००८ अर्जुनवाक्ये

भागसूचना

अष्टमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अर्जुनका युधिष्ठिरके मतका निराकरण करते हुए उन्हें धनकी महत्ता बताना और राजधर्मके पालनके लिये जोर देते हुए यज्ञानुष्ठानके लिये प्रेरित करना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथार्जुन उवाचेदमधिक्षिप्त इवाक्षमी ।
अभिनीततरं वाक्यं दृढवादपराक्रमः ॥ १ ॥
दर्शयन्नैन्द्रिरात्मानमुग्रमुग्रपराक्रमः ।
स्मयमानो महातेजाः सृक्किणी परिसंलिहन् ॥ २ ॥

मूलम्

अथार्जुन उवाचेदमधिक्षिप्त इवाक्षमी ।
अभिनीततरं वाक्यं दृढवादपराक्रमः ॥ १ ॥
दर्शयन्नैन्द्रिरात्मानमुग्रमुग्रपराक्रमः ।
स्मयमानो महातेजाः सृक्किणी परिसंलिहन् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! युधिष्ठिरकी यह बात सुनकर अर्जुन इस प्रकार असहिष्णु हो उठे, मानो उनपर कोई आक्षेप किया गया हो। वे बातचीत करने या पराक्रम दिखानेमें किसीसे दबनेवाले नहीं थे। उनका पराक्रम बड़ा भयंकर था। वे महातेजस्वी इन्द्रकुमार अपने उग्ररूपका परिचय देते और दोनों गलफरोंको चाटते हुए मुसकराकर इस तरह गर्वयुक्त वचन बोलने लगे, जैसे नाटकके रंगमंचपर अभिनय कर रहे हों॥१-२॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो दुःखमहो कृच्छ्रमहो वैक्लव्यमुत्तमम्।
यत् कृत्वामानुषं कर्म त्यजेथाः श्रियमुत्तमाम् ॥ ३ ॥

मूलम्

अहो दुःखमहो कृच्छ्रमहो वैक्लव्यमुत्तमम्।
यत् कृत्वामानुषं कर्म त्यजेथाः श्रियमुत्तमाम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने कहा— राजन्! यह तो बड़े भारी दुःख और महान् कष्टकी बात है। आपकी विह्वलता तो पराकाष्ठाको पहुँच गयी। आश्चर्य है कि आप अलौकिक पराक्रम करके प्राप्त की हुई इस उत्तम राजलक्ष्मीका परित्याग कर रहे हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शत्रून् हत्वा महीं लब्ध्वा स्वधर्मेणोपपादिताम्।
एवंविधं कथं सर्वं त्यजेथा बुद्धिलाघवात् ॥ ४ ॥

मूलम्

शत्रून् हत्वा महीं लब्ध्वा स्वधर्मेणोपपादिताम्।
एवंविधं कथं सर्वं त्यजेथा बुद्धिलाघवात् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने शत्रुओंका संहार करके इस पृथ्वीपर अधिकार प्राप्त किया है। यह राज्यलक्ष्मी आपको अपने धर्मके अनुसार प्राप्त हुई है। इस प्रकार जो यह सब कुछ आपके हाथमें आया है, इसे आप अपनी अल्पबुद्धिके कारण क्यों छोड़ रहे हैं?॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्लीबस्य हि कुतो राज्यं दीर्घसूत्रस्य वा पुनः।
किमर्थं च महीपालानवधीः क्रोधमूर्छितः ॥ ५ ॥

मूलम्

क्लीबस्य हि कुतो राज्यं दीर्घसूत्रस्य वा पुनः।
किमर्थं च महीपालानवधीः क्रोधमूर्छितः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसी कायर या आलसीको कैसे राज्य प्राप्त हो सकता है? यदि आपको यही करना था तो किसलिये क्रोधसे विकल होकर इतने राजाओंका वध किया और कराया?॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो ह्याजिजीविषेद् भैक्ष्यं कर्मणा नैव कस्यचित्।
समारम्भान् बुभूषेत हतस्वस्तिरकिंचनः ।
सर्वलोकेषु विख्यातो न पुत्रपशुसंहितः ॥ ६ ॥

मूलम्

यो ह्याजिजीविषेद् भैक्ष्यं कर्मणा नैव कस्यचित्।
समारम्भान् बुभूषेत हतस्वस्तिरकिंचनः ।
सर्वलोकेषु विख्यातो न पुत्रपशुसंहितः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके कल्याणका साधन नष्ट हो गया है, जो निरा दरिद्र है, जिसकी संसारमें कोई ख्याति नहीं है, जो स्त्री-पुत्र और पशु आदिसे सम्पन्न नहीं है तथा जो असमर्थतावश अपने पराक्रमसे किसीके राज्य या धनको लेनेकी इच्छा नहीं कर सकता, उसी मनुष्यको भीख माँगकर जीवन-निर्वाह करनेकी अभिलाषा रखनी चाहिये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कापालीं नृप पापिष्ठां वृत्तिमासाद्य जीवतः।
संत्यज्य राज्यमृद्धं ते लोकोऽयं किं वदिष्यति ॥ ७ ॥

मूलम्

कापालीं नृप पापिष्ठां वृत्तिमासाद्य जीवतः।
संत्यज्य राज्यमृद्धं ते लोकोऽयं किं वदिष्यति ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! जब आप यह समृद्धिशाली राज्य छोड़कर हाथमें खपड़ा लिये घर-घर भीख माँगनेकी नीचातिनीच वृत्तिका आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करने लगेंगे, तब लोग आपको क्या कहेंगे?॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वारम्भान् समुत्सृज्य हतस्वस्तिरकिंचनः ।
कस्मादाशंससे भैक्ष्यं कर्तुं प्राकृतवत् प्रभो ॥ ८ ॥

मूलम्

सर्वारम्भान् समुत्सृज्य हतस्वस्तिरकिंचनः ।
कस्मादाशंससे भैक्ष्यं कर्तुं प्राकृतवत् प्रभो ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आप सारे उद्योग छोड़कर कल्याणके साधनोंसे हीन और अकिंचन हुए साधारण पुरुषोंके समान भीख माँगनेकी इच्छा क्यों करते हैं?॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन् राजकुले जातो जित्वा कृत्स्नां वसुंधराम्।
धर्मार्थावखिलौ हित्वा वनं मौढ्यात् प्रतिष्ठसे ॥ ९ ॥

मूलम्

अस्मिन् राजकुले जातो जित्वा कृत्स्नां वसुंधराम्।
धर्मार्थावखिलौ हित्वा वनं मौढ्यात् प्रतिष्ठसे ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस राजकुलमें जन्म लेकर सारे भूमण्डलपर विजय प्राप्त करके अब सम्पूर्ण धर्म और अर्थ दोनोंको छोड़कर आप मोहके कारण ही वनमें जानेको उद्यत हुए हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदीमानि हवींषीह विमथिष्यन्त्यसाधवः ।
भवता विप्रहीणानि प्राप्तं त्वामेव किल्बिषम् ॥ १० ॥

मूलम्

यदीमानि हवींषीह विमथिष्यन्त्यसाधवः ।
भवता विप्रहीणानि प्राप्तं त्वामेव किल्बिषम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि आपके त्याग देनेपर यज्ञकी इन संचित सामग्रियोंको दुष्ट लोग नष्ट कर देंगे तो इसका पाप आपको ही लगेगा (अर्थात् आपने यज्ञ-याग छोड़ दिये हैं, अतः आपको आदर्श मानकर दूसरे लोग भी इस कर्मसे उदासीन हो जायँगे, उस दशामें इस धर्मकृत्यका उच्छेद हो जायगा और इसका दोष आपके सिर ही लगेगा)॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकिंचन्यं मुनीनां च इति वै नहुषोऽब्रवीत्।
कृत्वा नृशंसं ह्यधने धिगस्त्वधनतामिह ॥ ११ ॥

मूलम्

आकिंचन्यं मुनीनां च इति वै नहुषोऽब्रवीत्।
कृत्वा नृशंसं ह्यधने धिगस्त्वधनतामिह ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा नहुषने निर्धनावस्थामें क्रूरतापूर्ण कर्म करके यह दुःखपूर्ण उद्‌गार प्रकट किया था कि ‘इस जगत्‌में निर्धनताको धिक्कार है! सर्वस्व त्यागकर निर्धन या अकिंचन हो जाना यह मुनियोंका ही धर्म है, राजाओंका नहीं’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वस्तनमृषीणां हि विद्यते वेद तद् भवान्।
यं त्विमं धर्ममित्याहुर्धनादेष प्रवर्तते ॥ १२ ॥

मूलम्

अश्वस्तनमृषीणां हि विद्यते वेद तद् भवान्।
यं त्विमं धर्ममित्याहुर्धनादेष प्रवर्तते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप भी इस बातको अच्छी तरह जानते हैं कि दूसरे दिनके लिये संग्रह न करके प्रतिदिन माँगकर खाना यह ऋषि-मुनियोंका ही धर्म है। जिसे राजाओंका धर्म कहा गया है, वह तो धनसे ही सम्पन्न होता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मं संहरते तस्य धनं हरति यस्य सः।
ह्रियमाणे धने राजन् वयं कस्य क्षमेमहि ॥ १३ ॥

मूलम्

धर्मं संहरते तस्य धनं हरति यस्य सः।
ह्रियमाणे धने राजन् वयं कस्य क्षमेमहि ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो मनुष्य जिसका धन हर लेता है, वह उसके धर्मका भी संहार कर देता है। यदि हमारे धनका अपहरण होने लगे तो हम किसको और कैसे क्षमा कर सकते हैं?॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिशस्तं प्रपश्यन्ति दरिद्रं पार्श्वतः स्थितम्।
दरिद्रं पातकं लोके न तच्छंसितुमर्हति ॥ १४ ॥

मूलम्

अभिशस्तं प्रपश्यन्ति दरिद्रं पार्श्वतः स्थितम्।
दरिद्रं पातकं लोके न तच्छंसितुमर्हति ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दरिद्र मनुष्य पासमें खड़ा हो तो लोग इस तरह उसकी ओर देखते हैं, मानो वह कोई पापी या कलंकित हो; अतः दरिद्रता इस जगत्‌में एक पातक है। आप मेरे आगे उसकी प्रशंसा न करें॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतितः शोच्यते राजन् निर्धनश्चापि शोच्यते।
विशेषं नाधिगच्छामि पतितस्याधनस्य च ॥ १५ ॥

मूलम्

पतितः शोच्यते राजन् निर्धनश्चापि शोच्यते।
विशेषं नाधिगच्छामि पतितस्याधनस्य च ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जैसे पतित मनुष्य शोचनीय होता है, वैसे ही निर्धन भी होता है; मुझे पतित और निर्धनमें कोई अन्तर नहीं जान पड़ता॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थेभ्यो हि विवृद्धेभ्यः सम्भृतेभ्यस्ततस्ततः।
क्रियाः सर्वाः प्रवर्तन्ते पर्वतेभ्य इवापगाः ॥ १६ ॥

मूलम्

अर्थेभ्यो हि विवृद्धेभ्यः सम्भृतेभ्यस्ततस्ततः।
क्रियाः सर्वाः प्रवर्तन्ते पर्वतेभ्य इवापगाः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे पर्वतोंसे बहुत-सी नदियाँ बहती रहती हैं, उसी प्रकार बढ़े हुए संचित धनसे सब प्रकारके शुभ कर्मोंका अनुष्ठान होता रहता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थाद् धर्मश्च कामश्च स्वर्गश्चैव नराधिप।
प्राणयात्रापि लोकस्य विना ह्यर्थं न सिद्ध्यति ॥ १७ ॥

मूलम्

अर्थाद् धर्मश्च कामश्च स्वर्गश्चैव नराधिप।
प्राणयात्रापि लोकस्य विना ह्यर्थं न सिद्ध्यति ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! धनसे ही धर्म, काम और स्वर्गकी सिद्धि होती है। लोगोंके जीवनका निर्वाह भी बिना धनके नहीं होता॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थेन हि विहीनस्य पुरुषस्याल्पमेधसः।
विच्छिद्यन्ते क्रियाः सर्वा ग्रीष्मे कुसरितो यथा ॥ १८ ॥

मूलम्

अर्थेन हि विहीनस्य पुरुषस्याल्पमेधसः।
विच्छिद्यन्ते क्रियाः सर्वा ग्रीष्मे कुसरितो यथा ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे गर्मीमें छोटी-छोटी नदियाँ सूख जाती हैं, उसी प्रकार धनहीन हुए मन्दबुद्धि मनुष्यकी सारी क्रियाएँ छिन्न-भिन्न हो जाती हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः।
यस्यार्थाः स पुमाल्ँलोके यस्यार्थाः स च पण्डितः ॥ १९ ॥

मूलम्

यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः।
यस्यार्थाः स पुमाल्ँलोके यस्यार्थाः स च पण्डितः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके पास धन होता है, उसीके बहुत-से मित्र होते हैं; जिसके पास धन है, उसीके भाई-बन्धु हैं; संसारमें जिसके पास धन है, वही पुरुष कहलाता है और जिसके पास धन है, वही पण्डित माना जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधनेनार्थकामेन नार्थः शक्यो विधित्सितुम्।
अर्थैरर्था निबध्यन्ते गजैरिव महागजाः ॥ २० ॥

मूलम्

अधनेनार्थकामेन नार्थः शक्यो विधित्सितुम्।
अर्थैरर्था निबध्यन्ते गजैरिव महागजाः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निर्धन मनुष्य यदि धन चाहता है तो उसके लिये धनकी व्यवस्था असम्भव हो जाती है (परंतु धनीका धन बढ़ता रहता है), जैसे जंगलमें एक हाथीके पीछे बहुत-से हाथी चले आते हैं उसी प्रकार धनसे ही धन बँधा चला आता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मः कामश्च स्वर्गश्च हर्षः क्रोधः श्रुतं दमः।
अर्थादेतानि सर्वाणि प्रवर्तन्ते नराधिप ॥ २१ ॥

मूलम्

धर्मः कामश्च स्वर्गश्च हर्षः क्रोधः श्रुतं दमः।
अर्थादेतानि सर्वाणि प्रवर्तन्ते नराधिप ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! धनसे धर्मका पालन, कामनाकी पूर्ति, स्वर्गकी प्राप्ति, हर्षकी वृद्धि, क्रोधकी सफलता, शास्त्रोंका श्रवण और अध्ययन तथा शत्रुओंका दमन—ये सभी कार्य सिद्ध होते हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनात् कुलं प्रभवति धनाद् धर्मः प्रवर्धते।
नाधनस्यास्त्ययं लोको न परः पुरुषोत्तम ॥ २२ ॥

मूलम्

धनात् कुलं प्रभवति धनाद् धर्मः प्रवर्धते।
नाधनस्यास्त्ययं लोको न परः पुरुषोत्तम ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धनसे कुलकी प्रतिष्ठा बढ़ती है और धनसे ही धर्मकी वृद्धि होती है। पुरुषप्रवर! निर्धनके लिये तो न यह लोक सुखदायक होता है, न परलोक॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाधनो धर्मकृत्यानि यथावदनुतिष्ठति ।
धनाद्धि धर्मः स्रवति शैलादभि नदी यथा ॥ २३ ॥

मूलम्

नाधनो धर्मकृत्यानि यथावदनुतिष्ठति ।
धनाद्धि धर्मः स्रवति शैलादभि नदी यथा ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निर्धन मनुष्य धार्मिक कृत्योंका अच्छी तरह अनुष्ठान नहीं कर सकता। जैसे पर्वतसे नदी झरती रहती है, उसी प्रकार धनसे ही धर्मका स्रोत बहता रहता है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः कृशार्थः कृशगवः कृशभृत्यः कृशातिथिः।
स वै राजन् कृशो नाम न शरीरकृशः कृशः॥२४॥

मूलम्

यः कृशार्थः कृशगवः कृशभृत्यः कृशातिथिः।
स वै राजन् कृशो नाम न शरीरकृशः कृशः॥२४॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जिसके पास धनकी कमी है, गौएँ और सेवक भी कम हैं तथा जिसके यहाँ अतिथियोंका आना-जाना भी बहुत कम हो गया है, वास्तवमें वही कृश (दुर्बल) कहलाने योग्य है। जो केवल शरीरसे कृश है, उसे कृश नहीं कहा जा सकता॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवेक्षस्व यथान्यायं पश्य देवासुरं यथा।
राजन् किमन्यज्जातीनां वधाद् गृद्ध्यन्ति देवताः ॥ २५ ॥

मूलम्

अवेक्षस्व यथान्यायं पश्य देवासुरं यथा।
राजन् किमन्यज्जातीनां वधाद् गृद्ध्यन्ति देवताः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप न्यायके अनुसार विचार कीजिये और देवताओं तथा असुरोंके बर्तावपर दृष्टि डालिये। राजन्! देवता अपने जाति-भाइयोंका वध करनेके सिवा और क्या चाहते हैं (एक पिताकी संतान होनेके कारण देवता और असुर परस्पर भाई-भाई ही तो हैं)॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चेद्धर्तव्यमन्यस्य कथं तद्धर्ममारभेत्।
एतावानेव वेदेषु निश्चयः कविभिः कृतः ॥ २६ ॥
अध्येतव्या त्रयी नित्यं भवितव्यं विपश्चिता।
सर्वथा धनमाहार्यं यष्टव्यं चापि यत्नतः ॥ २७ ॥

मूलम्

न चेद्धर्तव्यमन्यस्य कथं तद्धर्ममारभेत्।
एतावानेव वेदेषु निश्चयः कविभिः कृतः ॥ २६ ॥
अध्येतव्या त्रयी नित्यं भवितव्यं विपश्चिता।
सर्वथा धनमाहार्यं यष्टव्यं चापि यत्नतः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि राजाके लिये दूसरेके धनका अपहरण करना उचित नहीं है, तो वह धर्मका अनुष्ठान कैसे कर सकता है? वेदशास्त्रोंमें भी विद्वानोंने राजाके लिये यही निर्णय दिया है कि ‘राजा प्रतिदिन वेदोंका स्वाध्याय करे, विद्वान् बने, सब प्रकारसे संग्रह करके धन ले आवे और यत्नपूर्वक यज्ञका अनुष्ठान करे’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोहाद् देवैरवाप्तानि दिवि स्थानानि सर्वशः।
द्रोहात् किमन्यज्ज्ञातीनां गृद्ध्यन्ते येन देवताः ॥ २८ ॥

मूलम्

द्रोहाद् देवैरवाप्तानि दिवि स्थानानि सर्वशः।
द्रोहात् किमन्यज्ज्ञातीनां गृद्ध्यन्ते येन देवताः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जाति-भाइयोंसे द्रोह करके ही देवताओंने स्वर्ग-लोकके सभी स्थानोंपर अधिकार प्राप्त कर लिया है। देवता जिससे धन या राज्य पाना चाहते हैं, वह ज्ञातिद्रोहके सिवा और क्या है?॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति देवा व्यवसिता वेदवादाश्च शाश्वताः।
अधीयतेऽध्यापयन्ते यजन्ते याजयन्ति च ॥ २९ ॥
कृत्स्नं तदेव तच्छ्रेयो यदप्याददतेऽन्यतः।
न पश्यामोऽनपकृतं धनं किंचित् क्वचिद् वयम् ॥ ३० ॥

मूलम्

इति देवा व्यवसिता वेदवादाश्च शाश्वताः।
अधीयतेऽध्यापयन्ते यजन्ते याजयन्ति च ॥ २९ ॥
कृत्स्नं तदेव तच्छ्रेयो यदप्याददतेऽन्यतः।
न पश्यामोऽनपकृतं धनं किंचित् क्वचिद् वयम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यही देवताओंका निश्चय है और यही वेदोंका सनातन सिद्धान्त है। धनसे ही द्विज वेद-शास्त्रोंको पढ़ते और पढ़ाते हैं, धनके द्वारा ही यज्ञ करते और कराते हैं तथा राजा-लोग दूसरोंको युद्धमें जीतकर जो उनका धन ले आते हैं, उसीसे वे सम्पूर्ण शुभ कर्मोंका अनुष्ठान करते हैं। किसी भी राजाके पास हम कोई भी ऐसा धन नहीं देखते हैं, जो दूसरोंका अपकार करके न लाया गया हो॥२९-३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेव हि राजानो जयन्ति पृथिवीमिमाम्।
जित्वा ममेयं ब्रुवते पुत्रा इव पितुर्धनम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

एवमेव हि राजानो जयन्ति पृथिवीमिमाम्।
जित्वा ममेयं ब्रुवते पुत्रा इव पितुर्धनम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार सभी राजा इस पृथ्वीको जीतते हैं और जीतकर कहने लगते हैं कि ‘यह मेरी है’। ठीक वैसे ही जैसे पुत्र पिताके धनको अपना बताते हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजर्षयोऽपि ते स्वर्ग्या धर्मो ह्येषां निरुच्यते।
यथैव पूर्णादुदधेः स्यन्दन्त्यापो दिशो दश ॥ ३२ ॥
एवं राजकुलाद् वित्तं पृथिवीं प्रति तिष्ठति।

मूलम्

राजर्षयोऽपि ते स्वर्ग्या धर्मो ह्येषां निरुच्यते।
यथैव पूर्णादुदधेः स्यन्दन्त्यापो दिशो दश ॥ ३२ ॥
एवं राजकुलाद् वित्तं पृथिवीं प्रति तिष्ठति।

अनुवाद (हिन्दी)

प्राचीनकालमें जो राजर्षि हो गये हैं, जो कि इस समय स्वर्गमें निवास करते हैं, उनके मतमें भी राज-धर्मकी ऐसी ही व्याख्या की गयी है जैसे भरे हुए महासागरसे मेघके रूपमें उठा हुआ जल सम्पूर्ण दिशाओंमें बरस जाता है, उसी प्रकार धन राजाओंके यहाँसे निकलकर सम्पूर्ण पृथ्वीमें फैल जाता है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसीदियं दिलीपस्य नृगस्य नहुषस्य च ॥ ३३ ॥
अम्बरीषस्य मान्धातुः पृथिवी सा त्वयि स्थिता।
स त्वां द्रव्यमयो यज्ञः सम्प्राप्तः सर्वदक्षिणः ॥ ३४ ॥

मूलम्

आसीदियं दिलीपस्य नृगस्य नहुषस्य च ॥ ३३ ॥
अम्बरीषस्य मान्धातुः पृथिवी सा त्वयि स्थिता।
स त्वां द्रव्यमयो यज्ञः सम्प्राप्तः सर्वदक्षिणः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले यह पृथ्वी बारी-बारीसे राजा दिलीप, नृग, नहुष, अम्बरीष और मान्धाताके अधिकारमें रही है, वही इस समय आपके अधीन हो गयी है। अतः आपके समक्ष सर्वस्वकी दक्षिणा देकर द्रव्यमय यज्ञके अनुष्ठान करनेका अवसर प्राप्त हुआ है॥३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं चेन्न यजसे राजन् प्राप्तस्त्वं राज्यकिल्बिषम्।
येषां राजाश्वमेधेन यजते दक्षिणावता ॥ ३५ ॥
उपेत्य तस्यावभृथे पूताः सर्वे भवन्ति ते।

मूलम्

तं चेन्न यजसे राजन् प्राप्तस्त्वं राज्यकिल्बिषम्।
येषां राजाश्वमेधेन यजते दक्षिणावता ॥ ३५ ॥
उपेत्य तस्यावभृथे पूताः सर्वे भवन्ति ते।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! यदि आप यज्ञ नहीं करेंगे तो आपको सारे राज्यका पाप लगेगा। जिन देशोंके राजा दक्षिणायुक्त अश्वमेध यज्ञके द्वारा भगवान्‌का यजन करते हैं, उनके यज्ञकी समाप्तिपर उन देशोंके सभी लोग वहाँ आकर अवभृथस्नान करके पवित्र होते हैं॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वरूपो महादेवः सर्वमेधे महामखे।
जुहाव सर्वभूतानि तथैवात्मानमात्मना ॥ ३६ ॥

मूलम्

विश्वरूपो महादेवः सर्वमेधे महामखे।
जुहाव सर्वभूतानि तथैवात्मानमात्मना ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण विश्व जिनका स्वरूप है, उन महादेवजीने सर्वमेध नामक महायज्ञमें सम्पूर्ण भूतोंकी तथा स्वयं अपनी भी आहुति दे दी थी॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शाश्वतोऽयं भूतिपथो नास्यान्तमनुशुश्रुम ।
महान् दाशरथः पन्था मा राजन् कुपथं गमः ॥ ३७ ॥

मूलम्

शाश्वतोऽयं भूतिपथो नास्यान्तमनुशुश्रुम ।
महान् दाशरथः पन्था मा राजन् कुपथं गमः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह क्षत्रियोंके लिये कल्याणका सनातन मार्ग है। इसका कभी अन्त नहीं सुना गया है। राजन्! यह वह महान् मार्ग है, जिसपर दस रथ चलते हैं, आप किसी कुत्सित मार्गका आश्रय न लें॥३७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि अर्जुनवाक्ये अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें अर्जुनवाक्यविषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८॥