००३ कर्णास्त्रप्राप्तिः

भागसूचना

तृतीयोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कर्णको ब्रह्मास्त्रकी प्राप्ति और परशुरामजीका शाप

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णस्य बाहुवीर्येण प्रणयेन दमेन च।
तुतोष भृगुशार्दुलो गुरुशुश्रूषया तथा ॥ १ ॥

मूलम्

कर्णस्य बाहुवीर्येण प्रणयेन दमेन च।
तुतोष भृगुशार्दुलो गुरुशुश्रूषया तथा ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी कहते हैं— राजन्! कर्णके बाहुबल, प्रेम, इन्द्रिय-संयम तथा गुरुसेवासे भृगुश्रेष्ठ परशुरामजी बहुत संतुष्ट हुए॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मै स विधिवत् कृत्स्नं ब्रह्मास्त्रं सनिवर्तनम्।
प्रोवाचाखिलमव्यग्रं तपस्वी तत् तपस्विने ॥ २ ॥

मूलम्

तस्मै स विधिवत् कृत्स्नं ब्रह्मास्त्रं सनिवर्तनम्।
प्रोवाचाखिलमव्यग्रं तपस्वी तत् तपस्विने ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर तपस्वी परशुरामने तपस्यामें लगे हुए कर्णको शान्तभावसे प्रयोग और उपसंहार विधिसहित सम्पूर्ण ब्रह्मास्त्रकी विधिपूर्वक शिक्षा दी॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदितास्त्रस्ततः कर्णो रममाणोऽऽश्रमे भृगोः।
चकार वै धनुर्वेदे यत्नमद्भुतविक्रमः ॥ ३ ॥

मूलम्

विदितास्त्रस्ततः कर्णो रममाणोऽऽश्रमे भृगोः।
चकार वै धनुर्वेदे यत्नमद्भुतविक्रमः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मास्त्रका ज्ञान प्राप्त करके कर्ण परशुरामजीके आश्रममें प्रसन्नतापूर्वक रहने लगा। उस अद्‌भुत पराक्रमी वीरने धनुर्वेदके अभ्यासके लिये बड़ा परिश्रम किया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कदाचिद् रामस्तु चरन्नाश्रममन्तिकात्।
कर्णेन सहितो धीमानुपवासेन कर्शितः ॥ ४ ॥
सुष्वाप जामदग्न्यस्तु विश्रम्भोत्पन्नसौहृदः ।
कर्णस्योत्सङ्ग आधाय शिरः क्लान्तमना गुरुः ॥ ५ ॥

मूलम्

ततः कदाचिद् रामस्तु चरन्नाश्रममन्तिकात्।
कर्णेन सहितो धीमानुपवासेन कर्शितः ॥ ४ ॥
सुष्वाप जामदग्न्यस्तु विश्रम्भोत्पन्नसौहृदः ।
कर्णस्योत्सङ्ग आधाय शिरः क्लान्तमना गुरुः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् एक समय बुद्धिमान् परशुरामजी कर्णके साथ अपने आश्रमके निकट ही घूम रहे थे। उपवास करनेके कारण उनका शरीर दुर्बल हो गया था। कर्णके ऊपर उनका पूरा विश्वास होनेके कारण उसके प्रति सौहार्द हो गया था। वे मन-ही-मन थकावटका अनुभव करते थे, इसलिये गुरुवर जमदग्निनन्दन परशुरामजी कर्णकी गोदमें सिर रखकर सो गये॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ कृमिः श्लेष्ममेदोमांसशोणितभोजनः ।
दारुणो दारुणस्पर्शः कर्णस्याभ्याशमागतः ॥ ६ ॥

मूलम्

अथ कृमिः श्लेष्ममेदोमांसशोणितभोजनः ।
दारुणो दारुणस्पर्शः कर्णस्याभ्याशमागतः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय लार, मेदा, मांस और रक्तका आहार करनेवाला एक भयानक कीड़ा, जिसका स्पर्श (डंक मारना) बड़ा भयंकर था, कर्णके पास आया॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तस्योरुमथासाद्य बिभेद रुधिराशनः।
न चैनमशकत् क्षेप्तुं हन्तुं वापि गुरोर्भयात् ॥ ७ ॥

मूलम्

स तस्योरुमथासाद्य बिभेद रुधिराशनः।
न चैनमशकत् क्षेप्तुं हन्तुं वापि गुरोर्भयात् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस रक्त पीनेवाले कीड़ेने कर्णकी जाँघके पास पहुँचकर उसे छेद दिया; परंतु गुरुजीके जागनेके भयसे कर्ण न तो उसे फेंक सका और न मार ही सका॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संदश्यमानस्तु तथा कृमिणा तेन भारत।
गुरोः प्रबोधनाशङ्की तमुपैक्षत सूर्यजः ॥ ८ ॥

मूलम्

संदश्यमानस्तु तथा कृमिणा तेन भारत।
गुरोः प्रबोधनाशङ्की तमुपैक्षत सूर्यजः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! वह कीड़ा उसे बारंबार डँसता रहा तो भी सूर्यपुत्र कर्णने कहीं गुरुजी जाग न उठें, इस आशंकासे उसकी उपेक्षा कर दी॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णस्तु वेदनां धैर्यादसह्यां विनिगृह्य ताम्।
अकम्पयन्नव्यथयन् धारयामास भार्गवम् ॥ ९ ॥

मूलम्

कर्णस्तु वेदनां धैर्यादसह्यां विनिगृह्य ताम्।
अकम्पयन्नव्यथयन् धारयामास भार्गवम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि कर्णको असह्य वेदना हो रही थी तो भी वह धैर्यपूर्वक उसे सहन करके कम्पित और व्यथित न होता हुआ परशुरामजीको गोदमें लिये रहा॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदास्य रुधिरेणाङ्गं परिस्पृष्टं भृगूद्वहः।
तदाबुद्ध्यत तेजस्वी संत्रस्तश्चेदमब्रवीत् ॥ १० ॥

मूलम्

यदास्य रुधिरेणाङ्गं परिस्पृष्टं भृगूद्वहः।
तदाबुद्ध्यत तेजस्वी संत्रस्तश्चेदमब्रवीत् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब उसका रक्त परशुरामजीके शरीरमें लग गया, तब वे तेजस्वी भार्गव जाग उठे और भयभीत होकर इस प्रकार बोले—॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहोऽस्म्यशुचितां प्राप्तः किमिदं क्रियते त्वया।
कथयस्व भयं त्वक्त्वा याथातथ्यमिदं मम ॥ ११ ॥

मूलम्

अहोऽस्म्यशुचितां प्राप्तः किमिदं क्रियते त्वया।
कथयस्व भयं त्वक्त्वा याथातथ्यमिदं मम ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अरे! मैं तो अशुद्ध हो गया! तू यह क्या कर रहा है? भय छोड़कर मुझे इस विषयमें ठीक-ठीक बता’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य कर्णस्तदाऽऽचष्ट कृमिणा परिभक्षणम्।
ददर्श रामस्तं चापि कृमिं सूकरसंनिभम् ॥ १२ ॥

मूलम्

तस्य कर्णस्तदाऽऽचष्ट कृमिणा परिभक्षणम्।
ददर्श रामस्तं चापि कृमिं सूकरसंनिभम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब कर्णने उनसे कीड़ेके काटनेकी बात बतायी। परशुरामजीने भी उस कीड़ेको देखा, वह सूअरके समान जान पड़ता था॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टपादं तीक्ष्णदंष्ट्रं सूचीभिरिव संवृतम्।
रोमभिः संनिरुद्धाङ्गमलर्कं नाम नामतः ॥ १३ ॥

मूलम्

अष्टपादं तीक्ष्णदंष्ट्रं सूचीभिरिव संवृतम्।
रोमभिः संनिरुद्धाङ्गमलर्कं नाम नामतः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके आठ पैर थे और तीखी दाढ़ें। सूई-जैसी चुभनेवाली रोमावलियोंसे उसका सारा शरीर भरा तथा रुँधा हुआ था। वह ‘अलर्क’ नामसे प्रसिद्ध कीड़ा था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स दृष्टमात्रो रामेण कृमिः प्राणानवासृजत्।
तस्मिन्नेवासृजि क्लिन्नस्तदद्भुतमिवाभवत् ॥ १४ ॥

मूलम्

स दृष्टमात्रो रामेण कृमिः प्राणानवासृजत्।
तस्मिन्नेवासृजि क्लिन्नस्तदद्भुतमिवाभवत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परशुरामजीकी दृष्टि पड़ते ही उसी रक्तसे भीगे हुए उस कीड़ेने प्राण त्याग दिये, वह एक अद्‌भुत-सी बात हुई॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽन्तरिक्षे ददृशे विश्वरूपः करालवान्।
राक्षसो लोहितग्रीवः कृष्णाङ्गो मेघवाहनः ॥ १५ ॥

मूलम्

ततोऽन्तरिक्षे ददृशे विश्वरूपः करालवान्।
राक्षसो लोहितग्रीवः कृष्णाङ्गो मेघवाहनः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर आकाशमें सब तरहके रूप धारण करनेमें समर्थ एक विकराल राक्षस दिखायी दिया, उसकी ग्रीवा लाल थी और शरीरका रंग काला था। वह बादलोंपर आरुढ था॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स रामं प्राञ्जलिर्भूत्वा बभाषे पूर्णमानसः।
स्वस्ति ते भृगुशार्दूल गमिष्येऽहं यथागतम् ॥ १६ ॥
मोक्षितो नरकादस्माद् भवता मुनिसत्तम।
भद्रं तवास्तु वन्दे त्वां प्रियं मे भवता कृतम्॥१७॥

मूलम्

स रामं प्राञ्जलिर्भूत्वा बभाषे पूर्णमानसः।
स्वस्ति ते भृगुशार्दूल गमिष्येऽहं यथागतम् ॥ १६ ॥
मोक्षितो नरकादस्माद् भवता मुनिसत्तम।
भद्रं तवास्तु वन्दे त्वां प्रियं मे भवता कृतम्॥१७॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस राक्षसने पूर्णमनोरथ हो हाथ जोड़कर परशु-रामजीसे कहा—‘भृगुश्रेष्ठ! आपका कल्याण हो। मैं जैसे आया था, वैसे लौट जाऊँगा। मुनिप्रवर! आपने इस नरकसे मुझे छुटकारा दिला दिया। आपका भला हो। मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आपने मेरा बड़ा प्रिय कार्य किया है’॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुवाच महाबाहुर्जामदग्न्यः प्रतापवान् ।
कस्त्वं कस्माच्च नरकं प्रतिपन्नो ब्रवीहि तत् ॥ १८ ॥

मूलम्

तमुवाच महाबाहुर्जामदग्न्यः प्रतापवान् ।
कस्त्वं कस्माच्च नरकं प्रतिपन्नो ब्रवीहि तत् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब महाबाहु प्रतापी जमदग्निनन्दन परशुरामने उससे पूछा—‘तू कौन है? और किस कारणसे इस नरकमें पड़ा था? बतलाओ’॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽब्रवीदहमासं प्राग् दंशो नाम महासुरः।
पुरा देवयुगे तात भृगोस्तुल्यवया इव ॥ १९ ॥

मूलम्

सोऽब्रवीदहमासं प्राग् दंशो नाम महासुरः।
पुरा देवयुगे तात भृगोस्तुल्यवया इव ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने उत्तर दिया—‘तात! प्राचीनकालके सत्ययुगकी बात है। मैं दंश नामसे प्रसिद्ध एक महान् असुर था। महर्षि भृगुके बराबर ही मेरी भी अवस्था रही॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं भृगोः सुदयितां भार्यामपहरं बलात्।
महर्षेरभिशापेन कृमिभूतोऽपतं भुवि ॥ २० ॥

मूलम्

सोऽहं भृगोः सुदयितां भार्यामपहरं बलात्।
महर्षेरभिशापेन कृमिभूतोऽपतं भुवि ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘एक दिन मैंने भृगुकी प्राणप्यारी पत्नीका बलपूर्वक अपहरण कर लिया। इससे महर्षिने शाप दे दिया और मैं कीड़ा होकर इस पृथ्वीपर गिर पड़ा॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब्रवीद्धि स मां क्रुद्धस्तव पूर्वपितामहः।
मूत्रश्लेष्माशनः पाप निरयं प्रतिपत्स्यसे ॥ २१ ॥

मूलम्

अब्रवीद्धि स मां क्रुद्धस्तव पूर्वपितामहः।
मूत्रश्लेष्माशनः पाप निरयं प्रतिपत्स्यसे ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपके पूर्व पितामह भृगुजीने शाप देते समय कुपित होकर मुझसे इस प्रकार कहा—‘ओ पापी! तू मूत्र और लार आदि खानेवाला कीड़ा होकर नरकमें पड़ेगा’॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शापस्यान्तो भवेद् ब्रह्मन्नित्येवं तमथाब्रवम्।
भविता भार्गवाद् रामादिति मामब्रवीद् भृगुः ॥ २२ ॥

मूलम्

शापस्यान्तो भवेद् ब्रह्मन्नित्येवं तमथाब्रवम्।
भविता भार्गवाद् रामादिति मामब्रवीद् भृगुः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तब मैंने उनसे कहा—‘ब्रह्मन्! इस शापका अन्त भी होना चाहिये।’ यह सुनकर भृगुजी बोले—‘भृगुवंशी परशुरामसे इस शापका अन्त होगा’॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहमेनां गतिं प्राप्तो यथा न कुशलं तथा।
त्वया साधो समागम्य विमुक्तः पापयोनितः ॥ २३ ॥

मूलम्

सोऽहमेनां गतिं प्राप्तो यथा न कुशलं तथा।
त्वया साधो समागम्य विमुक्तः पापयोनितः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वही मैं इस गतिको प्राप्त हुआ था, जहाँ कभी कुशल नहीं बीता। साधो! आपका समागम होनेसे मेरा इस पापयोनिसे उद्धार हो गया’॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा नमस्कृत्य ययौ रामं महासुरः।
रामः कर्णं च सक्रोधमिदं वचनमब्रवीत् ॥ २४ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा नमस्कृत्य ययौ रामं महासुरः।
रामः कर्णं च सक्रोधमिदं वचनमब्रवीत् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परशुरामजीसे ऐसा कहकर वह महान् असुर उन्हें प्रणाम करके चला गया। इसके बाद परशुरामजीने कर्णसे क्रोधपूर्वक कहा—॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिदुःखमिदं मूढ न जातु ब्राह्मणः सहेत्।
क्षत्रियस्येव ते धैर्यं कामया सत्यमुच्यताम् ॥ २५ ॥

मूलम्

अतिदुःखमिदं मूढ न जातु ब्राह्मणः सहेत्।
क्षत्रियस्येव ते धैर्यं कामया सत्यमुच्यताम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ओ मूर्ख! ऐसा भारी दुःख ब्राह्मण कदापि नहीं सह सकता। तेरा धैर्य तो क्षत्रियके समान है। तू स्वेच्छासे ही सत्य बता, कौन है?’॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुवाच ततः कर्णः शापाद् भीतः प्रसादयन्।
ब्रह्मक्षत्रान्तरे जातं सूतं मां विद्धि भार्गव ॥ २६ ॥
राधेयः कर्ण इति मां प्रवदन्ति जना भुवि।
प्रसादं कुरु मे ब्रह्मन्नस्त्रलुब्धस्य भार्गव ॥ २७ ॥

मूलम्

तमुवाच ततः कर्णः शापाद् भीतः प्रसादयन्।
ब्रह्मक्षत्रान्तरे जातं सूतं मां विद्धि भार्गव ॥ २६ ॥
राधेयः कर्ण इति मां प्रवदन्ति जना भुवि।
प्रसादं कुरु मे ब्रह्मन्नस्त्रलुब्धस्य भार्गव ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्ण परशुरामजीके शापके भयसे डर गया। अतः उन्हें प्रसन्न करनेकी चेष्टा करते हुए कहा—‘भार्गव! आप यह जान लें कि मैं ब्राह्मण और क्षत्रियसे भिन्न सूतजातिमें पैदा हुआ हूँ। भूमण्डलके मनुष्य मुझे राधापुत्र कर्ण कहते हैं। ब्रह्मन्! भृगुनन्दन! मैंने अस्त्रके लोभसे ऐसा किया है! आप मुझपर कृपा करें॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिता गुरुर्न संदेहो वेदविद्याप्रदः प्रभुः।
अतो भार्गव इत्युक्तं मया गोत्रं तवान्तिके ॥ २८ ॥

मूलम्

पिता गुरुर्न संदेहो वेदविद्याप्रदः प्रभुः।
अतो भार्गव इत्युक्तं मया गोत्रं तवान्तिके ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसमें संदेह नहीं कि वेद और विद्याका दान करनेवाला शक्तिशाली गुरु पिताके ही तुल्य है; इसलिये मैंने आपके निकट अपना गोत्र भार्गव बताया है’॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुवाच भृगुश्रेष्ठः सरोषः प्रदहन्निव।
भूमौ निपतितं दीनं वेपमानं कृताञ्जलिम् ॥ २९ ॥

मूलम्

तमुवाच भृगुश्रेष्ठः सरोषः प्रदहन्निव।
भूमौ निपतितं दीनं वेपमानं कृताञ्जलिम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर भृगुश्रेष्ठ परशुरामजी इतने रोषमें भर गये, मानो वे उसे दग्ध कर डालेंगे। उधर कर्ण हाथ जोड़ दीन भावसे काँपता हुआ पृथ्वीपर गिर पड़ा। तब वे उससे बोले—॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मान्मिथ्योपचरितो ह्यस्त्रलोभादिह त्वया ।
तस्मादेतद्धि ते मूढ ब्रह्मास्त्रं प्रतिभास्यति ॥ ३० ॥
अन्यत्र वधकालात् ते सदृशेन समीयुषः।

मूलम्

यस्मान्मिथ्योपचरितो ह्यस्त्रलोभादिह त्वया ।
तस्मादेतद्धि ते मूढ ब्रह्मास्त्रं प्रतिभास्यति ॥ ३० ॥
अन्यत्र वधकालात् ते सदृशेन समीयुषः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मूढ़! तूने ब्रह्मास्त्रके लोभसे झूठ बोलकर यहाँ मेरे साथ मिथ्याचार (कपटपूर्ण व्यवहार) किया है, इसलिये जबतक तू संग्राममें अपने समान योद्धाके साथ नहीं भिड़ेगा और तेरी मृत्युका समय निकट नहीं आ जायगा, तभीतक तुझे इस ब्रह्मास्त्रका स्मरण बना रहेगा॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब्राह्मणे न हि ब्रह्म ध्रुवं तिष्ठेत् कदाचन ॥ ३१ ॥
गच्छेदानीं न ते स्थानमनृतस्येह विद्यते।
न त्वया सदृशो युद्धे भविता क्षत्रियो भुवि ॥ ३२ ॥

मूलम्

अब्राह्मणे न हि ब्रह्म ध्रुवं तिष्ठेत् कदाचन ॥ ३१ ॥
गच्छेदानीं न ते स्थानमनृतस्येह विद्यते।
न त्वया सदृशो युद्धे भविता क्षत्रियो भुवि ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो ब्राह्मण नहीं है, उसके हृदयमें ब्रह्मास्त्र कभी स्थिर नहीं रह सकता। अब तू यहाँसे चला जा। तुझ मिथ्यावादीके लिये यहाँ स्थान नहीं है, परंतु मेरे आशीर्वादसे इस भूतलका कोई भी क्षत्रिय युद्धमें तेरी समानता नहीं करेगा’॥३१-३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः स रामेण न्यायेनोपजगाम ह।
दुर्योधनमुपागम्य कृतास्त्रोऽस्मीति चाब्रवीत् ॥ ३३ ॥

मूलम्

एवमुक्तः स रामेण न्यायेनोपजगाम ह।
दुर्योधनमुपागम्य कृतास्त्रोऽस्मीति चाब्रवीत् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परशुरामजीके ऐसा कहनेपर कर्ण उन्हें न्यायपूर्वक प्रणाम करके वहाँसे लौट आया और दुर्योधनके पास पहुँचकर बोला—‘मैंने सब अस्त्रोंका ज्ञान प्राप्त कर लिया’॥३३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि कर्णास्त्रप्राप्तिर्नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें कर्णको अस्त्रकी प्राप्तिनामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ॥३॥