०१० धृतराष्ट्रनिर्गमने

भागसूचना

दशमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

स्त्रियों और प्रजाके लोगोंके सहित राजा धृतराष्ट्रका रणभूमिमें जानेके लिये नगरसे बाहर निकलना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदुरस्य तु तद् वाक्यं श्रुत्वा तु पुरुषर्षभः।
युज्यतां यानमित्युक्त्वा पुनर्वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

विदुरस्य तु तद् वाक्यं श्रुत्वा तु पुरुषर्षभः।
युज्यतां यानमित्युक्त्वा पुनर्वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! विदुरकी यह बात सुनकर पुरुषश्रेष्ठ राजा धृतराष्ट्रने रथ जोतनेकी आज्ञा देकर पुनः इस प्रकार कहा॥१॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शीघ्रमानय गान्धारीं सर्वाश्च भरतस्त्रियः।
वधूं कुन्तीमुपादाय याश्चान्यास्तत्र योषितः ॥ २ ॥

मूलम्

शीघ्रमानय गान्धारीं सर्वाश्च भरतस्त्रियः।
वधूं कुन्तीमुपादाय याश्चान्यास्तत्र योषितः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— गान्धारीको तथा भरतवंशी अन्य सब स्त्रियोंको शीघ्र ले आओ तथा वधू कुन्तीको साथ लेकर वहाँ जो दूसरी स्त्रियाँ हों, उन्हें भी बुला लो॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा स धर्मात्मा विदुरं धर्मवित्तमम्।
शोकविप्रहतज्ञानो यानमेवान्वपद्यत ॥ ३ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा स धर्मात्मा विदुरं धर्मवित्तमम्।
शोकविप्रहतज्ञानो यानमेवान्वपद्यत ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम धर्मज्ञ विदुरजीसे ऐसा कहकर शोकसे जिनकी ज्ञानशक्ति नष्ट-सी हो गयी थी, वे धर्मात्मा राजा धृतराष्ट्र रथपर सवार हुए॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गान्धारी पुत्रशोकार्ता भर्तुर्वचननोदिता ।
सह कुन्त्या यतो राजा सह स्त्रीभिरुपाद्रवत् ॥ ४ ॥

मूलम्

गान्धारी पुत्रशोकार्ता भर्तुर्वचननोदिता ।
सह कुन्त्या यतो राजा सह स्त्रीभिरुपाद्रवत् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गान्धारी पुत्रशोकसे पीड़ित हो रही थीं, पतिकी आज्ञा पाकर वे कुन्ती तथा अन्य स्त्रियोंके साथ जहाँ राजा धृतराष्ट्र थे, वहाँ आयीं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताः समासाद्य राजानं भृशं शोकसमन्विताः।
आमन्त्र्यान्योन्यमीयुः स्म भृशमुच्चुक्रुशुस्ततः ॥ ५ ॥

मूलम्

ताः समासाद्य राजानं भृशं शोकसमन्विताः।
आमन्त्र्यान्योन्यमीयुः स्म भृशमुच्चुक्रुशुस्ततः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ राजाके पास पहुँचकर अत्यन्त शोकमें डूबी हुई वे सारी स्त्रियाँ एक-दूसरीको पुकार-पुकारकर परस्पर गलेसे लग गयीं और जोर-जोरसे फूट-फूटकर रोने लगीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताः समाश्वासयत् क्षत्ता ताभ्यश्चार्ततरः स्वयम्।
अश्रुकण्ठीः समारोप्य ततोऽसौ निर्ययौ पुरात् ॥ ६ ॥

मूलम्

ताः समाश्वासयत् क्षत्ता ताभ्यश्चार्ततरः स्वयम्।
अश्रुकण्ठीः समारोप्य ततोऽसौ निर्ययौ पुरात् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुरजीने उन सब स्त्रियोंको आश्वासन दिया। वे स्वयं भी उनसे अधिक आर्त हो गये थे। आँसुओंसे गद्‌गद कण्ठ हुई उन सबको रथपर चढ़ाकर वे नगरसे बाहर निकले॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रणादः संजज्ञे सर्वेषु कुरुवेश्मसु।
आकुमारं पुरं सर्वमभवच्छोककर्षितम् ॥ ७ ॥

मूलम्

ततः प्रणादः संजज्ञे सर्वेषु कुरुवेश्मसु।
आकुमारं पुरं सर्वमभवच्छोककर्षितम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर कौरवोंके सभी घरोंमें बड़ा भारी आर्तनाद होने लगा। बूढ़ोंसे लेकर बच्चोंतक सारा नगर शोकसे व्याकुल हो उठा॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदृष्टपूर्वा या नार्यः पुरा देवगणैरपि।
पृथग्जनेन दृश्यन्ते तास्तदा निहतेश्वराः ॥ ८ ॥

मूलम्

अदृष्टपूर्वा या नार्यः पुरा देवगणैरपि।
पृथग्जनेन दृश्यन्ते तास्तदा निहतेश्वराः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन स्त्रियोंको पहले कभी देवताओंने भी नहीं देखा था, उन्हींको उस समय पतियोंके मारे जानेपर साधारण लोग देख रहे थे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकीर्य केशान् सुशुभान् भूषणान्यवमुच्य च।
एकवस्त्रधरा नार्यः परिपेतुरनाथवत् ॥ ९ ॥

मूलम्

प्रकीर्य केशान् सुशुभान् भूषणान्यवमुच्य च।
एकवस्त्रधरा नार्यः परिपेतुरनाथवत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे नारियाँ अपने सुन्दर केश बिखराये सारे आभूषण उतारकर एक ही वस्त्र धारण किये अनाथकी भाँति रणभूमिकी ओर जा रही थीं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वेतपर्वतरूपेभ्यो गृहेभ्यस्तास्त्वपाक्रमन् ।
गुहाभ्य इव शैलानां पृषत्यो हतयूथपाः ॥ १० ॥

मूलम्

श्वेतपर्वतरूपेभ्यो गृहेभ्यस्तास्त्वपाक्रमन् ।
गुहाभ्य इव शैलानां पृषत्यो हतयूथपाः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौरवोंके घर श्वेत पर्वतके समान जान पड़ते थे। उनसे जब वे स्त्रियाँ बाहर निकलीं, उस समय जिनका यूथपति मारा गया हो, पर्वतोंकी गुफासे निकली हुई उन चितकबरी हरिणियोंके समान दिखायी देने लगीं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान्युदीर्णानि नारीणां तदा वृन्दान्यनेकशः।
शोकार्तान्यद्रवन् राजन् किशोरीणामिवाङ्गने ॥ ११ ॥

मूलम्

तान्युदीर्णानि नारीणां तदा वृन्दान्यनेकशः।
शोकार्तान्यद्रवन् राजन् किशोरीणामिवाङ्गने ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! राजभवनके विशाल आँगनमें एकत्र हुई उन किशोरी स्त्रियोंके अनेक समुदाय शोकसे पीड़ित होकर रणभूमिकी ओर उसी प्रकार चले, जैसे बछेड़ियाँ शिक्षाभूमिपर लायी जाती हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रगृह्य बाहून् क्रोशन्त्यः पुत्रान् भ्रातॄन् पितॄनपि।
दर्शयन्तीव ता ह स्म युगान्ते लोकसंक्षयम् ॥ १२ ॥

मूलम्

प्रगृह्य बाहून् क्रोशन्त्यः पुत्रान् भ्रातॄन् पितॄनपि।
दर्शयन्तीव ता ह स्म युगान्ते लोकसंक्षयम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक-दूसरीके हाथ पकड़कर पुत्रों, भाइयों और पिताओंके नाम ले-लेकर रोती हुई वे कुरुकुलकी नारियाँ प्रलयकालमें लोक-संहारका दृश्य दिखाती हुई-सी जान पड़ती थीं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विलपन्त्यो रुदत्यश्च धावमानास्ततस्ततः ।
शोकेनोपहतज्ञानाः कर्तव्यं न प्रजज्ञिरे ॥ १३ ॥

मूलम्

विलपन्त्यो रुदत्यश्च धावमानास्ततस्ततः ।
शोकेनोपहतज्ञानाः कर्तव्यं न प्रजज्ञिरे ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शोकसे उनकी ज्ञानशक्ति लुप्त-सी हो गयी थी। वे रोती और विलाप करती हुई इधर-उधर दौड़ रही थीं। उन्हें कोई कर्तव्य नहीं सूझ रहा था॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्रीडां जग्मुः पुरा याः स्म सखीनामपि योषितः।
ता एकवस्त्रा निर्लज्जाः श्वश्रूणां पुरतोऽभवन् ॥ १४ ॥

मूलम्

व्रीडां जग्मुः पुरा याः स्म सखीनामपि योषितः।
ता एकवस्त्रा निर्लज्जाः श्वश्रूणां पुरतोऽभवन् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो युवतियाँ पहले सखियोंके सामने आनेमें भी लजाती थीं, वे ही उस दिन लाज छोड़कर एक वस्त्र धारण किये अपनी सासुओंके सामने उपस्थित हो गयी थीं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परस्परं सुसूक्ष्मेषु शोकेष्वाश्वासयंस्तदा ।
ताः शोकविह्वला राजन्नवैक्षन्त परस्परम् ॥ १५ ॥

मूलम्

परस्परं सुसूक्ष्मेषु शोकेष्वाश्वासयंस्तदा ।
ताः शोकविह्वला राजन्नवैक्षन्त परस्परम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो नारियाँ छोटे-से-छोटे शोकमें भी एक दूसरीके पास जाकर आश्वासन दिया करती थीं, वे ही शोकसे व्याकुल हो परस्पर दृष्टिपातमात्र कर रही थीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताभिः परिवृतो राजा रुदतीभिः सहस्रशः।
निर्ययौ नगराद् दीनस्तूर्णमायोधनं प्रति ॥ १६ ॥

मूलम्

ताभिः परिवृतो राजा रुदतीभिः सहस्रशः।
निर्ययौ नगराद् दीनस्तूर्णमायोधनं प्रति ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन रोती हुई सहस्रों स्त्रियोंसे घिरे हुए दुःखी राजा धृतराष्ट्र नगरसे युद्धस्थलमें जानेके लिये तुरंत निकल पड़े॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिल्पिनो वणिजो वैश्याः सर्वकर्मोपजीविनः।
ते पार्थिवं पुरस्कृत्य निर्ययुर्नगराद् बहिः ॥ १७ ॥

मूलम्

शिल्पिनो वणिजो वैश्याः सर्वकर्मोपजीविनः।
ते पार्थिवं पुरस्कृत्य निर्ययुर्नगराद् बहिः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कारीगर, व्यापारी वैश्य तथा सब प्रकारके कर्मोंसे जीवन-निर्वाह करनेवाले लोग राजाको आगे करके नगरसे बाहर निकले॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तासां विक्रोशमानानामार्तानां कुरुसंक्षये ।
प्रादुरासीन्महान् शब्दो व्यथयन् भुवनान्युत ॥ १८ ॥

मूलम्

तासां विक्रोशमानानामार्तानां कुरुसंक्षये ।
प्रादुरासीन्महान् शब्दो व्यथयन् भुवनान्युत ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौरवोंका संहार हो जानेपर आर्तभावसे रोती और विलपती हुई उन नारियोंका महान् आर्तनाद सम्पूर्ण लोकोंको व्यथित करता हुआ प्रकट होने लगा॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युगान्तकाले सम्प्राप्ते भूतानां दह्यतामिव।
अभावः स्यादयं प्राप्त इति भूतानि मेनिरे ॥ १९ ॥

मूलम्

युगान्तकाले सम्प्राप्ते भूतानां दह्यतामिव।
अभावः स्यादयं प्राप्त इति भूतानि मेनिरे ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रलयकाल आनेपर दग्ध होते हुए प्राणियोंके चीखने-चिल्लानेके समान उन स्त्रियोंके रोनेका वह महान् शब्द गूँज रहा था। सब प्राणी ऐसा समझने लगे कि यह संहारकाल आ पहुँचा है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भृशमुद्विग्नमनसस्ते पौराः कुरुसंक्षये ।
प्राक्रोशन्त महाराज स्वनुरक्तास्तदा भृशम् ॥ २० ॥

मूलम्

भृशमुद्विग्नमनसस्ते पौराः कुरुसंक्षये ।
प्राक्रोशन्त महाराज स्वनुरक्तास्तदा भृशम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! कुरुकुलका संहार हो जानेसे अत्यन्त उद्विग्नचित्त हुए पुरवासी जो राजवंशके साथ पूर्ण अनुराग रखते थे, जोर-जोरसे रोने लगे॥२०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि जलप्रदानिकपर्वणि धृतराष्ट्रनिर्गमने दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्वके अन्तर्गत जलप्रदानिकपर्वमें धृतराष्ट्रका नगरसे निकलनाविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०॥