०१८

भागसूचना

अष्टादशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अपने अन्य पुत्रों तथा दुःशासनको देखकर गान्धारीका श्रीकृष्णके सम्मुख विलाप

मूलम् (वचनम्)

गान्धार्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य माधव पुत्रान्मे
शतसंख्याञ् जितक्लमान्।
गदया भीमसेनेन
भूयिष्ठं निहतान् रणे ॥ १ ॥

मूलम्

पश्य माधव पुत्रान्मे शतसंख्याञ्जितक्लमान्।
गदया भीमसेनेन भूयिष्ठं निहतान् रणे ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गान्धारी बोलीं— माधव! जो परिश्रमको जीत चुके थे, उन मेरे सौ पुत्रोंको देखो, जिन्हें रणभूमिमें प्रायः भीमसेनने अपनी गदासे मार डाला है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं दुःखतरं मेऽद्य
यदिमा मुक्तमूर्धजाः।
हतपुत्रा रणे बालाः
परिधावन्ति मे स्नुषाः ॥ २ ॥

मूलम्

इदं दुःखतरं मेऽद्य यदिमा मुक्तमूर्धजाः।
हतपुत्रा रणे बालाः परिधावन्ति मे स्नुषाः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबसे अधिक दुःख मुझे आज यह देखकर हो रहा है कि ये मेरी बालवधुएँ, जिनके पुत्र भी मारे जा चुके हैं, रणभूमिमें केश खोले चारों ओर अपने स्वजनोंकी खोजमें दौड़ रही हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रासाद-तल-चारिण्यश्
चरणैर् भूषणान्वितैः ।
आपन्ना यत् स्पृशन्तीमां
रुधिरार्द्रां वसुन्धराम् ॥ ३ ॥

मूलम्

प्रासादतलचारिण्यश्चरणैर्भूषणान्वितैः ।
आपन्ना यत् स्पृशन्तीमां रुधिरार्द्रां वसुन्धराम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये महलकी अट्टालिकाओंमें आभूषणभूषित चरणोंद्वारा विचरण करनेवाली थीं; परंतु आज विपत्तिकी मारी हुई ये इस खूनसे भीगी हुई वसुधाका स्पर्श कर रही हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृच्छ्राद् उत्सारयन्ति स्म
गृध्रगोमायुवायसान् ।
दुःखेनार्ता विघूर्णन्त्यो
मत्ता इव चरन्त्य् उत ॥ ४ ॥

मूलम्

कृच्छ्रादुत्सारयन्ति स्म गृध्रगोमायुवायसान् ।
दुःखेनार्ता विघूर्णन्त्यो मत्ता इव चरन्त्युत ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये दुःखसे आतुर हो पगली स्त्रियोंके समान झूमती हुई सब ओर विचरती हैं तथा बड़ी कठिनाईसे गीधों, गीदड़ों और कौओंको लाशोंके पाससे दूर हटा रही हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषान्या त्वनवद्याङ्गी
करसम्मितमध्यमा ।
घोरमायोधनं दृष्ट्वा
निपतत्यतिदुःखिता ॥ ५ ॥

मूलम्

एषान्या त्वनवद्याङ्गी करसम्मितमध्यमा ।
घोरमायोधनं दृष्ट्वा निपतत्यतिदुःखिता ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह पतली कमरवाली सर्वांगसुन्दरी दूसरी वधू युद्धस्थलका भयानक दृश्य देखकर अत्यन्त दुःखी हो पृथ्वीपर गिर पड़ती है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा मे पार्थिवसुतामेतां लक्ष्मणमातरम्।
राजपुत्रीं महाबाहो मनो न ह्युपशाम्यति ॥ ६ ॥

मूलम्

दृष्ट्वा मे पार्थिवसुतामेतां लक्ष्मणमातरम्।
राजपुत्रीं महाबाहो मनो न ह्युपशाम्यति ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहो! यह लक्ष्मणकी माता एक भूमिपालकी बेटी है, इस राजकुमारीकी दशा देखकर मेरा मन किसी तरह शान्त नहीं होता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातॄंश्चान्याः पितॄंश्चान्याः पुत्रांश्च निहतान् भुवि।
दृष्ट्वा परिपतन्त्येताः प्रगृह्य सुमहाभुजान् ॥ ७ ॥

मूलम्

भ्रातॄंश्चान्याः पितॄंश्चान्याः पुत्रांश्च निहतान् भुवि।
दृष्ट्वा परिपतन्त्येताः प्रगृह्य सुमहाभुजान् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ स्त्रियाँ रणभूमिमें मारे गये अपने भाइयोंको, कुछ पिताओंको और कुछ पुत्रोंको देखकर उन महाबाहु वीरोंको पकड़ लेती और वहीं गिर पड़ती हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मध्यमानां तु नारीणां वृद्धानां चापराजित।
आक्रन्दं हतबन्धूनां दारुणे वैशसे शृणु ॥ ८ ॥

मूलम्

मध्यमानां तु नारीणां वृद्धानां चापराजित।
आक्रन्दं हतबन्धूनां दारुणे वैशसे शृणु ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपराजित वीर! इस दारुण संग्राममें जिनके बन्धु-बान्धव मारे गये हैं, उन अधेड़ और बूढ़ी स्त्रियोंका यह करुणाजनक क्रन्दन सुनो॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथनीडानि देहांश्च हतानां गजवाजिनाम्।
आश्रित्य श्रममोहार्ताः स्थिताः पश्य महाभुज ॥ ९ ॥

मूलम्

रथनीडानि देहांश्च हतानां गजवाजिनाम्।
आश्रित्य श्रममोहार्ताः स्थिताः पश्य महाभुज ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहो! देखो, ये स्त्रियाँ परिश्रम और मोहसे पीड़ित हो टूटे हुए रथोंकी बैठकों तथा मारे गये हाथी-घोड़ोंकी लाशोंका सहारा लेकर खड़ी हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यां चापहृतं कायाच्चारुकुण्डलमुन्नसम् ।
स्वस्य बन्धोः शिरः कृष्ण गृहीत्वा पश्य तिष्ठतीम् ॥ १० ॥

मूलम्

अन्यां चापहृतं कायाच्चारुकुण्डलमुन्नसम् ।
स्वस्य बन्धोः शिरः कृष्ण गृहीत्वा पश्य तिष्ठतीम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! देखो, वह दूसरी स्त्री किसी आत्मीय जनके मनोहर कुण्डलोंसे सुशोभित और ऊँची नासिकावाले कटे हुए मस्तकको लेकर खड़ी है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वजातिकृतं पापं
मन्ये नाल्पमिवानघ।
एताभिर् निरवद्याभिर्
मया चैवाल्पमेधया ॥ ११ ॥
यदिदं धर्मराजेन
पातितं नो जनार्दन।
न हि नाशोऽस्ति वार्ष्णेय
कर्मणोः शुभपापयोः ॥ १२ ॥

मूलम्

पूर्वजातिकृतं पापं मन्ये नाल्पमिवानघ।
एताभिर्निरवद्याभिर्मया चैवाल्पमेधया ॥ ११ ॥
यदिदं धर्मराजेन पातितं नो जनार्दन।
न हि नाशोऽस्ति वार्ष्णेय कर्मणोः शुभपापयोः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनघ! मैं समझती हूँ कि इन अनिन्द्य सुन्दरी अबलाओंने तथा मन्द बुद्धिवाली मैंने भी पूर्वजन्मोंमें कोई बड़ा भारी पाप किया है, जिसके फलस्वरूप धर्मराजने हमलोगोंको बड़ी भारी विपत्तिमें डाल दिया है। जनार्दन! वृष्णिनन्दन! जान पड़ता है कि किये हुए पुण्य और पापकर्मोंका उनके फलका उपभोग किये बिना नाश नहीं होता है॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्यग्रवयसः पश्य
दर्शनीयकुचाननाः ।
कुलेषु जाता ह्रीमत्यः
कृष्णपक्ष्माक्षिमूर्धजाः ॥ १३ ॥
हंसगद्‌गद-भाषिण्यो
दुःखशोकप्रमोहिताः ।
सारस्य इव वाशन्त्यः
पतिताः पश्य माधव ॥ १४ ॥

मूलम्

प्रत्यग्रवयसः पश्य दर्शनीयकुचाननाः ।
कुलेषु जाता ह्रीमत्यः कृष्णपक्ष्माक्षिमूर्धजाः ॥ १३ ॥
हंसगद्‌गदभाषिण्यो दुःखशोकप्रमोहिताः ।
सारस्य इव वाशन्त्यः पतिताः पश्य माधव ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माधव! देखो, इन महिलाओंकी नयी अवस्था है। इनके वक्षःस्थल और मुख दर्शनीय हैं। इनकी आँखोंकी बरौनियाँ और सिरके केश काले हैं। ये सब-की-सब कुलीन और सलज्ज हैं। ये हंसके समान गद्‌गद स्वरमें बोलती हैं; परंतु आज दुःख और शोकसे मोहित हो चहचहाती सारसियोंके समान रोती-बिलखती हुई पृथ्वीपर गिर पड़ी हैं॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

फुल्लपद्मप्रकाशानि
पुण्डरीकाक्ष योषिताम् ।
अनवद्यानि वक्त्राणि
तापयत्येष रश्मिवान् ॥ १५ ॥

मूलम्

फुल्लपद्मप्रकाशानि पुण्डरीकाक्ष योषिताम् ।
अनवद्यानि वक्त्राणि तापयत्येष रश्मिवान् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कमलनयन! खिले हुए कमलके समान प्रकाशित होनेवाले युवतियोंके इन सुन्दर मुखोंको ये सूर्यदेव संतप्त कर रहे हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईर्षूणां मम पुत्राणां
वासुदेवावरोधनम्।
मत्तमातङ्गदर्पाणां
पश्यन्त्यद्य पृथग्जनाः ॥ १६ ॥

मूलम्

ईर्षूणां मम पुत्राणां वासुदेवावरोधनम्।
मत्तमातङ्गदर्पाणां पश्यन्त्यद्य पृथग्जनाः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वासुदेव! मतवाले हाथीके समान घमंडमें चूर रहनेवाले मेरे ईर्ष्यालु पुत्रोंकी इन रानियोंको आज साधारण लोग देख रहे हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शतचन्द्राणि चर्माणि
ध्वजांश्चादित्यवर्चसः ।
रौक्माणि चैव वर्माणि
निष्कानपि च काञ्चनान् ॥ १७ ॥
शीर्षत्राणानि चैतानि
पुत्राणां मे महीतले।
पश्य दीप्तानि गोविन्द
पावकान् सुहुतानिव ॥ १८ ॥

मूलम्

शतचन्द्राणि चर्माणि ध्वजांश्चादित्यवर्चसः ।
रौक्माणि चैव वर्माणि निष्कानपि च काञ्चनान् ॥ १७ ॥
शीर्षत्राणानि चैतानि पुत्राणां मे महीतले।
पश्य दीप्तानि गोविन्द पावकान् सुहुतानिव ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोविन्द! देखो, मेरे पुत्रोंकी ये सौ चन्द्राकार चिह्नोंसे सुशोभित ढालें, सूर्यके समान तेजस्विनी ध्वजाएँ, सुवर्णमय कवच, सोनेके निष्क तथा शिरस्त्राण घीकी उत्तम आहुति पाकर प्रज्वलित हुई अग्नियोंके समान पृथ्वीपर देदीप्यमान हो रहे हैं॥१७-१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष दुःशासनः शेते शूरेणामित्रघातिना।
पीतशोणितसर्वाङ्गो युधि भीमेन पातितः ॥ १९ ॥

मूलम्

एष दुःशासनः शेते शूरेणामित्रघातिना।
पीतशोणितसर्वाङ्गो युधि भीमेन पातितः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुघाती शूरवीर भीमसेनने युद्धमें जिसे मार गिराया तथा जिसके सारे अंगोंका रक्त पी लिया, वही यह दुःशासन यहाँ सो रहा है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गदया भीमसेनेन पश्य माधव मे सुतम्।
द्यूतक्लेशाननुस्मृत्य द्रौपदीनोदितेन च ॥ २० ॥

मूलम्

गदया भीमसेनेन पश्य माधव मे सुतम्।
द्यूतक्लेशाननुस्मृत्य द्रौपदीनोदितेन च ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माधव! देखो, द्यूतक्रीडाके समय पाये हुए क्लेशोंको स्मरण करके द्रौपदीसे प्रेरित हुए भीमसेनने मेरे इस पुत्रको गदासे मार डाला है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्ता ह्यनेन पाञ्चाली
सभायां द्यूतनिर्जिता।
प्रियं चिकीर्षता भ्रातुः
कर्णस्य च जनार्दन ॥ २१ ॥
सहैव सहदेवेन
नकुलेनार्जुनेन च।
दासीभूतासि पाञ्चालि
क्षिप्रं प्रविश नो गृहान् ॥ २२ ॥

मूलम्

उक्ता ह्यनेन पाञ्चाली सभायां द्यूतनिर्जिता।
प्रियं चिकीर्षता भ्रातुः कर्णस्य च जनार्दन ॥ २१ ॥
सहैव सहदेवेन नकुलेनार्जुनेन च।
दासीभूतासि पाञ्चालि क्षिप्रं प्रविश नो गृहान् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनार्दन! इसने अपने भाई और कर्णका प्रिय करनेकी इच्छासे सभामें जूएसे जीती गयी द्रौपदीके प्रति कहा था कि ‘पांचालि! तू नकुल-सहदेव तथा अर्जुनके साथ ही हमारी दासी हो गयी; अतः शीघ्र ही हमारे घरोंमें प्रवेश कर’॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽहमब्रवं कृष्ण
तदा दुर्योधनं नृपम्।
मृत्युपाशपरिक्षिप्तं
शकुनिं पुत्र वर्जय ॥ २३ ॥
निबोधैनं सुदुर्बुद्धिं
मातुलं कलहप्रियम्।
क्षिप्रमेनं परित्यज्य
पुत्र शाम्यस्व पाण्डवैः ॥ २४ ॥
न बुद्ध्यसे त्वं दुर्बुद्धे
भीमसेनम् अमर्षणम्।
वाङ्नाराचैस् तुदंस् तीक्ष्णैर्
उल्काभिरिव कुञ्जरम् ॥ २५ ॥

मूलम्

ततोऽहमब्रवं कृष्ण तदा दुर्योधनं नृपम्।
मृत्युपाशपरिक्षिप्तं शकुनिं पुत्र वर्जय ॥ २३ ॥
निबोधैनं सुदुर्बुद्धिं मातुलं कलहप्रियम्।
क्षिप्रमेनं परित्यज्य पुत्र शाम्यस्व पाण्डवैः ॥ २४ ॥
न बुद्ध्यसे त्वं दुर्बुद्धे भीमसेनममर्षणम्।
वाङ्नाराचैस्तुदंस्तीक्ष्णैरुल्काभिरिव कुञ्जरम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! उस समय मैं राजा दुर्योधनसे बोली—‘बेटा! शकुनि मौतके फंदेमें फँसा हुआ है। तुम इसका साथ छोड़ दो। पुत्र! तुम अपने इस खोटी बुद्धिवाले मामाको कलहप्रिय समझो और शीघ्र ही इसका परित्याग करके पाण्डवोंके साथ संधि कर लो। दुर्बुद्धे! तुम नहीं जानते भीमसेन कितने अमर्षशील हैं। तभी जलती लकड़ीसे हाथीको मारनेके समान तुम अपने तीखे वाग्बाणोंसे उन्हें पीड़ा दे रहे हो’॥२३—२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानेवं रहसि क्रुद्धो
वाक्शल्यानवधारयन्।
उत्ससर्ज विषं तेषु
सर्पो गोवृषभेष्विव ॥ २६ ॥

मूलम्

तानेवं रहसि क्रुद्धो वाक्शल्यानवधारयन्।
उत्ससर्ज विषं तेषु सर्पो गोवृषभेष्विव ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार एकान्तमें मैंने उन सबको डाँटा था। श्रीकृष्ण! उन्हीं वाग्बाणोंको याद करके क्रोधी भीमसेनने मेरे पुत्रोंपर उसी प्रकार क्रोधरूपी विष छोड़ा है, जैसे सर्प गाय-बैलोंको डँसकर उनमें अपने विषका संचार कर देता है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष दुःशासनः शेते
विक्षिप्य विपुलौ भुजौ।
निहतो भीमसेनेन
सिंहेनेव महागजः ॥ २७ ॥

मूलम्

एष दुःशासनः शेते विक्षिप्य विपुलौ भुजौ।
निहतो भीमसेनेन सिंहेनेव महागजः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिंहके मारे हुए विशाल हाथीके समान भीमसेनका मारा हुआ यह दुःशासन दोनों विशाल हाथ फैलाये रणभूमिमें पड़ा हुआ है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्यर्थम् अकरोद् रौद्रं
भीमसेनोऽत्यमर्षणः ।
दुःशासनस्य यत् क्रुद्धो
ऽपिबच् छोणितम् आहवे ॥ २८ ॥

मूलम्

अत्यर्थमकरोद् रौद्रं भीमसेनोऽत्यमर्षणः ।
दुःशासनस्य यत् क्रुद्धोऽपिबच्छोणितमाहवे ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्यन्त अमर्षमें भरे हुए भीमसेनने युद्धस्थलमें क्रुद्ध होकर जो दुःशासनका रक्त पी लिया, यह बड़ा भयानक कर्म किया है॥२८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि स्त्रीविलापपर्वणि गान्धारीवाक्येऽष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्वके अन्तर्गत स्त्रीविलापपर्वमें गान्धारीवाक्यविषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८॥