भागसूचना
पञ्चदशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
वेदव्यासजीकी आज्ञासे अर्जुनके द्वारा अपने अस्त्रका उपसंहार तथा अश्वत्थामाका अपनी मणि देकर पाण्डवोंके गर्भोंपर दिव्यास्त्र छोड़ना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वैव नरशार्दूल तावग्निसमतेजसौ ।
गाण्डीवधन्वा संचिन्त्य प्राप्तकालं महारथः।
संजहार शरं दिव्यं त्वरमाणो धनंजयः ॥ १ ॥
मूलम्
दृष्ट्वैव नरशार्दूल तावग्निसमतेजसौ ।
गाण्डीवधन्वा संचिन्त्य प्राप्तकालं महारथः।
संजहार शरं दिव्यं त्वरमाणो धनंजयः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— नरश्रेष्ठ! उन अग्निके समान तेजस्वी दोनों महर्षियोंके देखते ही गाण्डीवधारी महारथी अर्जुनने समयोचित कर्तव्यका विचार करके बड़ी फुर्तीसे अपने दिव्यास्त्रका उपसंहार आरम्भ किया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाच भरतश्रेष्ठ तावृषी प्राञ्जलिस्तदा।
प्रमुक्तमस्त्रमस्त्रेण शाम्यतामिति वै मया ॥ २ ॥
संहृते परमास्त्रेऽस्मिन् सर्वानस्मानशेषतः ।
पापकर्मा ध्रुवं द्रौणिः प्रधक्ष्यत्यस्त्रतेजसा ॥ ३ ॥
मूलम्
उवाच भरतश्रेष्ठ तावृषी प्राञ्जलिस्तदा।
प्रमुक्तमस्त्रमस्त्रेण शाम्यतामिति वै मया ॥ २ ॥
संहृते परमास्त्रेऽस्मिन् सर्वानस्मानशेषतः ।
पापकर्मा ध्रुवं द्रौणिः प्रधक्ष्यत्यस्त्रतेजसा ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! उस समय उन्होंने हाथ जोड़कर उन दोनों महर्षियोंसे कहा—‘मुनिवरो! मैंने तो इसी उद्देश्यसे यह अस्त्र छोड़ा था कि इसके द्वारा शत्रुका छोड़ा हुआ ब्रह्मास्त्र शान्त हो जाय। अब इस उत्तम अस्त्रको लौटा लेनेपर पापाचारी अश्वत्थामा अपने अस्त्रके तेजसे अवश्य ही हम सब लोगोंको भस्म कर डालेगा॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदत्र हितमस्माकं लोकानां चैव सर्वथा।
भवन्तौ देवसंकाशौ तथा सम्मन्तुमर्हतः ॥ ४ ॥
मूलम्
यदत्र हितमस्माकं लोकानां चैव सर्वथा।
भवन्तौ देवसंकाशौ तथा सम्मन्तुमर्हतः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप दोनों देवताके तुल्य हैं; अतः इस समय जैसा करनेसे हमारा और सब लोगोंका सर्वथा हित हो, उसीके लिये आप हमें सलाह दें’॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा संजहारास्त्रं पुनरेवं धनंजयः।
संहारो दुष्करस्तस्य देवैरपि हि संयुगे ॥ ५ ॥
विसृष्टस्य रणे तस्य परमास्त्रस्य संग्रहे।
अशक्तः पाण्डवादन्यः साक्षादपि शतक्रतुः ॥ ६ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा संजहारास्त्रं पुनरेवं धनंजयः।
संहारो दुष्करस्तस्य देवैरपि हि संयुगे ॥ ५ ॥
विसृष्टस्य रणे तस्य परमास्त्रस्य संग्रहे।
अशक्तः पाण्डवादन्यः साक्षादपि शतक्रतुः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर अर्जुनने पुनः उस अस्त्रको पीछे लौटा लिया। युद्धमें उसे लौटा लेना देवताओंके लिये भी दुष्कर था। संग्राममें एक बार उस दिव्य अस्त्रको छोड़ देनेपर पुनः उसे लौटा लेनेमें पाण्डुपुत्र अर्जुनके सिवा साक्षात् इन्द्र भी समर्थ नहीं थे॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मतेजोद्भवं तद्धि विसृष्टमकृतात्मना ।
न शक्यमावर्तयितुं ब्रह्मचारिव्रतादृते ॥ ७ ॥
मूलम्
ब्रह्मतेजोद्भवं तद्धि विसृष्टमकृतात्मना ।
न शक्यमावर्तयितुं ब्रह्मचारिव्रतादृते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह अस्त्र ब्रह्मतेजसे प्रकट हुआ था। यदि अजितेन्द्रिय पुरुषके द्वारा इसका प्रयोग किया गया हो तो उसके लिये इसे पुनः लौटाना असम्भव है; क्योंकि ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन किये बिना कोई इसे लौटा नहीं सकता॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अचीर्णब्रह्मचर्यो यः सृष्ट्वा वर्तयते पुनः।
तदस्त्रं सानुबन्धस्य मूर्धानं तस्य कृन्तति ॥ ८ ॥
मूलम्
अचीर्णब्रह्मचर्यो यः सृष्ट्वा वर्तयते पुनः।
तदस्त्रं सानुबन्धस्य मूर्धानं तस्य कृन्तति ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसने ब्रह्मचर्यका पालन नहीं किया हो, वह पुरुष यदि उसका एक बार प्रयोग करके उसे फिर लौटानेका प्रयत्न करे तो वह अस्त्र सगे-सम्बन्धियोंसहित उसका सिर काट लेता था॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मचारी व्रती चापि दुरवापमवाप्य तत्।
परमव्यसनार्तोऽपि नार्जुनोऽस्त्रं व्यमुञ्चत ॥ ९ ॥
मूलम्
ब्रह्मचारी व्रती चापि दुरवापमवाप्य तत्।
परमव्यसनार्तोऽपि नार्जुनोऽस्त्रं व्यमुञ्चत ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने ब्रह्मचारी तथा व्रतधारी रहकर ही उस दुर्लभ अस्त्रको प्राप्त किया था। वे बड़े-से-बड़े संकटमें पड़नेपर भी कभी उस अस्त्रका प्रयोग नहीं करते थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यव्रतधरः शूरो ब्रह्मचारी च पाण्डवः।
गुरुवर्ती च तेनास्त्रं संजहारार्जुनः पुनः ॥ १० ॥
मूलम्
सत्यव्रतधरः शूरो ब्रह्मचारी च पाण्डवः।
गुरुवर्ती च तेनास्त्रं संजहारार्जुनः पुनः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यव्रतधारी, ब्रह्मचारी, शूरवीर पाण्डव अर्जुन गुरुकी आज्ञाका पालन करनेवाले थे; इसलिये उन्होंने फिर उस अस्त्रको लौटा लिया॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौणिरप्यथ सम्प्रेक्ष्य तावृषी पुरतः स्थितौ।
न शशाक पुनर्घोरमस्त्रं संहर्तुमोजसा ॥ ११ ॥
मूलम्
द्रौणिरप्यथ सम्प्रेक्ष्य तावृषी पुरतः स्थितौ।
न शशाक पुनर्घोरमस्त्रं संहर्तुमोजसा ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वत्थामाने भी जब उन ऋषियोंको अपने सामने खड़ा देखा तो उस घोर अस्त्रको बलपूर्वक लौटा लेनेका प्रयत्न किया, किंतु वह उसमें सफल न हो सका॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अशक्तः प्रतिसंहारे परमास्त्रस्य संयुगे।
द्रौणिर्दीनमना राजन् द्वैपायनमभाषत ॥ १२ ॥
मूलम्
अशक्तः प्रतिसंहारे परमास्त्रस्य संयुगे।
द्रौणिर्दीनमना राजन् द्वैपायनमभाषत ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! युद्धमें उस दिव्य अस्त्रका उपसंहार करनेमें समर्थ न होनेके कारण द्रोणकुमार मन-ही-मन बहुत दुःखी हुआ और व्यासजीसे इस प्रकार बोला—॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तमव्यसनार्तेन प्राणत्राणमभीप्सुना ।
मयैतदस्त्रमुत्सृष्टं भीमसेनभयान्मुने ॥ १३ ॥
मूलम्
उत्तमव्यसनार्तेन प्राणत्राणमभीप्सुना ।
मयैतदस्त्रमुत्सृष्टं भीमसेनभयान्मुने ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुने! मैंने भीमसेनके भयसे भारी संकटमें पड़कर अपने प्राणोंको बचानेके लिये ही यह अस्त्र छोड़ा था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मश्च कृतोऽनेन धार्तराष्ट्रं जिघांसता।
मिथ्याचारेण भगवन् भीमसेनेन संयुगे ॥ १४ ॥
मूलम्
अधर्मश्च कृतोऽनेन धार्तराष्ट्रं जिघांसता।
मिथ्याचारेण भगवन् भीमसेनेन संयुगे ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवन्! दुर्योधनके वधकी इच्छासे इस भीमसेनने संग्रामभूमिमें मिथ्याचारका आश्रय लेकर महान् अधर्म किया था॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः सृष्टमिदं ब्रह्मन् मयास्त्रमकृतात्मना।
तस्य भूयोऽद्य संहारं कर्तुं नाहमिहोत्सहे ॥ १५ ॥
मूलम्
अतः सृष्टमिदं ब्रह्मन् मयास्त्रमकृतात्मना।
तस्य भूयोऽद्य संहारं कर्तुं नाहमिहोत्सहे ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्मन्! यद्यपि मैं जितेन्द्रिय नहीं हूँ, तथापि मैंने इस अस्त्रका प्रयोग कर दिया है। अब पुनः इसे लौटा लेनेकी शक्ति मुझमें नहीं है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विसृष्टं हि मया दिव्यमेतदस्त्रं दुरासदम्।
अपाण्डवायेति मुने वह्नितेजोऽनुमन्त्र्य वै ॥ १६ ॥
मूलम्
विसृष्टं हि मया दिव्यमेतदस्त्रं दुरासदम्।
अपाण्डवायेति मुने वह्नितेजोऽनुमन्त्र्य वै ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुने! मैंने इस दुर्जय दिव्यास्त्रको अग्निके तेजसे युक्त एवं अभिमन्त्रित करके इस उद्देश्यसे छोड़ा था कि पाण्डवोंका नामो-निशान मिट जाय॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदिदं पाण्डवेयानामन्तकायाभिसंहितम् ।
अद्य पाण्डुसुतान् सर्वान् जीविताद् भ्रंशयिष्यति ॥ १७ ॥
मूलम्
तदिदं पाण्डवेयानामन्तकायाभिसंहितम् ।
अद्य पाण्डुसुतान् सर्वान् जीविताद् भ्रंशयिष्यति ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पाण्डवोंके विनाशका संकल्प लेकर छोड़ा गया यह दिव्यास्त्र आज समस्त पाण्डुपुत्रोंको जीवनशून्य कर देगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतं पापमिदं ब्रह्मन् रोषाविष्टेन चेतसा।
वधमाशास्य पार्थानां मयास्त्रं सृजता रणे ॥ १८ ॥
मूलम्
कृतं पापमिदं ब्रह्मन् रोषाविष्टेन चेतसा।
वधमाशास्य पार्थानां मयास्त्रं सृजता रणे ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्मन्! मैंने मनमें रोष भरकर रणभूमिमें कुन्तीपुत्रोंके वधकी इच्छासे इस अस्त्रका प्रयोग करके अवश्य ही बड़ा भारी पाप किया है’॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्त्रं ब्रह्मशिरस्तात विद्वान् पार्थो धनंजयः।
उत्सृष्टवान्न रोषेण न नाशाय तवाहवे ॥ १९ ॥
मूलम्
अस्त्रं ब्रह्मशिरस्तात विद्वान् पार्थो धनंजयः।
उत्सृष्टवान्न रोषेण न नाशाय तवाहवे ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजीने कहा— तात! कुन्तीपुत्र धनंजय भी तो इस ब्रह्मास्त्रके ज्ञाता हैं; किंतु उन्होंने रोषमें भरकर युद्धमें तुम्हें मारनेके लिये उसे नहीं छोड़ा है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्त्रमस्त्रेण तु रणे तव संशमयिष्यता।
विसृष्टमर्जुनेनेदं पुनश्च प्रतिसंहृतम् ॥ २० ॥
मूलम्
अस्त्रमस्त्रेण तु रणे तव संशमयिष्यता।
विसृष्टमर्जुनेनेदं पुनश्च प्रतिसंहृतम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो, रणभूमिमें अपने अस्त्रद्वारा तुम्हारे अस्त्रको शान्त करनेके उद्देश्यसे ही अर्जुनने उसका प्रयोग किया था और अब पुनः उसे लौटा लिया है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मास्त्रमप्यवाप्यैतदुपदेशात् पितुस्तव ।
क्षत्रधर्मान्महाबाहुर्नाकम्पत धनंजयः ॥ २१ ॥
मूलम्
ब्रह्मास्त्रमप्यवाप्यैतदुपदेशात् पितुस्तव ।
क्षत्रधर्मान्महाबाहुर्नाकम्पत धनंजयः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस ब्रह्मास्त्रको पाकर भी महाबाहु अर्जुन तुम्हारे पिताजीका उपदेश मानकर कभी क्षात्रधर्मसे विचलित नहीं हुए हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं धृतिमतः साधोः सर्वास्त्रविदुषः सतः।
सभ्रातृबन्धोः कस्मात् त्वं वधमस्य चिकीर्षसि ॥ २२ ॥
मूलम्
एवं धृतिमतः साधोः सर्वास्त्रविदुषः सतः।
सभ्रातृबन्धोः कस्मात् त्वं वधमस्य चिकीर्षसि ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये ऐसे धैर्यवान्, साधु, सम्पूर्ण अस्त्रोंके ज्ञाता तथा सत्पुरुष हैं, तथापि तुम भाई-बन्धुओंसहित इनका वध करनेकी इच्छा क्यों रखते हो?॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्त्रं ब्रह्मशिरो यत्र परमास्त्रेण वध्यते।
समा द्वादश पर्जन्यस्तद्राष्ट्रं नाभिवर्षति ॥ २३ ॥
मूलम्
अस्त्रं ब्रह्मशिरो यत्र परमास्त्रेण वध्यते।
समा द्वादश पर्जन्यस्तद्राष्ट्रं नाभिवर्षति ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस देशमें एक ब्रह्मास्त्रको दूसरे उत्कृष्ट अस्त्रसे दबा दिया जाता है, उस राष्ट्रमें बारह वर्षोंतक वर्षा नहीं होती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदर्थं महाबाहुः शक्तिमानपि पाण्डवः।
न विहन्त्येतदस्त्रं तु प्रजाहितचिकीर्षया ॥ २४ ॥
मूलम्
एतदर्थं महाबाहुः शक्तिमानपि पाण्डवः।
न विहन्त्येतदस्त्रं तु प्रजाहितचिकीर्षया ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसीलिये प्रजावर्गके हितकी इच्छासे महाबाहु अर्जुन शक्तिशाली होते हुए भी तुम्हारे इस अस्त्रको नष्ट नहीं कर रहे हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवास्त्वं च राष्ट्रं च सदा संरक्ष्यमेव हि।
तस्मात् संहर दिव्यं त्वमस्त्रमेतन्महाभुज ॥ २५ ॥
मूलम्
पाण्डवास्त्वं च राष्ट्रं च सदा संरक्ष्यमेव हि।
तस्मात् संहर दिव्यं त्वमस्त्रमेतन्महाभुज ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहो! तुम्हें पाण्डवोंकी, अपनी और इस राष्ट्रकी भी सदा रक्षा ही करनी चाहिये; इसलिये तुम अपने इस दिव्यास्त्रको लौटा लो॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरोषस्तव चैवास्तु पार्थाः सन्तु निरामयाः।
न ह्यधर्मेण राजर्षिः पाण्डवो जेतुमिच्छति ॥ २६ ॥
मूलम्
अरोषस्तव चैवास्तु पार्थाः सन्तु निरामयाः।
न ह्यधर्मेण राजर्षिः पाण्डवो जेतुमिच्छति ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारा रोष शान्त हो और पाण्डव भी स्वस्थ रहें। पाण्डुपुत्र राजर्षि युधिष्ठिर किसीको भी अधर्मसे नहीं जीतना चाहते हैं॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मणिं चैव प्रयच्छाद्य यस्ते शिरसि तिष्ठति।
एतदादाय ते प्राणान् प्रतिदास्यन्ति पाण्डवाः ॥ २७ ॥
मूलम्
मणिं चैव प्रयच्छाद्य यस्ते शिरसि तिष्ठति।
एतदादाय ते प्राणान् प्रतिदास्यन्ति पाण्डवाः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे सिरमें जो मणि है, इसे आज इन्हें दे दो। इस मणिको ही लेकर पाण्डव बदलेमें तुम्हें प्राणदान देंगे॥२७॥
मूलम् (वचनम्)
द्रौणिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवैर्यानि रत्नानि यच्चान्यत् कौरवैर्धनम्।
अवाप्तमिह तेभ्योऽयं मणिर्मम विशिष्यते ॥ २८ ॥
मूलम्
पाण्डवैर्यानि रत्नानि यच्चान्यत् कौरवैर्धनम्।
अवाप्तमिह तेभ्योऽयं मणिर्मम विशिष्यते ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वत्थामा बोला— पाण्डवोंने अबतक जो-जो रत्न प्राप्त किये हैं तथा कौरवोंने भी यहाँ जो धन पाया है, मेरी यह मणि उन सबसे अधिक मूल्यवान् है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमाबध्य भयं नास्ति शस्त्रव्याधिक्षुधाश्रयम्।
देवेभ्यो दानवेभ्यो वा नागेभ्यो वा कथंचन ॥ २९ ॥
मूलम्
यमाबध्य भयं नास्ति शस्त्रव्याधिक्षुधाश्रयम्।
देवेभ्यो दानवेभ्यो वा नागेभ्यो वा कथंचन ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसे बाँध लेनेपर शस्त्र, व्याधि, क्षुधा, देवता, दानव अथवा नाग किसीसे भी किसी तरहका भय नहीं रहता॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च रक्षोगणभयं न तस्करभयं तथा।
एवंवीर्यो मणिरयं न मे त्याज्यः कथंचन ॥ ३० ॥
मूलम्
न च रक्षोगणभयं न तस्करभयं तथा।
एवंवीर्यो मणिरयं न मे त्याज्यः कथंचन ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
न राक्षसोंका भय रहता है न चोरोंका। मेरी इस मणिका ऐसा अद्भुत प्रभाव है। इसलिये मुझे इसका त्याग तो किसी प्रकार भी नहीं करना चाहिये॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्तु मे भगवानाह तन्मे कार्यमनन्तरम्।
अयं मणिरयं चाहमीषिका तु पतिष्यति ॥ ३१ ॥
गर्भेषु पाण्डवेयानाममोघं चैतदुत्तमम् ।
न च शक्तोऽस्मि भगवन् संहर्तुं पुनरुद्यतम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
यत्तु मे भगवानाह तन्मे कार्यमनन्तरम्।
अयं मणिरयं चाहमीषिका तु पतिष्यति ॥ ३१ ॥
गर्भेषु पाण्डवेयानाममोघं चैतदुत्तमम् ।
न च शक्तोऽस्मि भगवन् संहर्तुं पुनरुद्यतम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु आप पूज्यपाद महर्षि मुझे जो आज्ञा देते हैं उसीका अब मुझे पालन करना है, अतः यह रही मणि और यह रहा मैं। किंतु यह दिव्यास्त्रसे अभिमन्त्रित की हुई सींक तो पाण्डवोंके गर्भस्थ शिशुओंपर गिरेगी ही; क्योंकि यह उत्तम अस्त्र अमोघ है। भगवन्! इस उठे हुए अस्त्रको मैं पुनः लौटा लेनेमें असमर्थ हूँ॥३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदस्त्रमतश्चैव गर्भेषु विसृजाम्यहम् ।
न च वाक्यं भगवतो न करिष्ये महामुने ॥ ३३ ॥
मूलम्
एतदस्त्रमतश्चैव गर्भेषु विसृजाम्यहम् ।
न च वाक्यं भगवतो न करिष्ये महामुने ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामुने! अतः यह अस्त्र मैं पाण्डवोंके गर्भोंपर ही छोड़ रहा हूँ। आपकी आज्ञाका मैं कदापि उल्लंघन नहीं करूँगा॥३३॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं कुरु न चान्या तु बुद्धिः कार्या त्वयानघ।
गर्भेषु पाण्डवेयानां विसृज्यैतदुपारम ॥ ३४ ॥
मूलम्
एवं कुरु न चान्या तु बुद्धिः कार्या त्वयानघ।
गर्भेषु पाण्डवेयानां विसृज्यैतदुपारम ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजीने कहा— अनघ! अच्छा, ऐसा ही करो। अब अपने मनमें दूसरा कोई विचार न लाना। इस अस्त्रको पाण्डवोंके गर्भोंपर ही छोड़कर शान्त हो जाओ॥३४॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः परममस्त्रं तु द्रौणिरुद्यतमाहवे।
द्वैपायनवचः श्रुत्वा गर्भेषु प्रमुमोच ह ॥ ३५ ॥
मूलम्
ततः परममस्त्रं तु द्रौणिरुद्यतमाहवे।
द्वैपायनवचः श्रुत्वा गर्भेषु प्रमुमोच ह ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! व्यासजीका यह वचन सुनकर द्रोणकुमारने युद्धमें उठे हुए उस दिव्यास्त्रको पाण्डवोंके गर्भोंपर ही छोड़ दिया॥३५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि ऐषीकपर्वणि ब्रह्मशिरोऽस्त्रस्य पाण्डवेयगर्भप्रवेशने पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिकपर्वके अन्तर्गत ऐषीकपर्वमें ब्रह्मास्त्रका पाण्डवोंके गर्भमें प्रवेशविषयक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५॥