०११ भीमसेनगमने

भागसूचना

एकादशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरका शोकमें व्याकुल होना, द्रौपदीका विलाप तथा द्रोणकुमारके वधके लिये आग्रह, भीमसेनका अश्वत्थामाको मारनेके लिये प्रस्थान

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स दृष्ट्वा निहतान् संख्ये पुत्रान्‌ पौत्रान्‌ सखींस्तथा।
महादुःखपरीतात्मा बभूव जनमेजय ॥ १ ॥

मूलम्

स दृष्ट्वा निहतान् संख्ये पुत्रान्‌ पौत्रान्‌ सखींस्तथा।
महादुःखपरीतात्मा बभूव जनमेजय ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! अपने पुत्रों, पौत्रों और मित्रोंको युद्धमें मारा गया देख राजा युधिष्ठिरका हृदय महान् दुःखसे संतप्त हो उठा॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तस्य महान् शोकः प्रादुरासीन्महात्मनः।
स्मरतः पुत्रपौत्राणां भ्रातॄणां स्वजनस्य ह ॥ २ ॥

मूलम्

ततस्तस्य महान् शोकः प्रादुरासीन्महात्मनः।
स्मरतः पुत्रपौत्राणां भ्रातॄणां स्वजनस्य ह ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय पुत्रों, पौत्रों, भाइयों और स्वजनोंका स्मरण करके उन महात्माके मनमें महान् शोक प्रकट हुआ॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमश्रुपरिपूर्णाक्षं वेपमानमचेतसम् ।
सुहृदो भृशसंविग्नाः सान्त्वयाञ्चक्रिरे तदा ॥ ३ ॥

मूलम्

तमश्रुपरिपूर्णाक्षं वेपमानमचेतसम् ।
सुहृदो भृशसंविग्नाः सान्त्वयाञ्चक्रिरे तदा ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी आँखें आँसुओंसे भर आयीं, शरीर काँपने लगा और चेतना लुप्त होने लगी। उनकी ऐसी अवस्था देख उनके सुहृद् अत्यन्त व्याकुल हो उस समय उन्हें सान्त्वना देने लगे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तस्मिन् क्षणे कल्पो रथेनादित्यवर्चसा।
नकुलः कृष्णया सार्धमुपायात् परमार्तया ॥ ४ ॥

मूलम्

ततस्तस्मिन् क्षणे कल्पो रथेनादित्यवर्चसा।
नकुलः कृष्णया सार्धमुपायात् परमार्तया ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय सामर्थ्यशाली नकुल सूर्यके समान तेजस्वी रथके द्वारा शोकसे अत्यन्त पीड़ित हुई कृष्णाको साथ लेकर वहाँ आ पहुँचे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपप्लव्यं गता सा तु श्रुत्वा सुमहदप्रियम्।
तदा विनाशं सर्वेषां पुत्राणां व्यथिताभवत् ॥ ५ ॥

मूलम्

उपप्लव्यं गता सा तु श्रुत्वा सुमहदप्रियम्।
तदा विनाशं सर्वेषां पुत्राणां व्यथिताभवत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय द्रौपदी उपप्लव्य नगरमें गयी हुई थी, वहाँ अपने सारे पुत्रोंके मारे जानेका अत्यन्त अप्रिय समाचार सुनकर वह व्यथित हो उठी थी॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कम्पमानेव कदली वातेनाभिसमीरिता ।
कृष्णा राजानमासाद्य शोकार्ता न्यपतद् भुवि ॥ ६ ॥

मूलम्

कम्पमानेव कदली वातेनाभिसमीरिता ।
कृष्णा राजानमासाद्य शोकार्ता न्यपतद् भुवि ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा युधिष्ठिरके पास पहुँचकर शोकसे व्याकुल हुई कृष्णा हवासे हिलायी गयी कदलीके समान कम्पित हो पृथ्वीपर गिर पड़ी॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बभूव वदनं तस्याः सहसा शोककर्षितम्।
फुल्लपद्मपलाशाक्ष्यास्तमोग्रस्त इवांशुमान् ॥ ७ ॥

मूलम्

बभूव वदनं तस्याः सहसा शोककर्षितम्।
फुल्लपद्मपलाशाक्ष्यास्तमोग्रस्त इवांशुमान् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रफुल्ल कमलके समान विशाल एवं मनोहर नेत्रोंवाली द्रौपदीका मुख सहसा शोकसे पीड़ित हो राहुके द्वारा ग्रस्त हुए सूर्यके समान तेजोहीन हो गया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तां पतितां दृष्ट्वा संरम्भी सत्यविक्रमः।
बाहुभ्यां परिजग्राह समुत्पत्य वृकोदरः ॥ ८ ॥
सा समाश्वासिता तेन भीमसेनेन भामिनी।

मूलम्

ततस्तां पतितां दृष्ट्वा संरम्भी सत्यविक्रमः।
बाहुभ्यां परिजग्राह समुत्पत्य वृकोदरः ॥ ८ ॥
सा समाश्वासिता तेन भीमसेनेन भामिनी।

अनुवाद (हिन्दी)

उसे गिरी हुई देख क्रोधमें भरे हुए सत्यपराक्रमी भीमसेनने उछलकर दोनों बाँहोंसे उसको उठा लिया और उस मानिनी पत्नीको धीरज बँधाया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुदती पाण्डवं कृष्णा सा हि भारतमब्रवीत् ॥ ९ ॥
दिष्ट्या राजन्नवाप्येमामखिलां भोक्ष्यसे महीम्।
आत्मजान् क्षत्रधर्मेण सम्प्रदाय यमाय वै ॥ १० ॥

मूलम्

रुदती पाण्डवं कृष्णा सा हि भारतमब्रवीत् ॥ ९ ॥
दिष्ट्या राजन्नवाप्येमामखिलां भोक्ष्यसे महीम्।
आत्मजान् क्षत्रधर्मेण सम्प्रदाय यमाय वै ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय रोती हुई कृष्णाने भरतनन्दन पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरसे कहा—‘राजन्! सौभाग्यकी बात है कि आप क्षत्रिय-धर्मके अनुसार अपने पुत्रोंको यमराजकी भेंट चढ़ाकर यह सारी पृथ्वी पा गये और अब इसका उपभोग करेंगे॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या त्वं कुशली पार्थ मत्तमातङ्गगामिनीम्।
अवाप्य पृथिवीं कृत्स्नां सौभद्रं न स्मरिष्यसि ॥ ११ ॥

मूलम्

दिष्ट्या त्वं कुशली पार्थ मत्तमातङ्गगामिनीम्।
अवाप्य पृथिवीं कृत्स्नां सौभद्रं न स्मरिष्यसि ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीनन्दन! सौभाग्यसे ही आपने कुशलपूर्वक रहकर इस मत्त-मातंगगामिनी सम्पूर्ण पृथ्वीका राज्य प्राप्त कर लिया, अब तो आपको सुभद्राकुमार अभिमन्युकी भी याद नहीं आयेगी॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मजान् क्षत्रधर्मेण श्रुत्वा शूरान्‌ निपातितान्।
उपप्लव्ये मया सार्धं दिष्ट्या त्वं न स्मरिष्यसि ॥ १२ ॥

मूलम्

आत्मजान् क्षत्रधर्मेण श्रुत्वा शूरान्‌ निपातितान्।
उपप्लव्ये मया सार्धं दिष्ट्या त्वं न स्मरिष्यसि ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अपने वीर पुत्रोंको क्षत्रिय-धर्मके अनुसार मारा गया सुनकर भी आप उपप्लव्यनगरमें मेरे साथ रहते हुए उन्हें सर्वथा भूल जायँगे; यह भी भाग्यकी ही बात है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसुप्तानां वधं श्रुत्वा द्रौणिना पापकर्मणा।
शोकस्तपति मां पार्थ हुताशन इवाश्रयम् ॥ १३ ॥

मूलम्

प्रसुप्तानां वधं श्रुत्वा द्रौणिना पापकर्मणा।
शोकस्तपति मां पार्थ हुताशन इवाश्रयम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! पापाचारी द्रोणपुत्रके द्वारा मेरे सोये हुए पुत्रोंका वध किया गया, यह सुनकर शोक मुझे उसी प्रकार संतप्त कर रहा है, जैसे आग अपने आधारभूत काष्ठको ही जला डालती है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य पापकृतो द्रौणेर्न चेदद्य त्वया रणे।
ह्रियते सानुबन्धस्य युधि विक्रम्य जीवितम् ॥ १४ ॥
इहैव प्रायमासिष्ये तन्निबोधत पाण्डवाः।
न चेत् फलमवाप्नोति द्रौणिः पापस्य कर्मणः ॥ १५ ॥

मूलम्

तस्य पापकृतो द्रौणेर्न चेदद्य त्वया रणे।
ह्रियते सानुबन्धस्य युधि विक्रम्य जीवितम् ॥ १४ ॥
इहैव प्रायमासिष्ये तन्निबोधत पाण्डवाः।
न चेत् फलमवाप्नोति द्रौणिः पापस्य कर्मणः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि आज आप रणभूमिमें पराक्रम प्रकट करके सगे-सम्बन्धियोंसहित पापाचारी द्रोणकुमारके प्राण नहीं हर लेते हैं तो मैं यहीं अनशन करके अपने जीवनका अन्त कर दूँगी। पाण्डवो! आप सब लोग इस बातको कान खोलकर सुन लें। यदि अश्वत्थामा अपने पापकर्मका फल नहीं पा लेता है तो मैं अवश्य प्राण त्याग दूँगी’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा ततः कृष्णा पाण्डवं प्रत्युपाविशत्।
युधिष्ठिरं याज्ञसेनी धर्मराजं यशस्विनी ॥ १६ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा ततः कृष्णा पाण्डवं प्रत्युपाविशत्।
युधिष्ठिरं याज्ञसेनी धर्मराजं यशस्विनी ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर यशस्विनी द्रुपदकुमारी कृष्णा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरके सामने ही अनशनके लिये बैठ गयी॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वोपविष्टां राजर्षिः पाण्डवो महिषीं प्रियाम्।
प्रत्युवाच स धर्मात्मा द्रौपदीं चारुदर्शनाम् ॥ १७ ॥

मूलम्

दृष्ट्वोपविष्टां राजर्षिः पाण्डवो महिषीं प्रियाम्।
प्रत्युवाच स धर्मात्मा द्रौपदीं चारुदर्शनाम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी प्रिय महारानी परम सुन्दरी द्रौपदीको उपवासके लिये बैठी देख धर्मात्मा राजर्षि युधिष्ठिरने उससे कहा—॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्म्यं धर्मेण धर्मज्ञे प्राप्तास्ते निधनं शुभे।
पुत्रास्ते भ्रातरश्चैव तान्न शोचितुमर्हसि ॥ १८ ॥

मूलम्

धर्म्यं धर्मेण धर्मज्ञे प्राप्तास्ते निधनं शुभे।
पुत्रास्ते भ्रातरश्चैव तान्न शोचितुमर्हसि ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शुभे! तुम धर्मको जाननेवाली हो। तुम्हारे पुत्रों और भाइयोंने धर्मपूर्वक युद्ध करके धर्मानुकूल मृत्यु प्राप्त की है; अतः तुम्हें उनके लिये शोक नहीं करना चाहिये॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कल्याणि वनं दुर्गं दूरं द्रौणिरितो गतः।
तस्य त्वं पातनं संख्ये कथं ज्ञास्यसि शोभने ॥ १९ ॥

मूलम्

स कल्याणि वनं दुर्गं दूरं द्रौणिरितो गतः।
तस्य त्वं पातनं संख्ये कथं ज्ञास्यसि शोभने ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कल्याणि! द्रोणकुमार तो यहाँसे भागकर दुर्गम वनमें चला गया है। शोभने! यदि उसे युद्धमें मार गिराया जाय तो भी तुम्हें इसका विश्वास कैसे होगा?’॥

मूलम् (वचनम्)

द्रौपद्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणपुत्रस्य सहजो मणिः शिरसि मे श्रुतः।
निहत्य संख्ये तं पापं पश्येयं मणिमाहृतम् ॥ २० ॥
राजन् शिरसि ते कृत्वा जीवेयमिति मे मतिः।

मूलम्

द्रोणपुत्रस्य सहजो मणिः शिरसि मे श्रुतः।
निहत्य संख्ये तं पापं पश्येयं मणिमाहृतम् ॥ २० ॥
राजन् शिरसि ते कृत्वा जीवेयमिति मे मतिः।

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदी बोली— महाराज! मैंने सुना है कि द्रोणपुत्रके मस्तकमें एक मणि है जो उसके जन्मके साथ ही पैदा हुई है। उस पापीको युद्धमें मारकर यदि वह मणि ला दी जायगी तो मैं उसे देख लूँगी। राजन्! उस मणिको आपके सिरपर धारण कराकर ही मैं जीवन धारण कर सकूँगी; ऐसा मेरा दृढ़ निश्चय है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा पाण्डवं कृष्णा राजानं चारुदर्शना ॥ २१ ॥
भीमसेनमथागत्य परमं वाक्यमब्रवीत् ।
त्रातुमर्हसि मां भीम क्षत्रधर्ममनुस्मरन् ॥ २२ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा पाण्डवं कृष्णा राजानं चारुदर्शना ॥ २१ ॥
भीमसेनमथागत्य परमं वाक्यमब्रवीत् ।
त्रातुमर्हसि मां भीम क्षत्रधर्ममनुस्मरन् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिरसे ऐसा कहकर सुन्दरी कृष्णा भीमसेनके पास आयी और यह उत्तम वचन बोली—‘प्रिय भीम! आप क्षत्रिय-धर्मका स्मरण करके मेरे जीवनकी रक्षा कर सकते हैं॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जहि तं पापकर्माणं शम्बरं मघवानिव।
न हि ते विक्रमे तुल्यः पुमानस्तीह कश्चन ॥ २३ ॥

मूलम्

जहि तं पापकर्माणं शम्बरं मघवानिव।
न हि ते विक्रमे तुल्यः पुमानस्तीह कश्चन ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीर! जैसे इन्द्रने शम्बरासुरको मारा था, उसी प्रकार आप भी उस पापकर्मी अश्वत्थामाका वध करें। इस संसारमें कोई भी पुरुष पराक्रममें आपकी समानता करनेवाला नहीं है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतं तत् सर्वलोकेषु परमव्यसने यथा।
द्वीपोऽभूस्त्वं हि पार्थानां नगरे वारणावते ॥ २४ ॥

मूलम्

श्रुतं तत् सर्वलोकेषु परमव्यसने यथा।
द्वीपोऽभूस्त्वं हि पार्थानां नगरे वारणावते ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह बात सम्पूर्ण जगत्‌में प्रसिद्ध है कि वारणावतनगरमें जब कुन्तीके पुत्रोंपर भारी संकट पड़ा था, तब आप ही द्वीपके समान उनके रक्षक हुए थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिडिम्बदर्शने चैव तथा त्वमभवो गतिः।
तथा विराटनगरे कीचकेन भृशार्दिताम् ॥ २५ ॥
मामप्युद्‌धृतवान् कृच्छ्रात् पौलोमीं मघवानिव।

मूलम्

हिडिम्बदर्शने चैव तथा त्वमभवो गतिः।
तथा विराटनगरे कीचकेन भृशार्दिताम् ॥ २५ ॥
मामप्युद्‌धृतवान् कृच्छ्रात् पौलोमीं मघवानिव।

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसी प्रकार हिडिम्बासुरसे भेंट होनेपर भी आप ही उनके आश्रयदाता हुए। विराटनगरमें जब कीचकने मुझे बहुत तंग कर दिया, तब उस महान् संकटसे आपने मेरा भी उसी तरह उद्धार किया, जैसे इन्द्रने शचीका किया था॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथैतान्यकृथाः पार्थ महाकर्माणि वै पुरा ॥ २६ ॥
तथा द्रौणिममित्रघ्न विनिहत्य सुखी भव।

मूलम्

यथैतान्यकृथाः पार्थ महाकर्माणि वै पुरा ॥ २६ ॥
तथा द्रौणिममित्रघ्न विनिहत्य सुखी भव।

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुसूदन पार्थ! जैसे पूर्वकालमें ये महान् कर्म आपने किये थे, उसी प्रकार इस द्रोणपुत्रको भी मारकर सुखी हो जाइये’॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्या बहुविधं दुःखान्निशम्य परिदेवितम् ॥ २७ ॥
नामर्षयत कौन्तेयो भीमसेनो महाबलः।

मूलम्

तस्या बहुविधं दुःखान्निशम्य परिदेवितम् ॥ २७ ॥
नामर्षयत कौन्तेयो भीमसेनो महाबलः।

अनुवाद (हिन्दी)

दुःखके कारण द्रौपदीका यह भाँति-भाँतिका विलाप सुनकर महाबली कुन्तीकुमार भीमसेन इसे सहन न कर सके॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स काञ्चनविचित्राङ्गमारुरोह महारथम् ॥ २८ ॥
आदाय रुचिरं चित्रं समार्गणगुणं धनुः।
नकुलं सारथिं कृत्वा द्रोणपुत्रवधे धृतः ॥ २९ ॥
विस्फार्य सशरं चापं तूर्णमश्वानचोदयत्।

मूलम्

स काञ्चनविचित्राङ्गमारुरोह महारथम् ॥ २८ ॥
आदाय रुचिरं चित्रं समार्गणगुणं धनुः।
नकुलं सारथिं कृत्वा द्रोणपुत्रवधे धृतः ॥ २९ ॥
विस्फार्य सशरं चापं तूर्णमश्वानचोदयत्।

अनुवाद (हिन्दी)

वे द्रोणपुत्रके वधका निश्चय करके सुवर्णभूषित विचित्र अंगोंवाले रथपर आरूढ़ हुए। उन्होंने बाण और प्रत्यंचासहित एक सुन्दर एवं विचित्र धनुष हाथमें लेकर नकुलको सारथि बनाया तथा बाणसहित धनुषको फैलाकर तुरंत ही घोड़ोंको हँकवाया॥२८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते हयाः पुरुषव्याघ्र चोदिता वातरंहसः ॥ ३० ॥
वेगेन त्वरिता जग्मुर्हरयः शीघ्रगामिनः।

मूलम्

ते हयाः पुरुषव्याघ्र चोदिता वातरंहसः ॥ ३० ॥
वेगेन त्वरिता जग्मुर्हरयः शीघ्रगामिनः।

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह नरेश! नकुलके द्वारा हाँके गये वे वायुके समान वेगवाले शीघ्रगामी घोड़े बड़ी उतावलीके साथ तीव्र गतिसे चल दिये॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिबिरात् स्वाद् गृहीत्वा स रथस्य पदमच्युतः ॥ ३१ ॥
(द्रोणपुत्रगतेनाशु ययौ मार्गेण भारत।)

मूलम्

शिबिरात् स्वाद् गृहीत्वा स रथस्य पदमच्युतः ॥ ३१ ॥
(द्रोणपुत्रगतेनाशु ययौ मार्गेण भारत।)

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! छावनीसे बाहर निकलकर अपनी टेकसे न टलनेवाले भीमसेन अश्वत्थामाके रथका चिह्न देखते हुए उसी मार्गसे शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़े, जिससे द्रोणपुत्र अश्वत्थामा गया था॥३१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि ऐषीकपर्वणि द्रौणिवधार्थं भीमसेनगमने एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिकपर्वके अन्तर्गत ऐषीकपर्वमें अश्वत्थामाके वधके लिये भीमसेनका प्रस्थानविषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ३१ श्लोक हैं।)