भागसूचना
द्वितीयोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
विदुरजीका राजा धृतराष्ट्रको समझाकर उनको शोकका त्याग करनेके लिये कहना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽमृतसमैर्वाक्यैर्ह्लादयन् पुरुषर्षभम् ।
वैचित्रवीर्यं विदुरो यदुवाच निबोध तत् ॥ १ ॥
मूलम्
ततोऽमृतसमैर्वाक्यैर्ह्लादयन् पुरुषर्षभम् ।
वैचित्रवीर्यं विदुरो यदुवाच निबोध तत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर विदुरजीने पुरुषप्रवर धृतराष्ट्रको अपने अमृतसमान मधुर वचनोंद्वारा आह्लाद प्रदान करते हुए वहाँ जो कुछ कहा, उसे सुनो॥१॥
मूलम् (वचनम्)
विदुर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तिष्ठ राजन् किं शेषे धारयात्मानमात्मना।
एषा वै सर्वसत्त्वानां लोकेश्वर परा गतिः ॥ २ ॥
मूलम्
उत्तिष्ठ राजन् किं शेषे धारयात्मानमात्मना।
एषा वै सर्वसत्त्वानां लोकेश्वर परा गतिः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरजी बोले— राजन्! आप धरतीपर क्यों पड़े हैं? उठकर बैठ जाइये और बुद्धिके द्वारा अपने मनको स्थिर कीजिये। लोकेश्वर! समस्त प्राणियोंकी यही अन्तिम गति है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम् ॥ ३ ॥
मूलम्
सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सारे संग्रहोंका अन्त उनके क्षयमें ही है। भौतिक उन्नतियोंका अन्त पतनमें ही है। सारे संयोगोंका अन्त वियोगमें ही है। इसी प्रकार सम्पूर्ण जीवनका अन्त मृत्युमें ही होनेवाला है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा शूरं च भीरुं च यमः कर्षति भारत।
तत् किं न योत्स्यन्ति हि ते क्षत्रियाः क्षत्रियर्षभ॥४॥
मूलम्
यदा शूरं च भीरुं च यमः कर्षति भारत।
तत् किं न योत्स्यन्ति हि ते क्षत्रियाः क्षत्रियर्षभ॥४॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! क्षत्रियशिरोमणे! जब शूरवीर और डरपोक दोनोंको ही यमराज खींच ले जाते हैं, तब वे क्षत्रियलोग युद्ध क्यों न करते!॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयुध्यमानो म्रियते युध्यमानश्च जीवति।
कालं प्राप्य महाराज न कश्चिदतिवर्तते ॥ ५ ॥
मूलम्
अयुध्यमानो म्रियते युध्यमानश्च जीवति।
कालं प्राप्य महाराज न कश्चिदतिवर्तते ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! जो युद्ध नहीं करता, वह भी मर जाता है और जो संग्राममें जूझता है, वह भी जीवित बच जाता है। कालको पाकर कोई भी उसका उल्लंघन नहीं कर सकता॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभावादीनि भूतानि भावमध्यानि भारत।
अभावनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥ ६ ॥
मूलम्
अभावादीनि भूतानि भावमध्यानि भारत।
अभावनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जितने प्राणी हैं, वे जन्मसे पहले यहाँ व्यक्त नहीं थे। वे बीचमें ही व्यक्त होकर दिखायी देते हैं और अन्तमें पुनः उनका अभाव (अव्यक्तरूपसे अवस्थान) हो जायगा। ऐसी अवस्थामें उनके लिये रोने-धोनेकी क्या आवश्यकता है?॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न शोचन् मृतमन्वेति न शोचन् म्रियते नरः।
एवं सांसिद्धिके लोके किमर्थमनुशोचसि ॥ ७ ॥
मूलम्
न शोचन् मृतमन्वेति न शोचन् म्रियते नरः।
एवं सांसिद्धिके लोके किमर्थमनुशोचसि ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शोक करनेवाला मनुष्य न तो मरनेवालेके साथ जा सकता है और न मर ही सकता है। जब लोककी ऐसी ही स्वाभाविक स्थिति है, तब आप किसलिये शोक कर रहे हैं?॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालः कर्षति भूतानि सर्वाणि विविधान्युत।
न कालस्य प्रियः कश्चिन्न द्वेष्यः कुरुसत्तम ॥ ८ ॥
मूलम्
कालः कर्षति भूतानि सर्वाणि विविधान्युत।
न कालस्य प्रियः कश्चिन्न द्वेष्यः कुरुसत्तम ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! काल नाना प्रकारके समस्त प्राणियोंको खींच लेता है। कालको न तो कोई प्रिय है और न उसके द्वेषका ही पात्र है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा वायुस्तृणाग्राणि संवर्तयति सर्वशः।
तथा कालवशं यान्ति भूतानि भरतर्षभ ॥ ९ ॥
मूलम्
यथा वायुस्तृणाग्राणि संवर्तयति सर्वशः।
तथा कालवशं यान्ति भूतानि भरतर्षभ ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! जैसे हवा तिनकोंको सब ओर उड़ाती और डालती रहती है, उसी प्रकार समस्त प्राणी कालके अधीन होकर आते-जाते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकसार्थप्रयातानां सर्वेषां तत्र गमिनाम्।
यस्य कालः प्रयात्यग्रे तत्र का परिदेवना ॥ १० ॥
मूलम्
एकसार्थप्रयातानां सर्वेषां तत्र गमिनाम्।
यस्य कालः प्रयात्यग्रे तत्र का परिदेवना ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो एक साथ संसारकी यात्रामें आये हैं, उन सबको एक दिन वहीं (परलोकमें) जाना है। उनमेंसे जिसका काल पहले उपस्थित हो गया, वह आगे चला जाता है। ऐसी दशामें किसीके लिये शोक क्या करना है?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चाप्येतान् हतान् युद्धे राजन् शोचितुमर्हसि।
प्रमाणं यदि शास्त्राणि गतास्ते परमां गतिम् ॥ ११ ॥
मूलम्
न चाप्येतान् हतान् युद्धे राजन् शोचितुमर्हसि।
प्रमाणं यदि शास्त्राणि गतास्ते परमां गतिम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! युद्धमें मारे गये इन वीरोंके लिये तो आपको शोक करना ही नहीं चाहिये। यदि आप शास्त्रोंका प्रमाण मानते हैं तो वे निश्चय ही परम गतिको प्राप्त हुए हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे स्वाध्यायवन्तो हि सर्वे च चरितव्रताः।
सर्वे चाभिमुखाः क्षीणास्तत्र का परिदेवना ॥ १२ ॥
मूलम्
सर्वे स्वाध्यायवन्तो हि सर्वे च चरितव्रताः।
सर्वे चाभिमुखाः क्षीणास्तत्र का परिदेवना ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सभी वीर वेदोंका स्वाध्याय करनेवाले थे। सबने ब्रह्मचर्यव्रतका पालन किया था तथा वे सभी युद्धमें शत्रुका सामना करते हुए वीरगतिको प्राप्त हुए हैं; अतः उनके लिये शोक करनेकी क्या बात है?॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदर्शनादापतिताः पुनश्चादर्शनं गताः ।
नैते तव न तेषां त्वं तत्र का परिदेवना॥१३॥
मूलम्
अदर्शनादापतिताः पुनश्चादर्शनं गताः ।
नैते तव न तेषां त्वं तत्र का परिदेवना॥१३॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये अदृश्य जगत्से आये थे और पुनः अदृश्य जगत्में ही चले गये हैं। ये न तो आपके थे और न आप ही इनके हैं। फिर यहाँ शोक करनेका क्या कारण है?॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतोऽपि लभते स्वर्गं हत्वा च लभते यशः।
उभयं नो बहुगुणं नास्ति निष्फलता रणे ॥ १४ ॥
मूलम्
हतोऽपि लभते स्वर्गं हत्वा च लभते यशः।
उभयं नो बहुगुणं नास्ति निष्फलता रणे ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धमें जो मारा जाता है, वह स्वर्गलोक प्राप्त कर लेता है और जो शत्रुको मारता है, उसे यशकी प्राप्ति होती है। ये दोनों ही अवस्थाएँ हमलोगोंके लिये बहुत लाभदायक हैं। युद्धमें निष्फलता तो है ही नहीं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां कामदुघाल्ँलोकानिन्द्रः संकल्पयिष्यति ।
इन्द्रस्यातिथयो ह्येते भवन्ति भरतर्षभ ॥ १५ ॥
मूलम्
तेषां कामदुघाल्ँलोकानिन्द्रः संकल्पयिष्यति ।
इन्द्रस्यातिथयो ह्येते भवन्ति भरतर्षभ ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! इन्द्र उन वीरोंके लिये इच्छानुसार भोग प्रदान करनेवाले लोकोंकी व्यवस्था करेंगे। वे सब-के-सब इन्द्रके अतिथि होंगे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न यज्ञैर्दक्षिणावद्भिर्न तपोभिर्न विद्यया।
स्वर्गं यान्ति तथा मर्त्या यथा शूरा रणे हताः॥१६॥
मूलम्
न यज्ञैर्दक्षिणावद्भिर्न तपोभिर्न विद्यया।
स्वर्गं यान्ति तथा मर्त्या यथा शूरा रणे हताः॥१६॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धमें मारे गये शूरवीर जितनी सुगमतासे स्वर्गलोकमें जाते हैं, उतनी सुविधासे मनुष्य प्रचुर दक्षिणावाले यज्ञ, तपस्या और विद्याद्वारा भी नहीं जा सकते॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीराग्निषु शूराणां जुहुवुस्ते शराहुतीः।
हूयमानान् शरांश्चैव सेहुस्तेजस्विनो मिथः ॥ १७ ॥
मूलम्
शरीराग्निषु शूराणां जुहुवुस्ते शराहुतीः।
हूयमानान् शरांश्चैव सेहुस्तेजस्विनो मिथः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शूरवीरोंके शरीररूपी अग्नियोंमें उन्होंने बाणोंकी आहुतियाँ दी हैं और उन तेजस्वी वीरोंने एक-दूसरेकी शरीराग्नियोंमें होम किये जानेवाले बाणोंको सहन किया है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं राजंस्तवाचक्षे स्वर्ग्यं पन्थानमुत्तमम्।
न युद्धादधिकं किंचित् क्षत्रियस्येह विद्यते ॥ १८ ॥
मूलम्
एवं राजंस्तवाचक्षे स्वर्ग्यं पन्थानमुत्तमम्।
न युद्धादधिकं किंचित् क्षत्रियस्येह विद्यते ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इसलिये मैं आपसे कहता हूँ कि क्षत्रियके लिये इस जगत्में धर्मयुद्धसे बढ़कर दूसरा कोई स्वर्ग-प्राप्तिका उत्तम मार्ग नहीं है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रियास्ते महात्मानः शूराः समितिशोभनाः।
आशिषः परमाः प्राप्ता न शोच्याः सर्व एव हि॥१९॥
मूलम्
क्षत्रियास्ते महात्मानः शूराः समितिशोभनाः।
आशिषः परमाः प्राप्ता न शोच्याः सर्व एव हि॥१९॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे महामनस्वी वीर क्षत्रिय युद्धमें शोभा पानेवाले थे, अतः उन्होंने अपनी कामनाओंके अनुरूप उत्तम लोक प्राप्त किये हैं। उन सबके लिये शोक करना तो किसी प्रकार उचित ही नहीं है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मानमात्मनाऽऽश्वास्य मा शुचः पुरुषर्षभ।
नाद्य शोकाभिभूतस्त्वं कायमुत्स्रष्टुमर्हसि ॥ २० ॥
मूलम्
आत्मानमात्मनाऽऽश्वास्य मा शुचः पुरुषर्षभ।
नाद्य शोकाभिभूतस्त्वं कायमुत्स्रष्टुमर्हसि ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषप्रवर! आप स्वयं ही अपने मनको सान्त्वना देकर शोकका परित्याग कीजिये। आज शोकसे व्याकुल होकर आपको अपने शरीरका त्याग नहीं करना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च ।
संसारेष्वनुभूतानि कस्य ते कस्य वा वयम् ॥ २१ ॥
मूलम्
मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च ।
संसारेष्वनुभूतानि कस्य ते कस्य वा वयम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमलोगोंने बारंबार संसारमें जन्म लेकर सहस्रों माता-पिता तथा सैकड़ों स्त्री-पुत्रोंके सुखका अनुभव किया है; परंतु आज वे किसके हैं अथवा हम उनमेंसे किसके हैं?॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च ।
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् ॥ २२ ॥
मूलम्
शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च ।
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शोकके हजारों स्थान हैं और भयके भी सैकड़ों स्थान हैं। वे प्रतिदिन मूढ़ मनुष्यपर ही अपना प्रभाव डालते हैं, विद्वान् पुरुषपर नहीं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न कालस्य प्रियः कश्चिन्न द्वेष्यः कुरुसत्तम।
न मध्यस्थः क्वचित्कालः सर्वं कालः प्रकर्षति ॥ २३ ॥
मूलम्
न कालस्य प्रियः कश्चिन्न द्वेष्यः कुरुसत्तम।
न मध्यस्थः क्वचित्कालः सर्वं कालः प्रकर्षति ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! कालका न किसीसे प्रेम है और न किसीसे द्वेष, उसका कहीं उदासीनभाव भी नहीं है। काल सभीको अपने पास खींच लेता है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालः पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः।
कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः ॥ २४ ॥
मूलम्
कालः पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः।
कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
काल ही प्राणियोंको पकाता है, काल ही प्रजाओंका संहार करता है और काल ही सबके सो जानेपर भी जागता रहता है। कालका उल्लंघन करना बहुत ही कठिन है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं द्रव्यसंचयः।
आरोग्यं प्रियसंवासो गृद्ध्येदेषु न पण्डितः ॥ २५ ॥
मूलम्
अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं द्रव्यसंचयः।
आरोग्यं प्रियसंवासो गृद्ध्येदेषु न पण्डितः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रूप, जवानी, जीवन, धनका संग्रह, आरोग्य तथा प्रियजनोंका एक साथ निवास—ये सभी अनित्य हैं, अतः विद्वान् पुरुष इनमें कभी आसक्त न हो॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न जानपदिकं दुःखमेकः शोचितुमर्हसि।
अप्यभावेन युज्येत तच्चास्य न निवर्तते ॥ २६ ॥
मूलम्
न जानपदिकं दुःखमेकः शोचितुमर्हसि।
अप्यभावेन युज्येत तच्चास्य न निवर्तते ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो दुःख सारे देशपर पड़ा है, उसके लिये अकेले आपको ही शोक करना उचित नहीं है। शोक करते-करते कोई मर जाय तो भी उसका वह शोक दूर नहीं होता है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अशोचन् प्रतिकुर्वीत यदि पश्येत् पराक्रमम्।
भैषज्यमेतद् दुःखस्य यदेतन्नानुचिन्तयेत् ॥ २७ ॥
चिन्त्यमानं हि न व्येति भूयश्चापि प्रवर्धते।
मूलम्
अशोचन् प्रतिकुर्वीत यदि पश्येत् पराक्रमम्।
भैषज्यमेतद् दुःखस्य यदेतन्नानुचिन्तयेत् ॥ २७ ॥
चिन्त्यमानं हि न व्येति भूयश्चापि प्रवर्धते।
अनुवाद (हिन्दी)
यदि अपनेमें पराक्रम देखे तो शोक न करते हुए शोकके कारणका निवारण करनेकी चेष्टा करे। दुःखको दूर करनेके लिये सबसे अच्छी दवा यही है कि उसका चिन्तन छोड़ दिया जाय, चिन्तन करनेसे दुःख कम नहीं होता बल्कि और भी बढ़ जाता है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिष्टसम्प्रयोगाच्च विप्रयोगात् प्रियस्य च ॥ २८ ॥
मानुषा मानसैर्दुःखैर्दह्यन्ते चाल्पबुद्धयः ।
मूलम्
अनिष्टसम्प्रयोगाच्च विप्रयोगात् प्रियस्य च ॥ २८ ॥
मानुषा मानसैर्दुःखैर्दह्यन्ते चाल्पबुद्धयः ।
अनुवाद (हिन्दी)
मन्दबुद्धि मनुष्य ही अप्रिय वस्तुका संयोग और प्रिय वस्तुका वियोग होनेपर मानसिक दुःखोंसे दग्ध होने लगते हैं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नार्थो न धर्मो न सुखं यदेतदनुशोचसि ॥ २९ ॥
न च नापैति कार्यार्थात्त्रिवर्गाच्चैव हीयते।
मूलम्
नार्थो न धर्मो न सुखं यदेतदनुशोचसि ॥ २९ ॥
न च नापैति कार्यार्थात्त्रिवर्गाच्चैव हीयते।
अनुवाद (हिन्दी)
जो आप यह शोक कर रहे हैं, यह न अर्थका साधक है, न धर्मका और न सुखका ही। इसके द्वारा मनुष्य अपने कर्तव्यपथसे तो भ्रष्ट होता ही है, धर्म, अर्थ और कामरूप त्रिवर्गसे भी वंचित हो जाता है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यामन्यां धनावस्थां प्राप्य वैशेषिकीं नराः ॥ ३० ॥
असंतुष्टाः प्रमुह्यन्ति संतोषं यान्ति पण्डिताः।
मूलम्
अन्यामन्यां धनावस्थां प्राप्य वैशेषिकीं नराः ॥ ३० ॥
असंतुष्टाः प्रमुह्यन्ति संतोषं यान्ति पण्डिताः।
अनुवाद (हिन्दी)
धनकी भिन्न-भिन्न अवस्थाविशेषको पाकर असंतोषी मनुष्य तो मोहित हो जाते हैं; परंतु विद्वान् पुरुष सदा संतुष्ट ही रहते हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रज्ञया मानसं दुःखं हन्याच्छारीरमौषधैः।
एतद् विज्ञानसामर्थ्यं न बालैः समतामियात् ॥ ३१ ॥
मूलम्
प्रज्ञया मानसं दुःखं हन्याच्छारीरमौषधैः।
एतद् विज्ञानसामर्थ्यं न बालैः समतामियात् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यको चाहिये कि वह मानसिक दुःखको बुद्धि एवं विचारद्वारा और शारीरिक कष्टको ओषधियोंद्वारा दूर करे, यही विज्ञानकी शक्ति है। उसे बालकोंके समान अविवेकपूर्ण बर्ताव नहीं करना चाहिये॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शयानं चानुशेते हि तिष्ठन्तं चानुतिष्ठति।
अनुधावति धावन्तं कर्म पूर्वकृतं नरम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
शयानं चानुशेते हि तिष्ठन्तं चानुतिष्ठति।
अनुधावति धावन्तं कर्म पूर्वकृतं नरम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यका पूर्वकृत कर्म उसके सोनेपर साथ ही सोता है, उठनेपर साथ ही उठता है और दौड़नेपर भी साथ-ही-साथ दौड़ता है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्यां यस्यामवस्थायां यत् करोति शुभाशुभम्।
तस्यां तस्यामवस्थायां तत्फलं समुपाश्नुते ॥ ३३ ॥
मूलम्
यस्यां यस्यामवस्थायां यत् करोति शुभाशुभम्।
तस्यां तस्यामवस्थायां तत्फलं समुपाश्नुते ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य जिस-जिस अवस्थामें जो-जो शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसी-उसी अवस्थामें उसका फल भी पा लेता है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन येन शरीरेण यद्यत् कर्म करोति यः।
तेन तेन शरीरेण तत्फलं समुपाश्नुते ॥ ३४ ॥
मूलम्
येन येन शरीरेण यद्यत् कर्म करोति यः।
तेन तेन शरीरेण तत्फलं समुपाश्नुते ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो जिस-जिस शरीरसे जो-जो कर्म करता है, दूसरे जन्ममें वह उसी-उसी शरीरसे उसका फल भोगता है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।
आत्मैव ह्यात्मनः साक्षी कृतस्यापकृतस्य च ॥ ३५ ॥
मूलम्
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।
आत्मैव ह्यात्मनः साक्षी कृतस्यापकृतस्य च ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य आप ही अपना बन्धु है, आप ही अपना शत्रु है और आप ही अपने शुभ या अशुभ कर्मका साक्षी है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुभेन कर्मणा सौख्यं दुःखं पापेन कर्मणा।
कृतं भवति सर्वत्र नाकृतं विद्यते क्वचित् ॥ ३६ ॥
मूलम्
शुभेन कर्मणा सौख्यं दुःखं पापेन कर्मणा।
कृतं भवति सर्वत्र नाकृतं विद्यते क्वचित् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुभकर्मसे सुख मिलता है और पापकर्मसे दुःख, सर्वत्र किये हुए कर्मका ही फल प्राप्त होता है, कहीं भी बिना कियेका नहीं॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि ज्ञानविरुद्धेषु बह्वपायेषु कर्मसु।
मूलघातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधाः ॥ ३७ ॥
मूलम्
न हि ज्ञानविरुद्धेषु बह्वपायेषु कर्मसु।
मूलघातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधाः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप-जैसे बुद्धिमान् पुरुष अनेक विनाशकारी दोषोंसे युक्त तथा मूलभूत शरीरका भी नाश करनेवाले बुद्धिविरुद्ध कर्मोंमें नहीं आसक्त होते हैं॥३७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि जलप्रदानिकपर्वणि धृतराष्ट्रविशोककरणे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्वके अन्तर्गत जलप्रदानिकपर्वमें धृतराष्ट्रके शोकका निवारणविषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ॥२॥