भागसूचना
(ऐषीकपर्व)
दशमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
धृष्टद्युम्नके सारथिके मुखसे पुत्रों और पांचालोंके वधका वृत्तान्त सुनकर युधिष्ठिरका विलाप, द्रौपदीको बुलानेके लिये नकुलको भेजना, सुहृदोंके साथ शिविरमें जाना तथा मारे हुए पुत्रादिको देखकर भाईसहित शोकातुर होना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यां रात्र्यां व्यतीतायां धृष्टद्युम्नस्य सारथिः।
शशंस धर्मराजाय सौप्तिके कदनं कृतम् ॥ १ ॥
मूलम्
तस्यां रात्र्यां व्यतीतायां धृष्टद्युम्नस्य सारथिः।
शशंस धर्मराजाय सौप्तिके कदनं कृतम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! वह रात व्यतीत होनेपर धृष्टद्युम्नके सारथिने रातको सोते समय जो संहार किया गया था, उसका समाचार धर्मराज युधिष्ठिरसे कह सुनाया॥१॥
मूलम् (वचनम्)
सूत उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौपदेया हता राजन् द्रुपदस्यात्मजैः सह।
प्रमत्ता निशि विश्वस्ताः स्वपन्तः शिबिरे स्वके ॥ २ ॥
मूलम्
द्रौपदेया हता राजन् द्रुपदस्यात्मजैः सह।
प्रमत्ता निशि विश्वस्ताः स्वपन्तः शिबिरे स्वके ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सारथि बोला— राजन्! द्रुपदके पुत्रोंसहित द्रौपदी देवीके भी सारे पुत्र मारे गये। वे रातको अपने शिबिरमें निश्चिन्त एवं असावधान होकर सो रहे थे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतवर्मणा नृशंसेन गौतमेन कृपेण च।
अश्वत्थाम्ना च पापेन हतं वः शिबिरं निशि ॥ ३ ॥
मूलम्
कृतवर्मणा नृशंसेन गौतमेन कृपेण च।
अश्वत्थाम्ना च पापेन हतं वः शिबिरं निशि ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी समय क्रूर कृतवर्मा, गौतमवंशी कृपाचार्य तथा पापी अश्वत्थामाने आक्रमण करके आपके सारे शिबिरका विनाश कर डाला॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतैर्नरगजाश्वानां प्रासशक्तिपरश्वधैः ।
सहस्राणि निकृन्तद्भिर्निःशेषं ते बलं कृतम् ॥ ४ ॥
मूलम्
एतैर्नरगजाश्वानां प्रासशक्तिपरश्वधैः ।
सहस्राणि निकृन्तद्भिर्निःशेषं ते बलं कृतम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन तीनोंने प्रास, शक्ति और फरसोंद्वारा सहस्रों मनुष्यों, घोड़ों और हाथियोंको काट-काटकर आपकी सारी सेनाको समाप्त कर दिया है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
छिद्यमानस्य महतो वनस्येव परश्वधैः।
शुश्रुवे सुमहान् शब्दो बलस्य तव भारत ॥ ५ ॥
मूलम्
छिद्यमानस्य महतो वनस्येव परश्वधैः।
शुश्रुवे सुमहान् शब्दो बलस्य तव भारत ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! जैसे फरसोंसे विशाल जंगल काटा जा रहा हो, उसी प्रकार उनके द्वारा छिन्न-भिन्न की जाती हुई आपकी विशाल वाहिनीका महान् आर्तनाद सुनायी पड़ता था॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहमेकोऽवशिष्टस्तु तस्मात् सैन्यान्महामते ।
मुक्तः कथंचिद् धर्मात्मन् व्यग्राच्च कृतवर्मणः ॥ ६ ॥
मूलम्
अहमेकोऽवशिष्टस्तु तस्मात् सैन्यान्महामते ।
मुक्तः कथंचिद् धर्मात्मन् व्यग्राच्च कृतवर्मणः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामते! धर्मात्मन्! उस विशाल सेनासे अकेला मैं ही किसी प्रकार बचकर निकल आया हूँ। कृतवर्मा दूसरोंको मारनेमें लगा हुआ था; इसीलिये मैं उस संकटसे मुक्त हो सका हूँ॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा वाक्यमशिवं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
पपात मह्यां दुर्धर्षः पुत्रशोकसमन्वितः ॥ ७ ॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा वाक्यमशिवं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
पपात मह्यां दुर्धर्षः पुत्रशोकसमन्वितः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह अमंगलमय वचन सुनकर दुर्धर्ष राजा कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर पुत्रशोकसे संतप्त हो पृथ्वीपर गिर पड़े॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतन्तं तमतिक्रम्य परिजग्राह सात्यकिः।
भीमसेनोऽर्जुनश्चैव माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ ॥ ८ ॥
मूलम्
पतन्तं तमतिक्रम्य परिजग्राह सात्यकिः।
भीमसेनोऽर्जुनश्चैव माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गिरते समय आगे बढ़कर सात्यकिने उन्हें थाम लिया। भीमसेन, अर्जुन तथा माद्रीकुमार नकुल-सहदेवने भी उन्हें पकड़ लिया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लब्धचेतास्तु कौन्तेयः शोकविह्वलया गिरा।
जित्वा शत्रून् जितः पश्चात् पर्यदेवयदार्तवत् ॥ ९ ॥
मूलम्
लब्धचेतास्तु कौन्तेयः शोकविह्वलया गिरा।
जित्वा शत्रून् जितः पश्चात् पर्यदेवयदार्तवत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर होशमें आनेपर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर शोकाकुल वाणीद्वारा आर्तकी भाँति विलाप करने लगे—‘हाय! मैं शत्रुओंको पहले जीतकर पीछे पराजित हो गया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्विदा गतिरर्थानामपि ये दिव्यचक्षुषः।
जीयमाना जयन्त्यन्ये जयमाना वयं जिताः ॥ १० ॥
मूलम्
दुर्विदा गतिरर्थानामपि ये दिव्यचक्षुषः।
जीयमाना जयन्त्यन्ये जयमाना वयं जिताः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो लोग दिव्य दृष्टिसे सम्पन्न हैं, उनके लिये भी पदार्थोंकी गतिको समझना अत्यन्त दुष्कर है। हाय! दूसरे लोग तो हारकर जीतते हैं; किंतु हमलोग जीतकर हार गये हैं!॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हत्वा भ्रातॄन् वयस्यांश्च पितॄन् पुत्रान् सुहृद्गणान्।
बन्धूनमात्यान् पौत्रांश्च जित्वा सर्वाञ्जिता वयम् ॥ ११ ॥
मूलम्
हत्वा भ्रातॄन् वयस्यांश्च पितॄन् पुत्रान् सुहृद्गणान्।
बन्धूनमात्यान् पौत्रांश्च जित्वा सर्वाञ्जिता वयम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हमने भाइयों, समवयस्क मित्रों, पितृतुल्य पुरुषों, पुत्रों, सुहृद्गणों, बन्धुओं, मन्त्रियों तथा पौत्रोंकी हत्या करके उन सबको जीतकर विजय प्राप्त की थी; परंतु अब शत्रुओंद्वारा हम ही पराजित हो गये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनर्थो ह्यर्थसंकाशस्तथानर्थोऽर्थदर्शनः ।
जयोऽयमजयाकारो जयस्तस्मात् पराजयः ॥ १२ ॥
मूलम्
अनर्थो ह्यर्थसंकाशस्तथानर्थोऽर्थदर्शनः ।
जयोऽयमजयाकारो जयस्तस्मात् पराजयः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कभी-कभी अनर्थ भी अर्थ-सा हो जाता है और अर्थके रूपमें दिखायी देनेवाली वस्तु भी अनर्थके रूपमें परिणत हो जाती है, इसी प्रकार हमारी यह विजय भी पराजयका ही रूप धारण करके आयी थी, इसलिये जय भी पराजय बन गयी॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्जित्वा तप्यते पश्चादापन्न इव दुर्मतिः।
कथं मन्येत विजयं ततो जिततरः परैः ॥ १३ ॥
मूलम्
यज्जित्वा तप्यते पश्चादापन्न इव दुर्मतिः।
कथं मन्येत विजयं ततो जिततरः परैः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दुर्बुद्धि मनुष्य यदि विजय-लाभके पश्चात् विपत्तिमें पड़े हुए पुरुषकी भाँति अनुताप करता है तो वह अपनी उस जीतको जीत कैसे मान सकता है? क्योंकि उस दशामें तो वह शत्रुओंद्वारा पूर्णतः पराजित हो चुका है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येषामर्थाय पापं स्याद् विजयस्य सुहृद्वधैः।
निर्जितैरप्रमत्तैर्हि विजिता जितकाशिनः ॥ १४ ॥
मूलम्
येषामर्थाय पापं स्याद् विजयस्य सुहृद्वधैः।
निर्जितैरप्रमत्तैर्हि विजिता जितकाशिनः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिन्हें विजयके लिये सुहृदोंके वधका पाप करना पड़ता है, वे एक बार विजयलक्ष्मीसे उल्लसित भले ही हो जायँ, अन्तमें पराजित होकर सतत सावधान रहनेवाले शत्रुओंके हाथसे उन्हें पराजित होना ही पड़ता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णिनालीकदंष्ट्रस्य खड्गजिह्वस्य संयुगे ।
चापव्यात्तस्य रौद्रस्य ज्यातलस्वननादिनः ॥ १५ ॥
क्रुद्धस्य नरसिंहस्य संग्रामेष्वपलायिनः ।
ये व्यमुञ्चन्त कर्णस्य प्रमादात् त इमे हताः ॥ १६ ॥
मूलम्
कर्णिनालीकदंष्ट्रस्य खड्गजिह्वस्य संयुगे ।
चापव्यात्तस्य रौद्रस्य ज्यातलस्वननादिनः ॥ १५ ॥
क्रुद्धस्य नरसिंहस्य संग्रामेष्वपलायिनः ।
ये व्यमुञ्चन्त कर्णस्य प्रमादात् त इमे हताः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्रोधमें भरा हुआ कर्ण मनुष्योंमें सिंहके समान था। कर्णि और नालीक नामक बाण उसकी दाँढ़ें तथा युद्धमें उठी हुई तलवार उसकी जिह्वा थी। धनुषका खींचना ही उसका मुँह फैलाना था। प्रत्यंचाकी टंकार ही उसके लिये दहाड़नेके समान थी। युद्धोंमें कभी पीठ न दिखानेवाले उस भयंकर पुरुषसिंहके हाथसे जो जीवित छूट गये, वे ही ये मेरे सगे-सम्बन्धी अपनी असावधानीके कारण मार डाले गये हैं॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथह्रदं शरवर्षोर्मिमन्तं
रत्नाचितं वाहनवाजियुक्तम् ।
शक्त्यृष्टिमीनध्वजनागनक्रं
शरासनावर्तमहेषुफेनम् ॥ १७ ॥
संग्रामचन्द्रोदयवेगवेलं
द्रोणार्णवं ज्यातलनेमिघोषम् ।
ये तेरुरुच्चावचशस्त्रनौभि-
स्ते राजपुत्रा निहताः प्रमादात् ॥ १८ ॥
मूलम्
रथह्रदं शरवर्षोर्मिमन्तं
रत्नाचितं वाहनवाजियुक्तम् ।
शक्त्यृष्टिमीनध्वजनागनक्रं
शरासनावर्तमहेषुफेनम् ॥ १७ ॥
संग्रामचन्द्रोदयवेगवेलं
द्रोणार्णवं ज्यातलनेमिघोषम् ।
ये तेरुरुच्चावचशस्त्रनौभि-
स्ते राजपुत्रा निहताः प्रमादात् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘द्रोणाचार्य महासागरके समान थे, रथ ही पानीका कुण्ड था, बाणोंकी वर्षा ही लहरोंके समान ऊपर उठती थी, रत्नमय आभूषण ही उस द्रोणरूपी समुद्रके रत्न थे, रथके घोड़े ही समुद्री घोड़ोंके समान जान पड़ते थे, शक्ति और ऋष्टि मत्स्यके समान तथा ध्वज नाग एवं मगरके तुल्य थे, धनुष ही भँवर तथा बड़े-बड़े बाण ही फेन थे, संग्राम ही चन्द्रोदय बनकर उस समुद्रके वेगको चरम सीमातक पहुँचा देता था, प्रत्यंचा और पहियोंकी ध्वनि ही उस महासागरकी गर्जना थी; ऐसे द्रोणरूपी सागरको जो छोटे-बड़े नाना प्रकारके शस्त्रोंकी नौका बनाकर पार गये, वे ही राजकुमार असावधानीसे मार डाले गये॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि प्रमादात् परमस्ति कश्चिद्
वधो नराणामिह जीवलोके ।
प्रमत्तमर्था हि नरं समन्तात्
त्यजन्त्यनर्थाश्च समाविशन्ति ॥ १९ ॥
मूलम्
न हि प्रमादात् परमस्ति कश्चिद्
वधो नराणामिह जीवलोके ।
प्रमत्तमर्था हि नरं समन्तात्
त्यजन्त्यनर्थाश्च समाविशन्ति ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रमादसे बढ़कर इस संसारमें मनुष्योंके लिये दूसरी कोई मृत्यु नहीं। प्रमादी मनुष्यको सारे अर्थ सब ओरसे त्याग देते हैं और अनर्थ बिना बुलाये ही उसके पास चले आते हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्वजोत्तमाग्रोच्छ्रितधूमकेतुं
शरार्चिषं कोपमहासमीरम् ।
महाधनुर्ज्यातलनेमिघोषं
तनुत्रनानाविधशस्त्रहोमम् ॥ २० ॥
महाचमूकक्षदवाभिपन्नं
महाहवे भीष्ममयाग्निदाहम् ।
ये सेहुरात्तायुधतीक्ष्णवेगं
ते राजपुत्रा निहताः प्रमादात् ॥ २१ ॥
मूलम्
ध्वजोत्तमाग्रोच्छ्रितधूमकेतुं
शरार्चिषं कोपमहासमीरम् ।
महाधनुर्ज्यातलनेमिघोषं
तनुत्रनानाविधशस्त्रहोमम् ॥ २० ॥
महाचमूकक्षदवाभिपन्नं
महाहवे भीष्ममयाग्निदाहम् ।
ये सेहुरात्तायुधतीक्ष्णवेगं
ते राजपुत्रा निहताः प्रमादात् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महासमरमें भीष्मरूपी अग्नि जब पाण्डव-सेनाको जला रही थी, उस समय ऊँची ध्वजाओंके शिखरपर फहराती हुई पताका ही धूमके समान जान पड़ती थी, बाण-वर्षा ही आगकी लपटें थीं, क्रोध ही प्रचण्ड वायु बनकर उस ज्वालाको बढ़ा रहा था, विशाल धनुषकी प्रत्यंचा, हथेली और रथके पहियोंका शब्द ही मानो उस अग्निदाहसे उठनेवाली चट-चट ध्वनि था, कवच और नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र उस आगकी आहुति बन रहे थे, विशाल सेनारूपी सूखे जंगलमें दावानलके समान वह आग लगी थी, हाथमें लिये हुए अस्त्र-शस्त्र ही उस अग्निके प्रचण्ड वेग थे, ऐसे अग्निदाहके कष्टको जिन्होंने सह लिया, वे ही राजपुत्र प्रमादवश मारे गये॥२०-२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि प्रमत्तेन नरेण शक्यं
विद्या तपः श्रीर्विपुलं यशो वा।
पश्याप्रमादेन निहत्य शत्रून्
सर्वान् महेन्द्रं सुखमेधमानम् ॥ २२ ॥
मूलम्
न हि प्रमत्तेन नरेण शक्यं
विद्या तपः श्रीर्विपुलं यशो वा।
पश्याप्रमादेन निहत्य शत्रून्
सर्वान् महेन्द्रं सुखमेधमानम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रमादी मनुष्य कभी विद्या, तप, वैभव अथवा महान् यश नहीं प्राप्त कर सकता। देखो, देवराज इन्द्र प्रमाद छोड़ देनेके ही कारण अपने सारे शत्रुओंका संहार करके सुखपूर्वक उन्नति कर रहे हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रोपमान् पार्थिवपुत्रपौत्रान्
पश्याविशेषेण हतान् प्रमादात् ।
तीर्त्वा समुद्रं वणिजः समृद्धा
मग्नाः कुनद्यामिव हेलमानाः ॥ २३ ॥
मूलम्
इन्द्रोपमान् पार्थिवपुत्रपौत्रान्
पश्याविशेषेण हतान् प्रमादात् ।
तीर्त्वा समुद्रं वणिजः समृद्धा
मग्नाः कुनद्यामिव हेलमानाः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देखो, प्रमादके ही कारण ये इन्द्रके समान पराक्रमी, राजाओंके पुत्र और पौत्र सामान्य रूपसे मार डाले गये, जैसे समृद्धिशाली व्यापारी समुद्रको पार करके प्रमादवश अवहेलना करनेके कारण छोटी-सी नदीमें डूब गये हों॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमर्षितैर्ये निहताः शयाना
निःसंशयं ते त्रिदिवं प्रपन्नाः।
कृष्णां तु शोचामि कथं नु साध्वी
शोकार्णवे साद्य विनङ्क्ष्यतीति ॥ २४ ॥
मूलम्
अमर्षितैर्ये निहताः शयाना
निःसंशयं ते त्रिदिवं प्रपन्नाः।
कृष्णां तु शोचामि कथं नु साध्वी
शोकार्णवे साद्य विनङ्क्ष्यतीति ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुओंने अमर्षके वशीभूत होकर जिन्हें सोते समय ही मार डाला है वे तो निःसंदेह स्वर्गलोकमें पहुँच गये हैं। मुझे तो उस सती साध्वी कृष्णाके लिये चिन्ता हो रही है जो आज शोकके समुद्रमें डूबकर नष्ट हो जानेकी स्थितिमें पहुँच गयी है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भातॄंश्च पुत्रांश्च हतान् निशम्य
पाञ्चालराजं पितरं च वृद्धम्।
ध्रुवं विसंज्ञा पतिता पृथिव्यां
सा शोष्यते शोककृशाङ्गयष्टिः ॥ २५ ॥
मूलम्
भातॄंश्च पुत्रांश्च हतान् निशम्य
पाञ्चालराजं पितरं च वृद्धम्।
ध्रुवं विसंज्ञा पतिता पृथिव्यां
सा शोष्यते शोककृशाङ्गयष्टिः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘एक तो पहलेसे ही शोकके कारण क्षीण होकर उसकी देह सूखी लकड़ीके समान हो गयी है? दूसरे फिर जब वह अपने भाइयों, पुत्रों तथा बूढ़े पिता पांचालराज द्रुपदकी मृत्युका समाचार सुनेगी तब और भी सूख जायगी तथा अवश्य ही अचेत होकर पृथ्वीपर गिर पड़ेगी॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छोकजं दुःखमपारयन्ती
कथं भविष्यत्युचिता सुखानाम् ।
पुत्रक्षयभ्रातृवधप्रणुन्ना
प्रदह्यमानेन हुताशनेन ॥ २६ ॥
मूलम्
तच्छोकजं दुःखमपारयन्ती
कथं भविष्यत्युचिता सुखानाम् ।
पुत्रक्षयभ्रातृवधप्रणुन्ना
प्रदह्यमानेन हुताशनेन ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो सदा सुख भोगनेके ही योग्य है, वह उस शोकजनित दुःखको न सह सकनेके कारण न जाने कैसी दशाको पहुँच जायगी? पुत्रों और भाइयोंके विनाशसे व्यथित हो उसके हृदयमें जो शोककी आग जल उठेगी, उससे उसकी बड़ी शोचनीय दशा हो जायगी’॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवमार्तः परिदेवयन् स
राजा कुरूणां नकुलं बभाषे।
गच्छानयैनामिह मन्दभाग्यां
समातृपक्षामिति राजपुत्रीम् ॥ २७ ॥
मूलम्
इत्येवमार्तः परिदेवयन् स
राजा कुरूणां नकुलं बभाषे।
गच्छानयैनामिह मन्दभाग्यां
समातृपक्षामिति राजपुत्रीम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार आर्तस्वरसे विलाप करते हुए कुरुराज युधिष्ठिरने नकुलसे कहा—‘भाई! जाओ, मन्दभागिनी राजकुमारी द्रौपदीको उसके मातृपक्षकी स्त्रियोंके साथ यहाँ लिया लाओ’॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
माद्रीसुतस्तत् परिगृह्य वाक्यं
धर्मेण धर्मप्रतिमस्य राज्ञः ।
ययौ रथेनालयमाशु देव्याः
पाञ्चालराजस्य च यत्र दाराः ॥ २८ ॥
मूलम्
माद्रीसुतस्तत् परिगृह्य वाक्यं
धर्मेण धर्मप्रतिमस्य राज्ञः ।
ययौ रथेनालयमाशु देव्याः
पाञ्चालराजस्य च यत्र दाराः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माद्रीकुमार नकुलने धर्माचरणके द्वारा साक्षात् धर्मराजकी समानता करनेवाले राजा युधिष्ठिरकी आज्ञा शिरोधार्य करके रथके द्वारा तुरंत ही महारानी द्रौपदीके उस भवनकी ओर प्रस्थान किया, जहाँ पांचालराजके घरकी भी महिलाएँ रहती थीं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रस्थाप्य माद्रीसुतमाजमीढः
शोकार्दितस्तैः सहितः सुहृद्भिः ।
रोरूयमाणः प्रययौ सुताना-
मायोधनं भूतगणानुकीर्णम् ॥ २९ ॥
मूलम्
प्रस्थाप्य माद्रीसुतमाजमीढः
शोकार्दितस्तैः सहितः सुहृद्भिः ।
रोरूयमाणः प्रययौ सुताना-
मायोधनं भूतगणानुकीर्णम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माद्रीकुमारको वहाँ भेजकर अजमीढ़कुलनन्दन युधिष्ठिर शोकाकुल हो उन सभी सुहृदोंके साथ बारंबार रोते हुए पुत्रोंके उस युद्धस्थलमें गये, जो भूतगणोंसे भरा हुआ था॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तत् प्रविश्याशिवमुग्ररूपं
ददर्श पुत्रान् सुहृदः सखींश्च।
भूमौ शयानान् रुधिरार्द्रगात्रान्
विभिन्नदेहान् प्रहृतोत्तमाङ्गान् ॥ ३० ॥
मूलम्
स तत् प्रविश्याशिवमुग्ररूपं
ददर्श पुत्रान् सुहृदः सखींश्च।
भूमौ शयानान् रुधिरार्द्रगात्रान्
विभिन्नदेहान् प्रहृतोत्तमाङ्गान् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस भयंकर एवं अमंगलमय स्थानमें प्रवेश करके उन्होंने अपने पुत्रों, सुहृदों और सखाओंको देखा, जो खूनसे लथपथ होकर पृथ्वीपर पड़े थे। उनके शरीर छिन्न-भिन्न हो गये थे और मस्तक कट गये थे॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तांस्तु दृष्ट्वा भृशमार्तरूपो
युधिष्ठिरो धर्मभृतां वरिष्ठः ।
उच्चैः प्रचुक्रोश च कौरवाग्र्यः
पपात चोर्व्यां सगणो विसंज्ञः ॥ ३१ ॥
मूलम्
स तांस्तु दृष्ट्वा भृशमार्तरूपो
युधिष्ठिरो धर्मभृतां वरिष्ठः ।
उच्चैः प्रचुक्रोश च कौरवाग्र्यः
पपात चोर्व्यां सगणो विसंज्ञः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें देखकर कुरुकुलशिरोमणि तथा धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर अत्यन्त दुःखी हो गये और उच्चस्वरसे फूट-फूटकर रोने लगे। धीरे-धीरे उनकी संज्ञा लुप्त हो गयी और वे अपने साथियोंसहित पृथ्वीपर गिर पड़े॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि ऐषीकपर्वणि युधिष्ठिरशिविरप्रवेशे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिकपर्वके अन्तर्गत ऐषीकपर्वमें युधिष्ठिरका शिविरमें प्रवेशविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०॥