भागसूचना
पञ्चमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कर्णके बल और पराक्रमका वर्णन, उसके द्वारा जरासंधकी पराजय और जरासंधका कर्णको अंगदेशमें मालिनी नगरीका राज्य प्रदान करना
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आविष्कृतबलं कर्णं श्रुत्वा राजा स मागधः।
आह्वयद् द्वैरथेनाजौ जरासंधो महीपतिः ॥ १ ॥
मूलम्
आविष्कृतबलं कर्णं श्रुत्वा राजा स मागधः।
आह्वयद् द्वैरथेनाजौ जरासंधो महीपतिः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी कहते हैं— राजन्! कर्णके बलकी ख्याति सुनकर मगधदेशके राजा जरासंधने द्वैरथ युद्धके लिये उसे ललकारा॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोः समभवद् युद्धं दिव्यास्त्रविदुषोर्द्वयोः।
युधि नानाप्रहरणैरन्योन्यमभिवर्षतोः ॥ २ ॥
मूलम्
तयोः समभवद् युद्धं दिव्यास्त्रविदुषोर्द्वयोः।
युधि नानाप्रहरणैरन्योन्यमभिवर्षतोः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों ही दिव्यास्त्रोंके ज्ञाता थे। उन दोनोंमें युद्ध आरम्भ हो गया। वे रणभूमिमें एक दूसरेपर नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करने लगे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षीणबाणौ विधनुषौ भग्नखड्गौ महीं गतौ।
बाहुभिः समसज्जेतामुभावपि बलान्वितौ ॥ ३ ॥
मूलम्
क्षीणबाणौ विधनुषौ भग्नखड्गौ महीं गतौ।
बाहुभिः समसज्जेतामुभावपि बलान्वितौ ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दोनोंके ही बाण क्षीण हो गये, धनुष कट गये और तलवारोंके टुकड़े-टुकड़े हो गये। तब वे दोनों बलशाली वीर पृथ्वीपर खड़े हो भुजाओंद्वारा मल्लयुद्ध करने लगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाहुकण्टकयुद्धेन तस्य कर्णोऽथ युध्यतः।
बिभेद संधिं देहस्य जरया श्लेषितस्य हि ॥ ४ ॥
मूलम्
बाहुकण्टकयुद्धेन तस्य कर्णोऽथ युध्यतः।
बिभेद संधिं देहस्य जरया श्लेषितस्य हि ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णने बाहुकण्टक युद्धके द्वारा जरा नामक राक्षसीके जोड़े हुए युद्धपरायण जरासंधके शरीरकी संधिको चीरना आरम्भ किया1॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स विकारं शरीरस्य दृष्ट्वा नृपतिरात्मनः।
प्रीतोऽस्मीत्यब्रवीत् कर्णं वैरमुत्सृज्य दूरतः ॥ ५ ॥
मूलम्
स विकारं शरीरस्य दृष्ट्वा नृपतिरात्मनः।
प्रीतोऽस्मीत्यब्रवीत् कर्णं वैरमुत्सृज्य दूरतः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा जरासंधने अपने शरीरके उस विकारको देखकर वैरभावको दूर हटा दिया और कर्णसे कहा—‘मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ’॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीत्या ददौ स कर्णाय मालिनीं नगरीमथ।
अङ्गेषु नरशार्दूल स राजाऽऽसीत् सपत्नजित् ॥ ६ ॥
पालयामास चम्पां च कर्णः परबलार्दनः।
दुर्योधनस्यानुमते तवापि विदितं तथा ॥ ७ ॥
मूलम्
प्रीत्या ददौ स कर्णाय मालिनीं नगरीमथ।
अङ्गेषु नरशार्दूल स राजाऽऽसीत् सपत्नजित् ॥ ६ ॥
पालयामास चम्पां च कर्णः परबलार्दनः।
दुर्योधनस्यानुमते तवापि विदितं तथा ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साथ ही उसने प्रसन्नतापूर्वक कर्णको अंगदेशकी मालिनी नगरी दे दी। नरश्रेष्ठ! शत्रुविजयी कर्ण तभीसे अंगदेशका राजा हो गया था। इसके बाद दुर्योधनकी अनुमतिसे शत्रु-सैन्यसंहारी कर्ण चम्पा नगरी—चम्पारनका भी पालन करने लगा। यह सब तो तुम्हें भी ज्ञात ही है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं शस्त्रप्रतापेन प्रथितः सोऽभवत् क्षितौ।
त्वद्धितार्थं सुरेन्द्रेण भिक्षितो वर्मकुण्डले ॥ ८ ॥
मूलम्
एवं शस्त्रप्रतापेन प्रथितः सोऽभवत् क्षितौ।
त्वद्धितार्थं सुरेन्द्रेण भिक्षितो वर्मकुण्डले ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार कर्ण अपने शस्त्रोंके प्रतापसे समस्त भूमण्डलमें विख्यात हो गया। एक दिन देवराज इन्द्रने तुमलोगोंके हितके लिये कर्णसे उसके कवच और कुण्डल माँगे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स दिव्ये सहजे प्रादात् कुण्डले परमार्जिते।
सहजं कवचं चापि मोहितो देवमायया ॥ ९ ॥
मूलम्
स दिव्ये सहजे प्रादात् कुण्डले परमार्जिते।
सहजं कवचं चापि मोहितो देवमायया ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवमायासे मोहित हुए कर्णने अपने शरीरके साथ ही उत्पन्न हुए दोनों दिव्य कुण्डलों और कवचको भी इन्द्रके हाथमें दे दिया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमुक्तः कुण्डलाभ्यां च सहजेन च वर्मणा।
निहतो विजयेनाजौ वासुदेवस्य पश्यतः ॥ १० ॥
मूलम्
विमुक्तः कुण्डलाभ्यां च सहजेन च वर्मणा।
निहतो विजयेनाजौ वासुदेवस्य पश्यतः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जन्मके साथ ही उत्पन्न हुए कवच और कुण्डलोंसे हीन हो जानेपर कर्णको अर्जुनने भगवान् श्रीकृष्णके देखते-देखते मारा था॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणस्याभिशापेन रामस्य च महात्मनः।
कुन्त्याश्च वरदानेन मायया च शतक्रतोः ॥ ११ ॥
भीष्मावमानात् संख्यायां रथस्यार्धानुकीर्तनात् ।
शल्यात् तेजोवधाच्चापि वासुदेवनयेन च ॥ १२ ॥
मूलम्
ब्राह्मणस्याभिशापेन रामस्य च महात्मनः।
कुन्त्याश्च वरदानेन मायया च शतक्रतोः ॥ ११ ॥
भीष्मावमानात् संख्यायां रथस्यार्धानुकीर्तनात् ।
शल्यात् तेजोवधाच्चापि वासुदेवनयेन च ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक तो उसे अग्निहोत्री ब्राह्मण तथा महात्मा परशुरामजीके शाप मिले थे। दूसरे, उसने स्वयं भी कुन्तीको अन्य चार भाइयोंकी रक्षाके लिये वरदान दिया था। तीसरे, इन्द्रने माया करके उसके कवच-कुण्डल ले लिये। चौथे, महारथियोंकी गणना करते समय भीष्मजीने अपमानपूर्वक उसे बार-बार अर्धरथी कहा था। पाँचवें, शल्यकी ओरसे उसके तेजको नष्ट करनेका प्रयास किया गया था और छठे, भगवान् श्रीकृष्णकी नीति भी कर्णके प्रतिकूल काम कर रही थी—इन सब कारणोंसे वह पराजित हुआ॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुद्रस्य देवराजस्य यमस्य वरुणस्य च।
कुबेरद्रोणयोश्चैव कृपस्य च महात्मनः ॥ १३ ॥
अस्त्राणि दिव्यान्यादाय युधि गाण्डीवधन्वना।
हतो वैकर्तनः कर्णो दिवाकरसमद्युतिः ॥ १४ ॥
मूलम्
रुद्रस्य देवराजस्य यमस्य वरुणस्य च।
कुबेरद्रोणयोश्चैव कृपस्य च महात्मनः ॥ १३ ॥
अस्त्राणि दिव्यान्यादाय युधि गाण्डीवधन्वना।
हतो वैकर्तनः कर्णो दिवाकरसमद्युतिः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर, गाण्डीवधारी अर्जुनने रुद्र, देवराज इन्द्र, यम, वरुण, कुबेर, द्रोणाचार्य तथा महात्मा कृपके दिये हुए दिव्यास्त्र प्राप्त कर लिये थे; इसीलिये युद्धमें उन्होंने सूर्यके समान तेजस्वी वैकर्तन कर्णका वध किया॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं शप्तस्तव भ्राता बहुभिश्चापि वञ्चितः।
न शोच्यः पुरुषव्याघ्र युद्धेन निधनं गतः ॥ १५ ॥
मूलम्
एवं शप्तस्तव भ्राता बहुभिश्चापि वञ्चितः।
न शोच्यः पुरुषव्याघ्र युद्धेन निधनं गतः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह युधिष्ठिर! इस प्रकार तुम्हारे भाई कर्णको शाप तो मिला ही था, बहुत लोगोंने उसे ठग भी लिया था, तथापि वह युद्धमें मारा गया है, इसलिये शोक करनेके योग्य नहीं है॥१५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि कर्णवीर्यकथनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें कर्णके पराक्रमका कथन नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूलम्
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जहाँ बलवान् योद्धा अपने प्रतिद्वन्द्वीको दुर्बल पा उसकी एक पिण्डलीको पैरसे दबाकर दूसरीको ऊपर उठा सारे शरीरको बीचसे चीर डालता है, वह बाहुकण्टक नामक युद्ध कहा गया है। जैसा कि निम्नांकित वचनसे सूचित होता है—’’’‘एकां जंघां पदाऽऽक्रम्य परामुद्यम्य पाट्यते। केतकीपत्रवच्छत्रोर्युद्धं तद् बाहुकण्टकम्॥’ इति’'' ↩︎