भागसूचना
विंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
गान्धारीद्वारा श्रीकृष्णके प्रति उत्तरा और विराटकुलकी स्त्रियोंके शोक एवं विलापका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
गान्धार्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अध्यर्धगुणमाहुर्यं बले शौर्ये च केशव।
पित्रा त्वया च दाशार्ह दृप्तं सिंहमिवोत्कटम् ॥ १ ॥
यो बिभेद चमूमेको मम पुत्रस्य दुर्भिदाम्।
स भूत्वा मृत्युरन्येषां स्वयं मृत्युवशं गतः ॥ २ ॥
मूलम्
अध्यर्धगुणमाहुर्यं बले शौर्ये च केशव।
पित्रा त्वया च दाशार्ह दृप्तं सिंहमिवोत्कटम् ॥ १ ॥
यो बिभेद चमूमेको मम पुत्रस्य दुर्भिदाम्।
स भूत्वा मृत्युरन्येषां स्वयं मृत्युवशं गतः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गान्धारी बोलीं— दशार्हनन्दन केशव! जिसे बल और शौर्यमें अपने पितासे तथा तुमसे भी डेढ़ गुना बताया जाता था, जो प्रचण्ड सिंहके समान अभिमानमें भरा रहता था, जिसने अकेले ही मेरे पुत्रके दुर्भेद्य व्यूहको तोड़ डाला था, वही अभिमन्यु दूसरोंकी मृत्यु बनकर स्वयं भी मृत्युके अधीन हो गया॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्योपलक्षये कृष्ण कार्ष्णेरमिततेजसः ।
अभिमन्योर्हतस्यापि प्रभा नैवोपशाम्यति ॥ ३ ॥
मूलम्
तस्योपलक्षये कृष्ण कार्ष्णेरमिततेजसः ।
अभिमन्योर्हतस्यापि प्रभा नैवोपशाम्यति ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! मैं देख रही हूँ कि मारे जानेपर भी अमिततेजस्वी अर्जुनपुत्र अभिमन्युकी कान्ति अभी बुझ नहीं पा रही है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषा विराटदुहिता स्नुषा गाण्डीवधन्वनः।
आर्ता बालं पतिं वींर दृष्ट्वा शोचत्यनिन्दिता ॥ ४ ॥
मूलम्
एषा विराटदुहिता स्नुषा गाण्डीवधन्वनः।
आर्ता बालं पतिं वींर दृष्ट्वा शोचत्यनिन्दिता ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह राजा विराटकी पुत्री और गाण्डीवधारी अर्जुनकी पुत्रवधू सती-साध्वी उत्तरा अपने बालक पति वीर अभिमन्युको मरा देख आर्त होकर शोक प्रकट कर रही है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेषा हि समागम्य भार्या भर्तारमन्तिके।
विराटदुहिता कृष्ण पाणिना परिमार्जति ॥ ५ ॥
मूलम्
तमेषा हि समागम्य भार्या भर्तारमन्तिके।
विराटदुहिता कृष्ण पाणिना परिमार्जति ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! यह विराटकी पुत्री और अभिमन्युकी पत्नी उत्तरा अपने पतिके निकट जा उसके शरीरपर हाथ फेर रही है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य वक्त्रमुपाघ्राय सौभद्रस्य मनस्विनी।
विबुद्धकमलाकारं कम्बुवृत्तशिरोधरम् ॥ ६ ॥
काम्यरूपवती चैषा परिष्वजति भामिनी।
लज्जमाना पुरा चैनं माध्वीकमदमूर्च्छिता ॥ ७ ॥
मूलम्
तस्य वक्त्रमुपाघ्राय सौभद्रस्य मनस्विनी।
विबुद्धकमलाकारं कम्बुवृत्तशिरोधरम् ॥ ६ ॥
काम्यरूपवती चैषा परिष्वजति भामिनी।
लज्जमाना पुरा चैनं माध्वीकमदमूर्च्छिता ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुभद्राकुमारका मुख प्रफुल्ल कमलके समान शोभा पाता है। उसकी ग्रीवा शंखके समान और गोल है। कमनीय रूप-सौन्दर्यसे सुशोभित माननीय एवं मनस्विनी उत्तरा पतिके मुखारविन्दको सूँघकर उसे गलेसे लगा रही है। पहले भी यह इसी प्रकार मधुके मदसे अचेत हो सलज्जभावसे उसका आलिंगन करती रही होगी॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य क्षतजसंदिग्धं जातरूपपरिष्कृतम् ।
विमुच्य कवचं कृष्ण शरीरमभिवीक्षते ॥ ८ ॥
मूलम्
तस्य क्षतजसंदिग्धं जातरूपपरिष्कृतम् ।
विमुच्य कवचं कृष्ण शरीरमभिवीक्षते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! अभिमन्युका सुवर्णभूषित कवच खूनसे रँग गया है। बालिका उत्तरा उस कवचको खोलकर पतिके शरीरको देख रही है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवेक्षमाणा तं बाला कृष्ण त्वामभिभाषते।
अयं ते पुण्डरीकाक्ष सदृशाक्षो निपातितः ॥ ९ ॥
मूलम्
अवेक्षमाणा तं बाला कृष्ण त्वामभिभाषते।
अयं ते पुण्डरीकाक्ष सदृशाक्षो निपातितः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे देखती हुई वह बाला तुमसे पुकारकर कहती है, ‘कमलनयन! आपके भानजेके नेत्र भी आपके ही समान थे। ये रणभूमिमें मार गिराये गये हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बले वीर्ये च सदृशस्तेजसा चैव तेऽनघ।
रूपेण च तथात्यर्थं शेते भुवि निपातितः ॥ १० ॥
मूलम्
बले वीर्ये च सदृशस्तेजसा चैव तेऽनघ।
रूपेण च तथात्यर्थं शेते भुवि निपातितः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अनघ! जो बल, वीर्य, तेज और रूपमें सर्वथा आपके समान थे, वे ही सुभद्राकुमार शत्रुओंद्वारा मारे जाकर पृथ्वीपर सो रहे हैं’॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्यन्तं सुकुमारस्य राङ्कवाजिनशायिनः ।
कच्चिदद्य शरीरं ते भूमौ न परितप्यते ॥ ११ ॥
मूलम्
अत्यन्तं सुकुमारस्य राङ्कवाजिनशायिनः ।
कच्चिदद्य शरीरं ते भूमौ न परितप्यते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीकृष्ण! अब उत्तरा अपने पतिको सम्बोधित करके कहती है) ‘प्रियतम! आपका शरीर तो अत्यन्त सुकुमार है। आप रंकुमृगके चर्मसे बने हुए सुकोमल बिछौनेपर सोया करते थे। क्या आज इस तरह पृथ्वीपर पड़े रहनेसे आपके शरीरको कष्ट नहीं होता है?॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातङ्गभुजवर्ष्माणौ ज्याक्षेपकठिनत्वचौ ।
काञ्चनाङ्गदिनौ शेते निक्षिप्य विपुलौ भुजौ ॥ १२ ॥
मूलम्
मातङ्गभुजवर्ष्माणौ ज्याक्षेपकठिनत्वचौ ।
काञ्चनाङ्गदिनौ शेते निक्षिप्य विपुलौ भुजौ ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो हाथीकी सूँड़के समान बड़ी हैं, निरन्तर प्रत्यंचा खींचनेके कारण रगड़से जिनकी त्वचा कठोर हो गयी है तथा जो सोनेके बाजूबन्द धारण करते हैं, उन विशाल भुजाओंको फैलाकर आप सो रहे हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यायम्य बहुधा नूनं सुखसुप्तः श्रमादिव।
एवं विलपतीमार्तां न हि मामभिभाषसे ॥ १३ ॥
मूलम्
व्यायम्य बहुधा नूनं सुखसुप्तः श्रमादिव।
एवं विलपतीमार्तां न हि मामभिभाषसे ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निश्चय ही बहुत परिश्रम करके मानो थक जानेके कारण आप सुखकी नींद ले रहे हो। मैं इस तरह आर्त होकर विलाप करती हूँ, किंतु आप मुझसे बोलतेतक नहीं हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न स्मराम्यपराधं ते किं मां न प्रतिभाषसे।
ननु मां त्वं पुरा दूरादभिवीक्ष्याभिभाषसे ॥ १४ ॥
मूलम्
न स्मराम्यपराधं ते किं मां न प्रतिभाषसे।
ननु मां त्वं पुरा दूरादभिवीक्ष्याभिभाषसे ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने कोई अपराध किया हो, ऐसा तो मुझे स्मरण नहीं है, फिर क्या कारण है कि आप मुझसे नहीं बोलते हैं। पहले तो आप मुझे दूरसे भी देख लेनेपर बोले बिना नहीं रहते थे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आर्यामार्य सुभद्रां त्वमिमांश्च त्रिदशोपमान्।
पितॄन् मां चैव दुःखार्तां विहाय क्व गमिष्यसि ॥ १५ ॥
मूलम्
आर्यामार्य सुभद्रां त्वमिमांश्च त्रिदशोपमान्।
पितॄन् मां चैव दुःखार्तां विहाय क्व गमिष्यसि ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आर्य! आप माता सुभद्राको, इन देवताओंके समान ताऊ, पिता और चाचाओंको तथा मुझ दुःखातुरा पत्नीको छोड़कर कहाँ जायँगे?’॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य शोणितदिग्धान् वै केशानुद्यम्य पाणिना।
उत्सङ्गे वक्त्रमाधाय जीवन्तमिव पृच्छति ॥ १६ ॥
मूलम्
तस्य शोणितदिग्धान् वै केशानुद्यम्य पाणिना।
उत्सङ्गे वक्त्रमाधाय जीवन्तमिव पृच्छति ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनार्दन! देखो, अभिमन्युके सिरको गोदीमें रखकर उत्तरा उसके खूनसे सने हुए केशोंको हाथसे उठा-उठाकर सुलझाती है और मानो वह जी रहा हो, इस प्रकार उससे पूछती है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वस्रीयं वासुदेवस्य पुत्रं गाण्डीवधन्वनः।
कथं त्वां रणमध्यस्थं जघ्नुरेते महारथाः ॥ १७ ॥
मूलम्
स्वस्रीयं वासुदेवस्य पुत्रं गाण्डीवधन्वनः।
कथं त्वां रणमध्यस्थं जघ्नुरेते महारथाः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्राणनाथ! आप वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णके भानजे और गाण्डीवधारी अर्जुनके पुत्र थे। रणभूमिके मध्यभागमें खड़े हुए आपको इन महारथियोंने कैसे मार डाला?॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धिगस्तु क्रूरकर्तॄंस्तान् कृपकर्णजयद्रथान् ।
द्रोणद्रौणायनी चोभौ यैरहं विधवा कृता ॥ १८ ॥
मूलम्
धिगस्तु क्रूरकर्तॄंस्तान् कृपकर्णजयद्रथान् ।
द्रोणद्रौणायनी चोभौ यैरहं विधवा कृता ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन क्रूरकर्मा कृपाचार्य, कर्ण और जयद्रथको धिक्कार है, द्रोणाचार्य और उनके पुत्रको भी धिक्कार है! जिन्होंने मुझे इसी उम्रमें विधवा बना दिया॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथर्षभाणां सर्वेषां कथमासीत् तदा मनः।
बालं त्वां परिवार्यैकं मम दुःखाय जघ्नुषाम् ॥ १९ ॥
मूलम्
रथर्षभाणां सर्वेषां कथमासीत् तदा मनः।
बालं त्वां परिवार्यैकं मम दुःखाय जघ्नुषाम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप बालक थे और अकेले युद्ध कर रहे थे तो भी मुझे दुःख देनेके लिये जिन लोगोंने मिलकर आपको मारा था, उन समस्त श्रेष्ठ महारथियोंके मनकी उस समय क्या दशा हुई थी?॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं नु पाण्डवानां च पञ्चालानां तु पश्यताम्।
त्वं वीर निधनं प्राप्तो नाथवान् सन्ननाथवत् ॥ २० ॥
मूलम्
कथं नु पाण्डवानां च पञ्चालानां तु पश्यताम्।
त्वं वीर निधनं प्राप्तो नाथवान् सन्ननाथवत् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीर! आप पाण्डवों और पांचालोंके देखते-देखते सनाथ होते हुए भी अनाथकी भाँति कैसे मारे गये?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा बहुभिराक्रन्दे निहतं त्वां पिता तव।
वीरः पुरुषशार्दूलः कथं जीवति पाण्डवः ॥ २१ ॥
मूलम्
दृष्ट्वा बहुभिराक्रन्दे निहतं त्वां पिता तव।
वीरः पुरुषशार्दूलः कथं जीवति पाण्डवः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपको युद्धस्थलमें बहुत-से महारथियोंद्वारा मारा गया देख आपके पिता पुरुषसिंह वीर पाण्डव अर्जुन कैसे जी रहे हैं?॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न राज्यलाभो विपुलः शत्रूणां च पराभवः।
प्रीतिं धास्यति पार्थानां त्वामृते पुष्करेक्षण ॥ २२ ॥
मूलम्
न राज्यलाभो विपुलः शत्रूणां च पराभवः।
प्रीतिं धास्यति पार्थानां त्वामृते पुष्करेक्षण ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कमलनयन! प्राणेश्वर! पाण्डवोंको जो यह विशाल राज्य मिल गया है, उन्होंने शत्रुओंको जो पराजित कर दिया है, यह सब कुछ आपके बिना उन्हें प्रसन्न नहीं कर सकेगा॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तव शस्त्रजिताल्ँलोकान् धर्मेण च दमेन च।
क्षिप्रमन्वागमिष्यामि तत्र मां प्रतिपालय ॥ २३ ॥
मूलम्
तव शस्त्रजिताल्ँलोकान् धर्मेण च दमेन च।
क्षिप्रमन्वागमिष्यामि तत्र मां प्रतिपालय ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आर्यपुत्र! आपके शस्त्रोंद्वारा जीते हुए पुण्यलोकोंमें मैं भी धर्म और इन्द्रिय-संयमके बलसे शीघ्र ही आऊँगी। आप वहाँ मेरी राह देखिये॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्मरं पुनरप्राप्ते काले भवति केनचित्।
यदहं त्वां रणे दृष्ट्वा हतं जीवामि दुर्भगा ॥ २४ ॥
मूलम्
दुर्मरं पुनरप्राप्ते काले भवति केनचित्।
यदहं त्वां रणे दृष्ट्वा हतं जीवामि दुर्भगा ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जान पड़ता है कि मृत्युकाल आये बिना किसीका भी मरना अत्यन्त कठिन है, तभी तो मैं अभागिनी आपको युद्धमें मारा गया देखकर भी अबतक जी रही हूँ॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामिदानीं नरव्याघ्र श्लक्ष्णया स्मितया गिरा।
पितृलोके समेत्यान्यां मामिवामन्त्रयिष्यसि ॥ २५ ॥
मूलम्
कामिदानीं नरव्याघ्र श्लक्ष्णया स्मितया गिरा।
पितृलोके समेत्यान्यां मामिवामन्त्रयिष्यसि ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरश्रेष्ठ! आप पितृलोकमें जाकर इस समय मेरी ही तरह दूसरी किस स्त्रीको मन्द मुसकानके साथ मीठी वाणीद्वारा बुलायेंगे?॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनमप्सरसां स्वर्गे मनांसि प्रमथिष्यसि।
परमेण च रूपेण गिरा च स्मितपूर्वया ॥ २६ ॥
मूलम्
नूनमप्सरसां स्वर्गे मनांसि प्रमथिष्यसि।
परमेण च रूपेण गिरा च स्मितपूर्वया ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निश्चय ही स्वर्गमें जाकर आप अपने सुन्दर रूप और मन्द मुसकानयुक्त मधुर वाणीके द्वारा वहाँकी अप्सराओंके मनको मथ डालेंगे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राप्य पुण्यकृताल्ँलोकानप्सरोभिः समेयिवान् ।
सौभद्र विहरन् काले स्मरेथाः सुकृतानि मे ॥ २७ ॥
मूलम्
प्राप्य पुण्यकृताल्ँलोकानप्सरोभिः समेयिवान् ।
सौभद्र विहरन् काले स्मरेथाः सुकृतानि मे ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुभद्रानन्दन! आप पुण्यात्माओंके लोकोंमें जाकर अप्सराओंके साथ मिलकर विहार करते समय मेरे शुभ कर्मोंका भी स्मरण कीजियेगा॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावानिह संवासो विहितस्ते मया सह।
षण्मासान् सप्तमे मासि त्वं वीर निधनं गतः ॥ २८ ॥
मूलम्
एतावानिह संवासो विहितस्ते मया सह।
षण्मासान् सप्तमे मासि त्वं वीर निधनं गतः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीर! इस लोकमें तो मेरे साथ आपका कुल छः महीनोंतक ही सहवास रहा है। सातवें महीनेमें ही आप वीरगतिको प्राप्त हो गये’॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तवचनामेतामपकर्षन्ति दुःखिताम् ।
उत्तरां मोघसंकल्पां मत्स्यराजकुलस्त्रियः ॥ २९ ॥
मूलम्
इत्युक्तवचनामेतामपकर्षन्ति दुःखिताम् ।
उत्तरां मोघसंकल्पां मत्स्यराजकुलस्त्रियः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस तरहकी बातें कहकर दुःखमें डूबी हुई इस उत्तराको जिसका सारा संकल्प मिट्टीमें मिल गया है, मत्स्यराज विराटके कुलकी स्त्रियाँ खींचकर दूर ले जा रही हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तरामपकृष्यैनामार्तामार्ततराः स्वयम् ।
विराटं निहतं दृष्ट्वा क्रोशन्ति विलपन्ति च ॥ ३० ॥
मूलम्
उत्तरामपकृष्यैनामार्तामार्ततराः स्वयम् ।
विराटं निहतं दृष्ट्वा क्रोशन्ति विलपन्ति च ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शोकसे आतुर हुई उत्तराको खींचकर अत्यन्त आर्त हुई वे स्त्रियाँ राजा विराटको मारा गया देख स्वयं भी चीखने और विलाप करने लगी हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणास्त्रशरसंकृत्तं शयानं रुधिरोक्षितम् ।
विराटं वितुदन्त्येते गृध्रगोमायुवायसाः ॥ ३१ ॥
मूलम्
द्रोणास्त्रशरसंकृत्तं शयानं रुधिरोक्षितम् ।
विराटं वितुदन्त्येते गृध्रगोमायुवायसाः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोणाचार्यके बाणोंसे छिन्न-भिन्न हो खूनसे लथपथ होकर रणभूमिमें पड़े हुए राजा विराटको ये गीध, गीदड़ और कौए नोच रहे हैं॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वितुद्यमानं विहगैर्विराटमसितेक्षणाः ।
न शक्नुवन्ति विहगान् निवारयितुमातुराः ॥ ३२ ॥
मूलम्
वितुद्यमानं विहगैर्विराटमसितेक्षणाः ।
न शक्नुवन्ति विहगान् निवारयितुमातुराः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विराटको उन विहंगमोंद्वारा नोचे जाते देख कजरारी आँखोंवाली उनकी रानियाँ आतुर हो-होकर उन्हें हटानेकी चेष्टा करती हैं, पर हटा नहीं पाती हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसामातपतप्तानामायासेन च योषिताम् ।
श्रमेण च विवर्णानां वक्त्राणां विप्लुतं वपुः ॥ ३३ ॥
मूलम्
आसामातपतप्तानामायासेन च योषिताम् ।
श्रमेण च विवर्णानां वक्त्राणां विप्लुतं वपुः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन युवतियोंके मुखारविन्द धूपसे तप गये हैं, आयास और परिश्रमसे उनके रंग फीके पड़ गये हैं॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तरं चाभिमन्युं च काम्बोजं च सुदक्षिणम्।
शिशूनेतान् हतान् पश्य लक्ष्मणं च सुदर्शनम् ॥ ३४ ॥
आयोधनशिरोमध्ये शयानं पश्य माधव ॥ ३५ ॥
मूलम्
उत्तरं चाभिमन्युं च काम्बोजं च सुदक्षिणम्।
शिशूनेतान् हतान् पश्य लक्ष्मणं च सुदर्शनम् ॥ ३४ ॥
आयोधनशिरोमध्ये शयानं पश्य माधव ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माधव! उत्तर, अभिमन्यु, काम्बोजनिवासी सुदक्षिण और सुन्दर दिखायी देनेवाले लक्ष्मण—ये सभी बालक थे। इन मारे गये बालकोंको देखो। युद्धके मुहानेपर सोये हुए परम सुन्दर कुमार लक्ष्मणपर भी दृष्टिपात करो॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि स्त्रीविलापपर्वणि गान्धारीवाक्ये विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्वके अन्तर्गत स्त्रीविलापपर्वमें गान्धारीवाक्यविषयक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२०॥