नमस्कारः
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
सूचना (हिन्दी)
श्रीमहाभारतम्
भागसूचना
स्त्रीपर्व
जलप्रदानिकपर्व
प्रथमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
धृतराष्ट्रका विलाप और संजयका उनको सान्त्वना देना
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥
मूलम्
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, (उनके नित्य सखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करनेवाली) भगवती सरस्वती और (उनकी लीलाओंका संकलन करनेवाले) महर्षि वेदव्यासको नमस्कार करके जय (महाभारत)-का पाठ करना चाहिये।
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हते दुर्योधने चैव हते सैन्ये च सर्वशः।
धृतराष्ट्रो महाराज श्रुत्वा किमकरोन्मुने ॥ १ ॥
मूलम्
हते दुर्योधने चैव हते सैन्ये च सर्वशः।
धृतराष्ट्रो महाराज श्रुत्वा किमकरोन्मुने ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजयने पूछा— मुने! दुर्योधन और उसकी सारी सेनाका संहार हो जानेपर महाराज धृतराष्ट्रने जब इस समाचारको सुना तो क्या किया?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव कौरवो राजा धर्मपुत्रो महामनाः।
कृपप्रभृतयश्चैव किमकुर्वत ते त्रयः ॥ २ ॥
मूलम्
तथैव कौरवो राजा धर्मपुत्रो महामनाः।
कृपप्रभृतयश्चैव किमकुर्वत ते त्रयः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार कुरुवंशी राजा महामनस्वी धर्मपुत्र युधिष्ठिरने तथा कृपाचार्य आदि तीनों महारथियोंने भी इसके बाद क्या किया?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वत्थाम्नः श्रुतं कर्म शापादन्योन्यकारितात्।
वृत्तान्तमुत्तरं ब्रूहि यदभाषत संजयः ॥ ३ ॥
मूलम्
अश्वत्थाम्नः श्रुतं कर्म शापादन्योन्यकारितात्।
वृत्तान्तमुत्तरं ब्रूहि यदभाषत संजयः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वत्थामाको श्रीकृष्णसे और पाण्डवोंको अश्वत्थामासे जो परस्पर शाप प्राप्त हुए थे, वहाँतक मैंने अश्वत्थामाकी करतूत सुन ली। अब उसके बादका वृत्तान्त बताइये कि संजयने धृतराष्ट्रसे क्या कहा?॥३॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हते पुत्रशते दीनं छिन्नशाखमिव द्रुमम्।
पुत्रशोकाभिसंतप्तं धृतराष्ट्रं महीपतिम् ॥ ४ ॥
मूलम्
हते पुत्रशते दीनं छिन्नशाखमिव द्रुमम्।
पुत्रशोकाभिसंतप्तं धृतराष्ट्रं महीपतिम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी बोले— राजन्! अपने सौ पुत्रोंके मारे जानेपर राजा धृतराष्ट्रकी दशा वैसी ही दयनीय हो गयी, जैसे समस्त शाखाओंके कट जानेपर वृक्षकी हो जाती है। वे पुत्रोंके शोकसे संतप्त हो उठे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्यानमूकत्वमापन्नं चिन्तया समभिप्लुतम् ।
अभिगम्य महाराज संजयो वाक्यमब्रवीत् ॥ ५ ॥
मूलम्
ध्यानमूकत्वमापन्नं चिन्तया समभिप्लुतम् ।
अभिगम्य महाराज संजयो वाक्यमब्रवीत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उन्हीं पुत्रोंका ध्यान करते-करते वे मौन हो गये, चिन्तामें डूब गये। उस अवस्थामें उनके पास जाकर संजयने इस प्रकार कहा—॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं शोचसि महाराज नास्ति शोके सहायता।
अक्षौहिण्यो हताश्चाष्टौ दश चैव विशाम्पते ॥ ६ ॥
मूलम्
किं शोचसि महाराज नास्ति शोके सहायता।
अक्षौहिण्यो हताश्चाष्टौ दश चैव विशाम्पते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! आप क्यों शोक कर रहे हैं? इस शोकमें जो आपकी सहायता कर सके, आपका दुःख बँटा ले, ऐसा भी तो कोई नहीं बच गया है। प्रजानाथ! इस युद्धमें अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ मारी गयी हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्जनेयं वसुमती शून्या सम्प्रति केवला।
नानादिग्भ्यः समागम्य नानादेश्या नराधिपाः ॥ ७ ॥
सहैव तव पुत्रेण सर्वे वै निधनं गताः।
मूलम्
निर्जनेयं वसुमती शून्या सम्प्रति केवला।
नानादिग्भ्यः समागम्य नानादेश्या नराधिपाः ॥ ७ ॥
सहैव तव पुत्रेण सर्वे वै निधनं गताः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस समय यह पृथ्वी निर्जन होकर केवल सूनी-सी दिखायी देती है। नाना देशोंके नरेश विभिन्न दिशाओंसे आकर आपके पुत्रके साथ ही सब-के-सब कालके गालमें चले गये हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितॄणां पुत्रपौत्राणां ज्ञातीनां सुहृदां तथा।
गुरूणां चानुपूर्व्येण प्रेतकार्याणि कारय ॥ ८ ॥
मूलम्
पितॄणां पुत्रपौत्राणां ज्ञातीनां सुहृदां तथा।
गुरूणां चानुपूर्व्येण प्रेतकार्याणि कारय ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! अब आप क्रमशः अपने चाचा, ताऊ, पुत्र, पौत्र, भाई-बन्धु, सुहृद् तथा गुरुजनोंके प्रेतकार्य सम्पन्न कराइये’॥८॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा करुणं वाक्यं पुत्रपौत्रवधार्दितः।
पपात भुवि दुर्धर्षो वाताहत इव द्रुमः ॥ ९ ॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा करुणं वाक्यं पुत्रपौत्रवधार्दितः।
पपात भुवि दुर्धर्षो वाताहत इव द्रुमः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— नरेश्वर! संजयकी यह करुणाजनक बात सुनकर बेटों और पोतोंके वधसे व्याकुल हुए दुर्जय राजा धृतराष्ट्र आँधीके उखाड़े हुए वृक्षकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़े॥९॥
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतपुत्रो हतामात्यो हतसर्वसुहृज्जनः ।
दुःखं नूनं भविष्यामि विचरन् पृथिवीमिमाम् ॥ १० ॥
मूलम्
हतपुत्रो हतामात्यो हतसर्वसुहृज्जनः ।
दुःखं नूनं भविष्यामि विचरन् पृथिवीमिमाम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र बोले— संजय! मेरे पुत्र, मन्त्री और समस्त सुहृद् मारे गये। अब तो अवश्य ही मैं इस पृथ्वीपर भटकता हुआ केवल दुःख-ही-दुःख भोगूँगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं नु बन्धुविहीनस्य जीवितेन ममाद्य वै।
लूनपक्षस्य इव मे जराजीर्णस्य पक्षिणः ॥ ११ ॥
मूलम्
किं नु बन्धुविहीनस्य जीवितेन ममाद्य वै।
लूनपक्षस्य इव मे जराजीर्णस्य पक्षिणः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसकी पाँखें काट ली गयी हों, उस जराजीर्ण पक्षीके समान बन्धु-बान्धवोंसे हीन हुए मुझ वृद्धको अब इस जीवनसे क्या प्रयोजन है?॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हृतराज्यो हतबन्धुर्हतचक्षुश्च वै तथा।
न भ्राजिष्ये महाप्राज्ञ क्षीणरश्मिरिवांशुमान् ॥ १२ ॥
मूलम्
हृतराज्यो हतबन्धुर्हतचक्षुश्च वै तथा।
न भ्राजिष्ये महाप्राज्ञ क्षीणरश्मिरिवांशुमान् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामते! मेरा राज्य छिन गया, बन्धु-बान्धव मारे गये और आँखें तो पहलेसे ही नष्ट हो चुकी थीं। अब मैं क्षीण किरणोंवाले सूर्यके समान इस जगत्में प्रकाशित नहीं होऊँगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न कृतं सुहृदां वाक्यं जामदग्न्यस्य जल्पतः।
नारदस्य च देवर्षेः कृष्णद्वैपायनस्य च ॥ १३ ॥
मूलम्
न कृतं सुहृदां वाक्यं जामदग्न्यस्य जल्पतः।
नारदस्य च देवर्षेः कृष्णद्वैपायनस्य च ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने सुहृदोंकी बात नहीं मानी, जमदग्निनन्दन परशुराम, देवर्षि नारद तथा श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास सबने हितकी बात बतायी थी, पर मैंने किसीकी नहीं सुनी॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभामध्ये तु कृष्णेन यच्छ्रेयोऽभिहितं मम।
अलं वैरेण ते राजन् पुत्रः संगृह्यतामिति ॥ १४ ॥
तच्च वाक्यमकृत्वाहं भृशं तप्यामि दुर्मतिः।
मूलम्
सभामध्ये तु कृष्णेन यच्छ्रेयोऽभिहितं मम।
अलं वैरेण ते राजन् पुत्रः संगृह्यतामिति ॥ १४ ॥
तच्च वाक्यमकृत्वाहं भृशं तप्यामि दुर्मतिः।
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णने सारी सभाके बीचमें मेरे भलेके लिये कहा था—‘राजन्! वैर बढ़ानेसे आपको क्या लाभ है? अपने पुत्रोंको रोकिये।’ उनकी उस बातको न मानकर आज मैं अत्यन्त संतप्त हो रहा हूँ। मेरी बुद्धि बिगड़ गयी थी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि श्रोतास्मि भीष्मस्य धर्मयुक्तं प्रभाषितम् ॥ १५ ॥
दुर्योधनस्य च तथा वृषभस्येव नर्दतः।
मूलम्
न हि श्रोतास्मि भीष्मस्य धर्मयुक्तं प्रभाषितम् ॥ १५ ॥
दुर्योधनस्य च तथा वृषभस्येव नर्दतः।
अनुवाद (हिन्दी)
हाय! अब मैं भीष्मजीकी धर्मयुक्त बात नहीं सुन सकूँगा। साँड़के समान गर्जनेवाले दुर्योधनके वीरोचित वचन भी अब मेरे कानोंमें नहीं पड़ सकेंगे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुःशासनवधं श्रुत्वा कर्णस्य च विपर्ययम् ॥ १६ ॥
द्रोणसूर्योपरागं च हृदयं मे विदीर्यते।
मूलम्
दुःशासनवधं श्रुत्वा कर्णस्य च विपर्ययम् ॥ १६ ॥
द्रोणसूर्योपरागं च हृदयं मे विदीर्यते।
अनुवाद (हिन्दी)
दुःशासन मारा गया, कर्णका विनाश हो गया और द्रोणरूपी सूर्यपर भी ग्रहण लग गया, यह सब सुनकर मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न स्मराम्यात्मनः किंचित् पुरा संजय दुष्कृतम् ॥ १७ ॥
यस्येदं फलमद्येह मया मूढेन भुज्यते।
मूलम्
न स्मराम्यात्मनः किंचित् पुरा संजय दुष्कृतम् ॥ १७ ॥
यस्येदं फलमद्येह मया मूढेन भुज्यते।
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! इस जन्ममें पहले कभी अपना किया हुआ कोई ऐसा पाप मुझे नहीं याद आ रहा है, जिसका मुझ मूढ़को आज यहाँ यह फल भोगना पड़ रहा है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनं व्यपकृतं किंचिन्मया पूर्वेषु जन्मसु ॥ १८ ॥
येन मां दुःखभागेषु धाता कर्मसु युक्तवान्।
मूलम्
नूनं व्यपकृतं किंचिन्मया पूर्वेषु जन्मसु ॥ १८ ॥
येन मां दुःखभागेषु धाता कर्मसु युक्तवान्।
अनुवाद (हिन्दी)
अवश्य ही मैंने पूर्वजन्मोंमें कोई ऐसा महान् पाप किया है, जिससे विधाताने मुझे इन दुःखमय कर्मोंमें नियुक्त कर दिया है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिणामश्च वयसः सर्वबन्धुक्षयश्च मे ॥ १९ ॥
सुहृन्मित्रविनाशश्च दैवयोगादुपागतः ।
कोऽन्योऽस्ति दुःखिततरो मत्तोऽन्यो हि पुमान् भुवि ॥ २० ॥
मूलम्
परिणामश्च वयसः सर्वबन्धुक्षयश्च मे ॥ १९ ॥
सुहृन्मित्रविनाशश्च दैवयोगादुपागतः ।
कोऽन्योऽस्ति दुःखिततरो मत्तोऽन्यो हि पुमान् भुवि ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब मेरा बुढ़ापा आ गया, सारे बन्धु-बान्धवोंका विनाश हो गया और दैववश मेरे सुहृदों तथा मित्रोंका भी अन्त हो गया। भला, इस भूमण्डलमें अब मुझसे बढ़कर महान् दुःखी दूसरा कौन होगा?॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्मामद्यैव पश्यन्तु पाण्डवाः संशितव्रताः।
विवृतं ब्रह्मलोकस्य दीर्घमध्वानमास्थितम् ॥ २१ ॥
मूलम्
तन्मामद्यैव पश्यन्तु पाण्डवाः संशितव्रताः।
विवृतं ब्रह्मलोकस्य दीर्घमध्वानमास्थितम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये कठोर व्रतका पालन करनेवाले पाण्डवलोग मुझे आज ही ब्रह्मलोकके खुले हुए विशाल मार्गपर आगे बढ़ते देखें॥२१॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य लालप्यमानस्य बहुशोकं वितन्वतः।
शोकापहं नरेन्द्रस्य संजयो वाक्यमब्रवीत् ॥ २२ ॥
मूलम्
तस्य लालप्यमानस्य बहुशोकं वितन्वतः।
शोकापहं नरेन्द्रस्य संजयो वाक्यमब्रवीत् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! इस प्रकार राजा धृतराष्ट्र जब बहुत शोक प्रकट करते हुए बारंबार विलाप करने लगे, तब संजयने उनके शोकका निवारण करनेके लिये यह बात कही—॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोकं राजन् व्यपनुद श्रुतास्ते वेदनिश्चयाः।
शास्त्रागमाश्च विविधा वृद्धेभ्यो नृपसत्तम ॥ २३ ॥
सृञ्जये पुत्रशोकार्ते यदूचुर्मुनयः पुरा।
मूलम्
शोकं राजन् व्यपनुद श्रुतास्ते वेदनिश्चयाः।
शास्त्रागमाश्च विविधा वृद्धेभ्यो नृपसत्तम ॥ २३ ॥
सृञ्जये पुत्रशोकार्ते यदूचुर्मुनयः पुरा।
अनुवाद (हिन्दी)
‘नृपश्रेष्ठ राजन्! आपने बड़े-बूढ़ोंके मुखसे वे वेदोंके सिद्धान्त, नाना प्रकारके शास्त्र एवं आगम सुने हैं, जिन्हें पूर्वकालमें मुनियोंने राजा सृंजयको पुत्रशोकसे पीड़ित होनेपर सुनाया था, अतः आप शोक त्याग दीजिये॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा यौवनजं दर्पमास्थिते तं सुते नृप ॥ २४ ॥
न त्वया सुहृदां वाक्यं ब्रुवतामवधारितम्।
मूलम्
यथा यौवनजं दर्पमास्थिते तं सुते नृप ॥ २४ ॥
न त्वया सुहृदां वाक्यं ब्रुवतामवधारितम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! जब आपका पुत्र दुर्योधन जवानीके घमंडमें आकर मनमाना बर्ताव करने लगा, तब आपने हितकी बात बतानेवाले सुहृदोंके कथनपर ध्यान नहीं दिया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वार्थश्च न कृतः कश्चिल्लुब्धेन फलगृद्धिना ॥ २५ ॥
असिनैवैकधारेण स्वबुद्ध्या तु विचेष्टितम्।
प्रायशोऽवृत्तसम्पन्नाः सततं पर्युपासिताः ॥ २६ ॥
मूलम्
स्वार्थश्च न कृतः कश्चिल्लुब्धेन फलगृद्धिना ॥ २५ ॥
असिनैवैकधारेण स्वबुद्ध्या तु विचेष्टितम्।
प्रायशोऽवृत्तसम्पन्नाः सततं पर्युपासिताः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके मनमें लोभ था और वह राज्यका सारा लाभ स्वयं ही भोगना चाहता था, इसलिये उसने दूसरे किसीको अपने स्वार्थका सहायक या साझीदार नहीं बनाया। एक ओर धारवाली तलवारके समान अपनी ही बुद्धिसे सदा काम लिया। प्रायः जो अनाचारी मनुष्य थे, उन्हींका निरन्तर साथ किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य दुःशासनो मन्त्री राधेयश्च दुरात्मवान्।
शकुनिश्चैव दुष्टात्मा चित्रसेनश्च दुर्मतिः ॥ २७ ॥
शल्यश्च येन वै सर्वं शल्यभूतं कृतं जगत्।
मूलम्
यस्य दुःशासनो मन्त्री राधेयश्च दुरात्मवान्।
शकुनिश्चैव दुष्टात्मा चित्रसेनश्च दुर्मतिः ॥ २७ ॥
शल्यश्च येन वै सर्वं शल्यभूतं कृतं जगत्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘दुःशासन, दुरात्मा राधापुत्र कर्ण, दुष्टात्मा शकुनि, दुर्बुद्धि चित्रसेन तथा जिन्होंने सारे जगत्को शल्यमय (कण्टकाकीर्ण) बना दिया था वे शल्य—ये ही लोग दुर्योधनके मन्त्री थे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुरुवृद्धस्य भीष्मस्य गान्धार्या विदुरस्य च ॥ २८ ॥
द्रोणस्य च महाराज कृपस्य च शरद्वतः।
कृष्णस्य च महाबाहो नारदस्य च धीमतः ॥ २९ ॥
ऋषीणां च तथान्येषां व्यासस्यामिततेजसः।
न कृतं तेन वचनं तव पुत्रेण भारत ॥ ३० ॥
मूलम्
कुरुवृद्धस्य भीष्मस्य गान्धार्या विदुरस्य च ॥ २८ ॥
द्रोणस्य च महाराज कृपस्य च शरद्वतः।
कृष्णस्य च महाबाहो नारदस्य च धीमतः ॥ २९ ॥
ऋषीणां च तथान्येषां व्यासस्यामिततेजसः।
न कृतं तेन वचनं तव पुत्रेण भारत ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! महाबाहो! भरतनन्दन! कुरुकुलके ज्ञानवृद्ध पुरुष भीष्म, गान्धारी, विदुर, द्रोणाचार्य, शरद्वान्के पुत्र कृपाचार्य, श्रीकृष्ण, बुद्धिमान् देवर्षि नारद, अमिततेजस्वी वेदव्यास तथा अन्य महर्षियोंकी भी बातें आपके पुत्रने नहीं मानी॥२८—३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न धर्मः सत्कृतः कश्चिन्नित्यं युद्धमभीप्सता।
अल्पबुद्धिरहंकारी नित्यं युद्धमिति ब्रुवन्।
क्रूरो दुर्मर्षणो नित्यमसंतुष्टश्च वीर्यवान् ॥ ३१ ॥
मूलम्
न धर्मः सत्कृतः कश्चिन्नित्यं युद्धमभीप्सता।
अल्पबुद्धिरहंकारी नित्यं युद्धमिति ब्रुवन्।
क्रूरो दुर्मर्षणो नित्यमसंतुष्टश्च वीर्यवान् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह सदा युद्धकी ही इच्छा रखता था; इसलिये उसने कभी किसी धर्मका आदरपूर्वक अनुष्ठान नहीं किया। वह मन्दबुद्धि और अहंकारी था; अतः नित्य युद्ध-युद्ध ही चिल्लाया करता था। उसके हृदयमें क्रूरता भरी थी। वह सदा अमर्षमें भरा रहनेवाला, पराक्रमी और असंतोषी था (इसीलिये उसकी दुर्गति हुई है)॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतवानसि मेधावी सत्यवांश्चैव नित्यदा।
न मुह्यन्तीदृशाः सन्तो बुद्धिमन्तो भवादृशाः ॥ ३२ ॥
मूलम्
श्रुतवानसि मेधावी सत्यवांश्चैव नित्यदा।
न मुह्यन्तीदृशाः सन्तो बुद्धिमन्तो भवादृशाः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप तो शास्त्रोंके विद्वान्, मेधावी और सदा सत्यमें तत्पर रहनेवाले हैं। आप-जैसे बुद्धिमान् एवं साधु पुरुष मोहके वशीभूत नहीं होते हैं॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न धर्मः सत्कृतः कश्चित् तव पुत्रेण मारिष।
क्षपिताः क्षत्रियाः सर्वे शत्रूणां वर्धितं यशः ॥ ३३ ॥
मूलम्
न धर्मः सत्कृतः कश्चित् तव पुत्रेण मारिष।
क्षपिताः क्षत्रियाः सर्वे शत्रूणां वर्धितं यशः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मान्यवर नरेश! आपके उस पुत्रने किसी भी धर्मका सत्कार नहीं किया। उसने सारे क्षत्रियोंका संहार करा डाला और शत्रुओंका यश बढ़ाया॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मध्यस्थो हि त्वमप्यासीर्न क्षमं किञ्चिदुक्तवान्।
दुर्धरेण त्वया भारस्तुलया न समं धृतः ॥ ३४ ॥
मूलम्
मध्यस्थो हि त्वमप्यासीर्न क्षमं किञ्चिदुक्तवान्।
दुर्धरेण त्वया भारस्तुलया न समं धृतः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप भी मध्यस्थ बनकर बैठे रहे, उसे कोई उचित सलाह नहीं दी। आप दुर्धर्ष वीर थे— आपकी बात कोई टाल नहीं सकता था, तो भी आपने दोनों ओरके बोझेको समभावसे तराजूपर रखकर नहीं तौला॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदावेव मनुष्येण वर्तितव्यं यथाक्षमम्।
यथा नातीतमर्थं वै पश्चात्तापेन युज्यते ॥ ३५ ॥
मूलम्
आदावेव मनुष्येण वर्तितव्यं यथाक्षमम्।
यथा नातीतमर्थं वै पश्चात्तापेन युज्यते ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनुष्यको पहले ही यथायोग्य बर्ताव करना चाहिये, जिससे आगे चलकर उसे बीती हुई बातके लिये पश्चात्ताप न करना पड़े॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रगृद्ध्या त्वया राजन् प्रियं तस्य चिकीर्षितम्।
पश्चात्तापमिमं प्राप्तो न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ ३६ ॥
मूलम्
पुत्रगृद्ध्या त्वया राजन् प्रियं तस्य चिकीर्षितम्।
पश्चात्तापमिमं प्राप्तो न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! आपने पुत्रके प्रति आसक्ति रखनेके कारण सदा उसीका प्रिय करना चाहा, इसीलिये इस समय आपको यह पश्चात्तापका अवसर प्राप्त हुआ है; अतः अब आप शोक न करें॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मधु यः केवलं दृष्ट्वा प्रपातं नानुपश्यति।
स भ्रष्टो मधुलोभेन शोचत्येवं यथा भवान् ॥ ३७ ॥
मूलम्
मधु यः केवलं दृष्ट्वा प्रपातं नानुपश्यति।
स भ्रष्टो मधुलोभेन शोचत्येवं यथा भवान् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो केवल ऊँचे स्थानपर लगे हुए मधुको देखकर वहाँसे गिरनेकी सम्भावनाकी ओरसे आँख बंद कर लेता है, वह उस मधुके लालचसे नीचे गिरकर इसी तरह शोक करता है, जैसे आप कर रहे हैं॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थान्न शोचन् प्राप्नोति न शोचन् विन्दते फलम्।
न शोचन् श्रियमाप्नोति न शोचन् विन्दते परम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
अर्थान्न शोचन् प्राप्नोति न शोचन् विन्दते फलम्।
न शोचन् श्रियमाप्नोति न शोचन् विन्दते परम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शोक करनेवाला मनुष्य अपने अभीष्ट पदार्थोंको नहीं पाता है, शोकपरायण पुरुष किसी फलको नहीं हस्तगत कर पाता है। शोक करनेवालेको न तो लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है और न उसे परमात्मा ही मिलता है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयमुत्पादयित्वाग्निं वस्त्रेण परिवेष्टयन् ।
दह्यमानो मनस्तापं भजते न स पण्डितः ॥ ३९ ॥
मूलम्
स्वयमुत्पादयित्वाग्निं वस्त्रेण परिवेष्टयन् ।
दह्यमानो मनस्तापं भजते न स पण्डितः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो मनुष्य स्वयं आग जलाकर उसे कपड़ेमें लपेट लेता है और जलनेपर मन-ही-मन संतापका अनुभव करता है, वह बुद्धिमान् नहीं कहा जा सकता है॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वयैव ससुतेनायं वाक्यवायुसमीरितः ।
लोभाज्येन च संसिक्तो ज्वलितः पार्थपावकः ॥ ४० ॥
मूलम्
त्वयैव ससुतेनायं वाक्यवायुसमीरितः ।
लोभाज्येन च संसिक्तो ज्वलितः पार्थपावकः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुत्रसहित आपने ही अपने लोभरूपी घीसे सींचकर और वचनरूपी वायुसे प्रेरित करके पार्थरूपी अग्निको प्रज्वलित किया था॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् समिद्धे पतिताः शलभा इव ते सुताः।
तान् वै शराग्निनिर्दग्धान्न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ ४१ ॥
मूलम्
तस्मिन् समिद्धे पतिताः शलभा इव ते सुताः।
तान् वै शराग्निनिर्दग्धान्न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उसी प्रज्वलित अग्निमें आपके सारे पुत्र पतंगोंके समान पड़ गये हैं। बाणोंकी आगमें जलकर भस्म हुए उन पुत्रोंके लिये आपको शोक नहीं करना चाहिये॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्चाश्रुपातात् कलिलं वदनं वहसे नृप।
अशास्त्रदृष्टमेतद्धि न प्रशंसन्ति पण्डिताः ॥ ४२ ॥
मूलम्
यच्चाश्रुपातात् कलिलं वदनं वहसे नृप।
अशास्त्रदृष्टमेतद्धि न प्रशंसन्ति पण्डिताः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! आप जो आँसुओंकी धारासे भीगा हुआ मुँह लिये फिरते हैं, यह अशास्त्रीय कार्य है। विद्वान् पुरुष इसकी प्रशंसा नहीं करते हैं॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विस्फुलिङ्गा इव ह्येतान् दहन्ति किल मानवान्।
जहीहि मन्युं बुद्ध्या वै धारयात्मानमात्मना ॥ ४३ ॥
मूलम्
विस्फुलिङ्गा इव ह्येतान् दहन्ति किल मानवान्।
जहीहि मन्युं बुद्ध्या वै धारयात्मानमात्मना ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये शोकके आँसू आगकी चिनगारियोंके समान इन मनुष्योंको निःसंदेह जलाया करते हैं; अतः आप शोक छोड़िये और बुद्धिके द्वारा अपने मनको स्वयं ही सुस्थिर कीजिये’॥४३॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमाश्वासितस्तेन संजयेन महात्मना ।
विदुरो भूय एवाह बुद्धिपूर्वं परंतप ॥ ४४ ॥
मूलम्
एवमाश्वासितस्तेन संजयेन महात्मना ।
विदुरो भूय एवाह बुद्धिपूर्वं परंतप ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— शत्रुओंको संताप देनेवाले जनमेजय! महात्मा संजयने जब इस प्रकार राजा धृतराष्ट्रको आश्वासन दिया, तब विदुरजीने भी पुनः सान्त्वना देते हुए उनसे यह विचारपूर्ण वचन कहा॥४४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि जलप्रदानिकपर्वणि धृतराष्ट्रविशोककरणे प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्वके अन्तर्गत जलप्रदानिकपर्वमें धृतराष्ट्रके शोकका निवारणविषयक पहला अध्याय पूरा हुआ॥१॥