भागसूचना
द्वितीयोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
नारदजीका कर्णको शाप प्राप्त होनेका प्रसंग सुनाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्तस्तु मुनिर्नारदो वदतां वरः।
कथयामास तत् सर्वं यथा शप्तः स सूतजः ॥ १ ॥
मूलम्
स एवमुक्तस्तु मुनिर्नारदो वदतां वरः।
कथयामास तत् सर्वं यथा शप्तः स सूतजः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! युधिष्ठिरके इस प्रकार पूछनेपर वक्ताओंमें श्रेष्ठ नारदमुनिने सूतपुत्र कर्णको जिस प्रकार शाप प्राप्त हुआ था, वह सब प्रसंग कह सुनाया॥१॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत।
न कर्णार्जुनयोः किंचिदविषह्यं भवेद् रणे ॥ २ ॥
मूलम्
एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत।
न कर्णार्जुनयोः किंचिदविषह्यं भवेद् रणे ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— महाबाहु भरतनन्दन! तुम जैसा कह रहे हो, ठीक ऐसी ही बात है। वास्तवमें कर्ण और अर्जुनके लिये युद्धमें कुछ भी असाध्य नहीं हो सकता था॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुह्यमेतत् तु देवानां कथयिष्यामि तेऽनघ।
तन्निबोध महाबाहो यथा वृत्तमिदं पुरा ॥ ३ ॥
मूलम्
गुह्यमेतत् तु देवानां कथयिष्यामि तेऽनघ।
तन्निबोध महाबाहो यथा वृत्तमिदं पुरा ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनघ! यह देवताओंकी गुप्त बात है जिसको मैं तुम्हें बता रहा हूँ। महाबाहो! पूर्वकालके इस यथावत् वृत्तान्तको तुम ध्यान देकर सुनो॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रं स्वर्गं कथं गच्छेच्छस्त्रपूतमिति प्रभो।
संघर्षजननस्तस्मात् कन्यागर्भो विनिर्मितः ॥ ४ ॥
मूलम्
क्षत्रं स्वर्गं कथं गच्छेच्छस्त्रपूतमिति प्रभो।
संघर्षजननस्तस्मात् कन्यागर्भो विनिर्मितः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! एक समय देवताओंने यह विचार किया कि कौन-सा ऐसा उपाय हो, जिससे भूमण्डलका सारा क्षत्रिय-समुदाय शस्त्रोंके आघातसे पवित्र हो स्वर्गलोकमें पहुँच जाय। यह सोचकर उन्होंने सूर्यद्वारा कुमारी कुन्तीके गर्भसे एक तेजस्वी बालक उत्पन्न कराया, जो संघर्षका जनक हुआ॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स बालस्तेजसा युक्तः सूतपुत्रत्वमागतः।
चकाराङ्गिरसां श्रेष्ठाद् धनुर्वेदं गुरोस्तदा ॥ ५ ॥
मूलम्
स बालस्तेजसा युक्तः सूतपुत्रत्वमागतः।
चकाराङ्गिरसां श्रेष्ठाद् धनुर्वेदं गुरोस्तदा ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वही तेजस्वी बालक सूतपुत्रके रूपमें प्रसिद्ध हुआ। उसने अंगिरागोत्रीय ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ गुरु द्रोणाचार्यसे धनुर्वेदकी शिक्षा प्राप्त की॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स बलं भीमसेनस्य फाल्गुनस्य च लाघवम्।
बुद्धिं च तव राजेन्द्र यमयोर्विनयं तदा ॥ ६ ॥
सख्यं च वासुदेवेन बाल्ये गाण्डीवधन्वनः।
प्रजानामनुरागं च चिन्तयानो व्यदह्यत ॥ ७ ॥
मूलम्
स बलं भीमसेनस्य फाल्गुनस्य च लाघवम्।
बुद्धिं च तव राजेन्द्र यमयोर्विनयं तदा ॥ ६ ॥
सख्यं च वासुदेवेन बाल्ये गाण्डीवधन्वनः।
प्रजानामनुरागं च चिन्तयानो व्यदह्यत ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! वह भीमसेनका बल, अर्जुनकी फुर्ती, आपकी बुद्धि, नकुल और सहदेवकी विनय, गाण्डीवधारी अर्जुनकी श्रीकृष्णके साथ बचपनमें ही मित्रता तथा पाण्डवोंपर प्रजाका अनुराग देखकर चिन्तामग्न हो जलता रहता था॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सख्यमकरोद् बाल्ये राज्ञा दुर्योधनेन च।
युष्माभिर्नित्यसंद्विष्टो दैवाच्चापि स्वभावतः ॥ ८ ॥
मूलम्
स सख्यमकरोद् बाल्ये राज्ञा दुर्योधनेन च।
युष्माभिर्नित्यसंद्विष्टो दैवाच्चापि स्वभावतः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसीलिये उसने बाल्यावस्थामें ही राजा दुर्योधनके साथ मित्रता स्थापित कर ली और दैवकी प्रेरणासे तथा स्वभाववश भी वह आपलोगोंके साथ सदा द्वेष रखने लगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीर्याधिकमथालक्ष्य धनुर्वेदे धनंजयम् ।
द्रोणं रहस्युपागम्य कर्णो वचनमब्रवीत् ॥ ९ ॥
मूलम्
वीर्याधिकमथालक्ष्य धनुर्वेदे धनंजयम् ।
द्रोणं रहस्युपागम्य कर्णो वचनमब्रवीत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन अर्जुनको धनुर्वेदमें अधिक शक्तिशाली देख कर्णने एकान्तमें द्रोणाचार्यके पास जाकर कहा॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मास्त्रं वेत्तुमिच्छामि सरहस्यनिवर्तनम् ।
अर्जुनेन समं चाहं युध्येयमिति मे मतिः ॥ १० ॥
समः शिष्येषु वः स्नेहः पुत्रे चैव तथा ध्रुवम्।
त्वत्प्रसादान्न मां ब्रूयुकृतास्त्रं विचक्षणाः ॥ ११ ॥
मूलम्
ब्रह्मास्त्रं वेत्तुमिच्छामि सरहस्यनिवर्तनम् ।
अर्जुनेन समं चाहं युध्येयमिति मे मतिः ॥ १० ॥
समः शिष्येषु वः स्नेहः पुत्रे चैव तथा ध्रुवम्।
त्वत्प्रसादान्न मां ब्रूयुकृतास्त्रं विचक्षणाः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘गुरुदेव! मैं ब्रह्मास्त्रको उसके छोड़ने और लौटानेके रहस्यसहित जानना चाहता हूँ। मेरी इच्छा है कि मैं अर्जुनके साथ युद्ध करूँ। निश्चय ही आपका सभी शिष्यों और पुत्रपर बराबर स्नेह है। आपकी कृपासे विद्वान् पुरुष यह न कहें कि यह सभी अस्त्रोंका ज्ञाता नहीं है’॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणस्तथोक्तः कर्णेन सापेक्षः फाल्गुनं प्रति।
दौरात्म्यं चैव कर्णस्य विदित्वा तमुवाच ह ॥ १२ ॥
मूलम्
द्रोणस्तथोक्तः कर्णेन सापेक्षः फाल्गुनं प्रति।
दौरात्म्यं चैव कर्णस्य विदित्वा तमुवाच ह ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णके ऐसा कहनेपर अर्जुनके प्रति पक्षपात रखनेवाले द्रोणाचार्य कर्णकी दुष्टताको समझकर उससे बोले—॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मास्त्रं ब्राह्मणो विद्याद् यथावच्चरितव्रतः।
क्षत्रियो वा तपस्वी यो नान्यो विद्यात् कथंचन ॥ १३ ॥
मूलम्
ब्रह्मास्त्रं ब्राह्मणो विद्याद् यथावच्चरितव्रतः।
क्षत्रियो वा तपस्वी यो नान्यो विद्यात् कथंचन ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वत्स! ब्रह्मास्त्रको ठीक-ठीक ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करनेवाला ब्राह्मण जान सकता है अथवा तपस्वी क्षत्रिय। दूसरा कोई किसी तरह इसे नहीं सीख सकता’॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तोऽङ्गिरसां श्रेष्ठमामन्त्र्य प्रतिपूज्य च।
जगाम सहसा रामं महेन्द्रं पर्वतं प्रति ॥ १४ ॥
मूलम्
इत्युक्तोऽङ्गिरसां श्रेष्ठमामन्त्र्य प्रतिपूज्य च।
जगाम सहसा रामं महेन्द्रं पर्वतं प्रति ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके ऐसा कहने पर अंगिरागोत्रीय ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्यकी आज्ञा ले उनका यथोचित सम्मान करके कर्ण सहसा महेन्द्र पर्वतपर परशुरामजीके पास चला गया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु राममुपागम्य शिरसाभिप्रणम्य च।
ब्राह्मणो भार्गवोऽस्मीति गौरवेणाभ्यगच्छत ॥ १५ ॥
मूलम्
स तु राममुपागम्य शिरसाभिप्रणम्य च।
ब्राह्मणो भार्गवोऽस्मीति गौरवेणाभ्यगच्छत ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परशुरामजीके पास जाकर उसने मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और ‘मैं भृगुवंशी ब्राह्मण हूँ’ ऐसा कहकर उसने गुरुभावसे उनकी शरण ली॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामस्तं प्रतिजग्राह पृष्ट्वा गोत्रादि सर्वशः।
उष्यतां स्वागतं चेति प्रीतिमांश्चाभवद् भृशम् ॥ १६ ॥
मूलम्
रामस्तं प्रतिजग्राह पृष्ट्वा गोत्रादि सर्वशः।
उष्यतां स्वागतं चेति प्रीतिमांश्चाभवद् भृशम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परशुरामजीने गोत्र आदि सारी बातें पूछकर उसे शिष्यभावसे स्वीकार कर लिया और कहा—‘वत्स! तुम यहाँ रहो। तुम्हारा स्वागत है।’ ऐसा कहकर वे मुनि उसपर बहुत प्रसन्न हुए॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र कर्णस्य वसतो महेन्द्रे स्वर्गसंनिभे।
गन्धर्वै राक्षसैर्यक्षैर्देवैश्चासीत् समागमः ॥ १७ ॥
मूलम्
तत्र कर्णस्य वसतो महेन्द्रे स्वर्गसंनिभे।
गन्धर्वै राक्षसैर्यक्षैर्देवैश्चासीत् समागमः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वर्गलोकके सदृश मनोहर उस महेन्द्र पर्वतपर रहते हुए कर्णको गन्धर्वों, राक्षसों, यक्षों तथा देवताओंसे मिलनेका अवसर प्राप्त होता रहता था॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तत्रेष्वस्त्रमकरोद् भृगुश्रेष्ठाद् यथाविधि।
प्रियश्चाभवदत्यर्थं देवदानवरक्षसाम् ॥ १८ ॥
मूलम्
स तत्रेष्वस्त्रमकरोद् भृगुश्रेष्ठाद् यथाविधि।
प्रियश्चाभवदत्यर्थं देवदानवरक्षसाम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस पर्वतपर भृगुश्रेष्ठ परशुरामजीसे विधिपूर्वक धनुर्वेद सीखकर कर्ण उसका अभ्यास करने लगा। वह देवताओं, दानवों एवं राक्षसोंका अत्यन्त प्रिय हो गया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कदाचित् समुद्रान्ते विचरन्नाश्रमान्तिके।
एकः खड्गधनुष्पाणिः परिचक्राम सूर्यजः ॥ १९ ॥
मूलम्
स कदाचित् समुद्रान्ते विचरन्नाश्रमान्तिके।
एकः खड्गधनुष्पाणिः परिचक्राम सूर्यजः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिनकी बात है, सूर्यपुत्र कर्ण हाथमें धनुष बाण और तलवार ले समुद्रके तटपर आश्रमके पास ही अकेला टहल रहा था॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽग्निहोत्रप्रसक्तस्य कस्यचिद् ब्रह्मवादिनः ।
जघानाज्ञानतः पार्थ होमधेनुं यदृच्छया ॥ २० ॥
मूलम्
सोऽग्निहोत्रप्रसक्तस्य कस्यचिद् ब्रह्मवादिनः ।
जघानाज्ञानतः पार्थ होमधेनुं यदृच्छया ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! उस समय अग्निहोत्रमें लगे हुए किसी वेदपाठी ब्राह्मणकी होमधेनु उधर आ निकली। उसने अनजानमें उस धेनुको (हिंस्र जीव समझकर) अकस्मात् मार डाला1॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदज्ञानकृतं मत्वा ब्राह्मणाय न्यवेदयत्।
कर्णः प्रसादयंश्चैनमिदमित्यब्रवीद् वचः ॥ २१ ॥
मूलम्
तदज्ञानकृतं मत्वा ब्राह्मणाय न्यवेदयत्।
कर्णः प्रसादयंश्चैनमिदमित्यब्रवीद् वचः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनजानमें यह अपराध बन गया है, ऐसा समझकर कर्णने ब्राह्मणको सारा हाल बता दिया और उसे प्रसन्न करते हुए इस प्रकार कहा—॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अबुद्धिपूर्वं भगवन् धेनुरेषा हता तव।
मया तत्र प्रसादं च कुरुष्वेति पुनः पुनः ॥ २२ ॥
मूलम्
अबुद्धिपूर्वं भगवन् धेनुरेषा हता तव।
मया तत्र प्रसादं च कुरुष्वेति पुनः पुनः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवन्! मैंने अनजानमें आपकी गाय मार डाली है, अतः आप मेरा यह अपराध क्षमा करके मुझपर कृपा कीजिये,’ कर्णने इस बातको बार-बार दुहराया॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं स विप्रोऽब्रवीत् क्रुद्धो वाचा निर्भर्त्सयन्निव।
दुराचार वधार्हस्त्वं फलं प्राप्नुहि दुर्मते ॥ २३ ॥
येन विस्पर्धसे नित्यं यदर्थं घटसेऽनिशम्।
युध्यतस्तेन ते पाप भूमिश्चक्रं ग्रसिष्यति ॥ २४ ॥
मूलम्
तं स विप्रोऽब्रवीत् क्रुद्धो वाचा निर्भर्त्सयन्निव।
दुराचार वधार्हस्त्वं फलं प्राप्नुहि दुर्मते ॥ २३ ॥
येन विस्पर्धसे नित्यं यदर्थं घटसेऽनिशम्।
युध्यतस्तेन ते पाप भूमिश्चक्रं ग्रसिष्यति ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण उसकी बात सुनते ही कुपित हो उठा और कठोर वाणीद्वारा उसे डाँटता हुआ-सा बोला—‘दुराचारी! तू मार डालने योग्य है। दुर्मते! तू अपने इस पापका फल प्राप्त कर ले। पापी! तू जिसके साथ सदा ईर्ष्या रखता है और जिसे परास्त करनेके लिये निरन्तर चेष्टा करता है, उसके साथ युद्ध करते हुए तेरे रथके पहियेको धरती निगल जायगी॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्चक्रे महीग्रस्ते मूर्धानं ते विचेतसः।
पातयिष्यति विक्रम्य शत्रुर्गच्छ नराधम ॥ २५ ॥
मूलम्
ततश्चक्रे महीग्रस्ते मूर्धानं ते विचेतसः।
पातयिष्यति विक्रम्य शत्रुर्गच्छ नराधम ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नराधम! जब पृथ्वीमें तेरा पहिया फँस जायगा और तू अचेत-सा हो रहा होगा, उस समय तेरा शत्रु पराक्रम करके तेरे मस्तकको काट गिरायेगा। अब तू चला जा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथेयं गौर्हता मूढ प्रमत्तेन त्वया मम।
प्रमत्तस्य तथारातिः शिरस्ते पातयिष्यति ॥ २६ ॥
मूलम्
यथेयं गौर्हता मूढ प्रमत्तेन त्वया मम।
प्रमत्तस्य तथारातिः शिरस्ते पातयिष्यति ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ओ मूढ! जैसे असावधान होकर तूने इस गौका वध किया है, उसी प्रकार असावधान-अवस्थामें ही शत्रु तेरा सिर काट डालेगा’॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शप्तः प्रसादयामास कर्णस्तं द्विजसत्तमम्।
गोभिर्धनैश्च रत्नैश्च स चैनं पुनरब्रवीत् ॥ २७ ॥
मूलम्
शप्तः प्रसादयामास कर्णस्तं द्विजसत्तमम्।
गोभिर्धनैश्च रत्नैश्च स चैनं पुनरब्रवीत् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार शाप प्राप्त होनेपर कर्णने उस श्रेष्ठ ब्राह्मणको बहुत-सी गौएँ, धन और रत्न देकर उसे प्रसन्न करनेकी चेष्टा की। तब उसने फिर इस प्रकार उत्तर दिया—॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि मेऽव्याहृतं कुर्यात् सर्वलोकोऽपि केवलम्।
गच्छ वा तिष्ठ वा यद् वा कार्यं ते तत् समाचर॥२८॥
मूलम्
न हि मेऽव्याहृतं कुर्यात् सर्वलोकोऽपि केवलम्।
गच्छ वा तिष्ठ वा यद् वा कार्यं ते तत् समाचर॥२८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सारा संसार आ जाय तो भी कोई मेरी बातको झूठी नहीं कर सकता। तू यहाँसे जा या खड़ा रह अथवा तुझे जो कुछ करना हो, वह कर ले’॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तो ब्राह्मणेनाथ कर्णो दैन्यादधोमुखः।
राममभ्यगमद् भीतस्तदेव मनसा स्मरन् ॥ २९ ॥
मूलम्
इत्युक्तो ब्राह्मणेनाथ कर्णो दैन्यादधोमुखः।
राममभ्यगमद् भीतस्तदेव मनसा स्मरन् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणके ऐसा कहनेपर कर्णको बड़ा भय हुआ। उसने दीनतावश सिर झुका लिया। वह मन-ही-मन उस बातका चिन्तन करता हुआ परशुरामजीके पास लौट आया॥२९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि कर्णशापो नाम द्वितीयोध्यायः ॥ २ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें कर्णको ब्राह्मणका शापनामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ॥२॥
-
कर्णपर्वमें भी यह प्रसंग आया है, वहाँ कर्णके द्वारा बछड़ेके मारे जानेका उल्लेख है; अतः यहाँ भी होमधेनुका बछड़ा ही समझना चाहिये। ↩︎