भागसूचना
द्वाविंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अपनी-अपनी स्त्रियोंसे घिरे हुए अवन्ती-नरेश और जयद्रथको देखकर तथा दुःशलापर दृष्टिपात करके गान्धारीका श्रीकृष्णके सम्मुख विलाप
मूलम् (वचनम्)
गान्धार्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवन्त्यं भीमसेनेन
भक्षयन्ति निपातितम्।
गृध्रगोमायवः शूरं
बहुबन्धुमबन्धुवत् ॥ १ ॥
मूलम्
आवन्त्यं भीमसेनेन भक्षयन्ति निपातितम्।
गृध्रगोमायवः शूरं बहुबन्धुमबन्धुवत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गान्धारी बोलीं— भीमसेनने जिसे मार गिराया था, वह शूरवीर अवन्तीनरेश बहुतेरे बन्धु-बान्धवोंसे सम्पन्न था; परंतु आज उसे बन्धुहीनकी भाँति गीध और गीदड़ नोच-नोचकर खा रहे हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं पश्य कदनं कृत्वा शूराणां मधुसूदन।
शयानं वीरशयने रुधिरेण समुक्षितम् ॥ २ ॥
मूलम्
तं पश्य कदनं कृत्वा शूराणां मधुसूदन।
शयानं वीरशयने रुधिरेण समुक्षितम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मधुसूदन! देखो, अनेकों शूरवीरोंका संहार करके वह खूनसे लथपथ हो वीरशय्यापर सो रहा है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं शृगालाश्च कङ्काश्च क्रव्यादाश्च पृथग्विधाः।
तेन तेन विकर्षन्ति पश्य कालस्य पर्ययम् ॥ ३ ॥
मूलम्
तं शृगालाश्च कङ्काश्च क्रव्यादाश्च पृथग्विधाः।
तेन तेन विकर्षन्ति पश्य कालस्य पर्ययम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे सियार, कंक और नाना प्रकारके मांसभक्षी जीव-जन्तु इधर-उधर खींच रहे हैं। यह समयका उलट-फेर तो देखो॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शयानं वीरशयने शूरमाक्रन्दकारिणम् ।
आवन्त्यमभितो नार्यो रुदत्यः पर्युपासते ॥ ४ ॥
मूलम्
शयानं वीरशयने शूरमाक्रन्दकारिणम् ।
आवन्त्यमभितो नार्यो रुदत्यः पर्युपासते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भयानक मारकाट मचानेवाले इस शूरवीर अवन्तीनरेशको वीरशय्यापर सोया हुआ देख उसकी स्त्रियाँ रोती हुई उसे सब ओरसे घेरकर बैठी हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रातिपेयं महेष्वासं हतं भल्लेन बाह्लिकम्।
प्रसुप्तमिव शार्दूलं पश्य कृष्ण मनस्विनम् ॥ ५ ॥
मूलम्
प्रातिपेयं महेष्वासं हतं भल्लेन बाह्लिकम्।
प्रसुप्तमिव शार्दूलं पश्य कृष्ण मनस्विनम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! देखो, महाधनुर्धर प्रतीपनन्दन मनस्वी बाह्लिक भल्लसे मारे जाकर सोये हुए सिंहके समान पड़े हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतीव मुखवर्णोऽस्य निहतस्यापि शोभते।
सोमस्येवाभिपूर्णस्य पौर्णमास्यां समुद्यतः ॥ ६ ॥
मूलम्
अतीव मुखवर्णोऽस्य निहतस्यापि शोभते।
सोमस्येवाभिपूर्णस्य पौर्णमास्यां समुद्यतः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रणभूमिमें मारे जानेपर भी पूर्णमासीको उगते हुए पूर्ण चन्द्रमाकी भाँति इनके मुखकी कान्ति अत्यन्त प्रकाशित हो रही है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रशोकाभितप्तेन प्रतिज्ञां चाभिरक्षता ।
पाकशासनिना संख्ये वार्धक्षत्रिर्निपातितः ॥ ७ ॥
एकादश चमूर्भित्त्वा रक्ष्यमाणं महात्मना।
सत्यं चिकीर्षता पश्य हतमेनं जयद्रथम् ॥ ८ ॥
मूलम्
पुत्रशोकाभितप्तेन प्रतिज्ञां चाभिरक्षता ।
पाकशासनिना संख्ये वार्धक्षत्रिर्निपातितः ॥ ७ ॥
एकादश चमूर्भित्त्वा रक्ष्यमाणं महात्मना।
सत्यं चिकीर्षता पश्य हतमेनं जयद्रथम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! पुत्रशोकसे संतप्त हो अपनी की हुई प्रतिज्ञाका पालन करते हुए इन्द्रकुमार अर्जुनने युद्धस्थलमें वृद्धक्षत्रके पुत्र जयद्रथको मार गिराया है। यद्यपि उसकी रक्षाकी पूरी व्यवस्था की गयी थी, तब भी अपनी प्रतिज्ञाको सत्य कर दिखाने की इच्छावाले महात्मा अर्जुनने ग्यारह अक्षौहिणी सेनाओंका भेदन करके जिसे मार डाला था, वही यह जयद्रथ यहाँ पड़ा है। इसे देखो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिन्धुसौवीरभर्तारं दर्पपूर्णं मनस्विनम् ।
भक्षयन्ति शिवा गृध्रा जनार्दन जयद्रथम् ॥ ९ ॥
मूलम्
सिन्धुसौवीरभर्तारं दर्पपूर्णं मनस्विनम् ।
भक्षयन्ति शिवा गृध्रा जनार्दन जयद्रथम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनार्दन! सिन्धु और सौवीर देशके स्वामी अभिमानी और मनस्वी जयद्रथको गीध और सियार नोच-नोचकर खा रहे हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संरक्ष्यमाणं भार्याभिरनुरक्ताभिरच्युत ।
भीषयन्त्यो विकर्षन्ति गहनं निम्नमन्तिकात् ॥ १० ॥
मूलम्
संरक्ष्यमाणं भार्याभिरनुरक्ताभिरच्युत ।
भीषयन्त्यो विकर्षन्ति गहनं निम्नमन्तिकात् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अच्युत! इसमें अनुराग रखनेवाली इसकी पत्नियाँ यद्यपि रक्षामें लगी हुई हैं, तथापि गीदड़ियाँ उन्हें डरवाकर जयद्रथकी लाशको उनके निकटसे गहरे गड्ढेकी ओर खींचे लिये जा रही हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेताः पर्युपासन्ते रक्ष्यमाणं महाभुजम्।
सिन्धुसौवीरभर्तारं काम्बोजयवनस्त्रियः ॥ ११ ॥
मूलम्
तमेताः पर्युपासन्ते रक्ष्यमाणं महाभुजम्।
सिन्धुसौवीरभर्तारं काम्बोजयवनस्त्रियः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये काम्बोज और यवनदेशकी स्त्रियाँ सिन्धु और सौवीरदेशके स्वामी महाबाहु जयद्रथको चारों ओरसे घेरकर बैठी हैं और वह उन्हींके द्वारा सुरक्षित हो रहा है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा कृष्णामुपादाय प्राद्रवत् केकयैः सह।
तदैव वध्यः पाण्डूनां जनार्दन जयद्रथः ॥ १२ ॥
दुःशलां मानयद्भिस्तु तदा मुक्तो जयद्रथः।
कथमद्य न तां कृष्ण मानयन्ति स्म ते पुनः॥१३॥
मूलम्
यदा कृष्णामुपादाय प्राद्रवत् केकयैः सह।
तदैव वध्यः पाण्डूनां जनार्दन जयद्रथः ॥ १२ ॥
दुःशलां मानयद्भिस्तु तदा मुक्तो जयद्रथः।
कथमद्य न तां कृष्ण मानयन्ति स्म ते पुनः॥१३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनार्दन! जिस दिन जयद्रथ द्रौपदीको हरकर केकयोंके साथ भागा था, उसी दिन यह पाण्डवोंके द्वारा वध्य हो गया था; परंतु उस समय दुःशलाका सम्मान करते हुए उन्होंने जयद्रथको जीवित छोड़ दिया था! श्रीकृष्ण! उन्हीं पाण्डवोंने आज फिर क्यों नहीं उसका सम्मान किया?॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैषा मम सुता बाला विलपन्ती च दुःखिता।
आत्मना हन्ति चात्मानमाक्रोशन्ती च पाण्डवान् ॥ १४ ॥
मूलम्
सैषा मम सुता बाला विलपन्ती च दुःखिता।
आत्मना हन्ति चात्मानमाक्रोशन्ती च पाण्डवान् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो, वहीं मेरी यह बेटी दुःशला जो अभी बालिका है, किस तरह दुःखी हो-होकर विलाप कर रही है? और पाण्डवोंको कोसती हुई स्वयं ही अपनी छाती पीट रही है!॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं नु दुःखतरं कृष्ण परं मम भविष्यति।
यत् सुता विधवा बाला स्नुषाश्च निहतेश्वराः ॥ १५ ॥
मूलम्
किं नु दुःखतरं कृष्ण परं मम भविष्यति।
यत् सुता विधवा बाला स्नुषाश्च निहतेश्वराः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! मेरे लिये इससे बढ़कर महान् दुःखकी बात और क्या होगी कि यह छोटी अवस्थाकी मेरी बेटी विधवा हो गयी तथा मेरी सारी पुत्रवधुएँ भी अनाथा हो गयीं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हा हा धिग् दुःशलां पश्य वीतशोकभयामिव।
शिरो भर्तुरनासाद्य धावमानामितस्ततः ॥ १६ ॥
मूलम्
हा हा धिग् दुःशलां पश्य वीतशोकभयामिव।
शिरो भर्तुरनासाद्य धावमानामितस्ततः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हाय! हाय, धिक्कार है! देखो, देखो दुःशला शोक और भयसे रहित-सी होकर अपने पतिका मस्तक न पानेके कारण इधर-उधर दौड़ रही है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वारयामास यः सर्वान् पाण्डवान् पुत्रगृद्धिनः।
स हत्वा विपुलाः सेनाः स्वयं मृत्युवशं गतः ॥ १७ ॥
मूलम्
वारयामास यः सर्वान् पाण्डवान् पुत्रगृद्धिनः।
स हत्वा विपुलाः सेनाः स्वयं मृत्युवशं गतः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस वीरने अपने पुत्रको बचानेकी इच्छावाले समस्त पाण्डवोंको अकेले रोक दिया था, वही कितनी ही सेनाओंका संहार करके स्वयं मृत्युके अधीन हो गया॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं मत्तमिव मातङ्गं वीरं परमदुर्जयम्।
परिवार्य रुदन्त्येताः स्त्रियश्चन्द्रोपमाननाः ॥ १८ ॥
मूलम्
तं मत्तमिव मातङ्गं वीरं परमदुर्जयम्।
परिवार्य रुदन्त्येताः स्त्रियश्चन्द्रोपमाननाः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मतवाले हाथीके समान उस परम दुर्जय वीरको सब ओरसे घेरकर ये चन्द्रमुखी रमणियाँ रो रही हैं॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि स्त्रीविलापपर्वणि गान्धारीवाक्ये द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्वके अन्तर्गत स्त्रीविलापपर्वमें गान्धारीका वाक्यविषयक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२२॥