०१४ अर्जुनास्त्रत्यागे

भागसूचना

चतुर्दशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अश्वत्थामाके अस्त्रका निवारण करनेके लिये अर्जुनके द्वारा ब्रह्मास्त्रका प्रयोग एवं वेदव्यासजी और देवर्षि नारदका प्रकट होना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इङ्गितेनैव दाशार्हस्तमभिप्रायमादितः ।
द्रौणेर्बुद्ध्वा महाबाहुरर्जुनं प्रत्यभाषत ॥ १ ॥

मूलम्

इङ्गितेनैव दाशार्हस्तमभिप्रायमादितः ।
द्रौणेर्बुद्ध्वा महाबाहुरर्जुनं प्रत्यभाषत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! दशार्हनन्दन महाबाहु भगवान् श्रीकृष्ण अश्वत्थामाकी चेष्टासे ही उसके मनका भाव पहले ही ताड़ गये थे। उन्होंने अर्जुनसे कहा—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्जुनार्जुन यद्दिव्यमस्त्रं ते हृदि वर्तते।
द्रोणोपदिष्टं तस्यायं कालः सम्प्रति पाण्डव ॥ २ ॥

मूलम्

अर्जुनार्जुन यद्दिव्यमस्त्रं ते हृदि वर्तते।
द्रोणोपदिष्टं तस्यायं कालः सम्प्रति पाण्डव ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अर्जुन! अर्जुन! पाण्डुनन्दन! आचार्य द्रोणका उपदेश किया हुआ जो दिव्य अस्त्र तुम्हारे हृदयमें विद्यमान है, उसके प्रयोगका अब यह समय आ गया है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातॄणामात्मनश्चैव परित्राणाय भारत ।
विसृजैतत् त्वमप्याजावस्त्रमस्त्रनिवारणम् ॥ ३ ॥

मूलम्

भ्रातॄणामात्मनश्चैव परित्राणाय भारत ।
विसृजैतत् त्वमप्याजावस्त्रमस्त्रनिवारणम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतनन्दन! भाइयोंकी और अपनी रक्षाके लिये तुम भी युद्धमें इस ब्रह्मास्त्रका प्रयोग करो। अश्वत्थामाके अस्त्रका निवारण इसीके द्वारा हो सकता है’॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केशवेनैवमुक्तोऽथ पाण्डवः परवीरहा ।
अवातरद् रथात् तूर्णं प्रगृह्य सशरं धनुः ॥ ४ ॥

मूलम्

केशवेनैवमुक्तोऽथ पाण्डवः परवीरहा ।
अवातरद् रथात् तूर्णं प्रगृह्य सशरं धनुः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले पाण्डुपुत्र अर्जुन धनुष-बाण हाथमें लेकर तुरंत ही रथसे नीचे उतर गये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वमाचार्यपुत्राय ततोऽनन्तरमात्मने ।
भ्रातृभ्यश्चैव सर्वेभ्यः स्वस्तीत्युक्त्वा परंतपः ॥ ५ ॥
देवताभ्यो नमस्कृत्य गुरुभ्यश्चैव सर्वशः।
उत्ससर्ज शिवं ध्यायन्नस्त्रमस्त्रेण शाम्यताम् ॥ ६ ॥

मूलम्

पूर्वमाचार्यपुत्राय ततोऽनन्तरमात्मने ।
भ्रातृभ्यश्चैव सर्वेभ्यः स्वस्तीत्युक्त्वा परंतपः ॥ ५ ॥
देवताभ्यो नमस्कृत्य गुरुभ्यश्चैव सर्वशः।
उत्ससर्ज शिवं ध्यायन्नस्त्रमस्त्रेण शाम्यताम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंको संताप देनेवाले अर्जुनने सबसे पहले यह कहा कि ‘आचार्यपुत्रका कल्याण हो’। तत्पश्चात् अपने और सम्पूर्ण भाइयोंके लिये मंगल-कामना करके उन्होंने देवताओं और सभी गुरुजनोंको नमस्कार किया। इसके बाद ‘इस ब्रह्मास्त्रसे शत्रुका ब्रह्मास्त्र शान्त हो जाय’ ऐसा संकल्प करके सबके कल्याणकी भावना करते हुए अपना दिव्य अस्त्र छोड़ दिया॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तदस्त्रं सहसा सृष्टं गाण्डीवधन्वना।
प्रजज्वाल महार्चिष्मद् युगान्तानलसंनिभम् ॥ ७ ॥

मूलम्

ततस्तदस्त्रं सहसा सृष्टं गाण्डीवधन्वना।
प्रजज्वाल महार्चिष्मद् युगान्तानलसंनिभम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गाण्डीवधारी अर्जुनके द्वारा छोड़ा गया वह ब्रह्मास्त्र सहसा प्रज्वलित हो उठा। उससे प्रलयाग्निके समान बड़ी-बड़ी लपटें उठने लगीं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव द्रोणपुत्रस्य तदस्त्रं तिग्मतेजसः।
प्रजज्वाल महाज्वालं तेजोमण्डलसंवृतम् ॥ ८ ॥

मूलम्

तथैव द्रोणपुत्रस्य तदस्त्रं तिग्मतेजसः।
प्रजज्वाल महाज्वालं तेजोमण्डलसंवृतम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार प्रचण्ड तेजस्वी द्रोणपुत्रका वह अस्त्र भी तेजोमण्डलसे घिरकर बड़ी-बड़ी ज्वालाओंके साथ जलने लगा॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्घाता बहवश्चासन् पेतुरुल्काः सहस्रशः।
महद् भयं च भूतानां सर्वेषां समजायत ॥ ९ ॥

मूलम्

निर्घाता बहवश्चासन् पेतुरुल्काः सहस्रशः।
महद् भयं च भूतानां सर्वेषां समजायत ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय बारंबार वज्रपातके समान शब्द होने लगे, आकाशसे सहस्रों उल्काएँ टूट-टूटकर गिरने लगीं और समस्त प्राणियोंपर महान् भय छा गया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सशब्दमभवद् व्योम ज्वालामालाकुलं भृशम्।
चचाल च मही कृत्स्ना सपर्वतवनद्रुमा ॥ १० ॥

मूलम्

सशब्दमभवद् व्योम ज्वालामालाकुलं भृशम्।
चचाल च मही कृत्स्ना सपर्वतवनद्रुमा ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सारा आकाश आगकी प्रचण्ड ज्वालाओंसे व्याप्त हो उठा और वहाँ जोर-जोरसे शब्द होने लगा। पर्वत, वन, और वृक्षोंसहित सारी पृथ्वी हिलने लगी॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते त्वस्त्रतेजसी लोकांस्तापयन्ती व्यवस्थिते।
महर्षी सहितौ तत्र दर्शयामासतुस्तदा ॥ ११ ॥
नारदः सर्वभूतात्मा भरतानां पितामहः।

मूलम्

ते त्वस्त्रतेजसी लोकांस्तापयन्ती व्यवस्थिते।
महर्षी सहितौ तत्र दर्शयामासतुस्तदा ॥ ११ ॥
नारदः सर्वभूतात्मा भरतानां पितामहः।

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोनों अस्त्रोंके तेज समस्त लोकोंको संतप्त करते हुए वहाँ स्थित हो गये। उस समय वहाँ सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा नारद तथा भरतवंशके पितामह व्यास—इन दो महर्षियोंने एक साथ दर्शन दिया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभौ शमयितुं वीरौ भारद्वाजधनंजयौ ॥ १२ ॥
तौ मुनी सर्वधर्मज्ञौ सर्वभूतहितैषिणौ।
दीप्तयोरस्त्रयोर्मध्ये स्थितौ परमतेजसौ ॥ १३ ॥

मूलम्

उभौ शमयितुं वीरौ भारद्वाजधनंजयौ ॥ १२ ॥
तौ मुनी सर्वधर्मज्ञौ सर्वभूतहितैषिणौ।
दीप्तयोरस्त्रयोर्मध्ये स्थितौ परमतेजसौ ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण धर्मोंके ज्ञाता तथा समस्त प्राणियोंके हितैषी वे दोनों परम तेजस्वी मुनि अश्वत्थामा और अर्जुन—इन दोनों वीरोंको शान्त करनेके लिये इनके प्रज्वलित अस्त्रोंके बीचमें खड़े हो गये॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदन्तरमथाधृष्यावुपगम्य यशस्विनौ ।
आस्तामृषिवरौ तत्र ज्वलिताविव पावकौ ॥ १४ ॥

मूलम्

तदन्तरमथाधृष्यावुपगम्य यशस्विनौ ।
आस्तामृषिवरौ तत्र ज्वलिताविव पावकौ ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन अस्त्रोंके बीचमें आकर वे दुर्धर्ष एवं यशस्वी महर्षिप्रवर दो प्रज्वलित अग्नियोंके समान वहाँ स्थित हो गये॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणभृद्भिरनाधृष्यौ देवदानवसम्मतौ ।
अस्त्रतेजः शमयितुं लोकानां हितकाम्यया ॥ १५ ॥

मूलम्

प्राणभृद्भिरनाधृष्यौ देवदानवसम्मतौ ।
अस्त्रतेजः शमयितुं लोकानां हितकाम्यया ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई भी प्राणी उन दोनोंका तिरस्कार नहीं कर सकता था। देवता और दानव दोनों ही उनका सम्मान करते थे। वे समस्त लोकोंके हितकी कामनासे उन अस्त्रोंके तेजको शान्त करानेके लिये वहाँ आये थे॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

ऋषी ऊचतुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानाशस्त्रविदः पूर्वे येऽप्यतीता महारथाः।
नैतदस्त्रं मनुष्येषु तैः प्रयुक्तं कथंचन।
किमिदं साहसं वीरौ कृतवन्तौ महात्ययम् ॥ १६ ॥

मूलम्

नानाशस्त्रविदः पूर्वे येऽप्यतीता महारथाः।
नैतदस्त्रं मनुष्येषु तैः प्रयुक्तं कथंचन।
किमिदं साहसं वीरौ कृतवन्तौ महात्ययम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोनों ऋषियोंने उन दोनों वीरोंसे कहा— ‘वीरो! पूर्वकालमें भी जो बहुत-से महारथी हो चुके हैं, वे नाना प्रकारके शस्त्रोंके जानकार थे, परंतु उन्होंने किसी प्रकार भी मनुष्योंपर इस अस्त्रका प्रयोग नहीं किया था। तुम दोनोंने यह महान् विनाशकारी दुःसाहस क्यों किया है?॥१६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि ऐषीकपर्वणि अर्जुनास्त्रत्यागे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिकपर्वके अन्तर्गत ऐषीकपर्वमें अर्जुनके द्वारा ब्रह्मास्त्रका प्रयोगविषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४॥