथवैकोऽहमेकाहमेकैकस्मिन् वनस्पतौ ।
चरन् भैक्ष्यं मुनिर्मुण्डः क्षपयिष्ये कलेवरम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा मैं मूँड़ मुड़ाकर मननशील संन्यासी हो जाऊँगा और एक-एक दिन एक-एक वृक्षसे भिक्षा माँगकर अपने शरीरको सुखाता रहूँगा॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पांसुभिः समभिच्छन्नः शून्यागारप्रतिश्रयः ।
वृक्षमूलनिकेतो वा त्यक्तसर्वप्रियाप्रियः ॥ १३ ॥
मूलम्
पांसुभिः समभिच्छन्नः शून्यागारप्रतिश्रयः ।
वृक्षमूलनिकेतो वा त्यक्तसर्वप्रियाप्रियः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरीरपर धूल पड़ी होगी और सूने घरोंमें मेरा निवास होगा अथवा किसी वृक्षके नीचे उसकी जड़में ही पड़ा रहूँगा। प्रिय और अप्रियका सारा विचार छोड़ दूँगा॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न शोचन्न प्रहृष्यंश्च तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहः ॥ १४ ॥
मूलम्
न शोचन्न प्रहृष्यंश्च तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसीके लिये न शोक करूँगा न हर्ष। निन्दा और स्तुतिको समान समझूँगा। आशा और ममताको त्यागकर निर्द्वन्द्व हो जाऊँगा तथा कभी किसी वस्तुका संग्रह नहीं करूँगा॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मारामः प्रसन्नात्मा जडान्धबधिराकृतिः ।
अकुर्वाणः परैः काञ्चित् संविदं जातु कैरपि ॥ १५ ॥
मूलम्
आत्मारामः प्रसन्नात्मा जडान्धबधिराकृतिः ।
अकुर्वाणः परैः काञ्चित् संविदं जातु कैरपि ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्माके चिन्तनमें ही सुखका अनुभव करूँगा, मनको सदा प्रसन्न रखूँगा, कभी किसी दूसरेके साथ कोई बातचीत नहीं करूँगा, गूँगों, अंधों और बहरोंके समान न किसीसे कुछ कहूँगा, न किसीको देखूँगा और न किसीकी सुनूँगा॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जङ्गमाजङ्गमान् सर्वानविहिंसंश्चतुर्विधान् ।
प्रजाः सर्वाः स्वधर्मस्थाः समः प्राणभृतः प्रति ॥ १६ ॥
मूलम्
जङ्गमाजङ्गमान् सर्वानविहिंसंश्चतुर्विधान् ।
प्रजाः सर्वाः स्वधर्मस्थाः समः प्राणभृतः प्रति ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चार प्रकारके समस्त चराचर प्राणियोंमेंसे किसीकी हिंसा नहीं करूँगा। अपने-अपने धर्ममें स्थित हुई समस्त प्रजाओं तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति समभाव रखूँगा॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चाप्यवहसन् कञ्चिन्न कुर्वन् भ्रुकुटीः क्वचित्।
प्रसन्नवदनो नित्यं सर्वेन्द्रियसुसंयतः ॥ १७ ॥
मूलम्
न चाप्यवहसन् कञ्चिन्न कुर्वन् भ्रुकुटीः क्वचित्।
प्रसन्नवदनो नित्यं सर्वेन्द्रियसुसंयतः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
न तो किसीकी हँसी उड़ाऊँगा और न किसीके प्रति भौंहोंको ही टेढ़ी करूँगा। सदा मेरे मुखपर प्रसन्नता छायी रहेगी और मैं सम्पूर्ण इन्द्रियोंको पूर्णतः संयममें रखूँगा॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपृच्छन् कस्यचिन्मार्गं प्रव्रजन्नेव केनचित्।
न देशं न दिशं काञ्चिद् गन्तुमिच्छन् विशेषतः ॥ १८ ॥
मूलम्
अपृच्छन् कस्यचिन्मार्गं प्रव्रजन्नेव केनचित्।
न देशं न दिशं काञ्चिद् गन्तुमिच्छन् विशेषतः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसी भी मार्गसे चलता रहूँगा और कभी किसीसे रास्ता नहीं पूछूँगा। किसी खास स्थान या दिशाकी ओर जानेकी इच्छा नहीं रखूँगा॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गमने निरपेक्षश्च पश्चादनवलोकयन् ।
ऋजुः प्रणिहितो गच्छंस्त्रसं स्थावरवर्जकः ॥ १९ ॥
मूलम्
गमने निरपेक्षश्च पश्चादनवलोकयन् ।
ऋजुः प्रणिहितो गच्छंस्त्रसं स्थावरवर्जकः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहीं भी मेरे जानेका कोई विशेष उद्देश्य नहीं होगा। न आगे जानेकी उत्सुकता होगी, न पीछे फिरकर देखूँगा। सरल भावसे रहूँगा। मेरी दृष्टि अन्तर्मुखी होगी। स्थावर-जंगम जीवोंको बचाता हुआ आगे चलता रहूँगा॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वभावस्तु प्रयात्यग्रे प्रभवन्त्यशनान्यपि ।
द्वन्द्वानि च विरुद्धानि तानि सर्वाण्यचिन्तयन् ॥ २० ॥
मूलम्
स्वभावस्तु प्रयात्यग्रे प्रभवन्त्यशनान्यपि ।
द्वन्द्वानि च विरुद्धानि तानि सर्वाण्यचिन्तयन् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वभाव आगे-आगे चलता है, भोजन भी अपने-आप प्रकट हो जाते हैं, सर्दी-गर्मी आदि जो परस्पर विरोधी द्वन्द्व हैं; वे सब आते-जाते रहते हैं, अतः इन सबकी चिन्ता छोड़ दूँगा॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अल्पं वास्वादु वा भोज्यं पूर्वालाभेन जातुचित्।
अन्येष्वपि चरल्ँलाभमलाभे सप्त पूरयन् ॥ २१ ॥
मूलम्
अल्पं वास्वादु वा भोज्यं पूर्वालाभेन जातुचित्।
अन्येष्वपि चरल्ँलाभमलाभे सप्त पूरयन् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भिक्षा थोड़ी मिली या स्वादहीन मिली, इसका विचार न करके उसे पा लूँगा। यदि कभी एक घरसे भिक्षा नहीं मिली तो दूसरे घरोंमें भी जाऊँगा। मिल गया तो ठीक है, न मिलनेकी दशामें क्रमशः सात घरोंमें जाऊँगा, आठवेंमें नहीं जाऊँगा॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विधूमे न्यस्तमुसले व्यङ्गारे भुक्तवज्जने।
अतीतपात्रसंचारे काले विगतभिक्षुके ॥ २२ ॥
एककालं चरन् भैक्ष्यं त्रीनथ द्वे च पञ्च वा।
स्नेहपाशं विमुच्याहं चरिष्यामि महीमिमाम् ॥ २३ ॥
मूलम्
विधूमे न्यस्तमुसले व्यङ्गारे भुक्तवज्जने।
अतीतपात्रसंचारे काले विगतभिक्षुके ॥ २२ ॥
एककालं चरन् भैक्ष्यं त्रीनथ द्वे च पञ्च वा।
स्नेहपाशं विमुच्याहं चरिष्यामि महीमिमाम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब घरोंमेंसे धुआँ निकलना बंद हो गया हो, मूसल रख दिया गया हो, चूल्हेकी आग बुझ गयी हो, घरके सब लोग खा-पी चुके हों, परोसी हुई थालीको इधर-उधर ले जानेका काम समाप्त हो गया हो और भिखमंगे भिक्षा लेकर लौट गये हों, ऐसे समयमें मैं एक ही वक्त भिक्षाके लिये दो, तीन या पाँच घरोंतक जाया करूँगा। सब ओरसे स्नेहका बन्धन तोड़कर इस पृथ्वीपर विचरता रहूँगा॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलाभे सति वा लाभे समदर्शी महातपाः।
न जिजीविषुवत् किंचिन्न मुमूर्षुवदाचरन् ॥ २४ ॥
मूलम्
अलाभे सति वा लाभे समदर्शी महातपाः।
न जिजीविषुवत् किंचिन्न मुमूर्षुवदाचरन् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ मिले या न मिले, दोनों ही अवस्थामें मेरी दृष्टि समान होगी। मैं महान् तपमें संलग्न रहकर ऐसा कोई आचरण नहीं करूँगा, जिसे जीने या मरनेकी इच्छावाले लोग करते हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवितं मरणं चैव नाभिनन्दन्न च द्विषन्।
वास्यैकं तक्षतो बाहुं चन्दनेनैकमुक्षतः ॥ २५ ॥
नाकल्याणं न कल्याणं चिन्तयन्नुभयोस्तयोः।
मूलम्
जीवितं मरणं चैव नाभिनन्दन्न च द्विषन्।
वास्यैकं तक्षतो बाहुं चन्दनेनैकमुक्षतः ॥ २५ ॥
नाकल्याणं न कल्याणं चिन्तयन्नुभयोस्तयोः।
अनुवाद (हिन्दी)
न तो जीवनका अभिनन्दन करूँगा, न मृत्युसे द्वेष। यदि एक मनुष्य मेरी एक बाँहको बसूलेसे काटता हो और दूसरा दूसरी बाँहको चन्दनमिश्रित जलसे सींचता हो तो न पहलेका अमंगल सोचूँगा और न दूसरेकी मंगल-कामना करूँगा। उन दोनोंके प्रति समान भाव रखूँगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
याः काश्चिज्जीवता शक्याः कर्तुमभ्युदयक्रियाः।
सर्वास्ताः समभित्यज्य निमेषादिव्यवस्थितः ॥ २६ ॥
मूलम्
याः काश्चिज्जीवता शक्याः कर्तुमभ्युदयक्रियाः।
सर्वास्ताः समभित्यज्य निमेषादिव्यवस्थितः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीवित पुरुषके द्वारा जो कोई भी अभ्युदयकारी कर्म किये जा सकते हैं, उन सबका परित्याग करके केवल शरीर-निर्वाहके लिये पलकोंके खोलने-मींचने या खाने-पीने आदिके कार्यमें ही प्रवृत्त हो सकूँगा॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषु नित्यमसक्तश्च त्यक्तसर्वेन्द्रियक्रियः ।
सुपरित्यक्तसंकल्पः सुनिर्णिक्तात्मकल्मषः ॥ २७ ॥
मूलम्
तेषु नित्यमसक्तश्च त्यक्तसर्वेन्द्रियक्रियः ।
सुपरित्यक्तसंकल्पः सुनिर्णिक्तात्मकल्मषः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन सब कार्योंमें भी आसक्त नहीं होऊँगा। सम्पूर्ण इन्द्रियोंके व्यापारोंसे उपरत होकर मनको संकल्पशून्य करके अन्तःकरणका सारा मल धो डालूँगा॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमुक्तः सर्वसंगेभ्यो व्यतीतः सर्ववागुराः।
न वशे कस्यचित्तिष्ठन् सधर्मा मातरिश्वनः ॥ २८ ॥
मूलम्
विमुक्तः सर्वसंगेभ्यो व्यतीतः सर्ववागुराः।
न वशे कस्यचित्तिष्ठन् सधर्मा मातरिश्वनः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब प्रकारकी आसक्तियोंसे मुक्त रहकर स्नेहके सारे बन्धनोंको लाँघ जाऊँगा। किसीके अधीन न रहकर वायुके समान सर्वत्र विचरूँगा॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीतरागश्चरन्नेवं तुष्टिं प्राप्स्यामि शाश्वतीम्।
तृष्णया हि महत् पापमज्ञानादस्मि कारितः ॥ २९ ॥
मूलम्
वीतरागश्चरन्नेवं तुष्टिं प्राप्स्यामि शाश्वतीम्।
तृष्णया हि महत् पापमज्ञानादस्मि कारितः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वीतराग होकर विचरनेसे मुझे शाश्वत संतोष प्राप्त होगा। अज्ञानवश तृष्णाने मुझसे बड़े-बड़े पाप करवाये हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुशलाकुशलान्येके कृत्वा कर्माणि मानवाः।
कार्यकारणसंश्लिष्टं स्वजनं नाम बिभ्रति ॥ ३० ॥
मूलम्
कुशलाकुशलान्येके कृत्वा कर्माणि मानवाः।
कार्यकारणसंश्लिष्टं स्वजनं नाम बिभ्रति ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ मनुष्य शुभाशुभ कर्म करके कार्य-कारणसे अपने साथ जुड़े हुए स्वजनोंका भरण-पोषण करते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयुषोऽन्ते प्रहायेदं क्षीणप्राणं कलेवरम्।
प्रतिगृह्णाति तत् पापं कर्तुः कर्मफलं हि तत् ॥ ३१ ॥
मूलम्
आयुषोऽन्ते प्रहायेदं क्षीणप्राणं कलेवरम्।
प्रतिगृह्णाति तत् पापं कर्तुः कर्मफलं हि तत् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर आयुके अन्तमें जीवात्मा इस प्राणशून्य शरीरको त्यागकर पहलेके किये हुए उस पापको ग्रहण करता है; क्योंकि कर्ताको ही उसके कर्मका वह फल प्राप्त होता है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं संसारचक्रेऽस्मिन् व्याविद्धे रथचक्रवत्।
समेति भूतग्रामोऽयं भूतग्रामेण कार्यवान् ॥ ३२ ॥
मूलम्
एवं संसारचक्रेऽस्मिन् व्याविद्धे रथचक्रवत्।
समेति भूतग्रामोऽयं भूतग्रामेण कार्यवान् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार रथके पहियेके समान निरन्तर घूमते हुए इस संसारचक्रमें आकर जीवोंका यह समुदाय कार्यवश अन्य प्राणियोंसे मिलता है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन्ममृत्युजराव्याधिवेदनाभिरभिद्रुतम् ।
अपारमिव चास्वस्थं संसारं त्यजतः सुखम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
जन्ममृत्युजराव्याधिवेदनाभिरभिद्रुतम् ।
अपारमिव चास्वस्थं संसारं त्यजतः सुखम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस संसारमें जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि और वेदनाओंका आक्रमण होता ही रहता है, जिससे यहाँका जीवन कभी स्वस्थ नहीं रहता। जो अपार-सा प्रतीत होनेवाले इस संसारको त्याग देता है, उसीको सुख मिलता है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिवः पतत्सु देवेषु स्थानेभ्यश्च महर्षिषु।
को हि नाम भवेनार्थी भवेत् कारणतत्त्ववित् ॥ ३४ ॥
मूलम्
दिवः पतत्सु देवेषु स्थानेभ्यश्च महर्षिषु।
को हि नाम भवेनार्थी भवेत् कारणतत्त्ववित् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब देवता भी स्वर्गसे नीचे गिरते हैं और महर्षि भी अपने-अपने स्थानसे भ्रष्ट हो जाते हैं, तब कारण-तत्त्वको जाननेवाला कौन मनुष्य इस जन्म-मरणरूप संसारसे कोई प्रयोजन रखेगा॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्वा हि विविधं कर्म तत्तद् विविधलक्षणम्।
पार्थिवैर्नृपतिः स्वल्पैः कारणैरेव बध्यते ॥ ३५ ॥
मूलम्
कृत्वा हि विविधं कर्म तत्तद् विविधलक्षणम्।
पार्थिवैर्नृपतिः स्वल्पैः कारणैरेव बध्यते ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भाँति-भाँतिके भिन्न-भिन्न कर्म करके विख्यात हुआ राजा भी किन्हीं छोटे-मोटे कारणोंसे ही दूसरे राजाओंद्वारा मार डाला जाता है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् प्रज्ञामृतमिदं चिरान्मां प्रत्युपस्थितम्।
तत् प्राप्य प्रार्थये स्थानमव्ययं शाश्वतं ध्रुवम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
तस्मात् प्रज्ञामृतमिदं चिरान्मां प्रत्युपस्थितम्।
तत् प्राप्य प्रार्थये स्थानमव्ययं शाश्वतं ध्रुवम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आज दीर्घकालके पश्चात् मुझे यह विवेकरूपी अमृत प्राप्त हुआ है। इसे पाकर मैं अक्षय, अविकारी एवं सनातन पदको प्राप्त करना चाहता हूँ॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतया संततं धृत्या चरन्नेवंप्रकारया।
जन्ममृत्युजराव्याधिवेदनाभिरभिद्रुतम् ।
देहं संस्थापयिष्यामि निर्भयं मार्गमास्थितः ॥ ३७ ॥
मूलम्
एतया संततं धृत्या चरन्नेवंप्रकारया।
जन्ममृत्युजराव्याधिवेदनाभिरभिद्रुतम् ।
देहं संस्थापयिष्यामि निर्भयं मार्गमास्थितः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः इस पूर्वोक्त धारणाके द्वारा निरन्तर विचरता हुआ मैं निर्भय मार्गका आश्रय ले जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि और वेदनाओंसे आक्रान्त हुए इस शरीरको अलग रख दूँगा॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि युधिष्ठिरवाक्ये नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें युधिष्ठिरका वाक्यविषयक नवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९॥