भागसूचना
पञ्चदशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भीमसेनका गान्धारीको अपनी सफाई देते हुए उनसे क्षमा माँगना, युधिष्ठिरका अपना अपराध स्वीकार करना, गान्धारीके दृष्टिपातसे युधिष्ठिरके पैरोंके नखोंका काला पड़ जाना, अर्जुनका भयभीत होकर श्रीकृष्णके पीछे छिप जाना, पाण्डवोंका अपनी मातासे मिलना, द्रौपदीका विलाप, कुन्तीका आश्वासन तथा गान्धारीका उन दोनोंको धीरज बँधाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्या भीमसेनोऽथ भीतवत्।
गान्धारीं प्रत्युवाचेदं वचः सानुनयं तदा ॥ १ ॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्या भीमसेनोऽथ भीतवत्।
गान्धारीं प्रत्युवाचेदं वचः सानुनयं तदा ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! गान्धारीकी यह बात सुनकर भीमसेनने डरे हुएकी भाँति विनयपूर्वक उनकी बातका उत्तर देते हुए कहा—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मो यदि वा धर्मस्त्रासात् तत्र मया कृतः।
आत्मानं त्रातुकामेन तन्मे त्वं क्षन्तुमर्हसि ॥ २ ॥
मूलम्
अधर्मो यदि वा धर्मस्त्रासात् तत्र मया कृतः।
आत्मानं त्रातुकामेन तन्मे त्वं क्षन्तुमर्हसि ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘माताजी! यह अधर्म हो या धर्म; मैंने दुर्योधनसे डरकर अपने प्राण बचानेके लिये ही वहाँ ऐसा किया था; अतः आप मेरे उस अपराधको क्षमा कर दें॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि युद्धेन पुत्रस्ते धर्म्येण स महाबलः।
शक्यः केनचिदुद्यन्तुमतो विषममाचरम् ॥ ३ ॥
मूलम्
न हि युद्धेन पुत्रस्ते धर्म्येण स महाबलः।
शक्यः केनचिदुद्यन्तुमतो विषममाचरम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपके उस महाबली पुत्रको कोई भी धर्मानुकूल युद्ध करके मारनेका साहस नहीं कर सकता था; अतः मैंने विषमतापूर्ण बर्ताव किया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मेण जितः पूर्वं तेन चापि युधिष्ठिरः।
निकृताश्च सदैव स्म ततो विषममाचरम् ॥ ४ ॥
मूलम्
अधर्मेण जितः पूर्वं तेन चापि युधिष्ठिरः।
निकृताश्च सदैव स्म ततो विषममाचरम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पहले उसने भी अधर्मसे ही राजा युधिष्ठिरको जीता था और हमलोगोंके साथ सदा ही धोखा किया था, इसलिये मैंने भी उसके साथ विषम बर्ताव किया॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैन्यस्यैकोऽवशिष्टोऽयं गदायुद्धेन वीर्यवान् ।
मां हत्वा न हरेद् राज्यमिति वै तत् कृतं मया॥५॥
मूलम्
सैन्यस्यैकोऽवशिष्टोऽयं गदायुद्धेन वीर्यवान् ।
मां हत्वा न हरेद् राज्यमिति वै तत् कृतं मया॥५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कौरव-सेनाका एकमात्र बचा हुआ यह पराक्रमी वीर गदायुद्धके द्वारा मुझे मारकर पुनः सारा राज्य हर न ले, इसी आशंकासे मैंने वह अयोग्य बर्ताव किया था॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजपुत्रीं च पाञ्चालीमेकवस्त्रां रजस्वलाम्।
भवत्या विदितं सर्वमुक्तवान् यत् सुतस्तव ॥ ६ ॥
मूलम्
राजपुत्रीं च पाञ्चालीमेकवस्त्रां रजस्वलाम्।
भवत्या विदितं सर्वमुक्तवान् यत् सुतस्तव ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजकुमारी द्रौपदीसे, जो एक वस्त्र धारण किये रजस्वला-अवस्थामें थी, आपके पुत्रने जो कुछ कहा था, वह सब आप जानती हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुयोधनमसंगृह्य न शक्या भूः ससागरा।
केवला भोक्तुमस्माभिरतश्चैतत् कृतं मया ॥ ७ ॥
मूलम्
सुयोधनमसंगृह्य न शक्या भूः ससागरा।
केवला भोक्तुमस्माभिरतश्चैतत् कृतं मया ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दुर्योधनका संहार किये बिना हमलोग निष्कण्टक पृथ्वीका राज्य नहीं भोग सकते थे, इसलिये मैंने यह अयोग्य कार्य किया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथाप्यप्रियमस्माकं पुत्रस्ते समुपाचरत् ।
द्रौपद्या यत् सभामध्ये सव्यमूरुमदर्शयत् ॥ ८ ॥
मूलम्
तथाप्यप्रियमस्माकं पुत्रस्ते समुपाचरत् ।
द्रौपद्या यत् सभामध्ये सव्यमूरुमदर्शयत् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपके पुत्रने तो हम सब लोगोंका इससे भी बढ़कर अप्रिय किया था कि उसने भरी सभामें द्रौपदीको अपनी बाँयीं जाँघ दिखायी॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदैव वध्यः सोऽस्माकं दुराचारश्च ते सुतः।
धर्मराजाज्ञया चैव स्थिताः स्म समये तदा ॥ ९ ॥
मूलम्
तदैव वध्यः सोऽस्माकं दुराचारश्च ते सुतः।
धर्मराजाज्ञया चैव स्थिताः स्म समये तदा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपके उस दुराचारी पुत्रको तो हमें उसी समय मार डालना चाहिये था; परंतु धर्मराजकी आज्ञासे हमलोग समयके बन्धनमें बँधकर चुप रह गये॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैरमुद्दीपितं राज्ञि पुत्रेण तव तन्महत्।
क्लेशिताश्च वने नित्यं तत एतत् कृतं मया ॥ १० ॥
मूलम्
वैरमुद्दीपितं राज्ञि पुत्रेण तव तन्महत्।
क्लेशिताश्च वने नित्यं तत एतत् कृतं मया ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रानी! आपके पुत्रने उस महान् वैरकी आगको और भी प्रज्वलित कर दिया और हमें वनमें भेजकर सदा क्लेश पहुँचाया; इसीलिये हमने उसके साथ ऐसा व्यवहार किया है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैरस्यास्य गताः पारं हत्वा दुर्योधनं रणे।
राज्यं युधिष्ठिरः प्राप्तो वयं च गतमन्यवः ॥ ११ ॥
मूलम्
वैरस्यास्य गताः पारं हत्वा दुर्योधनं रणे।
राज्यं युधिष्ठिरः प्राप्तो वयं च गतमन्यवः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रणभूमिमें दुर्योधनका वध करके हमलोग इस वैरसे पार हो गये। राजा युधिष्ठिरको राज्य मिल गया और हमलोगोंका क्रोध शान्त हो गया’॥११॥
मूलम् (वचनम्)
गान्धार्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तस्यैष वधस्तात यत् प्रशंससि मे सुतम्।
कृतवांश्चापि तत् सर्वं यदिदं भाषसे मयि ॥ १२ ॥
मूलम्
न तस्यैष वधस्तात यत् प्रशंससि मे सुतम्।
कृतवांश्चापि तत् सर्वं यदिदं भाषसे मयि ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गान्धारी बोलीं— तात! तुम मेरे पुत्रकी इतनी प्रशंसा कर रहे हो; इसलिये यह उसका वध नहीं हुआ (वह अपने यशोमय शरीरसे अमर है) और मेरे सामने तुम जो कुछ कह रहे हो, वह सारा अपराध दुर्योधनने अवश्य किया है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हताश्वे नकुले यत्तु वृषसेनेन भारत।
अपिबः शोणितं संख्ये दुःशासनशरीरजम् ॥ १३ ॥
सद्भिर्विगर्हितं घोरमनार्यजनसेवितम् ।
क्रूरं कर्माकृथास्तस्मात्तदयुक्तं वृकोदर ॥ १४ ॥
मूलम्
हताश्वे नकुले यत्तु वृषसेनेन भारत।
अपिबः शोणितं संख्ये दुःशासनशरीरजम् ॥ १३ ॥
सद्भिर्विगर्हितं घोरमनार्यजनसेवितम् ।
क्रूरं कर्माकृथास्तस्मात्तदयुक्तं वृकोदर ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! परंतु वृषसेनने जब नकुलके घोड़ोंको मारकर उसे रथहीन कर दिया था, उस समय तुमने युद्धमें दुःशासनको मारकर जो उसका खून पी लिया, वह सत्पुरुषोंद्वारा निन्दित और नीच पुरुषोंद्वारा सेवित घोर क्रूरतापूर्ण कर्म है। वृकोदर! तुमने वही क्रूर कार्य किया है, इसलिये तुम्हारे द्वारा अत्यन्त अयोग्य कर्म बन गया है॥
मूलम् (वचनम्)
भीमसेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यस्यापि न पातव्यं रुधिरं किं पुनः स्वकम्।
यथैवात्मा तथा भ्राता विशेषो नास्ति कश्चन ॥ १५ ॥
मूलम्
अन्यस्यापि न पातव्यं रुधिरं किं पुनः स्वकम्।
यथैवात्मा तथा भ्राता विशेषो नास्ति कश्चन ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन बोले— माताजी! दूसरेका भी खून नहीं पीना चाहिये; फिर अपना ही खून कोई कैसे पी सकता है? जैसे अपना शरीर है, वैसे ही भाईका शरीर है। अपनेमें और भाईमें कोई अन्तर नहीं है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुधिरं न व्यतिक्रामद् दन्तोष्ठं मेऽम्ब मा शुचः।
वैवस्वतस्तु तद् वेद हस्तौ मे रुधिरोक्षितौ ॥ १६ ॥
मूलम्
रुधिरं न व्यतिक्रामद् दन्तोष्ठं मेऽम्ब मा शुचः।
वैवस्वतस्तु तद् वेद हस्तौ मे रुधिरोक्षितौ ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माँ! आप शोक न करें। वह खून मेरे दाँतों और ओठोंको लाँघकर आगे नहीं जा सका था। इस बातको सूर्यपुत्र यमराज जानते हैं कि केवल मेरे दोनों हाथ ही रक्तमें सने हुए थे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हताश्वं नकुलं दृष्ट्वा वृषसेनेन संयुगे।
भ्रातॄणां सम्प्रहृष्टानां त्रासः संजनितो मया ॥ १७ ॥
मूलम्
हताश्वं नकुलं दृष्ट्वा वृषसेनेन संयुगे।
भ्रातॄणां सम्प्रहृष्टानां त्रासः संजनितो मया ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धमें वृषसेनके द्वारा नकुलके घोड़ोंको मारा गया देख जो दुःशासनके सभी भाई हर्षसे उल्लसित हो उठे थे, उनके मनमें वैसा करके मैंने केवल त्रास उत्पन्न किया था॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केशपक्षपरामर्शे द्रौपद्या द्यूतकारिते ।
क्रोधाद् यदब्रवं चाहं तच्च मे हृदि वर्तते ॥ १८ ॥
मूलम्
केशपक्षपरामर्शे द्रौपद्या द्यूतकारिते ।
क्रोधाद् यदब्रवं चाहं तच्च मे हृदि वर्तते ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्यूतक्रीडाके समय जब द्रौपदीका केश खींचा गया, उस समय क्रोधमें भरकर मैंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसकी याद हमारे हृदयमें बराबर बनी रहती थी॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रधर्माच्च्युतो राज्ञि भवेयं शाश्वतीः समाः।
प्रतिज्ञां तामनिस्तीर्य ततस्तत् कृतवानहम् ॥ १९ ॥
मूलम्
क्षत्रधर्माच्च्युतो राज्ञि भवेयं शाश्वतीः समाः।
प्रतिज्ञां तामनिस्तीर्य ततस्तत् कृतवानहम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रानीजी! यदि मैं उस प्रतिज्ञाको पूर्ण न करता तो सदाके लिये क्षत्रियधर्मसे गिर जाता, इसलिये मैंने यह काम किया था॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मामर्हसि गान्धारि दोषेण परिशङ्कितुम्।
अनिगृह्य पुरा पुत्रानस्मास्वनपकारिषु ।
अधुना किं नु दोषेण परिशङ्कितुमर्हसि ॥ २० ॥
मूलम्
न मामर्हसि गान्धारि दोषेण परिशङ्कितुम्।
अनिगृह्य पुरा पुत्रानस्मास्वनपकारिषु ।
अधुना किं नु दोषेण परिशङ्कितुमर्हसि ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माता गान्धारी! आपको मुझमें दोषकी आशंका नहीं करनी चाहिये। पहले जब हमलोगोंने कोई अपराध नहीं किया था, उस समय हमपर अत्याचार करनेवाले अपने पुत्रोंको तो आपने रोका नहीं; फिर इस समय आप क्यों मुझपर दोषारोपण करती हैं?॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
गान्धार्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृद्धस्यास्य शतं पुत्रान् निघ्नंस्त्वमपराजितः।
कस्मान्नाशेषयः कंचिद् येनाल्पमराधितम् ॥ २१ ॥
मूलम्
वृद्धस्यास्य शतं पुत्रान् निघ्नंस्त्वमपराजितः।
कस्मान्नाशेषयः कंचिद् येनाल्पमराधितम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गान्धारी बोलीं— बेटा! तुम अपराजित वीर हो। तुमने इन बूढ़े महाराजके सौ पुत्रोंको मारते समय किसी एकको भी, जिसने बहुत थोड़ा अपराध किया था, क्यों नहीं जीवित छोड़ दिया?॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतानमावयोस्तात वृद्धयोर्हृतराज्ययोः ।
कथमन्धद्वयस्यास्य यष्टिरेका न वर्जिता ॥ २२ ॥
मूलम्
संतानमावयोस्तात वृद्धयोर्हृतराज्ययोः ।
कथमन्धद्वयस्यास्य यष्टिरेका न वर्जिता ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! हम दोनों बूढ़े हुए। हमारा राज्य भी तुमने छीन लिया। ऐसी दशामें हमारी एक ही संतानको—हम दो अन्थोंके लिये एक ही लाठीके सहारेको तुमने क्यों नहीं जीवित छोड़ दिया?॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शेषे ह्यवस्थिते तात पुत्राणामन्तके त्वयि।
न मे दुःखं भवेदेतद् यदि त्वं धर्ममाचरेः ॥ २३ ॥
मूलम्
शेषे ह्यवस्थिते तात पुत्राणामन्तके त्वयि।
न मे दुःखं भवेदेतद् यदि त्वं धर्ममाचरेः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! तुम मेरे सारे पुत्रोंके लिये यमराज बन गये। यदि तुम धर्मका आचरण करते और मेरा एक पुत्र भी शेष रह जाता तो मुझे इतना दुःख नहीं होता॥२३॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा तु गान्धारी युधिष्ठिरमपृच्छत।
क्व स राजेति सक्रोधा पुत्रपौत्रवधार्दिता ॥ २४ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा तु गान्धारी युधिष्ठिरमपृच्छत।
क्व स राजेति सक्रोधा पुत्रपौत्रवधार्दिता ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! भीमसेनसे ऐसा कहकर अपने पुत्रों और पौत्रोंके वधसे पीड़ित हुई गान्धारीने कुपित होकर पूछा—‘कहाँ है वह राजा युधिष्ठिर?’॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमभ्यगच्छद् राजेन्द्रो वेपमानः कृताञ्जलिः।
युधिष्ठिरस्त्विदं तत्र मधुरं वाक्यमब्रवीत् ॥ २५ ॥
पुत्रहन्ता नृशंसोऽहं तव देवि युधिष्ठिरः।
शापार्हः पृथिवीनाशे हेतुभूतः शपस्व माम् ॥ २६ ॥
मूलम्
तमभ्यगच्छद् राजेन्द्रो वेपमानः कृताञ्जलिः।
युधिष्ठिरस्त्विदं तत्र मधुरं वाक्यमब्रवीत् ॥ २५ ॥
पुत्रहन्ता नृशंसोऽहं तव देवि युधिष्ठिरः।
शापार्हः पृथिवीनाशे हेतुभूतः शपस्व माम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर महाराज युधिष्ठिर काँपते हुए हाथ जोड़े उनके सामने आये और बड़ी मीठी वाणीमें बोले—‘देवि! आपके पुत्रोंका संहार करनेवाला क्रूरकर्मा युधिष्ठिर मैं हूँ। पृथ्वीभरके राजाओंका नाश करानेमें मैं ही हेतु हूँ, इसलिये शापके योग्य हूँ। आप मुझे शाप दे दीजिये॥२५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि मे जीवितेनार्थो न राज्येन धनेन वा।
तादृशान् सुहृदो हत्वा मूढस्यास्य सुहृद्द्रुहः ॥ २७ ॥
मूलम्
न हि मे जीवितेनार्थो न राज्येन धनेन वा।
तादृशान् सुहृदो हत्वा मूढस्यास्य सुहृद्द्रुहः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं अपने सुहृदोंका द्रोही और अविवेकी हूँ। वैसे-वैसे श्रेष्ठ सुहृदोंका वध करके अब मुझे जीवन, राज्य अथवा धनसे कोई प्रयोजन नहीं है’॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेवंवादिनं भीतं संनिकर्षगतं तदा।
नोवाच किंचिद् गान्धारी निःश्वासपरमा भृशम् ॥ २८ ॥
मूलम्
तमेवंवादिनं भीतं संनिकर्षगतं तदा।
नोवाच किंचिद् गान्धारी निःश्वासपरमा भृशम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब निकट आकर डरे हुए राजा युधिष्ठिरने ऐसी बातें कहीं, तब गान्धारी देवी जोर-जोरसे साँस खींचती हुई सिसकने लगीं। वे मुँहसे कुछ बोल न सकीं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यावनतदेहस्य पादयोर्निपतिष्यतः ।
युधिष्ठिरस्य नृपतेर्धर्मज्ञा दीर्घदर्शिनी ॥ २९ ॥
अंगुल्यग्राणि ददृशे देवी पट्टान्तरेण सा।
ततः स कुनखीभूतो दर्शनीयनखो नृपः ॥ ३० ॥
मूलम्
तस्यावनतदेहस्य पादयोर्निपतिष्यतः ।
युधिष्ठिरस्य नृपतेर्धर्मज्ञा दीर्घदर्शिनी ॥ २९ ॥
अंगुल्यग्राणि ददृशे देवी पट्टान्तरेण सा।
ततः स कुनखीभूतो दर्शनीयनखो नृपः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा युधिष्ठिर शरीरको झुकाकर गान्धारीके चरणोंपर गिर जाना चाहते थे। इतनेहीमें धर्मको जाननेवाली दूर-दर्शिनी देवी गान्धारीने पट्टीके भीतरसे ही राजा युधिष्ठिरके पैरोंकी अंगुलियोंके अग्रभाग देख लिये। इतनेहीसे राजाके नख काले पड़ गये। इसके पहले उनके नख बड़े ही सुन्दर और दर्शनीय थे॥२९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं दृष्टवा चार्जुनोऽगच्छद् वासुदेवस्य पृष्ठतः।
एवं संचेष्टमानांस्तानितश्चेतश्च भारत ॥ ३१ ॥
गान्धारी विगतक्रोधा सान्त्वयामास मातृवत्।
मूलम्
तं दृष्टवा चार्जुनोऽगच्छद् वासुदेवस्य पृष्ठतः।
एवं संचेष्टमानांस्तानितश्चेतश्च भारत ॥ ३१ ॥
गान्धारी विगतक्रोधा सान्त्वयामास मातृवत्।
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी यह अवस्था देख अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण-के पीछे जाकर छिप गये। भारत! उन्हें इस प्रकार इधर-उधर छिपनेकी चेष्टा करते देख गान्धारीका क्रोध उतर गया और उन्होंने उन सबको स्नेहमयी माताके समान सान्त्वना दी॥३१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तया ते समनुज्ञाता मातरं वीरमातरम् ॥ ३२ ॥
अभ्यगच्छन्त सहिताः पृथां पृथुलवक्षसः।
मूलम्
तया ते समनुज्ञाता मातरं वीरमातरम् ॥ ३२ ॥
अभ्यगच्छन्त सहिताः पृथां पृथुलवक्षसः।
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उनकी आज्ञा ले चौड़ी छातीवाले सभी पाण्डव एक साथ वीरजननी माता कुन्तीके पास गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरस्य दृष्ट्वा पुत्रान् सा पुत्राधिभिरभिप्लुता ॥ ३३ ॥
बाष्पमाहारयद् देवी वस्त्रेणावृत्य वै मुखम्।
मूलम्
चिरस्य दृष्ट्वा पुत्रान् सा पुत्राधिभिरभिप्लुता ॥ ३३ ॥
बाष्पमाहारयद् देवी वस्त्रेणावृत्य वै मुखम्।
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीदेवी दीर्घकालके बाद अपने पुत्रोंको देखकर उनके कष्टोंका स्मरण करके करुणामें डूब गयीं और अंचलसे मुँह ढककर आँसू बहाने लगीं॥३३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो बाष्पं समुत्सृज्य सह पुत्रैस्तदा पृथा ॥ ३४ ॥
अपश्यदेतान् शस्त्रौघैर्बहुधा क्षतविक्षतान् ।
मूलम्
ततो बाष्पं समुत्सृज्य सह पुत्रैस्तदा पृथा ॥ ३४ ॥
अपश्यदेतान् शस्त्रौघैर्बहुधा क्षतविक्षतान् ।
अनुवाद (हिन्दी)
पुत्रोंसहित आँसू बहाकर उन्होंने उनके शरीरोंपर बारंबार दृष्टिपात किया। वे सभी अस्त्र-शस्त्रोंकी चोटसे घायल हो रहे थे॥३४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तानेकैकशः पुत्रान् संस्पृशन्ती पुनः पुनः ॥ ३५ ॥
अन्वशोचत दुःखार्ता द्रौपदीं च हृतात्मजाम्।
रुदतीमथ पाञ्चालीं ददर्श पतितां भुवि ॥ ३६ ॥
मूलम्
सा तानेकैकशः पुत्रान् संस्पृशन्ती पुनः पुनः ॥ ३५ ॥
अन्वशोचत दुःखार्ता द्रौपदीं च हृतात्मजाम्।
रुदतीमथ पाञ्चालीं ददर्श पतितां भुवि ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बारी-बारीसे पुत्रोंके शरीरपर बारंबार हाथ फेरती हुई कुन्ती दुःखसे आतुर हो उस द्रौपदीके लिये शोक करने लगीं, जिसके सभी पुत्र मारे गये थे। इतनेमें ही उन्होंने देखा कि द्रौपदी पास ही पृथ्वीपर गिरकर रो रही है॥
मूलम् (वचनम्)
द्रौपद्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आर्ये पौत्राः क्व ते सर्वे सौभद्रसहिता गताः।
न त्वां तेऽद्याभिगच्छन्ति चिरं दृष्ट्वा तपस्विनीम् ॥ ३७ ॥
किं नु राज्येन वै कार्यं विहीनायाः सुतैर्मम।
मूलम्
आर्ये पौत्राः क्व ते सर्वे सौभद्रसहिता गताः।
न त्वां तेऽद्याभिगच्छन्ति चिरं दृष्ट्वा तपस्विनीम् ॥ ३७ ॥
किं नु राज्येन वै कार्यं विहीनायाः सुतैर्मम।
अनुवाद (हिन्दी)
द्रौपदी बोली— आर्ये! अभिमन्युसहित वे आपके सभी पौत्र कहाँ चले गये? वे दीर्घकालके बाद आयी हुई आज आप तपस्विनी देवीको देखकर आपके निकट क्यों नहीं आ रहे हैं? अपने पुत्रोंसे हीन होकर अब इस राज्यसे हमें क्या कार्य है?॥३७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां समाश्वासयामास पृथा पृथुललोचना ॥ ३८ ॥
उत्थाप्य याज्ञसेनीं तु रुदतीं शोककर्शिताम्।
तयैव सहिता चापि पुत्रैरनुगता नृप ॥ ३९ ॥
अभ्यगच्छत गान्धारीमार्तामार्ततरा स्वयम् ।
मूलम्
तां समाश्वासयामास पृथा पृथुललोचना ॥ ३८ ॥
उत्थाप्य याज्ञसेनीं तु रुदतीं शोककर्शिताम्।
तयैव सहिता चापि पुत्रैरनुगता नृप ॥ ३९ ॥
अभ्यगच्छत गान्धारीमार्तामार्ततरा स्वयम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! विशाल नेत्रोंवाली कुन्तीने शोकसे कातर हो रोती हुई द्रुपदकुमारीको उठाकर धीरज बँधाया और उसके साथ ही वे स्वयं भी अत्यन्त आर्त होकर शोकाकुल गान्धारीके पास गयीं। उस समय उनके पुत्र पाण्डव भी उनके पीछे-पीछे गये॥३८-३९॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामुवाचाथ गान्धारी सह वध्वा यशस्विनीम् ॥ ४० ॥
मैवं पुत्रीति शोकार्ता पश्य मामपि दुःखिताम्।
मन्ये लोकविनाशोऽयं कालपर्यायनोदितः ॥ ४१ ॥
अवश्यभावी सम्प्राप्तः स्वभावाल्लोमहर्षणः ।
इदं तत् समनुप्राप्तं विदुरस्य वचो महत् ॥ ४२ ॥
असिद्धानुनये कृष्णे यदुवाच महामतिः।
मूलम्
तामुवाचाथ गान्धारी सह वध्वा यशस्विनीम् ॥ ४० ॥
मैवं पुत्रीति शोकार्ता पश्य मामपि दुःखिताम्।
मन्ये लोकविनाशोऽयं कालपर्यायनोदितः ॥ ४१ ॥
अवश्यभावी सम्प्राप्तः स्वभावाल्लोमहर्षणः ।
इदं तत् समनुप्राप्तं विदुरस्य वचो महत् ॥ ४२ ॥
असिद्धानुनये कृष्णे यदुवाच महामतिः।
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! गान्धारीने बहू द्रौपदी और यशस्विनी कुन्तीसे कहा—‘बेटी! इस प्रकार शोकसे व्याकुल न होओ। देखो, मैं भी तो दुःखमें डूबी हुई हूँ। मैं समझती हूँ, समयके उलट-फेरसे प्रेरित होकर यह सम्पूर्ण जगत्का विनाश हुआ है, जो स्वभावसे ही रोमांचकारी है। यह काण्ड अवश्यम्भावी था, इसीलिये प्राप्त हुआ है। जब संधि करानेके विषयमें श्रीकृष्णकी अनुनय-विनय सफल नहीं हुई, उस समय परम बुद्धिमान् विदुरजीने जो महत्त्वपूर्ण बात कही थी, उसीके अनुसार यह सब कुछ सामने आया है॥४०—४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन्नपरिहार्येऽर्थे व्यतीते च विशेषतः ॥ ४३ ॥
मा शुचो न हि शोच्यास्ते संग्रामे निधनं गताः।
यथैवाहं तथैव त्वं को नावाश्वासयिष्यति।
ममैव ह्यपराधेन कुलमग्र्यं विनाशितम् ॥ ४४ ॥
मूलम्
तस्मिन्नपरिहार्येऽर्थे व्यतीते च विशेषतः ॥ ४३ ॥
मा शुचो न हि शोच्यास्ते संग्रामे निधनं गताः।
यथैवाहं तथैव त्वं को नावाश्वासयिष्यति।
ममैव ह्यपराधेन कुलमग्र्यं विनाशितम् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब यह विनाश किसी तरह टल नहीं सकता था, विशेषतः जब सब कुछ होकर समाप्त हो गया, तो अब तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। वे सभी वीर संग्राममें मारे गये हैं, अतः शोक करनेके योग्य नहीं हैं। आज जैसी मैं हूँ, वैसी ही तुम भी हो। हम दोनोंको कौन धीरज बँधायेगा? मेरे ही अपराधसे इस श्रेष्ठ कुलका संहार हुआ है’॥४३-४४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि जलप्रदानिकपर्वणि पृथापुत्रदर्शने पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्वके अन्तर्गत जलप्रदानिकपर्वमें कुन्तीको अपने पुत्रोंका दर्शनविषयक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५॥