००९ विदुरवाक्ये

भागसूचना

नवमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

धृतराष्ट्रका शोकातुर हो जाना और विदुरजीका उन्हें पुनः शोकनिवारणके लिये उपदेश

मूलम् (वचनम्)

जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गते भगवति व्यासे धृतराष्ट्रो महीपतिः।
किमचेष्टत विप्रर्षे तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १ ॥

मूलम्

गते भगवति व्यासे धृतराष्ट्रो महीपतिः।
किमचेष्टत विप्रर्षे तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजयने पूछा— विप्रर्षे! भगवान् व्यासके चले जानेपर राजा धृतराष्ट्रने क्या किया? यह मुझे विस्तारपूर्वक बतानेकी कृपा करें॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव कौरवो राजा धर्मपुत्रो महामनाः।
कृपप्रभृतयश्चैव किमकुर्वत ते त्रयः ॥ २ ॥

मूलम्

तथैव कौरवो राजा धर्मपुत्रो महामनाः।
कृपप्रभृतयश्चैव किमकुर्वत ते त्रयः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार कुरुवंशी राजा महामनस्वी धर्मपुत्र युधिष्ठिरने तथा कृप आदि तीनों महारथियोंने क्या किया?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वत्थाम्नः श्रुतं कर्म शापश्चान्योन्यकारितः।
वृत्तान्तमुत्तरं ब्रूहि यदभाषत संजयः ॥ ३ ॥

मूलम्

अश्वत्थाम्नः श्रुतं कर्म शापश्चान्योन्यकारितः।
वृत्तान्तमुत्तरं ब्रूहि यदभाषत संजयः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अश्वत्थामाका कर्म तो मैंने सुन लिया, परस्पर जो शाप दिये गये, उनका हाल भी मालूम हो गया। अब आगेका वृत्तान्त बताइये, जिसे संजयने धृतराष्ट्रको सुनाया हो॥३॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हते दुर्योधने चैव हते सैन्ये च सर्वशः।
संजयो विगतप्रज्ञो धृतराष्ट्रमुपस्थितः ॥ ४ ॥

मूलम्

हते दुर्योधने चैव हते सैन्ये च सर्वशः।
संजयो विगतप्रज्ञो धृतराष्ट्रमुपस्थितः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजीने कहा— राजन्! दुर्योधन तथा उसकी सारी सेनाओंके मारे जानेपर संजयकी दिव्य दृष्टि चली गयी और वह धृतराष्ट्रकी सभामें उपस्थित हुआ॥४॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आगम्य नानादेशेभ्यो नानाजनपदेश्वराः ।
पितृलोकं गता राजन् सर्वे तव सुतैः सह ॥ ५ ॥

मूलम्

आगम्य नानादेशेभ्यो नानाजनपदेश्वराः ।
पितृलोकं गता राजन् सर्वे तव सुतैः सह ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय बोला— राजन्! नाना जनपदोंके स्वामी विभिन्न देशोंसे आकर सब-के-सब आपके पुत्रोंके साथ पितृलोकके पथिक बन गये॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

याच्यमानेन सततं तव पुत्रेण भारत।
घातिता पृथिवी सर्वा वैरस्यान्तं विधित्सता ॥ ६ ॥

मूलम्

याच्यमानेन सततं तव पुत्रेण भारत।
घातिता पृथिवी सर्वा वैरस्यान्तं विधित्सता ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! आपके पुत्रसे सब लोगोंने सदा शान्तिके लिये याचना की, तो भी उसने वैरका अन्त करनेकी इच्छासे सारे भूमण्डलका विनाश करा दिया॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्राणामथ पौत्राणां पितॄणां च महीपते।
आनुपूर्व्येण सर्वेषां प्रेतकार्याणि कारय ॥ ७ ॥

मूलम्

पुत्राणामथ पौत्राणां पितॄणां च महीपते।
आनुपूर्व्येण सर्वेषां प्रेतकार्याणि कारय ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! अब आप क्रमशः अपने ताऊ, चाचा, पुत्र और पौत्रोंका मृतकसम्बन्धी कर्म करवाइये॥७॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वा वचनं घोरं संजयस्य महीपतिः।
गतासुरिव निश्चेष्टो न्यपतत् पृथिवीतले ॥ ८ ॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वा वचनं घोरं संजयस्य महीपतिः।
गतासुरिव निश्चेष्टो न्यपतत् पृथिवीतले ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! संजयका यह घोर वचन सुनकर राजा धृतराष्ट्र प्राणशून्यकी भाँति निश्चेष्ट हो पृथ्वीपर गिर पड़े॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं शयानमुपागम्य पृथिव्यां पृथिवीपतिम्।
विदुरः सर्वधर्मज्ञ इदं वचनमब्रवीत् ॥ ९ ॥

मूलम्

तं शयानमुपागम्य पृथिव्यां पृथिवीपतिम्।
विदुरः सर्वधर्मज्ञ इदं वचनमब्रवीत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीपति धृतराष्ट्रको पृथ्वीपर सोया देख सब धर्मोंके ज्ञाता विदुरजी उनके पास आये और इस प्रकार बोले—॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तिष्ठ राजन् किं शेषे मा शुचो भरतर्षभ।
एषा वै सर्वसत्त्वानां लोकेश्वर परा गतिः ॥ १० ॥

मूलम्

उत्तिष्ठ राजन् किं शेषे मा शुचो भरतर्षभ।
एषा वै सर्वसत्त्वानां लोकेश्वर परा गतिः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! उठिये, क्यों सो रहे हैं? भरतश्रेष्ठ! शोक न कीजिये। लोकनाथ! समस्त प्राणियोंकी यही अन्तिम गति है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभावादीनि भूतानि भावमध्यानि भारत।
अभावनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥ ११ ॥

मूलम्

अभावादीनि भूतानि भावमध्यानि भारत।
अभावनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतनन्दन! सभी प्राणी जन्मसे पहले अव्यक्त थे, बीचमें व्यक्त हुए और अन्तमें मृत्युके बाद फिर अव्यक्त ही हो जायँगे, ऐसी दशामें उनोके लिये शोक करनेकी क्या बात है?॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न शोचन् मृतमन्वेति न शोचन् म्रियते नरः।
एवं सांसिद्धिके लोके किमर्थमनुशोचसि ॥ १२ ॥

मूलम्

न शोचन् मृतमन्वेति न शोचन् म्रियते नरः।
एवं सांसिद्धिके लोके किमर्थमनुशोचसि ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शोक करनेवाला मनुष्य न तो मरे हुएके साथ जाता है और न स्वयं ही मरता है। जब लोककी यही स्वाभाविक स्थिति है, तब आप किसलिये बारंबार शोक कर रहे हैं?॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयुध्यमानो म्रियते युद्ध्यमानस्तु जीवति।
कालं प्राप्य महाराज न कश्चिदतिवर्तते ॥ १३ ॥

मूलम्

अयुध्यमानो म्रियते युद्ध्यमानस्तु जीवति।
कालं प्राप्य महाराज न कश्चिदतिवर्तते ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! जो युद्ध नहीं करता, वह भी मरता है और युद्ध करनेवाला भी जीवित बच जाता है। कालको पाकर कोई भी उसका उल्लंघन नहीं कर सकता॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालः कर्षति भूतानि सर्वाणि विविधानि च।
न कालस्य प्रियः कश्चिन्न द्वेष्यः कुरुसत्तम ॥ १४ ॥

मूलम्

कालः कर्षति भूतानि सर्वाणि विविधानि च।
न कालस्य प्रियः कश्चिन्न द्वेष्यः कुरुसत्तम ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘काल सभी विविध प्राणियोंको खींचता है। कुरुश्रेष्ठ! कालके लिये न तो कोई प्रिय है और न कोई द्वेषका पात्र ही॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा वायुस्तृणाग्राणि संवर्तयति सर्वतः।
तथा कालवशं यान्ति भूतानि भरतर्षभ ॥ १५ ॥

मूलम्

यथा वायुस्तृणाग्राणि संवर्तयति सर्वतः।
तथा कालवशं यान्ति भूतानि भरतर्षभ ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! जैसे वायु तिनकोंको सब ओर उड़ाती और गिराती रहती है, उसी प्रकार सारे प्राणी कालके अधीन होकर आते-जाते रहते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकसार्थप्रयातानां सर्वेषां तत्र गामिनाम्।
यस्य कालः प्रयात्यग्रे तत्र का परिदेवना ॥ १६ ॥

मूलम्

एकसार्थप्रयातानां सर्वेषां तत्र गामिनाम्।
यस्य कालः प्रयात्यग्रे तत्र का परिदेवना ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘एक साथ आये हुए सभी प्राणियोंको एक दिन वहीं जाना है। जिसका काल आ गया, वह पहले चला जाता है; फिर उसके लिये व्यर्थ शोक क्यों?॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यांश्चापि निहतान् युद्धे राजंस्त्वमनुशोचसि।
न शोच्या हि महात्मानः सर्वे ते त्रिदिवं गताः॥१७॥

मूलम्

यांश्चापि निहतान् युद्धे राजंस्त्वमनुशोचसि।
न शोच्या हि महात्मानः सर्वे ते त्रिदिवं गताः॥१७॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! जो लोग युद्धमें मारे गये हैं और जिनके लिये आप बारंबार शोक कर रहे हैं, वे महामनस्वी वीर शोक करनेके योग्य नहीं हैं, वे सब-के-सब स्वर्गलोकमें चले गये॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न यज्ञैर्दक्षिणावद्भिर्न तपोभिर्न विद्यया।
तथा स्वर्गमुपायान्ति यथा शूरास्तनुत्यजः ॥ १८ ॥

मूलम्

न यज्ञैर्दक्षिणावद्भिर्न तपोभिर्न विद्यया।
तथा स्वर्गमुपायान्ति यथा शूरास्तनुत्यजः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अपने शरीरका त्याग करनेवाले शूरवीर जिस तरह स्वर्गमें जाते हैं, उस तरह दक्षिणावाले यज्ञों, तपस्याओं तथा विद्यासे भी कोई नहीं जा सकता॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे वेदविदः शूराः सर्वे सुचरितव्रताः।
सर्वे चाभिमुखाः क्षीणास्तत्र का परिदेवना ॥ १९ ॥

मूलम्

सर्वे वेदविदः शूराः सर्वे सुचरितव्रताः।
सर्वे चाभिमुखाः क्षीणास्तत्र का परिदेवना ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे सभी वीर वेदवेत्ता और अच्छी तरह ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करनेवाले थे। वे सब-के-सब शत्रुओंका सामना करते हुए मारे गये थे; अतः उनके लिये शोक करनेकी क्या आवश्यकता है?॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरीराग्निषु शूराणां जुहुवुस्ते शराहुतीः।
हूयमानान् शरांश्चैव सेहुरुत्तमपूरुषाः ॥ २० ॥

मूलम्

शरीराग्निषु शूराणां जुहुवुस्ते शराहुतीः।
हूयमानान् शरांश्चैव सेहुरुत्तमपूरुषाः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन श्रेष्ठ पुरुषोंने शूरवीरोंके शरीररूपी अग्नियोंमें बाणरूपी हविष्यकी आहुतियाँ दी थीं और अपने शरीरमें जिनका हवन किया गया था, उन बाणोंका आघात सहन किया था॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं राजंस्तवाचक्षे स्वर्ग्यं पन्थानमुत्तमम्।
न युद्धादधिकं किंचित् क्षत्रियस्येह विद्यते ॥ २१ ॥

मूलम्

एवं राजंस्तवाचक्षे स्वर्ग्यं पन्थानमुत्तमम्।
न युद्धादधिकं किंचित् क्षत्रियस्येह विद्यते ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! मैं तुम्हें स्वर्गप्राप्तिका सबसे उत्तम मार्ग बता रहा हूँ। इस जगत्‌में क्षत्रियके लिये युद्धसे बढ़कर स्वर्गसाधक दूसरा कोई उपाय नहीं है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रियास्ते महात्मानः शूराः समितिशोभनाः।
आशिषं परमां प्राप्ता न शोच्याः सर्व एव हि॥२२॥

मूलम्

क्षत्रियास्ते महात्मानः शूराः समितिशोभनाः।
आशिषं परमां प्राप्ता न शोच्याः सर्व एव हि॥२२॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे सभी महामनस्वी क्षत्रिय वीर युद्धमें शोभा पानेवाले थे। वे उत्तम भोगोंसे सम्पन्न पुण्यलोकोंमें जा पहुँचे हैं, अतः उन सबके लिये शोक नहीं करना चाहिये॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मनाऽऽत्मानमाश्वास्य मा शुचः पुरुषर्षभ।
नाद्य शोकाभिभूतस्त्वं कार्यमुत्स्रष्टुमर्हसि ॥ २३ ॥

मूलम्

आत्मनाऽऽत्मानमाश्वास्य मा शुचः पुरुषर्षभ।
नाद्य शोकाभिभूतस्त्वं कार्यमुत्स्रष्टुमर्हसि ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषप्रवर! आप स्वयं ही अपने मनको आश्वासन देकर शोकको त्याग दीजिये। आज शोकसे व्याकुल होकर आपको अपने कर्तव्य कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये’॥२३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि जलप्रदानिकपर्वणि विदुरवाक्ये नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्वके अन्तर्गत जलप्रदानिकपर्वमें विदुरजीका वाक्यविषयक नवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९॥