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॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
सूचना (हिन्दी)
श्रीमहाभारतम्
भागसूचना
शान्तिपर्व
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राजधर्मानुशासनपर्व
भागसूचना
प्रथमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरके पास नारद आदि महर्षियोंका आगमन और युधिष्ठिरका कर्णके साथ अपना सम्बन्ध बताते हुए कर्णको शाप मिलनेका वृत्तान्त पूछना
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥
मूलम्
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण (उनके नित्य सखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करनेवाली) भगवती सरस्वती और (उनकी लीलाओंका संकलन करनेवाले) महर्षि वेदव्यासको नमस्कार करके जय (महाभारत) का पाठ करना चाहिये॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतोदकास्ते सुहृदां सर्वेषां पाण्डुनन्दनाः।
विदुरो धृतराष्ट्रश्च सर्वाश्च भरतस्त्रियः ॥ १ ॥
मूलम्
कृतोदकास्ते सुहृदां सर्वेषां पाण्डुनन्दनाः।
विदुरो धृतराष्ट्रश्च सर्वाश्च भरतस्त्रियः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! पाण्डव, विदुर, धृतराष्ट्र तथा भरतवंशकी सम्पूर्ण स्त्रियाँ—इन सबने गंगाजीमें अपने समस्त सुहृदोंके लिये जलांजलियाँ प्रदान कीं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र ते सुमहात्मानो न्यवसन् पाण्डुनन्दनाः।
शौचं निवर्तयिष्यन्तो मासमात्रं बहिः पुरात् ॥ २ ॥
मूलम्
तत्र ते सुमहात्मानो न्यवसन् पाण्डुनन्दनाः।
शौचं निवर्तयिष्यन्तो मासमात्रं बहिः पुरात् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वे महामनस्वी पाण्डव आत्मशुद्धिका सम्पादन करनेके लिये एक मासतक वहीं (गंगातटपर) नगरसे बाहर टिके रहे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतोदकं तु राजानं धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्।
अभिजग्मुर्महात्मानः सिद्धा ब्रह्मर्षिसत्तमाः ॥ ३ ॥
मूलम्
कृतोदकं तु राजानं धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्।
अभिजग्मुर्महात्मानः सिद्धा ब्रह्मर्षिसत्तमाः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मृतकोंके लिये जलांजलि देकर बैठे हुए धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरके पास बहुतसे श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि सिद्ध महात्मा पधारे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वैपायनो नारदश्च देवलश्च महानृषिः।
देवस्थानश्च कण्वश्च तेषां शिष्याश्च सत्तमाः ॥ ४ ॥
मूलम्
द्वैपायनो नारदश्च देवलश्च महानृषिः।
देवस्थानश्च कण्वश्च तेषां शिष्याश्च सत्तमाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्वैपायन व्यास, नारद, महर्षि देवल, देवस्थान, कण्व तथा उनके श्रेष्ठ शिष्य भी वहाँ आये थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्ये च वेदविद्वांसः कृतप्रज्ञा द्विजातयः।
गृहस्थाः स्नातकाः सन्तो ददृशः कुरुसत्तमम् ॥ ५ ॥
मूलम्
अन्ये च वेदविद्वांसः कृतप्रज्ञा द्विजातयः।
गृहस्थाः स्नातकाः सन्तो ददृशः कुरुसत्तमम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके अतिरिक्त अनेक वेदवेत्ता एवं पवित्र बुद्धिवाले ब्राह्मण, गृहस्थ एवं स्नातक संत भी वहाँ आकर कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिरसे मिले॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेऽभिगम्य महात्मानः पूजिताश्च यथाविधि।
आसनेषु महार्हेषु विविशुस्ते महर्षयः ॥ ६ ॥
मूलम्
तेऽभिगम्य महात्मानः पूजिताश्च यथाविधि।
आसनेषु महार्हेषु विविशुस्ते महर्षयः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे महात्मा महर्षि वहाँ पहुँचकर विधिपूर्वक पूजित हो राजाके दिये हुए बहुमूल्य आसनोंपर विराजमान हुए॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिगृह्य ततः पूजां तत्कालसदृशीं तदा।
पर्युपासन् यथान्यायं परिवार्य युधिष्ठिरम् ॥ ७ ॥
पुण्ये भागीरथीतीरे शोकव्याकुलचेतसम् ।
आश्वासयन्तो राजानं विप्राः शतसहस्रशः ॥ ८ ॥
मूलम्
प्रतिगृह्य ततः पूजां तत्कालसदृशीं तदा।
पर्युपासन् यथान्यायं परिवार्य युधिष्ठिरम् ॥ ७ ॥
पुण्ये भागीरथीतीरे शोकव्याकुलचेतसम् ।
आश्वासयन्तो राजानं विप्राः शतसहस्रशः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समयके अनुरूप पूजा स्वीकार करके वे सैकड़ों हजारों ब्रह्मर्षि भागीरथीके पावन तटपर शोकसे व्याकुलचित्त हुए राजा युधिष्ठिरको सब ओरसे घेरकर आश्वासन देते हुए यथोचितरूपसे उनके पास बैठे रहे॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारदस्त्वब्रवीत् काले धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्।
सम्भाष्य मुनिभिः सार्धं कृष्णद्वैपायनादिभिः ॥ ९ ॥
मूलम्
नारदस्त्वब्रवीत् काले धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्।
सम्भाष्य मुनिभिः सार्धं कृष्णद्वैपायनादिभिः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय श्रीकृष्णद्वैपायन आदि मुनियोंके साथ बातचीत करके सबसे पहले नारदजीने धर्मपुत्र युधिष्ठिरसे कहा—॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवता बाहुवीर्येण प्रसादान्माधवस्य च।
जितेयमवनिः कृत्स्ना धर्मेण च युधिष्ठिर ॥ १० ॥
मूलम्
भवता बाहुवीर्येण प्रसादान्माधवस्य च।
जितेयमवनिः कृत्स्ना धर्मेण च युधिष्ठिर ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज युधिष्ठिर! आपने अपने बाहुबल, भगवान् श्रीकृष्णकी कृपा तथा धर्मके प्रभावसे इस सम्पूर्ण पृथ्वीपर विजय पायी है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या मुक्तस्तु संग्रामादस्माल्लोकभयंकरात् ।
क्षत्रधर्मरतश्चापि कच्चिन्मोदसि पाण्डव ॥ ११ ॥
मूलम्
दिष्ट्या मुक्तस्तु संग्रामादस्माल्लोकभयंकरात् ।
क्षत्रधर्मरतश्चापि कच्चिन्मोदसि पाण्डव ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पाण्डुनन्दन! सौभाग्यकी बात है कि आप सम्पूर्ण जगत्को भयमें डालनेवाले इस संग्रामसे छुटकारा पा गये। अब क्षत्रियधर्मके पालनमें तत्पर रहकर आप प्रसन्न तो हैं न?॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच्चिच्च निहतामित्रः प्रीणासि सुहृदो नृप।
कच्चिच्छ्रियमिमां प्राप्य न त्वां शोकः प्रबाधते ॥ १२ ॥
मूलम्
कच्चिच्च निहतामित्रः प्रीणासि सुहृदो नृप।
कच्चिच्छ्रियमिमां प्राप्य न त्वां शोकः प्रबाधते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! आपके शत्रु तो मारे जा चुके। अब आप अपने सुहृदोंको तो प्रसन्न रखते हैं न? इस राज्यलक्ष्मीको पाकर आपको कोई शोक तो नहीं सता रहा है?’॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विजितेयं मही कृत्स्ना कृष्णबाहुबलाश्रयात्।
ब्राह्मणानां प्रसादेन भीमार्जुनबलेन च ॥ १३ ॥
मूलम्
विजितेयं मही कृत्स्ना कृष्णबाहुबलाश्रयात्।
ब्राह्मणानां प्रसादेन भीमार्जुनबलेन च ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— मुने! भगवान् श्रीकृष्णके बाहुबलका आश्रय लेनेसे ब्राह्मणोंकी कृपा होनेसे तथा भीमसेन और अर्जुनके बलसे इस सारी पृथ्वीपर विजय प्राप्त हुई॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं मम महद् दुःखं वर्तते हृदि नित्यदा।
कृत्वा ज्ञातिक्षयमिमं महान्तं लोभकारितम् ॥ १४ ॥
मूलम्
इदं मम महद् दुःखं वर्तते हृदि नित्यदा।
कृत्वा ज्ञातिक्षयमिमं महान्तं लोभकारितम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तु मेरे हृदयमें निरन्तर यह महान् दुःख बना रहता है कि मैंने लोभवश अपने बन्धु-बान्धवोंका महान् संहार करा डाला॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सौभद्रं द्रौपदेयांश्च घातयित्वा सुतान् प्रियान्।
जयोऽयमजयाकारो भगवन् प्रतिभाति मे ॥ १५ ॥
मूलम्
सौभद्रं द्रौपदेयांश्च घातयित्वा सुतान् प्रियान्।
जयोऽयमजयाकारो भगवन् प्रतिभाति मे ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! सुभद्राकुमार अभिमन्यु तथा द्रौपदीके प्यारे पुत्रोंको मरवाकर मिली हुई यह विजय भी मुझे पराजय-सी ही जान पड़ती है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं नु वक्ष्यति वार्ष्णेयी वधूर्मे मधुसूदनम्।
द्वारकावासिनी कृष्णमितः प्रतिगतं हरिम् ॥ १६ ॥
मूलम्
किं नु वक्ष्यति वार्ष्णेयी वधूर्मे मधुसूदनम्।
द्वारकावासिनी कृष्णमितः प्रतिगतं हरिम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृष्णिकुलकी कन्या मेरी बहू सुभद्रा, जो इस समय द्वारकामें रहती है, जब मधुसूदन श्रीकृष्ण यहाँसे लौटकर द्वारका जायँगे, तब इनसे क्या कहेगी?॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौपदी हतपुत्रेयं कृपणा हतबान्धवा।
अस्मत्प्रियहिते युक्ता भूयः पीडयतीव माम् ॥ १७ ॥
मूलम्
द्रौपदी हतपुत्रेयं कृपणा हतबान्धवा।
अस्मत्प्रियहिते युक्ता भूयः पीडयतीव माम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह द्रुपदकुमारी कृष्णा अपने पुत्रोंके मारे जानेसे अत्यन्त दीन हो गयी है। इस बेचारीके भाई-बन्धु भी मार डाले गये। यह हमलोंगोंके प्रिय और हितमें सदा लगी रहती है। मैं जब-जब इसकी ओर देखता हूँ तब-तब मेरे मनमें अधिक-से-अधिक पीड़ा होने लगती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदमन्यत् तु भगवन् यत् त्वां वक्ष्यामि नारद।
मन्त्रसंवरणेनास्मि कुन्त्या दुःखेन योजितः ॥ १८ ॥
मूलम्
इदमन्यत् तु भगवन् यत् त्वां वक्ष्यामि नारद।
मन्त्रसंवरणेनास्मि कुन्त्या दुःखेन योजितः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन् नारद! यह दूसरी बात जो मैं आपसे बता रहा हूँ और भी दुःख देनेवाली है। मेरी माता कुन्तीने कर्णके जन्मका रहस्य छिपाकर मुझे बड़े भारी दुःखमें डाल दिया है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः स नागायुतबलो लोकेऽप्रतिरथो रणे।
सिंहखेलगतिर्धीमान् घृणी दाता यतव्रतः ॥ १९ ॥
आश्रयो धार्तराष्ट्राणां मानी तीक्ष्णपराक्रमः।
अमर्षी नित्यसंरम्भी क्षेप्तास्माकं रणे रणे ॥ २० ॥
शीघ्रास्त्रश्चित्रयोधी च कृती चाद्भुतविक्रमः।
गूढोत्पन्नः सुतः कुन्त्या भ्रातास्माकमसौ किल ॥ २१ ॥
मूलम्
यः स नागायुतबलो लोकेऽप्रतिरथो रणे।
सिंहखेलगतिर्धीमान् घृणी दाता यतव्रतः ॥ १९ ॥
आश्रयो धार्तराष्ट्राणां मानी तीक्ष्णपराक्रमः।
अमर्षी नित्यसंरम्भी क्षेप्तास्माकं रणे रणे ॥ २० ॥
शीघ्रास्त्रश्चित्रयोधी च कृती चाद्भुतविक्रमः।
गूढोत्पन्नः सुतः कुन्त्या भ्रातास्माकमसौ किल ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनमें दस हजार हाथियोंका बल था, संसारमें जिनका सामना करनेवाला दूसरा कोई भी महारथी नहीं था, जो रणभूमिमें सिंहके समान खेलते हुए विचरते थे, जो बुद्धिमान् दयालु, दाता, सयंमपूर्वक व्रतका पालन करनेवाले और धृतराष्ट्रपुत्रोंके आश्रय थे; अभिमानी, तीव्रपराक्रमी, अमर्षशील, नित्य रोषमें भरे रहनेवाले तथा प्रत्येक युद्धमें हमलोगोंपर अस्त्रों एवं वाग्बाणोंका प्रहार करनेवाले थे, जिनमें विचित्र प्रकारसे युद्ध करनेकी कला थी, जो शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलानेवाले, धनुर्वेदके विद्वान् तथा अद्भुत पराक्रम कर दिखानेवाले थे, वे कर्ण गुप्तरूपसे उत्पन्न हुए कुन्तीके पुत्र और हमलोगोंके बड़े भाई थे; यह बात हमारे सुननेमें आयी है॥१९—२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तोयकर्मणि तं कुन्ती कथयामास सूर्यजम्।
पुत्रं सर्वगुणोपेतमवकीर्णं जले पुरा ॥ २२ ॥
मूलम्
तोयकर्मणि तं कुन्ती कथयामास सूर्यजम्।
पुत्रं सर्वगुणोपेतमवकीर्णं जले पुरा ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जलदान करते समय स्वयं माता कुन्तीने यह रहस्य बताया था कि कर्ण भगवान् सूर्यके अंशसे उत्पन्न हुआ मेरा ही सर्वगुणसम्पन्न पुत्र रहा है, जिसे मैंने पहले पानीमें बहा दिया था॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मञ्जूषायां समाधाय गङ्गास्रोतस्यमज्जयत् ।
यं सूतपुत्रं लोकोऽयं राधेयं चाभ्यमन्यत ॥ २३ ॥
स ज्येष्ठपुत्रः कुन्त्या वै भ्रातास्माकं च मातृजः।
मूलम्
मञ्जूषायां समाधाय गङ्गास्रोतस्यमज्जयत् ।
यं सूतपुत्रं लोकोऽयं राधेयं चाभ्यमन्यत ॥ २३ ॥
स ज्येष्ठपुत्रः कुन्त्या वै भ्रातास्माकं च मातृजः।
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी! मेरी माता कुन्तीने कर्णको जन्मके पश्चात् एक पेटीमें रखकर गङ्गाजीकी धारामें बहाया था। जिन्हें यह सारा संसार अबतक अधिरथ सूत एवं राधाका पुत्र समझता था, वे कुन्तीके ज्येष्ठ पुत्र और हमलोगोंके सहोदर भाई थे॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजानता मया भ्रात्रा राज्यलुब्धेन घातितः ॥ २४ ॥
तन्मे दहति गात्राणि तूलराशिमिवानलः।
मूलम्
अजानता मया भ्रात्रा राज्यलुब्धेन घातितः ॥ २४ ॥
तन्मे दहति गात्राणि तूलराशिमिवानलः।
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने अनजानमें राज्यके लोभमें आकर भाईके हाथसे ही भाईका वध करा दिया। इस बातकी चिन्ता मेरे अंगोंको उसी प्रकार जला रही है, जैसे आग रूईके ढेरको भस्म कर देती है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि तं वेद पार्थोऽपि भ्रातरं श्वेतवाहनः ॥ २५ ॥
नाहं न भीमो न यमौ स त्वस्मान् वेद सुव्रतः।
मूलम्
न हि तं वेद पार्थोऽपि भ्रातरं श्वेतवाहनः ॥ २५ ॥
नाहं न भीमो न यमौ स त्वस्मान् वेद सुव्रतः।
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन श्वेतवाहन अर्जुन भी उन्हें भाईके रूपमें नहीं जानते थे। मुझको, भीमसेनको तथा नकुल-सहदेवको भी इस बातका पता नहीं था; किंतु उत्तम व्रतका पालन करनेवाले कर्ण हमें अपने भाईके रूपमें जानते थे॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गता किल पृथा तस्य सकाशमिति नः श्रुतम् ॥ २६ ॥
अस्माकं शमकामा वै त्वं च पुत्रो ममेत्यथ।
पृथाया न कृतः कामस्तेन चापि महात्मना ॥ २७ ॥
मूलम्
गता किल पृथा तस्य सकाशमिति नः श्रुतम् ॥ २६ ॥
अस्माकं शमकामा वै त्वं च पुत्रो ममेत्यथ।
पृथाया न कृतः कामस्तेन चापि महात्मना ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुननेमें आया है कि मेरी माता कुन्ती हमलोगोंमें संधि करानेकी इच्छासे उनके पास गयी थीं और उन्हें बताया था कि ‘तुम मेरे पुत्र हो।’ परन्तु महामनस्वी कर्णने माता कुन्तीकी यह इच्छा पूरी नहीं की॥२६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि पश्चादिदं मातर्यवोचदिति नः श्रुतम्।
न हि शक्ष्याम्यहं त्यक्तुं नृपं दुर्योधनं रणे ॥ २८ ॥
अनार्यत्वं नृशंसत्वं कृतघ्नत्वं च मे भवेत्।
मूलम्
अपि पश्चादिदं मातर्यवोचदिति नः श्रुतम्।
न हि शक्ष्याम्यहं त्यक्तुं नृपं दुर्योधनं रणे ॥ २८ ॥
अनार्यत्वं नृशंसत्वं कृतघ्नत्वं च मे भवेत्।
अनुवाद (हिन्दी)
हमने यह भी सुना है कि उन्होंने पीछे माता कुन्तीको यह जवाब दिया कि ‘मैं युद्धके समय राजा दुर्योधनका साथ नहीं छोड़ सकता; क्योंकि ऐसा करनेसे मेरी नीचता, क्रूरता और कृतघ्नता सिद्ध होगी॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरेण संधिं हि यदि कुर्यां मते तव ॥ २९ ॥
भीतो रणे श्वेतवाहादिति मां मंस्यते जनः।
मूलम्
युधिष्ठिरेण संधिं हि यदि कुर्यां मते तव ॥ २९ ॥
भीतो रणे श्वेतवाहादिति मां मंस्यते जनः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘माताजी! यदि तुम्हारे मतके अनुसार मैं इस समय युधिष्ठिरके साथ संधि कर लूँ तो सब लोग यही समझेंगे कि ‘कर्ण युद्धमें अर्जुनसे डर गया’॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽहं निर्जित्य समरे विजयं सहकेशवम् ॥ ३० ॥
संधास्ये धर्मपुत्रेण पश्चादिति च सोऽब्रवीत्।
मूलम्
सोऽहं निर्जित्य समरे विजयं सहकेशवम् ॥ ३० ॥
संधास्ये धर्मपुत्रेण पश्चादिति च सोऽब्रवीत्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः मैं पहले समरांगणमें श्रीकृष्णसहित अर्जुनको परास्त करके पीछे धर्मपुत्र युधिष्ठिरके साथ संधि करूँगा’ ऐसी बात उन्होंने कही॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुवाच किल पृथा पुनः पृथुलवक्षसम् ॥ ३१ ॥
चतुर्णामभयं देहि कामं युध्यस्व फाल्गुनम्।
मूलम्
तमुवाच किल पृथा पुनः पृथुलवक्षसम् ॥ ३१ ॥
चतुर्णामभयं देहि कामं युध्यस्व फाल्गुनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
तब कुन्तीने चौड़ी छातीवाले कर्णसे फिर कहा—‘बेटा! तुम इच्छानुसार अर्जुनसे युद्ध करो; किंतु अन्य चार भाइयोंको अभय दे दो’॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽब्रवीन्मातरं धीमान् वेपमानां कृताञ्जलिः ॥ ३२ ॥
प्राप्तान् विषह्यांश्चतुरो न हनिष्यामि ते सुतान्।
पञ्चैव हि सुता देवि भविष्यन्ति तव ध्रुवाः ॥ ३३ ॥
सार्जुना वा हते कर्णे सकर्णा वा हतेऽर्जुने।
मूलम्
सोऽब्रवीन्मातरं धीमान् वेपमानां कृताञ्जलिः ॥ ३२ ॥
प्राप्तान् विषह्यांश्चतुरो न हनिष्यामि ते सुतान्।
पञ्चैव हि सुता देवि भविष्यन्ति तव ध्रुवाः ॥ ३३ ॥
सार्जुना वा हते कर्णे सकर्णा वा हतेऽर्जुने।
अनुवाद (हिन्दी)
इतना कहकर माता कुन्ती थर्थर काँपने लगीं। तब बुद्धिमान् कर्णने हाथ जोड़कर मातासे कहा—‘देवि! तुम्हारे चार पुत्र मेरे वशमें आ जायँगे तो भी मैं उनका वध नहीं करूँगा। तुम्हारे पाँच पुत्र निश्चित रूपसे बने रहेंगे। यदि कर्ण मारा गया तो अर्जुनसहित तुम्हारे पाँच पुत्र होंगे और यदि अर्जुन मारे गये तो वे कर्णसहित पाँच होंगे’॥३२-३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं पुत्रगृद्धिनी भूयो माता पुत्रमथाब्रवीत् ॥ ३४ ॥
भ्रातॄणां स्वस्ति कुर्वीथा येषां स्वस्ति चिकीर्षसि।
एवमुक्त्वा किल पृथा विसृज्योपययौ गृहान् ॥ ३५ ॥
मूलम्
तं पुत्रगृद्धिनी भूयो माता पुत्रमथाब्रवीत् ॥ ३४ ॥
भ्रातॄणां स्वस्ति कुर्वीथा येषां स्वस्ति चिकीर्षसि।
एवमुक्त्वा किल पृथा विसृज्योपययौ गृहान् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब पुत्रोंका हित चाहनेवाली माताने पुनः अपने ज्येष्ठ पुत्रसे कहा—‘बेटा! तुम जिन चारों भाइयोंका कल्याण करना चाहते हो, उनका अवश्य भला करना’ ऐसा कहकर माता कर्णको छोड़कर घर लौट आयीं॥३४-३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽर्जुनेन हतो वीरो भ्रात्रा भ्राता सहोदरः।
न चैव विवृतो मन्त्रः पृथायास्तस्य वा विभो ॥ ३६ ॥
मूलम्
सोऽर्जुनेन हतो वीरो भ्रात्रा भ्राता सहोदरः।
न चैव विवृतो मन्त्रः पृथायास्तस्य वा विभो ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस वीर सहोदर भाईको भाई अर्जुनने मार डाला। प्रभो! इस गुप्त रहस्यको न तो माता कुन्तीने प्रकट किया और न कर्णने ही॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ शूरो महेष्वासः पार्थेनाजौ निपातितः।
अहं त्वज्ञासिषं पश्चात् स्वसोदर्यं द्विजोत्तम ॥ ३७ ॥
पूर्वजं भ्रातरं कर्णं पृथाया वचनात् प्रभो।
तेन मे दूयते तीव्रं हृदयं भ्रातृघातिनः ॥ ३८ ॥
मूलम्
अथ शूरो महेष्वासः पार्थेनाजौ निपातितः।
अहं त्वज्ञासिषं पश्चात् स्वसोदर्यं द्विजोत्तम ॥ ३७ ॥
पूर्वजं भ्रातरं कर्णं पृथाया वचनात् प्रभो।
तेन मे दूयते तीव्रं हृदयं भ्रातृघातिनः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्विजश्रेष्ठ! तदनन्तर युद्धस्थलमें महाधनुर्धर शूरवीर कर्ण अर्जुनके हाथसे मारे गये। प्रभो! मुझे तो माता कुन्तीके ही कहनेसे बहुत पीछे यह बात मालूम हुई है कि ‘कर्ण हमारे ज्येष्ठ एवं सहोदर भाई थे।’ मैंने भाई की हत्या करायी है; इसलिये मेरे हृदयको तीव्र वेदना हो रही है॥३७-३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णार्जुनसहायोऽहं जयेयमपि वासवम् ।
सभायां क्लिश्यमानस्य धार्तराष्ट्रैर्दुरात्मभिः ॥ ३९ ॥
सहसोत्पतितः क्रोधः कर्णं दृष्ट्वा प्रशाम्यति।
मूलम्
कर्णार्जुनसहायोऽहं जयेयमपि वासवम् ।
सभायां क्लिश्यमानस्य धार्तराष्ट्रैर्दुरात्मभिः ॥ ३९ ॥
सहसोत्पतितः क्रोधः कर्णं दृष्ट्वा प्रशाम्यति।
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण और अर्जुनकी सहायता पाकर तो मैं देवराज इन्द्रको भी जीत सकता था। कौरवसभामें जब दुरात्मा धृतराष्ट्रपुत्रोंने मुझे बहुत क्लेश पहुँचाया, तब सहसा मेरे हृदयमें क्रोध प्रकट हो गया; परंतु कर्णको देखकर वह शान्त हो गया॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा ह्यस्य गिरो रूक्षाः शृणोमि कटुकोदयाः ॥ ४० ॥
सभायां गदतो द्यूते दुर्योधनहितैषिणः।
तदा नश्यति मे रोषः पादौ तस्य निरीक्ष्य ह॥४१॥
मूलम्
यदा ह्यस्य गिरो रूक्षाः शृणोमि कटुकोदयाः ॥ ४० ॥
सभायां गदतो द्यूते दुर्योधनहितैषिणः।
तदा नश्यति मे रोषः पादौ तस्य निरीक्ष्य ह॥४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब द्यूतसभामें दुर्योधनके हितकी इच्छासे वे बोलने लगते और मैं उनकी कड़वी एवं रूखी बातें सुनता, उस समय उनके पैरोंको देखकर मेरा बढ़ा हुआ रोष शान्त हो जाता था॥४०-४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुन्त्या हि सदृशौ पादौ कर्णस्येति मतिर्मम।
सादृश्यहेतुमन्विच्छन् पृथायास्तस्य चैव ह ॥ ४२ ॥
कारणं नाधिगच्छामि कथंचिदपि चिन्तयन्।
मूलम्
कुन्त्या हि सदृशौ पादौ कर्णस्येति मतिर्मम।
सादृश्यहेतुमन्विच्छन् पृथायास्तस्य चैव ह ॥ ४२ ॥
कारणं नाधिगच्छामि कथंचिदपि चिन्तयन्।
अनुवाद (हिन्दी)
मेरा विश्वास है कि कर्णके दोनों पैर माता कुन्तीके चरणोंके सदृश थे। कुन्ती और कर्णके पैरोंमें इतनी समानता क्यों है? इसका कारण ढूँढ़ता हुआ मैं बहुत सोचता-विचारता; परंतु किसी तरह कोई कारण नहीं समझ पाता था॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं नु तस्य संग्रामे पृथिवी चक्रमग्रसत् ॥ ४३ ॥
कथं नु शप्तो भ्राता मे तत्त्वं वक्तुमिहार्हसि।
मूलम्
कथं नु तस्य संग्रामे पृथिवी चक्रमग्रसत् ॥ ४३ ॥
कथं नु शप्तो भ्राता मे तत्त्वं वक्तुमिहार्हसि।
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी! संग्राममें कर्णके पहियेको पृथ्वी क्यों निगल गयी और मेरे बड़े भाई कर्णको कैसे यह शाप प्राप्त हुआ? इसे आप ठीक-ठीक बतानेकी कृपा करें॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रोतुमिच्छामि भगवंस्त्वत्तः सर्वं यथातथम्।
भवान् हि सर्वविद् विद्वात् लोके वेद कृताकृतम् ॥ ४४ ॥
मूलम्
श्रोतुमिच्छामि भगवंस्त्वत्तः सर्वं यथातथम्।
भवान् हि सर्वविद् विद्वात् लोके वेद कृताकृतम् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! मैं आपसे यह सारा वृत्तान्त यथार्थरूपसे सुनना चाहता हूँ; क्योंकि आप सर्वज्ञ विद्वान् हैं और लोकमें जो भूत और भविष्य कालकी घटनाएँ हैं, उन सबको जानते हैं॥४४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि कर्णाभिज्ञाने प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें कर्णकी पहचानविषयक पहला अध्याय पूरा हुआ॥१॥