०१८

भागसूचना

अष्टादशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

महादेवजीके कोपसे देवता, यज्ञ और जगत्‌की दुरवस्था तथा उनके प्रसादसे सबका स्वस्थ होना

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो देवयुगेऽतीते देवा वै समकल्पयन्।
यज्ञं वेदप्रमाणेन विधिवद् यष्टुमीप्सवः ॥ १ ॥

मूलम्

ततो देवयुगेऽतीते देवा वै समकल्पयन्।
यज्ञं वेदप्रमाणेन विधिवद् यष्टुमीप्सवः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान् बोले— तदनन्तर सत्ययुग बीत जाने-पर देवताओंने विधिपूर्वक भगवान्‌का यजन करनेकी इच्छासे वैदिक प्रमाणके अनुसार यज्ञकी कल्पना की॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कल्पयामासुरथ ते साधनानि हवींषि च।
भागार्हा देवताश्चैव यज्ञियं द्रव्यमेव च ॥ २ ॥

मूलम्

कल्पयामासुरथ ते साधनानि हवींषि च।
भागार्हा देवताश्चैव यज्ञियं द्रव्यमेव च ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् उन्होंने यज्ञके साधनों, हविष्यों, यज्ञभागके अधिकारी देवताओं और यज्ञोपयोगी द्रव्योंकी कल्पना की॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ता वै रुद्रमजानन्त्यो याथातथ्येन देवताः।
नाकल्पयन्त देवस्य स्थाणोर्भागं नराधिप ॥ ३ ॥

मूलम्

ता वै रुद्रमजानन्त्यो याथातथ्येन देवताः।
नाकल्पयन्त देवस्य स्थाणोर्भागं नराधिप ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! उस समय देवता भगवान् रुद्रको यथार्थ-रूपसे नहीं जानते थे; इसलिये उन्होंने ‘स्थाणु’ नामधारी भगवान् शिवके भागकी कल्पना नहीं की॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽकल्प्यमाने भागे तु कृत्तिवासा मखेऽमरैः।
ततः साधनमन्विच्छन् धनुरादौ ससर्ज ह ॥ ४ ॥

मूलम्

सोऽकल्प्यमाने भागे तु कृत्तिवासा मखेऽमरैः।
ततः साधनमन्विच्छन् धनुरादौ ससर्ज ह ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब देवताओंने यज्ञमें उनका कोई भाग नियत नहीं किया, तब व्याघ्रचर्मधारी भगवान् शिवने उनके दमनके लिये साधन जुटानेकी इच्छा रखकर सबसे पहले धनुषकी सृष्टि की॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकयज्ञः क्रियायज्ञो गृहयज्ञः सनातनः।
पञ्चभूतनृयज्ञश्च जज्ञे सर्वमिदं जगत् ॥ ५ ॥

मूलम्

लोकयज्ञः क्रियायज्ञो गृहयज्ञः सनातनः।
पञ्चभूतनृयज्ञश्च जज्ञे सर्वमिदं जगत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोकयज्ञ, क्रियायज्ञ, सनातन गृहयज्ञ, पंचभूतयज्ञ और मनुष्ययज्ञ—ये पाँच प्रकारके यज्ञ हैं। इन्हींसे यह सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न होता है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकयज्ञैर्नृयज्ञैश्च कपर्दी विदधे धनुः।
धनुः सृष्टमभूत् तस्य पञ्चकिष्कुप्रमाणतः ॥ ६ ॥

मूलम्

लोकयज्ञैर्नृयज्ञैश्च कपर्दी विदधे धनुः।
धनुः सृष्टमभूत् तस्य पञ्चकिष्कुप्रमाणतः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मस्तकपर जटाजूट धारण करनेवाले भगवान् शिवने लोकयज्ञ और मनुष्ययज्ञोंसे एक धनुषका निर्माण किया। उनका वह धनुष पाँच हाथ लंबा बनाया गया था॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वषट्कारोऽभवज्ज्या तु धनुषस्तस्य भारत।
यज्ञाङ्गानि च चत्वारि तस्य संनहनेऽभवन् ॥ ७ ॥

मूलम्

वषट्कारोऽभवज्ज्या तु धनुषस्तस्य भारत।
यज्ञाङ्गानि च चत्वारि तस्य संनहनेऽभवन् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! वषट्‌कार उस धनुषकी प्रत्यंचा था। यज्ञके चारों अंग स्नान, दान, होम और जप उन भगवान् शिवके लिये कवच हो गये॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्रुद्धो महादेवस्तदुपादाय कार्मुकम्।
आजगामाथ तत्रैव यत्र देवाः समीजिरे ॥ ८ ॥

मूलम्

ततः क्रुद्धो महादेवस्तदुपादाय कार्मुकम्।
आजगामाथ तत्रैव यत्र देवाः समीजिरे ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर कुपित हुए महादेवजी उस धनुषको लेकर उसी स्थानपर आये, जहाँ देवतालोग यज्ञ कर रहे थे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमात्तकार्मुकं दृष्ट्वा ब्रह्मचारिणमव्ययम् ।
विव्यथे पृथिवी देवी पर्वताश्च चकम्पिरे ॥ ९ ॥

मूलम्

तमात्तकार्मुकं दृष्ट्वा ब्रह्मचारिणमव्ययम् ।
विव्यथे पृथिवी देवी पर्वताश्च चकम्पिरे ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन ब्रह्मचारी एवं अविनाशी रुद्रको हाथमें धनुष उठाये देख पृथ्वीदेवीको बड़ी व्यथा हुई और पर्वत भी काँपने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ववौ पवनश्चैव नाग्निर्जज्वाल वैधितः।
व्यभ्रमच्चापि संविग्नं दिवि नक्षत्रमण्डलम् ॥ १० ॥

मूलम्

न ववौ पवनश्चैव नाग्निर्जज्वाल वैधितः।
व्यभ्रमच्चापि संविग्नं दिवि नक्षत्रमण्डलम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हवाकी गति रुक गयी, आग समिधा और घी आदिसे जलानेकी चेष्टा की जानेपर भी प्रज्वलित नहीं होती थी और आकाशमें नक्षत्रोंका समूह उद्विग्न होकर घूमने लगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न बभौ भास्करश्चापि सोमः श्रीमुक्तमण्डलः।
तिमिरेणाकुलं सर्वमाकाशं चाभवद् वृतम् ॥ ११ ॥

मूलम्

न बभौ भास्करश्चापि सोमः श्रीमुक्तमण्डलः।
तिमिरेणाकुलं सर्वमाकाशं चाभवद् वृतम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्य भी पूर्णतः प्रकाशित नहीं हो रहे थे, चन्द्रमण्डल भी श्रीहीन हो गया था तथा सारा आकाश अन्धकारसे व्याप्त हो रहा था॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिभूतास्ततो देवा विषयान्न प्रजज्ञिरे।
न प्रत्यभाच्च यज्ञः स देवतास्त्रेसिरे तथा ॥ १२ ॥

मूलम्

अभिभूतास्ततो देवा विषयान्न प्रजज्ञिरे।
न प्रत्यभाच्च यज्ञः स देवतास्त्रेसिरे तथा ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उससे अभिभूत होकर देवता किसी विषयको पहचान नहीं पाते थे, वह यज्ञ भी अच्छी तरह प्रतीत नहीं होता था। इससे सारे देवता भयसे थर्रा उठे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स यज्ञं विव्याध रौद्रेण हृदि पत्रिणा।
अपक्रान्तस्ततो यज्ञो मृगो भूत्वा सपावकः ॥ १३ ॥

मूलम्

ततः स यज्ञं विव्याध रौद्रेण हृदि पत्रिणा।
अपक्रान्तस्ततो यज्ञो मृगो भूत्वा सपावकः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर रुद्रदेवने भयंकर बाणके द्वारा उस यज्ञके हृदयमें आघात किया। तब अग्निसहित यज्ञ मृगका रूप धारण करके वहाँसे भाग निकला॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु तेनैव रूपेण दिवं प्राप्य व्यराजत।
अन्वीयमानो रुद्रेण युधिष्ठिर नभस्तले ॥ १४ ॥

मूलम्

स तु तेनैव रूपेण दिवं प्राप्य व्यराजत।
अन्वीयमानो रुद्रेण युधिष्ठिर नभस्तले ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह उसी रूपसे आकाशमें पहुँचकर (मृगशिरा नक्षत्रके रूपमें) प्रकाशित होने लगा। युधिष्ठिर! आकाश-मण्डलमें रुद्रदेव उस दशामें भी (आर्द्रा नक्षत्रके रूपमें) उसके पीछे लगे रहते हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपक्रान्ते ततो यज्ञे संज्ञा न प्रत्यभात् सुरान्।
नष्टसंज्ञेषु देवेषु न प्राज्ञायत किंचन ॥ १५ ॥

मूलम्

अपक्रान्ते ततो यज्ञे संज्ञा न प्रत्यभात् सुरान्।
नष्टसंज्ञेषु देवेषु न प्राज्ञायत किंचन ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञके वहाँसे हट जानेपर देवताओंकी चेतना लुप्त-सी हो गयी। चेतना लुप्त होनेसे देवताओंको कुछ भी प्रतीत नहीं होता था॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्र्यम्बकः सवितुर्बाहू भगस्य नयने तथा।
पूष्णश्च दशनान् क्रुद्धो धनुष्कोट्या व्यशातयत् ॥ १६ ॥

मूलम्

त्र्यम्बकः सवितुर्बाहू भगस्य नयने तथा।
पूष्णश्च दशनान् क्रुद्धो धनुष्कोट्या व्यशातयत् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय कुपित हुए त्रिनेत्रधारी भगवान् शिवने अपने धनुषकी कोटिसे सविताकी दोनों बाँहें काट डालीं, भगकी आँखें फोड़ दीं और पूषाके सारे दाँत तोड़ डाले॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राद्रवन्त ततो देवा यज्ञाङ्गानि च सर्वशः।
केचित् तत्रैव घूर्णन्तो गतासव इवाभवन् ॥ १७ ॥

मूलम्

प्राद्रवन्त ततो देवा यज्ञाङ्गानि च सर्वशः।
केचित् तत्रैव घूर्णन्तो गतासव इवाभवन् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर सम्पूर्ण देवता और यज्ञके सारे अंग वहाँसे पलायन कर गये। कुछ वहीं चक्कर काटते हुए प्राणहीन-से हो गये॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु विद्राव्य तत् सर्वं शितिकण्ठोऽवहस्य च।
अवष्टभ्य धनुष्कोटिं रुरोध विबुधांस्ततः ॥ १८ ॥

मूलम्

स तु विद्राव्य तत् सर्वं शितिकण्ठोऽवहस्य च।
अवष्टभ्य धनुष्कोटिं रुरोध विबुधांस्ततः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह सब कुछ दूर हटाकर भगवान् नीलकण्ठने देवताओंका उपहास करते हुए धनुषकी कोटिका सहारा ले उन सबको रोक दिया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वागमरैरुक्ता ज्यां तस्य धनुषोऽच्छिनत्।
अथ तत् सहसा राजंश्छिन्नज्यं व्यस्फुरद् धनुः ॥ १९ ॥

मूलम्

ततो वागमरैरुक्ता ज्यां तस्य धनुषोऽच्छिनत्।
अथ तत् सहसा राजंश्छिन्नज्यं व्यस्फुरद् धनुः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् देवताओंद्वारा प्रेरित हुई वाणीने महादेवजीके धनुषकी प्रत्यंचा काट डाली। राजन्! सहसा प्रत्यंचा कट जानेपर वह धनुष उछलकर गिर पड़ा॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विधनुषं देवा देवश्रेष्ठमुपागमन्।
शरणं सह यज्ञेन प्रसादं चाकरोत् प्रभुः ॥ २० ॥

मूलम्

ततो विधनुषं देवा देवश्रेष्ठमुपागमन्।
शरणं सह यज्ञेन प्रसादं चाकरोत् प्रभुः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब देवता यज्ञको साथ लेकर धनुषरहित देवश्रेष्ठ महादेवजीकी शरणमें गये। उस समय भगवान् शिवने उन सबपर कृपा की॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रसन्नो भगवान् स्थाप्य कोपं जलाशये।
स जलं पावको भूत्वा शोषयत्यनिशं प्रभो ॥ २१ ॥

मूलम्

ततः प्रसन्नो भगवान् स्थाप्य कोपं जलाशये।
स जलं पावको भूत्वा शोषयत्यनिशं प्रभो ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद प्रसन्न हुए भगवान्‌ने अपने क्रोधको समुद्रमें स्थापित कर दिया। प्रभो! वह क्रोध वडवानल बनकर निरन्तर उसके जलको सोखता रहता है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगस्य नयने चैव बाहू च सवितुस्तथा।
प्रादात् पूष्णश्च दशनान् पुनर्यज्ञांश्च पाण्डव ॥ २२ ॥

मूलम्

भगस्य नयने चैव बाहू च सवितुस्तथा।
प्रादात् पूष्णश्च दशनान् पुनर्यज्ञांश्च पाण्डव ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! फिर भगवान् शिवने भगको आँखें, सविताको दोनों बाँहें, पूषाको दाँत और देवताओंको यज्ञ प्रदान किये॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सुस्थमिदं सर्वं बभूव पुनरेव हि।
सर्वाणि च हवींष्यस्य देवा भागमकल्पयन् ॥ २३ ॥

मूलम्

ततः सुस्थमिदं सर्वं बभूव पुनरेव हि।
सर्वाणि च हवींष्यस्य देवा भागमकल्पयन् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर यह सारा जगत् पुनः सुस्थिर हो गया। देवताओंने सारे हविष्योंमेंसे महादेवजीके लिये भाग नियत किया॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् क्रुद्धेऽभवत् सर्वमसुस्थं भुवनं प्रभो।
प्रसन्ने च पुनः सुस्थं प्रसन्नोऽस्य च वीर्यवान् ॥ २४ ॥

मूलम्

तस्मिन् क्रुद्धेऽभवत् सर्वमसुस्थं भुवनं प्रभो।
प्रसन्ने च पुनः सुस्थं प्रसन्नोऽस्य च वीर्यवान् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! भगवान् शंकरके कुपित होनेपर सारा जगत् डाँवाडोल हो गया था और उनके प्रसन्न होनेपर वह पुनः सुस्थिर हो गया। वे ही शक्तिशाली भगवान् शिव अश्वत्थामापर प्रसन्न हो गये थे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते निहताः सर्वे तव पुत्रा महारथाः।
अन्ये च बहवः शूराः पाञ्चालस्य पदानुगाः ॥ २५ ॥

मूलम्

ततस्ते निहताः सर्वे तव पुत्रा महारथाः।
अन्ये च बहवः शूराः पाञ्चालस्य पदानुगाः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसीलिये उसने आपके सभी महारथी पुत्रों तथा पांचालराजका अनुसरण करनेवाले अन्य बहुत-से शूरवीरोंका वध किया है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तन्मनसि कर्तव्यं न च तद् द्रौणिना कृतम्।
महादेवप्रसादेन कुरु कार्यमनन्तरम् ॥ २६ ॥

मूलम्

न तन्मनसि कर्तव्यं न च तद् द्रौणिना कृतम्।
महादेवप्रसादेन कुरु कार्यमनन्तरम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः इस बातको आप मनमें न लावें। अश्वत्थामाने यह कार्य अपने बलसे नहीं, महादेवजीकी कृपासे सम्पन्न किया है। अब आप आगे जो कुछ करना हो, वही कीजिये॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि ऐषीकपर्वणि अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिकपर्वके अन्तर्गत ऐषीकपर्वमें अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८॥

सूचना (हिन्दी)

॥ सौप्तिकपर्व सम्पूर्णम् ॥