००७ युधिष्ठिरपरिदेवनम्

भागसूचना

सप्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरका अर्जुनसे आन्तरिक खेद प्रकट करते हुए अपने लिये राज्य छोड़कर वनमें चले जानेका प्रस्ताव करना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरस्तु धर्मात्मा शोकव्याकुलचेतनः ।
शुशोच दुःखसंतप्तः स्मृत्वा कर्णं महारथम् ॥ १ ॥

मूलम्

युधिष्ठिरस्तु धर्मात्मा शोकव्याकुलचेतनः ।
शुशोच दुःखसंतप्तः स्मृत्वा कर्णं महारथम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! धर्मात्मा राजा युधिष्ठिरका चित्त शोकसे व्याकुल हो उठा था। वे महारथी कर्णको याद करके दुःखसे संतप्त हो शोकमें डूब गये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आविष्टो दुःखशोकाभ्यां निःश्वसंश्च पुनः पुनः।
दृष्ट्वार्जुनमुवाचेदं वचनं शोककर्शितः ॥ २ ॥

मूलम्

आविष्टो दुःखशोकाभ्यां निःश्वसंश्च पुनः पुनः।
दृष्ट्वार्जुनमुवाचेदं वचनं शोककर्शितः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुःख और शोकसे आविष्ट हो वे बारंबार लंबी साँस खींचने लगे और अर्जुनको देखकर शोकसे पीड़ित हो इस प्रकार बोले॥२॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्भैक्ष्यमाचरिष्याम वृष्ण्यन्धकपुरे वयम् ।
ज्ञातीन्‌ निष्पुरुषान्‌ कृत्वा नेमां प्राप्स्याम दुर्गतिम् ॥ ३ ॥

मूलम्

यद्भैक्ष्यमाचरिष्याम वृष्ण्यन्धकपुरे वयम् ।
ज्ञातीन्‌ निष्पुरुषान्‌ कृत्वा नेमां प्राप्स्याम दुर्गतिम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— अर्जुन! यदि हमलोग वृष्णिवंशी तथा अन्धकवंशी क्षत्रियोंकी नगरी द्वारकामें जाकर भीख माँगते हुए अपना जीवन-निर्वाह कर लेते तो आज अपने कुटुम्बको निर्वंश करके हम इस दुर्दशाको प्राप्त नहीं होते॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमित्रा नः समृद्धार्था वृत्तार्थाः कुरवः किल।
आत्मानमात्मना हत्वा किं धर्मफलमाप्नुमः ॥ ४ ॥

मूलम्

अमित्रा नः समृद्धार्था वृत्तार्थाः कुरवः किल।
आत्मानमात्मना हत्वा किं धर्मफलमाप्नुमः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमारे शत्रुओंका मनोरथ पूर्ण हुआ (क्योंकि वे हमारे कुलका विनाश देखकर प्रसन्न होंगे)। कौरवोंका प्रयोजन तो उनके जीवनके साथ ही समाप्त हो गया। आत्मीय जनोंको मारकर स्वयं ही अपनी हत्या करके हम कौन-सा धर्मका फल प्राप्त करेंगे?॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धिगस्तु क्षात्रमाचारं धिगस्तु बलपौरुषम्।
धिगस्त्वमर्षं येनेमामापदं गमिता वयम् ॥ ५ ॥

मूलम्

धिगस्तु क्षात्रमाचारं धिगस्तु बलपौरुषम्।
धिगस्त्वमर्षं येनेमामापदं गमिता वयम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षत्रियोंके आचार, बल, पुरुषार्थ और अमर्षको धिक्कार है! जिनके कारण हम ऐसी विपत्तिमें पड़ गये॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधु क्षमा दमः शौचं वैराग्यं चाप्यमत्सरः।
अहिंसा सत्यवचनं नित्यानि वनचारिणाम् ॥ ६ ॥

मूलम्

साधु क्षमा दमः शौचं वैराग्यं चाप्यमत्सरः।
अहिंसा सत्यवचनं नित्यानि वनचारिणाम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षमा, मन और इन्द्रियोंका संयम, बाहर-भीतरकी शुद्धि, वैराग्य, ईर्ष्याका अभाव, अहिंसा और सत्यभाषण—ये वनवासियोंके नित्य धर्म ही श्रेष्ठ हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयं तु लोभान्मोहाच्च दम्भं मानं च संश्रिताः।
इमामवस्थां सम्प्राप्ता राज्यलाभबुभुत्सया ॥ ७ ॥

मूलम्

वयं तु लोभान्मोहाच्च दम्भं मानं च संश्रिताः।
इमामवस्थां सम्प्राप्ता राज्यलाभबुभुत्सया ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमलोग तो लोभ और मोहके कारण राज्यलाभके सुखका अनुभव करनेकी इच्छासे दम्भ और अभिमानका आश्रय लेकर इस दुर्दशामें फँस गये हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रैलोक्यस्यापि राज्येन नास्मान् कश्चित् प्रहर्षयेत्।
बान्धवान्‌ निहतान्‌ दृष्ट्वा पृथिव्यां विजयैषिणः ॥ ८ ॥

मूलम्

त्रैलोक्यस्यापि राज्येन नास्मान् कश्चित् प्रहर्षयेत्।
बान्धवान्‌ निहतान्‌ दृष्ट्वा पृथिव्यां विजयैषिणः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब हमने पृथ्वीपर विजयकी इच्छा रखनेवाले अपने बन्धु-बान्धवोंको मारा गया देख लिया, तब हमें इस समय तीनों लोकोंका राज्य देकर भी कोई प्रसन्न नहीं कर सकता॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वयं पृथिवीहेतोरवध्यान् पृथिवीश्वरान्।
सम्परित्यज्य जीवामो हीनार्था हतबान्धवाः ॥ १ ॥

मूलम्

ते वयं पृथिवीहेतोरवध्यान् पृथिवीश्वरान्।
सम्परित्यज्य जीवामो हीनार्था हतबान्धवाः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाय! हमलोगोंने इस तुच्छ पृथ्वीके लिये अवध्य राजाओंकी भी हत्या की और अब उन्हें छोड़कर बन्धु-बान्धवोंसे हीन हो अर्थ-भ्रष्टकी भाँति जीवन व्यतीत कर रहे हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आमिषे गृध्यमानानामशुभं वै शुनामिव।
आमिषं चैव नो हीष्टमामिषस्य विवर्जनम् ॥ १० ॥

मूलम्

आमिषे गृध्यमानानामशुभं वै शुनामिव।
आमिषं चैव नो हीष्टमामिषस्य विवर्जनम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मांसके लोभी कुत्तोंको अशुभकी प्राप्ति होती है, उसी प्रकार राज्यमें आसक्त हुए हमलोगोंको भी अनिष्ट प्राप्त हुआ है। अतः हमारे लिये मांस-तुल्य राज्यको पाना अभीष्ट नहीं है, उसका परित्याग ही अभीष्ट होना चाहिये॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न पृथिव्या सकलया न सुवर्णस्य राशिभिः।
न गवाश्वेन सर्वेण ते त्याज्या य इमे हताः॥११॥

मूलम्

न पृथिव्या सकलया न सुवर्णस्य राशिभिः।
न गवाश्वेन सर्वेण ते त्याज्या य इमे हताः॥११॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये जो हमारे सगे-सम्बन्धी मारे गये हैं, इनका परित्याग तो हमें समस्त पृथ्वी, राशि-राशि सुवर्ण और समूचे गाय-घोड़े पाकर भी नहीं करना चाहिये था॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काममन्युपरीतास्ते क्रोधहर्षसमन्विताः ।
मृत्युयानं समारुह्य गता वैवस्वतक्षयम् ॥ १२ ॥

मूलम्

काममन्युपरीतास्ते क्रोधहर्षसमन्विताः ।
मृत्युयानं समारुह्य गता वैवस्वतक्षयम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे काम और क्रोधके वशीभूत थे, हर्ष और रोषसे भरे हुए थे, अतः मृत्युरूपी रथपर सवार हो यमलोकमें चले गये॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुकल्याणसंयुक्तानिच्छन्ति पितरः सुतान् ।
तपसा ब्रह्मचर्येण सत्येन च तितिक्षया ॥ १३ ॥

मूलम्

बहुकल्याणसंयुक्तानिच्छन्ति पितरः सुतान् ।
तपसा ब्रह्मचर्येण सत्येन च तितिक्षया ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी पिता तपस्या, ब्रह्मचर्य-पालन, सत्यभाषण तथा तितिक्षा आदि साधनोंद्वारा अनेक कल्याणमय गुणोंसे युक्त बहुत-से पुत्र पाना चाहते हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपवासैस्तथेज्याभिर्व्रतकौतुकमङ्गलैः ।
लभन्ते मातरो गर्भान् मासान् दश च बिभ्रति ॥ १४ ॥
यदि स्वस्ति प्रजायन्ते जाता जीवन्ति वा यदि।
सम्भाविता जातबलास्ते दद्युर्यदि नः सुखम् ॥ १५ ॥
इह चामुत्र चैवेति कृपणाः फलहेतवः।

मूलम्

उपवासैस्तथेज्याभिर्व्रतकौतुकमङ्गलैः ।
लभन्ते मातरो गर्भान् मासान् दश च बिभ्रति ॥ १४ ॥
यदि स्वस्ति प्रजायन्ते जाता जीवन्ति वा यदि।
सम्भाविता जातबलास्ते दद्युर्यदि नः सुखम् ॥ १५ ॥
इह चामुत्र चैवेति कृपणाः फलहेतवः।

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार सभी माताएँ उपवास, यज्ञ, व्रत, कौतुक और मंगलमय कृत्योंद्वारा उत्तम पुत्रकी इच्छा रखकर दस महीनोंतक अपने गर्भोंका भरण-पोषण करती हैं। उन सबका यही उद्देश्य होता है कि यदि कुशलपूर्वक बच्चे पैदा होंगे, पैदा होनेपर यदि जीवित रहेंगे तथा बलवान् होकर यदि अच्छे गुणोंसे सम्पन्न होंगे तो हमें इहलोक और परलोकमें सुख देंगे। इस प्रकार वे दीन माताएँ फलकी आकांक्षा रखती हैं॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तासामयं समुद्योगो निर्वृत्तः केवलोऽफलः ॥ १६ ॥
यदासां निहताः पुत्रा युवानो मृष्टकुण्डलाः।
अभुक्त्वा पार्थिवान् भोगानृणान्यनपहाय च ॥ १७ ॥
पितृभ्यो देवताभ्यश्च गता वैवस्वतक्षयम् ॥ १८ ॥

मूलम्

तासामयं समुद्योगो निर्वृत्तः केवलोऽफलः ॥ १६ ॥
यदासां निहताः पुत्रा युवानो मृष्टकुण्डलाः।
अभुक्त्वा पार्थिवान् भोगानृणान्यनपहाय च ॥ १७ ॥
पितृभ्यो देवताभ्यश्च गता वैवस्वतक्षयम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु उनका यह उद्योग सर्वथा निष्फल हो गया; क्योंकि हमलोगोंने उन सब माताओंके नवयुवक पुत्रोंको, जो विशुद्ध सुवर्णमय कुण्डलोंसे अलंकृत थे, मार डाला है। वे इस भूलोकके भोगोंके उपभोगका अवसर न पाकर देवताओं और पितरोंका ऋण उतारे बिना ही यमलोकमें चले गये॥१६—१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदैषामम्ब पितरौ जातकामावुभावपि ।
संजातधनरत्नेषु तदैव निहता नृपाः ॥ १९ ॥

मूलम्

यदैषामम्ब पितरौ जातकामावुभावपि ।
संजातधनरत्नेषु तदैव निहता नृपाः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माँ! इन राजाओंके माता-पिता जब इनके द्वारा उपार्जित धन और रत्न आदिके उपभोगकी आशा करने लगे, तभी ये मारे गये॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संयुक्ताः काममन्युभ्यां क्रोधहर्षासमञ्जसाः ।
न ते जयफलं किंचिद् भोक्तारो जातु कर्हिचित् ॥ २० ॥

मूलम्

संयुक्ताः काममन्युभ्यां क्रोधहर्षासमञ्जसाः ।
न ते जयफलं किंचिद् भोक्तारो जातु कर्हिचित् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग कामना और खीझसे युक्त हो क्रोध और हर्षके कारण अपना संतुलन खो बैठते हैं, वे कभी कहीं किंचिन्‌मात्र भी विजयका फल नहीं भोग सकते॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्चालानां कुरूणां च हता एव हि ये हताः।
न चेत् सर्वानयं लोकः पश्येत् स्वेनैव कर्मणा ॥ २१ ॥

मूलम्

पञ्चालानां कुरूणां च हता एव हि ये हताः।
न चेत् सर्वानयं लोकः पश्येत् स्वेनैव कर्मणा ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पांचालों और कौरवोंके जो वीर मारे गये, वे तो मर ही गये; नहीं तो आज यह संसार देखता कि वे सब अपने ही पुरुषार्थसे कैसी ऊँची स्थितिमें पहुँच गये हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयमेवास्य लोकस्य विनाशे कारणं स्मृताः।
धृतराष्ट्रस्य पुत्रेषु तत् सर्वं प्रतिपत्स्यति ॥ २२ ॥

मूलम्

वयमेवास्य लोकस्य विनाशे कारणं स्मृताः।
धृतराष्ट्रस्य पुत्रेषु तत् सर्वं प्रतिपत्स्यति ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमलोग ही इस जगत्‌के विनाशमें कारण माने गये हैं; परंतु इसका सारा उत्तरदायित्व धृतराष्ट्रके पुत्रोंपर ही पड़ेगा॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदैव निकृतिप्रज्ञो द्वेष्टा मायोपजीवनः।
मिथ्याविनीतः सततमस्मास्वनपकारिषु ॥ २३ ॥

मूलम्

सदैव निकृतिप्रज्ञो द्वेष्टा मायोपजीवनः।
मिथ्याविनीतः सततमस्मास्वनपकारिषु ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमलोगोंने कभी कोई बुराई नहीं की थी तो भी राजा धृतराष्ट्र सदा हमसे द्वेष रखते थे। उनकी बुद्धि निरन्तर हमें ठगनेकी ही बात सोचा करती थी। वे मायाका आश्रय लेनेवाले थे और झूठे ही विनय अथवा नम्रता दिखाया करते थे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न सकामा वयं ते च न चास्माभिर्न तैर्जितम्।
न तैर्भुक्तेयमवनिर्न नार्यो गीतवादितम् ॥ २४ ॥

मूलम्

न सकामा वयं ते च न चास्माभिर्न तैर्जितम्।
न तैर्भुक्तेयमवनिर्न नार्यो गीतवादितम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस युद्धसे न तो हमारी कामना सफल हुई और न वे कौरव ही सफलमनोरथ हुए। न हमारी जीत हुई, न उनकी। उन्होंने न तो इस पृथ्वीका उपभोग किया, न स्त्रियोंका सुख देखा और न गीतवाद्यका ही आनन्द लिया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामात्यसुहृदां वाक्यं न च श्रुतवतां श्रुतम्।
न रत्नानि परार्घ्यानि न भूर्न द्रविणागमः ॥ २५ ॥

मूलम्

नामात्यसुहृदां वाक्यं न च श्रुतवतां श्रुतम्।
न रत्नानि परार्घ्यानि न भूर्न द्रविणागमः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्त्रियों, सुहृदों तथा वेद-शास्त्रोंके ज्ञाता विद्वानोंकी भी बातें वे नहीं सुन सके। बहुमूल्य रत्न, पृथ्वीके राज्य तथा धनकी आयका भी सुख भोगनेका उन्हें अवसर नहीं मिला॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मद्‌द्वेषेण संतप्तः सुखं न स्मेह विन्दति।
ऋद्धिमस्मासु तां दृष्ट्वा विवर्णो हरिणः कृशः ॥ २६ ॥

मूलम्

अस्मद्‌द्वेषेण संतप्तः सुखं न स्मेह विन्दति।
ऋद्धिमस्मासु तां दृष्ट्वा विवर्णो हरिणः कृशः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन हमसे द्वेष रखनेके कारण सदा संतप्त रहकर कभी यहाँ सुख नहीं पाता था। हमलोगोंके पास वैसी समृद्धि देखकर उसकी कान्ति फीकी पड़ गयी थी। वह चिन्तासे सूखकर पीला और दुर्बल हो गया था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृतराष्ट्रश्च नृपतिः सौबलेन निवेदितः।
तं पिता पुत्रगृद्धित्वादनुमेनेऽनये स्थितः ॥ २७ ॥
अनपेक्ष्यैव पितरं गाङ्गेयं विदुरं तथा।

मूलम्

धृतराष्ट्रश्च नृपतिः सौबलेन निवेदितः।
तं पिता पुत्रगृद्धित्वादनुमेनेऽनये स्थितः ॥ २७ ॥
अनपेक्ष्यैव पितरं गाङ्गेयं विदुरं तथा।

अनुवाद (हिन्दी)

सुबलपुत्र शकुनिने राजा धृतराष्ट्रको दुर्योधनकी यह अवस्था सूचित की। पुत्रके प्रति अधिक आसक्त होनेके कारण पिता धृतराष्ट्रने अन्यायमें स्थित हो उसकी इच्छाका अनुमोदन किया। इस विषयमें उन्होंने अपने पिता (ताऊ) गंगानन्दन भीष्म तथा भाई विदुरसे राय लेनेकी भी इच्छा नहीं की॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असंशयं क्षयं राजा यथैवाहं तथा गतः ॥ २८ ॥

मूलम्

असंशयं क्षयं राजा यथैवाहं तथा गतः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी इसी दुर्नीतिके कारण निःसंदेह राजा धृतराष्ट्रको भी वैसा ही विनाश प्राप्त हुआ है, जैसा कि मुझे॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनियम्याशुचिं लुब्धं पुत्रं कामवशानुगम्।
यशसः पतितो दीप्ताद् घातयित्वा सहोदरान् ॥ २९ ॥

मूलम्

अनियम्याशुचिं लुब्धं पुत्रं कामवशानुगम्।
यशसः पतितो दीप्ताद् घातयित्वा सहोदरान् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अपने अपवित्र आचार-विचारवाले, लोभी एवं कामासक्त पुत्रको काबूमें न रखनेके कारण उसका तथा उसके सहोदर भाइयोंका वध करवाकर स्वयं भी उज्ज्वल यशसे भ्रष्ट हो गये॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमौ हि वृद्धौ शोकाग्नौ प्रक्षिप्य स सुयोधनः।
अस्मत्प्रद्वेषसंयुक्तः पापबुद्धिः सदैव ह ॥ ३० ॥

मूलम्

इमौ हि वृद्धौ शोकाग्नौ प्रक्षिप्य स सुयोधनः।
अस्मत्प्रद्वेषसंयुक्तः पापबुद्धिः सदैव ह ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमलोगोंके प्रति सदा द्वेष रखनेवाला पापबुद्धि दुर्योधन इन दोनों वृद्धोंको शोककी आगमें झोंककर चला गया॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

को हि बन्धुः कुलीनः संस्तथा ब्रूयात् सुहृज्जने।
यथासाववदद् वाक्यं युयुत्सुः कृष्णसंनिधौ ॥ ३१ ॥

मूलम्

को हि बन्धुः कुलीनः संस्तथा ब्रूयात् सुहृज्जने।
यथासाववदद् वाक्यं युयुत्सुः कृष्णसंनिधौ ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संधिके लिये गये हुए श्रीकृष्णके समीप युद्धकी इच्छावाले दुर्योधनने जैसी बात कही थी, वैसी कौन भाई-बन्धु कुलीन होकर भी अपने सुहृदोंके लिये कह सकता है?॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मनो हि वयं दोषाद् विनष्टाः शाश्वतीः समाः।
प्रदहन्तो दिशः सर्वा भास्वरा इव तेजसा ॥ ३२ ॥

मूलम्

आत्मनो हि वयं दोषाद् विनष्टाः शाश्वतीः समाः।
प्रदहन्तो दिशः सर्वा भास्वरा इव तेजसा ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमलोगोंने तेजसे प्रकाशित होनेवाली सम्पूर्ण दिशाओंमें मानो आग लगा दी और अपने ही दोषसे सदाके लिये नष्ट हो गये॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽस्माकं वैरपुरुषो दुर्मतिः प्रग्रहं गतः।
दुर्योधनकृते ह्येतत् कुलं नो विनिपातितम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

सोऽस्माकं वैरपुरुषो दुर्मतिः प्रग्रहं गतः।
दुर्योधनकृते ह्येतत् कुलं नो विनिपातितम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमारे प्रति शत्रुताका मूर्तिमान् स्वरूप वह दुर्बुद्धि दुर्योधन पूर्णतः बन्धनमें बँध गया। दुर्योधनके कारण ही हमारे इस कुलका पतन हो गया॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवध्यानां वधं कृत्वा लोके प्राप्ताः स्म वाच्यताम्।
कुलस्यास्यान्तकरणं दुर्मतिं पापपूरुषम् ॥ ३४ ॥
राजा राष्ट्रेश्वरं कृत्वा धृतराष्ट्रोऽद्य शोचति।

मूलम्

अवध्यानां वधं कृत्वा लोके प्राप्ताः स्म वाच्यताम्।
कुलस्यास्यान्तकरणं दुर्मतिं पापपूरुषम् ॥ ३४ ॥
राजा राष्ट्रेश्वरं कृत्वा धृतराष्ट्रोऽद्य शोचति।

अनुवाद (हिन्दी)

हमलोग अवध्य नरेशोंका वध करके संसारमें निन्दाके पात्र हो गये। राजा धृतराष्ट्र इस कुलका विनाश करनेवाले दुर्बुद्धि एवं पापात्मा दुर्योधनको इस राष्ट्रका स्वामी बनाकर आज शोककी आगमें जल रहे हैं॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हताः शूराः कृतं पापं विषयः स्वो विनाशितः ॥ ३५ ॥
हत्वा नो विगतो मन्युः शोको मां रुन्धयत्ययम्।

मूलम्

हताः शूराः कृतं पापं विषयः स्वो विनाशितः ॥ ३५ ॥
हत्वा नो विगतो मन्युः शोको मां रुन्धयत्ययम्।

अनुवाद (हिन्दी)

हमने शूरवीरोंको मारा, पाप किया और अपने ही देशका विनाश कर डाला। शत्रुओंको मारकर हमारा क्रोध तो दूर हो गया, परंतु यह शोक मुझे निरन्तर घेरे रहता है॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनंजय कृतं पापं कल्याणेनोपहन्यते ॥ ३६ ॥
ख्यापनेनानुतापेन दानेन तपसापि वा।

मूलम्

धनंजय कृतं पापं कल्याणेनोपहन्यते ॥ ३६ ॥
ख्यापनेनानुतापेन दानेन तपसापि वा।

अनुवाद (हिन्दी)

धनंजय! किया हुआ पाप कहनेसे, शुभ कर्म करनेसे, पछतानेसे, दान करनेसे और तपस्यासे भी नष्ट होता है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवृत्त्या तीर्थगमनाच्छ्रुतिस्मृतिजपेन वा ॥ ३७ ॥
त्यागवांश्च पुनः पापं नालंकर्तुमिति श्रुतिः।
त्यागवाञ्जन्ममरणे नाप्नोतीति श्रुतिर्यदा ॥ ३८ ॥

मूलम्

निवृत्त्या तीर्थगमनाच्छ्रुतिस्मृतिजपेन वा ॥ ३७ ॥
त्यागवांश्च पुनः पापं नालंकर्तुमिति श्रुतिः।
त्यागवाञ्जन्ममरणे नाप्नोतीति श्रुतिर्यदा ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निवृत्तिपरायण होने, तीर्थयात्रा करने तथा वेद-शास्त्रोंका स्वाध्याय एवं जप करनेसे भी पाप दूर होता है। श्रुतिका कथन है कि त्यागी पुरुष पाप नहीं कर सकता तथा वह जन्म और मरणके बन्धनमें भी नहीं पड़ता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राप्तवर्त्मा कृतमतिर्ब्रह्म सम्पद्यते तदा।
स धनंजय निर्द्वन्द्वो मुनिर्ज्ञानसमन्वितः ॥ ३९ ॥

मूलम्

प्राप्तवर्त्मा कृतमतिर्ब्रह्म सम्पद्यते तदा।
स धनंजय निर्द्वन्द्वो मुनिर्ज्ञानसमन्वितः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धनंजय! उसे मोक्षका मार्ग मिल जाता है और वह ज्ञानी एवं स्थिर-बुद्धि मुनि द्वन्द्वरहित होकर तत्काल ब्रह्म-साक्षात्कार कर लेता है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वनमामन्त्र्य वः सर्वान् गमिष्यामि परंतप।
न हि कृत्स्नतमो धर्मः शक्यः प्राप्तुमिति श्रुतिः ॥ ४० ॥
परिग्रहवता तन्मे प्रत्यक्षमरिसूदन ।

मूलम्

वनमामन्त्र्य वः सर्वान् गमिष्यामि परंतप।
न हि कृत्स्नतमो धर्मः शक्यः प्राप्तुमिति श्रुतिः ॥ ४० ॥
परिग्रहवता तन्मे प्रत्यक्षमरिसूदन ।

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंको तपानेवाले अर्जुन! मैं तुम सब लोगोंसे बिदा लेकर वनमें चला जाऊँगा। शत्रुसूदन! श्रुति कहती है कि ‘संग्रह-परिग्रहमें फँसा हुआ मनुष्य पूर्णतम धर्म (परमात्माका दर्शन) नहीं प्राप्त कर सकता।’ इसका मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया निसृष्टं पापं हि परिग्रहमभीप्सता ॥ ४१ ॥
जन्मक्षयनिमित्तं च प्राप्तुं शक्यमिति श्रुतिः।

मूलम्

मया निसृष्टं पापं हि परिग्रहमभीप्सता ॥ ४१ ॥
जन्मक्षयनिमित्तं च प्राप्तुं शक्यमिति श्रुतिः।

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने परिग्रह (राज्य और धनके संग्रह) की इच्छा रखकर केवल पाप बटोरा है, जो जन्म और मृत्युका मुख्य कारण है। श्रुतिका कथन है कि ‘परिग्रहसे पाप ही प्राप्त हो सकता है’॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स परिग्रहमुत्सृज्य कृत्स्नं राज्यं सुखानि च ॥ ४२ ॥
गमिष्यामि विनिर्मुक्तो विशोको निर्ममः क्वचित्।

मूलम्

स परिग्रहमुत्सृज्य कृत्स्नं राज्यं सुखानि च ॥ ४२ ॥
गमिष्यामि विनिर्मुक्तो विशोको निर्ममः क्वचित्।

अनुवाद (हिन्दी)

अतः मैं परिग्रह छोड़कर सारे राज्य और इसके सुखोंको लात मारकर बन्धनमुक्त हो शोक और ममतासे ऊपर उठकर, कहीं वनमें चला जाऊँगा॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रशाधि त्वमिमामुर्वीं क्षेमां निहतकण्टकाम् ॥ ४३ ॥
न ममार्थोऽस्ति राज्येन भोगैर्वा कुरुनन्दन।

मूलम्

प्रशाधि त्वमिमामुर्वीं क्षेमां निहतकण्टकाम् ॥ ४३ ॥
न ममार्थोऽस्ति राज्येन भोगैर्वा कुरुनन्दन।

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! तुम इस निष्कण्टक एवं कुशल-क्षेमसे युक्त पृथ्वीका शासन करो। मुझे राज्य और भोगोंसे कोई मतलब नहीं है॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतावदुक्त्वा वचनं कुरुराजो युधिष्ठिरः।
उपारमत् ततः पार्थः कनीयानभ्यभाषत ॥ ४४ ॥

मूलम्

एतावदुक्त्वा वचनं कुरुराजो युधिष्ठिरः।
उपारमत् ततः पार्थः कनीयानभ्यभाषत ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतना कहकर कुरुराज युधिष्ठिर चुप हो गये। तब कुन्तीके सबसे छोटे पुत्र अर्जुनने भाषण देना आरम्भ किया॥४४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि युधिष्ठिरपरिदेवनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें युधिष्ठिरका खेदपूर्ण उद्‌गार नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७॥