००६ धृतराष्ट्रविशोककरणे

भागसूचना

षष्ठोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

संसाररूपी वनके रूपकका स्पष्टीकरण

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो खलु महद् दुःखं कृच्छ्रवासश्च तस्य ह।
कथं तस्य रतिस्तत्र तुष्टिर्वा वदतां वर ॥ १ ॥

मूलम्

अहो खलु महद् दुःखं कृच्छ्रवासश्च तस्य ह।
कथं तस्य रतिस्तत्र तुष्टिर्वा वदतां वर ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— वक्ताओंमें श्रेष्ठ विदुर! यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है! उस ब्राह्मणको तो महान् दुःख प्राप्त हुआ था। वह बड़े कष्टसे वहाँ रह रहा था तो भी वहाँ कैसे उसका मन लगता था और कैसे उसे संतोष होता था?॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स देशः क्व नु यत्रासौ वसते धर्मसंकटे।
कथं वा स विमुच्येत नरस्तस्मान्महाभयात् ॥ २ ॥

मूलम्

स देशः क्व नु यत्रासौ वसते धर्मसंकटे।
कथं वा स विमुच्येत नरस्तस्मान्महाभयात् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहाँ है वह देश, जहाँ बेचारा ब्राह्मण ऐसे धर्मसंकटमें रहता है? उस महान् भयसे उसका छुटकारा किस प्रकार हो सकता है?॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतन्मे सर्वमाचक्ष्व साधु चेष्टामहे तदा।
कृपा मे महती जाता तस्याभ्युद्धरणेन हि ॥ ३ ॥

मूलम्

एतन्मे सर्वमाचक्ष्व साधु चेष्टामहे तदा।
कृपा मे महती जाता तस्याभ्युद्धरणेन हि ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सब मुझे बताओ; फिर हम सब लोग उसे वहाँसे निकालनेकी पूरी चेष्टा करेंगे। उसके उद्धारके लिये मुझे बड़ी दया आ रही है॥३॥

मूलम् (वचनम्)

विदुर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपमानमिदं राजन् मोक्षविद्भिरुदाहृतम् ।
सुकृतं विन्दते येन परलोकेषु मानवः ॥ ४ ॥

मूलम्

उपमानमिदं राजन् मोक्षविद्भिरुदाहृतम् ।
सुकृतं विन्दते येन परलोकेषु मानवः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुरजीने कहा— राजन्! मोक्षतत्त्वके विद्वानोंद्वारा बताया गया यह एक दृष्टान्त है, जिसे समझकर वैराग्य धारण करनेसे मनुष्य परलोकमें पुण्यका फल पाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उच्यते यत् तु कान्तारं महासंसार एव सः।
वन दुर्गं हि यच्चैतत् संसारगहनं हि तत् ॥ ५ ॥

मूलम्

उच्यते यत् तु कान्तारं महासंसार एव सः।
वन दुर्गं हि यच्चैतत् संसारगहनं हि तत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसे दुर्गम स्थान बताया गया है, वह महासंसार ही है और जो यह दुर्गम वन कहा गया है, यह संसारका ही गहन स्वरूप है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये च ते कथिता व्याला व्याधयस्ते प्रकीर्तिताः।
या सा नारी बृहत्काया अध्यतिष्ठत तत्र वै ॥ ६ ॥
तामाहुस्तु जरां प्राज्ञा रूपवर्णविनाशिनीम्।

मूलम्

ये च ते कथिता व्याला व्याधयस्ते प्रकीर्तिताः।
या सा नारी बृहत्काया अध्यतिष्ठत तत्र वै ॥ ६ ॥
तामाहुस्तु जरां प्राज्ञा रूपवर्णविनाशिनीम्।

अनुवाद (हिन्दी)

जो सर्प कहे गये हैं, वे नाना प्रकारके रोग हैं। उस वनकी सीमापर जो विशालकाय नारी खड़ी थी, उसे विद्वान् पुरुष रूप और कान्तिका विनाश करनेवाली वृद्धावस्था बताते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तत्र कूपो नृपते स तु देहः शरीरिणाम् ॥ ७ ॥
यस्तत्र वसतेऽधस्तान्महाहिः काल एव सः।
अन्तकः सर्वभूतानां देहिनां सर्वहार्यसौ ॥ ८ ॥

मूलम्

यस्तत्र कूपो नृपते स तु देहः शरीरिणाम् ॥ ७ ॥
यस्तत्र वसतेऽधस्तान्महाहिः काल एव सः।
अन्तकः सर्वभूतानां देहिनां सर्वहार्यसौ ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! उस वनमें जो कुआँ कहा गया है, वह देहधारियोंका शरीर है। उसमें नीचे जो विशाल नाग रहता है, वह काल ही है। वही सम्पूर्ण प्राणियोंका अन्त करनेवाला और देहधारियोंका सर्वस्व हर लेनेवाला है॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कूपमध्ये च या जाता वल्ली यत्र स मानवः।
प्रताने लम्बते लग्नो जीविताशा शरीरिणाम् ॥ ९ ॥

मूलम्

कूपमध्ये च या जाता वल्ली यत्र स मानवः।
प्रताने लम्बते लग्नो जीविताशा शरीरिणाम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुँएके मध्यभागमें जो लता उत्पन्न हुई बतायी गयी है, जिसको पकड़कर वह मनुष्य लटक रहा है, वह देहधारियोंके जीवनकी आशा ही है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स यस्तु कूपवीनाहे तं वृक्षं परिसर्पति।
षड्वक्त्रः कुञ्जरो राजन् स तु संवत्सरः स्मृतः ॥ १० ॥

मूलम्

स यस्तु कूपवीनाहे तं वृक्षं परिसर्पति।
षड्वक्त्रः कुञ्जरो राजन् स तु संवत्सरः स्मृतः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो कुएँके मुखबन्धके समीप छः मुखों-वाला हाथी उस वृक्षकी ओर बढ़ रहा है, उसे संवत्सर माना गया है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुखानि ऋतवो मासाः पादा द्वादश कीर्तिताः।
ये तु वृक्षं निकृन्तन्ति मूषिकाः सततोत्थिताः ॥ ११ ॥
रात्र्यहानि तु तान्याहुर्भूतानां परिचिन्तकाः।

मूलम्

मुखानि ऋतवो मासाः पादा द्वादश कीर्तिताः।
ये तु वृक्षं निकृन्तन्ति मूषिकाः सततोत्थिताः ॥ ११ ॥
रात्र्यहानि तु तान्याहुर्भूतानां परिचिन्तकाः।

अनुवाद (हिन्दी)

छः ऋतुएँ ही उसके छः मुख हैं और बारह महीने ही बारह पैर बताये गये हैं। जो चूहे सदा उद्यत रहकर उस वृक्षको काटते हैं, उन चूहोंको विचारशील विद्वान् प्राणियोंके दिन और रात बताते हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये ते मधुकरास्तत्र कामास्ते परिकीर्तिताः ॥ १२ ॥
यास्तु ता बहुशो धाराः स्रवन्ति मधुनिस्रवम्।
तांस्तु कामरसान् विद्याद् यत्र मज्जन्ति मानवाः ॥ १३ ॥

मूलम्

ये ते मधुकरास्तत्र कामास्ते परिकीर्तिताः ॥ १२ ॥
यास्तु ता बहुशो धाराः स्रवन्ति मधुनिस्रवम्।
तांस्तु कामरसान् विद्याद् यत्र मज्जन्ति मानवाः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और जो-जो वहाँ मधुमक्खियाँ कही गयी हैं, वे सब कामनाएँ हैं। जो बहुत-सी धाराएँ मधुके झरने झरती रहती हैं, उन्हें कामरस जानना चाहिये, जहाँ सभी मानव डूब जाते हैं॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं संसारचक्रस्य परिवृत्तिं विदुर्बुधाः।
येन संसारचक्रस्य पाशांश्छिन्दन्ति वै बुधाः ॥ १४ ॥

मूलम्

एवं संसारचक्रस्य परिवृत्तिं विदुर्बुधाः।
येन संसारचक्रस्य पाशांश्छिन्दन्ति वै बुधाः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वान् पुरुष इस प्रकार संसारचक्रकी गतिको जानते हैं, इसीलिये वे वैराग्यरूपी शस्त्रसे इसके सारे बन्धनोंको काट देते हैं॥१४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि जलप्रदानिकपर्वणि धृतराष्ट्रविशोककरणे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्वके अन्तर्गत जलप्रदानिकपर्वमें धृतराष्ट्रके शोकका निवारणविषयक छठा अध्याय पूरा हुआ॥६॥