०२३ गान्धारीवचने

भागसूचना

त्रयोविंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

शल्य, भगदत्त, भीष्म और द्रोणको देखकर श्रीकृष्णके सम्मुख गान्धारीका विलाप

मूलम् (वचनम्)

गान्धार्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष शल्यो हतः शेते साक्षान्नकुलमातुलः।
धर्मज्ञेन हतस्तात धर्मराजेन संयुगे ॥ १ ॥

मूलम्

एष शल्यो हतः शेते साक्षान्नकुलमातुलः।
धर्मज्ञेन हतस्तात धर्मराजेन संयुगे ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गान्धारी बोलीं— तात! देखो, ये नकुलके सगे मामा शल्य मरे पड़े हैं। इन्हें धर्मके ज्ञाता धर्मराज युधिष्ठिरने युद्धमें मारा है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्त्वया स्पर्धते नित्यं सर्वत्र पुरुषर्षभ।
स एष निहतः शेते मद्रराजो महाबलः ॥ २ ॥

मूलम्

यस्त्वया स्पर्धते नित्यं सर्वत्र पुरुषर्षभ।
स एष निहतः शेते मद्रराजो महाबलः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषोत्तम! जो सदा और सर्वत्र तुम्हारे साथ होड़ लगाये रहते थे, वे ही ये महाबली मद्रराज शल्य यहाँ मारे जाकर चिरनिद्रामें सो रहे हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन संगृह्णता तात रथमाधिरथेर्युधि।
जयार्थं पाण्डुपुत्राणां तथा तेजोवधः कृतः ॥ ३ ॥

मूलम्

येन संगृह्णता तात रथमाधिरथेर्युधि।
जयार्थं पाण्डुपुत्राणां तथा तेजोवधः कृतः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! ये वे ही शल्य हैं, जिन्होंने युद्धमें सूतपुत्र कर्णके रथकी बागडोर सँभालते समय पाण्डवोंकी विजयके लिये उसके तेज और उत्साहको नष्ट किया था॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो धिक्पश्य शल्यस्य पूर्णचन्द्रसुदर्शनम्।
मुखं पद्मपलाशाक्षं काकैरादष्टमव्रणम् ॥ ४ ॥

मूलम्

अहो धिक्पश्य शल्यस्य पूर्णचन्द्रसुदर्शनम्।
मुखं पद्मपलाशाक्षं काकैरादष्टमव्रणम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अहो! धिक्कार है। देखो न, शल्यके पूर्ण चन्द्रमाकी भाँति दर्शनीय तथा कमलदलके सदृश नेत्रोंवाले व्रणरहित मुखको कौओंने कुछ-कुछ काट दिया है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्य चामीकराभस्य तप्तकाञ्चनसप्रभा ।
आस्याद्‌ विनिःसृता जिह्वा भक्ष्यते कृष्ण पक्षिभिः ॥ ५ ॥

मूलम्

अस्य चामीकराभस्य तप्तकाञ्चनसप्रभा ।
आस्याद्‌ विनिःसृता जिह्वा भक्ष्यते कृष्ण पक्षिभिः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! सुवर्णके समान कान्तिमान् शल्यके मुखसे तपाये हुए सोनेके समान कान्तिवाली जीभ बाहर निकल आयी है और पक्षी उसे नोच-नोचकर खा रहे हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरेण निहतं शल्यं समितिशोभनम्।
रुदत्यः पर्युपासन्ते मद्रराजं कुलाङ्गनाः ॥ ६ ॥

मूलम्

युधिष्ठिरेण निहतं शल्यं समितिशोभनम्।
रुदत्यः पर्युपासन्ते मद्रराजं कुलाङ्गनाः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरके द्वारा मारे गये तथा युद्धमें शोभा पानेवाले मद्रराज शल्यको ये कुलांगनाएँ चारों ओरसे घेरकर बैठी हैं और रो रही हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एताः सुसूक्ष्मवसना मद्रराजं नरर्षभम्।
क्रोशन्त्योऽथ समासाद्य क्षत्रियाः क्षत्रियर्षभम् ॥ ७ ॥

मूलम्

एताः सुसूक्ष्मवसना मद्रराजं नरर्षभम्।
क्रोशन्त्योऽथ समासाद्य क्षत्रियाः क्षत्रियर्षभम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्यन्त महीन वस्त्र पहने हुए ये क्षत्राणियाँ क्षत्रिय-शिरोमणि नरश्रेष्ठ मद्रराजके पास आकर कैसा करुण क्रन्दन कर रही हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शल्यं निपतितं नार्यः परिवार्याभितः स्थिताः।
वासिता गृष्टयः पङ्के परिमग्नमिव द्विपम् ॥ ८ ॥

मूलम्

शल्यं निपतितं नार्यः परिवार्याभितः स्थिताः।
वासिता गृष्टयः पङ्के परिमग्नमिव द्विपम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रणभूमिमें गिरे हुए राजा शल्यको उनकी स्त्रियाँ उसी तरह सब ओरसे घेरे हुए हैं, जैसे एक बारकी ब्यायी हुई हथिनियाँ कीचड़में फँसे हुए गजराजको घेरकर खड़ी हों॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शल्यं शरणदं शूरं पश्येमं वृष्णिनन्दन।
शयानं वीरशयने शरैर्विशकलीकृतम् ॥ ९ ॥

मूलम्

शल्यं शरणदं शूरं पश्येमं वृष्णिनन्दन।
शयानं वीरशयने शरैर्विशकलीकृतम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृष्णिनन्दन! देखो, ये दूसरोंको शरण देनेवाले शूरवीर शल्य बाणोंसे छिन्न-भिन्न होकर वीरशय्यापर सो रहे हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष शैलालयो राजा भगदत्तः प्रतापवान्।
गजाङ्कुशधरः श्रीमान् शेते भुवि निपातितः ॥ १० ॥

मूलम्

एष शैलालयो राजा भगदत्तः प्रतापवान्।
गजाङ्कुशधरः श्रीमान् शेते भुवि निपातितः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये पर्वतीय, तेजस्वी एवं प्रतापी राजा भगदत्त हाथमें हाथीका अंकुश लिये पृथ्वीपर सो रहे हैं। इन्हें अर्जुनने मार गिराया था॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य रुक्ममयी माला शिरस्येषा विराजते।
श्वापदैर्भक्ष्यमाणस्य शोभयन्तीव मूर्धजान् ॥ ११ ॥

मूलम्

यस्य रुक्ममयी माला शिरस्येषा विराजते।
श्वापदैर्भक्ष्यमाणस्य शोभयन्तीव मूर्धजान् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्हें हिंसक जीव-जन्तु खा रहे हैं। इनके सिरपर यह सोनेकी माला विराज रही है, जो केशोंकी शोभा बढ़ाती-सी जान पड़ती है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतेन किल पार्थस्य युद्धमासीत् सुदारुणम्।
रोमहर्षणमत्युग्रं शक्रस्य त्वहिना यथा ॥ १२ ॥

मूलम्

एतेन किल पार्थस्य युद्धमासीत् सुदारुणम्।
रोमहर्षणमत्युग्रं शक्रस्य त्वहिना यथा ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वृत्रासुरके साथ इन्द्रका अत्यन्त भयंकर संग्राम हुआ था, उसी प्रकार इन भगदत्तके साथ कुन्तीकुमार अर्जुनका अत्यन्त दारुण एवं रोमांचकारी युद्ध हुआ था॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योधयित्वा महाबाहुरेष पार्थं धनंजयम्।
संशयं गमयित्वा च कुन्तीपुत्रेण पातितः ॥ १३ ॥

मूलम्

योधयित्वा महाबाहुरेष पार्थं धनंजयम्।
संशयं गमयित्वा च कुन्तीपुत्रेण पातितः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन महाबाहुने कुन्तीकुमार धनंजयके साथ युद्ध करके उन्हें संशयमें डाल दिया था; परंतु अन्तमें ये उन कुन्तीकुमारके ही हाथसे मारे गये॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य नास्ति समो लोके शौर्ये वीर्ये च कश्चन।
स एष निहतः शेते भीष्मो भीष्मकृताहवे ॥ १४ ॥

मूलम्

यस्य नास्ति समो लोके शौर्ये वीर्ये च कश्चन।
स एष निहतः शेते भीष्मो भीष्मकृताहवे ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संसारमें शौर्य और बलमें जिनकी समानता करनेवाला दूसरा कोई नहीं है, वे ही ये युद्धमें भयंकर कर्म करनेवाले भीष्मजी घायल हो बाणशय्यापर सो रहे हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य शान्तनवं कृष्ण शयानं सूर्यवर्चसम्।
युगान्त इव कालेन पतितं सूर्यमम्बरात् ॥ १५ ॥

मूलम्

पश्य शान्तनवं कृष्ण शयानं सूर्यवर्चसम्।
युगान्त इव कालेन पतितं सूर्यमम्बरात् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! देखो, ये सूर्यके समान तेजस्वी शान्तनुनन्दन भीष्म कैसे सो रहे हैं, ऐसा जान पड़ता है, मानो प्रलयकालमें कालसे प्रेरित हो सूर्यदेव आकाशसे भूमिपर गिर पड़े हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष तप्त्वा रणे शत्रून् शस्त्रतापेन वीर्यवान्।
नरसूर्योऽस्तमभ्येति सूर्योऽस्तमिव केशव ॥ १६ ॥

मूलम्

एष तप्त्वा रणे शत्रून् शस्त्रतापेन वीर्यवान्।
नरसूर्योऽस्तमभ्येति सूर्योऽस्तमिव केशव ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

केशव! जैसे सूर्य सारे जगत्‌को ताप देकर अस्ताचलको चले जाते हैं, उसी तरह ये पराक्रमी मानवसूर्य रणभूमिमें अपने शस्त्रोंके प्रतापसे शत्रुओंको संतप्त करके अस्त हो रहे हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरतल्पगतं भीष्ममूर्ध्वरेतसमच्युतम् ।
शयानं वीरशयने पश्य शूरनिषेविते ॥ १७ ॥

मूलम्

शरतल्पगतं भीष्ममूर्ध्वरेतसमच्युतम् ।
शयानं वीरशयने पश्य शूरनिषेविते ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी रहकर कभी मर्यादासे च्युत नहीं हुए हैं, उन भीष्मको शूरसेवित वीरोचित शयन बाणशय्यापर सोते हुए देख लो॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णिनालीकनाराचैरास्तीर्य शयनोत्तमम् ।
आविश्य शेते भगवान् स्कन्दः शरवणं यथा ॥ १८ ॥

मूलम्

कर्णिनालीकनाराचैरास्तीर्य शयनोत्तमम् ।
आविश्य शेते भगवान् स्कन्दः शरवणं यथा ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे भगवान् स्कन्द सरकण्डोंके समूहपर सोये थे, उसी प्रकार ये भीष्मजी कर्णी, नालीक और नाराच आदि बाणोंकी उत्तम शय्या बिछाकर उसीका आश्रय ले सो रहे हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतूलपूर्णं गाङ्गेयस्त्रिभिर्बाणैः समन्वितम् ।
उपधायोपधानाग्र्यं दत्तं गाण्डीवधन्वना ॥ १९ ॥

मूलम्

अतूलपूर्णं गाङ्गेयस्त्रिभिर्बाणैः समन्वितम् ।
उपधायोपधानाग्र्यं दत्तं गाण्डीवधन्वना ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन गंगानन्दन भीष्मने रुई भरा हुआ तकिया नहीं लिया है। इन्होंने तो गाण्डीवधारी अर्जुनके दिये हुए तीन बाणोंद्वारा निर्मित श्रेष्ठ उपधान (तकिये)-को ही स्वीकार किया है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पालयानः पितुः शास्त्रमूर्ध्वरेता महायशाः।
एष शान्तनवः शेते माधवाप्रतिमो युधि ॥ २० ॥

मूलम्

पालयानः पितुः शास्त्रमूर्ध्वरेता महायशाः।
एष शान्तनवः शेते माधवाप्रतिमो युधि ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माधव! पिताकी आज्ञाका पालन करते हुए महायशस्वी नैष्ठिक ब्रह्मचारी ये शान्तनुनन्दन भीष्म जिनकी युद्धमें कहीं तुलना नहीं है, यहाँ सो रहे हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मात्मा तात सर्वज्ञः पारावर्येण निर्णये।
अमर्त्य इव मर्त्यः सन्नेष प्राणानधारयत् ॥ २१ ॥

मूलम्

धर्मात्मा तात सर्वज्ञः पारावर्येण निर्णये।
अमर्त्य इव मर्त्यः सन्नेष प्राणानधारयत् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! ये धर्मात्मा और सर्वज्ञ हैं। परलोक और इहलोकसम्बन्धी ज्ञानद्वारा सभी आध्यात्मिक प्रश्नोंका निर्णय करनेमें समर्थ हैं तथा मनुष्य होनेपर भी देवताके तुल्य हैं; इन्होंने अभीतक अपने प्राण धारण कर रखे हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्ति युद्धे कृती कश्चिन्न विद्वान् न पराक्रमी।
यत्र शान्तनवो भीष्मः शेतेऽद्य निहतः शरैः ॥ २२ ॥

मूलम्

नास्ति युद्धे कृती कश्चिन्न विद्वान् न पराक्रमी।
यत्र शान्तनवो भीष्मः शेतेऽद्य निहतः शरैः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब ये शान्तनुनन्दन भीष्म भी आज शत्रुओंके बाणोंसे मारे जाकर सो रहे हैं तो यही कहना पड़ता है कि ‘युद्धमें न कोई कुशल है, न विद्वान् है और न पराक्रमी ही है’॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयमेतेन शूरेण पृच्छ्यमानेन पाण्डवैः।
धर्मज्ञेनाहवे मृत्युरादिष्टः सत्यवादिना ॥ २३ ॥

मूलम्

स्वयमेतेन शूरेण पृच्छ्यमानेन पाण्डवैः।
धर्मज्ञेनाहवे मृत्युरादिष्टः सत्यवादिना ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवोंके पूछनेपर इन धर्मज्ञ एवं सत्यवादी शूरवीरने स्वयं ही अपनी मृत्युका उपाय बता दिया था॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रणष्टः कुरुवंशश्च पुनर्येन समुद्‌धृतः।
स गतः कुरुभिः सार्धं महाबुद्धिः पराभवम् ॥ २४ ॥

मूलम्

प्रणष्टः कुरुवंशश्च पुनर्येन समुद्‌धृतः।
स गतः कुरुभिः सार्धं महाबुद्धिः पराभवम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्होंने नष्ट हुए कुरुवंशका पुनः उद्धार किया था, वे ही परम बुद्धिमान् भीष्म इन कौरवोंके साथ परास्त हो गये॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मेषु कुरवः कं नु परिप्रक्ष्यन्ति माधव।
गते देवव्रते स्वर्गं देवकल्पे नरर्षभे ॥ २५ ॥

मूलम्

धर्मेषु कुरवः कं नु परिप्रक्ष्यन्ति माधव।
गते देवव्रते स्वर्गं देवकल्पे नरर्षभे ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माधव! इन देवतुल्य नरश्रेष्ठ देवव्रतके स्वर्गलोकमें चले जानेपर अब कौरव किसके पास जाकर धर्मविषयक प्रश्न करेंगे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्जुनस्य विनेतारमाचार्यं सात्यकेस्तथा ।
तं पश्य पतितं द्रोणं कुरूणां गुरुमुत्तमम् ॥ २६ ॥

मूलम्

अर्जुनस्य विनेतारमाचार्यं सात्यकेस्तथा ।
तं पश्य पतितं द्रोणं कुरूणां गुरुमुत्तमम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अर्जुनके शिक्षक, सात्यकिके आचार्य तथा कौरवोंके श्रेष्ठ गुरु थे, वे द्रोणाचार्य रणभूमिमें गिरे हुए हैं, उन्हें भी देख लो॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्त्रं चतुर्विधं वेद यथैव त्रिदशेश्वरः।
भार्गवो वा महावीर्यस्तथा द्रोणोऽपि माधव ॥ २७ ॥

मूलम्

अस्त्रं चतुर्विधं वेद यथैव त्रिदशेश्वरः।
भार्गवो वा महावीर्यस्तथा द्रोणोऽपि माधव ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माधव! जैसे देवराज इन्द्र अथवा महापराक्रमी परशुरामजी चार प्रकारकी अस्त्रविद्याको जानते हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य भी जानते थे॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य प्रसादाद् वीभत्सुः पाण्डवः कर्म दुष्करम्।
चकार स हतः शेते नैनमस्त्राण्यपालयन् ॥ २८ ॥

मूलम्

यस्य प्रसादाद् वीभत्सुः पाण्डवः कर्म दुष्करम्।
चकार स हतः शेते नैनमस्त्राण्यपालयन् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके प्रसादसे पाण्डुनन्दन अर्जुनने दुष्कर कर्म किया है, वे ही आचार्य यहाँ मरे पड़े हैं। उन अस्त्रोंने इनकी रक्षा नहीं की॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यं पुरोधाय कुरव आह्वयन्ति स्म पाण्डवान्।
सोऽयं शस्त्रभृतां श्रेष्ठो द्रोणः शस्त्रैः परिक्षतः ॥ २९ ॥

मूलम्

यं पुरोधाय कुरव आह्वयन्ति स्म पाण्डवान्।
सोऽयं शस्त्रभृतां श्रेष्ठो द्रोणः शस्त्रैः परिक्षतः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनको आगे रखकर कौरव पाण्डवोंको ललकारा करते थे, वे ही शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्य शस्त्रोंसे क्षत-विक्षत हो गये हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य निर्दहतः सेनां गतिरग्नेरिवाभवत्।
स भूमौ निहतः शेते शान्तार्चिरिव पावकः ॥ ३० ॥

मूलम्

यस्य निर्दहतः सेनां गतिरग्नेरिवाभवत्।
स भूमौ निहतः शेते शान्तार्चिरिव पावकः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंकी सेनाको दग्ध करते समय जिनकी गति अग्निके समान होती थी, वे ही बुझी हुई लपटोंवाली आगके समान मरकर पृथ्वीपर पड़े हैं॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनुर्मुष्टिरशीर्णश्च हस्तावापश्च माधव ।
द्रोणस्य निहतस्याजौ दृश्यते जीवतो यथा ॥ ३१ ॥

मूलम्

धनुर्मुष्टिरशीर्णश्च हस्तावापश्च माधव ।
द्रोणस्य निहतस्याजौ दृश्यते जीवतो यथा ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माधव! युद्धमें मारे जानेपर भी द्रोणाचार्यके धनुषके साथ जुड़ी हुई मुट्ठी ढीली नहीं हुई है। दस्ताना भी ज्यों-का-त्यों दिखायी देता है, मानो वह जीवित पुरुषके हाथमें हो॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदा यस्माच्च चत्वारः सर्वाण्यस्त्राणि केशव।
अनपेतानि वै शूराद् यथैवादौ प्रजापतेः ॥ ३२ ॥
वन्दनार्हाविमौ तस्य बन्दिभिर्वन्दितौ शुभौ।
गोमायवो विकर्षन्ति पादौ शिष्यशतार्चितौ ॥ ३३ ॥

मूलम्

वेदा यस्माच्च चत्वारः सर्वाण्यस्त्राणि केशव।
अनपेतानि वै शूराद् यथैवादौ प्रजापतेः ॥ ३२ ॥
वन्दनार्हाविमौ तस्य बन्दिभिर्वन्दितौ शुभौ।
गोमायवो विकर्षन्ति पादौ शिष्यशतार्चितौ ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

केशव! जैसे पूर्वकालसे ही प्रजापति ब्रह्मासे वेद कभी अलग नहीं हुए, उसी प्रकार जिन शूरवीर द्रोणसे चारों वेद और सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्र कभी दूर नहीं हुए, उन्हींके बन्दीजनोंद्वारा वन्दित इन दोनों सुन्दर एवं वन्दनीय चरणारविन्दोंको जिनकी सैकड़ों शिष्य पूजा कर चुके हैं, गीदड़ घसीट रहे हैं॥३२-३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणं द्रुपदपुत्रेण निहतं मधुसूदन।
कृपी कृपणमन्वास्ते दुःखोपहतचेतना ॥ ३४ ॥

मूलम्

द्रोणं द्रुपदपुत्रेण निहतं मधुसूदन।
कृपी कृपणमन्वास्ते दुःखोपहतचेतना ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मधुसूदन! द्रुपदपुत्रके द्वारा मारे गये द्रोणाचार्यके पास उनकी पत्नी कृपी बड़े दीनभावसे बैठी है। दुःखसे उसकी चेतना लुप्त-सी हो गयी है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां पश्य रुदतीमार्तां मुक्तकेशीमधोमुखीम्।
हतं पतिमुपासन्तीं द्रोणं शस्त्रभृतां वरम् ॥ ३५ ॥

मूलम्

तां पश्य रुदतीमार्तां मुक्तकेशीमधोमुखीम्।
हतं पतिमुपासन्तीं द्रोणं शस्त्रभृतां वरम् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देखो, कृपी केश खोले नीचे मुँह किये रोती हुई अपने मारे गये पति शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्यकी उपासना कर रही है॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाणैर्भिन्नतनुत्राणं धृष्टद्युम्नेन केशव ।
उपास्ते वै मृधे द्रोणं जटिला ब्रह्मचारिणी ॥ ३६ ॥

मूलम्

बाणैर्भिन्नतनुत्राणं धृष्टद्युम्नेन केशव ।
उपास्ते वै मृधे द्रोणं जटिला ब्रह्मचारिणी ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

केशव! धृष्टद्युम्नने अपने बाणोंसे जिन आचार्य द्रोणका कवच छिन्न-भिन्न कर दिया है, उन्हींके पास युद्धस्थलमें वह जटाधारिणी ब्रह्मचारिणी कृपी बैठी हुई है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रेतकृत्यं च यतते कृपी कृपणमातुरा।
हतस्य समरे भर्तुः सुकुमारी यशस्विनी ॥ ३७ ॥

मूलम्

प्रेतकृत्यं च यतते कृपी कृपणमातुरा।
हतस्य समरे भर्तुः सुकुमारी यशस्विनी ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शोकसे दीन और आतुर हुई यशस्विनी सुकुमारी कृपी समरमें मारे गये पतिदेवका प्रेतकर्म करनेकी चेष्टा कर रही है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्नीनाधाय विधिवच्चितां प्रज्वाल्य सर्वतः।
द्रोणमाधाय गायन्ति त्रीणि सामानि सामगाः ॥ ३८ ॥

मूलम्

अग्नीनाधाय विधिवच्चितां प्रज्वाल्य सर्वतः।
द्रोणमाधाय गायन्ति त्रीणि सामानि सामगाः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विधिपूर्वक अग्निकी स्थापना करके चिताको सब ओरसे प्रज्वलित कर दिया गया है और उसपर द्रोणाचार्यके शरीरको रखकर सामगान करनेवाले ब्राह्मण त्रिविध सामका गान करते हैं॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुर्वन्ति च चितामेते जटिला ब्रह्मचारिणः।
धनुर्भिः शक्तिभिश्चैव रथनीडैश्च माधव ॥ ३९ ॥
शरैश्च विविधैरन्यैर्धक्ष्यते भूरितेजसम् ।
इति द्रोणं समाधाय शंसन्ति च रुदन्ति च ॥ ४० ॥
सामभिस्त्रिभिरन्तस्थैरनुशंसन्ति चापरे ।

मूलम्

कुर्वन्ति च चितामेते जटिला ब्रह्मचारिणः।
धनुर्भिः शक्तिभिश्चैव रथनीडैश्च माधव ॥ ३९ ॥
शरैश्च विविधैरन्यैर्धक्ष्यते भूरितेजसम् ।
इति द्रोणं समाधाय शंसन्ति च रुदन्ति च ॥ ४० ॥
सामभिस्त्रिभिरन्तस्थैरनुशंसन्ति चापरे ।

अनुवाद (हिन्दी)

माधव! इन जटाधारी ब्रह्मचारियोंने धनुष, शक्ति, रथकी बैठक और नाना प्रकारके बाण तथा अन्य आवश्यक वस्तुओंसे उस चिताका निर्माण किया है। वे उसीपर महातेजस्वी द्रोणको जलाना चाहते थे; इसलिये द्रोणको चितापर रखकर वे वेदमन्त्र पढ़ते और रोते हैं, कुछ लोग अन्त समयमें उपयोगी त्रिविध सामोंका गान करते हैं॥३९-४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्नावग्निं समाधाय द्रोणं हुत्वा हुताशने ॥ ४१ ॥
गच्छन्त्यभिमुखा गङ्गां द्रोणशिष्या द्विजातयः।
अपसव्यां चितिं कृत्वा पुरस्कृत्य कृपीं च ते ॥ ४२ ॥

मूलम्

अग्नावग्निं समाधाय द्रोणं हुत्वा हुताशने ॥ ४१ ॥
गच्छन्त्यभिमुखा गङ्गां द्रोणशिष्या द्विजातयः।
अपसव्यां चितिं कृत्वा पुरस्कृत्य कृपीं च ते ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चिताकी अग्निमें अग्निहोत्रसहित द्रोणाचार्यको रखकर उनकी आहुति दे उन्हींके शिष्य द्विजातिगण कृपीको आगे और चिताको दायें करके गंगाजीके तटकी ओर जा रहे हैं॥४१-४२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि स्त्रीविलापपर्वणि गान्धारीवचने त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्वके अन्तर्गत स्त्रीविलापपर्वमें गान्धारीवचनविषयक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२३॥