००९

भागसूचना

नवमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दुर्योधनकी दशा देखकर कृपाचार्य और अश्वत्थामाका विलाप तथा उनके मुखसे पांचालोंके वधका वृत्तान्त जानकर दुर्योधनका प्रसन्न होकर प्राणत्याग करना

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते हत्वा सर्वपञ्चालान् द्रौपदेयांश्च सर्वशः।
आगच्छन् सहितास्तत्र यत्र दुर्योधनो हतः ॥ १ ॥

मूलम्

ते हत्वा सर्वपञ्चालान् द्रौपदेयांश्च सर्वशः।
आगच्छन् सहितास्तत्र यत्र दुर्योधनो हतः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! वे तीनों महारथी समस्त पांचालों और द्रौपदीके सभी पुत्रोंका वध करके एक साथ उस स्थानमें आये, जहाँ राजा दुर्योधन मारा गया था॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गत्वा चैनमपश्यन्त किञ्चित्प्राणं जनाधिपम्।
ततो रथेभ्यः प्रस्कन्द्य परिवव्रुस्तवात्मजम् ॥ २ ॥

मूलम्

गत्वा चैनमपश्यन्त किञ्चित्प्राणं जनाधिपम्।
ततो रथेभ्यः प्रस्कन्द्य परिवव्रुस्तवात्मजम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ जाकर उन्होंने राजा दुर्योधनको देखा, उसकी कुछ-कुछ साँस चल रही थी। फिर वे रथोंसे कूद पड़े और आपके पुत्रके पास जा उसे सब ओरसे घेरकर बैठ गये॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं भग्नसक्थं राजेन्द्र कृच्छ्रप्राणमचेतसम्।
वमन्तं रुधिरं वक्त्रादपश्यन् वसुधातले ॥ ३ ॥
वृतं समन्ताद् बहुभिः श्वापदैर्घोरदर्शनैः।
शालावृकगणैश्चैव भक्षयिष्यद्भिरन्तिकात् ॥ ४ ॥
निवारयन्तं कृच्छ्रात्तान् श्वापदांश्च चिखादिषून्।
विचेष्टमानं मह्यां च सुभृशं गाढवेदनम् ॥ ५ ॥

मूलम्

तं भग्नसक्थं राजेन्द्र कृच्छ्रप्राणमचेतसम्।
वमन्तं रुधिरं वक्त्रादपश्यन् वसुधातले ॥ ३ ॥
वृतं समन्ताद् बहुभिः श्वापदैर्घोरदर्शनैः।
शालावृकगणैश्चैव भक्षयिष्यद्भिरन्तिकात् ॥ ४ ॥
निवारयन्तं कृच्छ्रात्तान् श्वापदांश्च चिखादिषून्।
विचेष्टमानं मह्यां च सुभृशं गाढवेदनम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! उन्होंने देखा कि राजाकी जाँघें टूट गयी हैं। ये बड़े कष्टसे प्राण धारण करते हैं। इनकी चेतना लुप्त-सी हो गयी है और ये अपने मुँहसे पृथ्वीपर खून उगल रहे हैं। इन्हें चट कर जानेके लिये बहुत-से भयंकर दिखायी देनेवाले हिंसक जीव और कुत्ते चारों ओरसे घेरकर आसपास ही खड़े हैं। ये अपनेको खा जानेकी इच्छा रखनेवाले उन हिंसक जन्तुओंको बड़ी कठिनाईसे रोकते हैं। इन्हें बड़ी भारी पीड़ा हो रही है, जिसके कारण ये पृथ्वीपर पड़े-पड़े छटपटा रहे हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं शयानं तथा दृष्ट्वा भूमौ सुरुधिरोक्षितम्।
हतशिष्टास्त्रयो वीराः शोकार्ताः पर्यवारयन् ॥ ६ ॥
अश्वत्थामा कृपश्चैव कृतवर्मा च सात्वतः।

मूलम्

तं शयानं तथा दृष्ट्वा भूमौ सुरुधिरोक्षितम्।
हतशिष्टास्त्रयो वीराः शोकार्ताः पर्यवारयन् ॥ ६ ॥
अश्वत्थामा कृपश्चैव कृतवर्मा च सात्वतः।

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनको इस प्रकार खूनसे लथपथ हो पृथ्वीपर पड़ा देख मरनेसे बचे हुए वे तीनों वीर अश्वत्थामा, कृपाचार्य और सात्वतवंशी कृतवर्मा शोकसे व्याकुल हो उसे तीन ओरसे घेरकर बैठ गये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैस्त्रिभिः शोणितादिग्धैर्निःश्वसद्भिर्महारथैः ॥ ७ ॥
शुशुभे स वृतो राजा वेदी त्रिभिरिवाग्निभिः।

मूलम्

तैस्त्रिभिः शोणितादिग्धैर्निःश्वसद्भिर्महारथैः ॥ ७ ॥
शुशुभे स वृतो राजा वेदी त्रिभिरिवाग्निभिः।

अनुवाद (हिन्दी)

वे तीनों महारथी वीर खूनसे रँग गये थे और लंबी साँसें खींच रहे थे। उनसे घिरा हुआ राजा दुर्योधन तीन अग्नियोंसे घिरी हुई वेदीके समान सुशोभित हो रहा था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते तं शयानं सम्प्रेक्ष्य राजानमतथोचितम् ॥ ८ ॥
अविषह्येन दुःखेन ततस्ते रुरुदुस्त्रयः।

मूलम्

ते तं शयानं सम्प्रेक्ष्य राजानमतथोचितम् ॥ ८ ॥
अविषह्येन दुःखेन ततस्ते रुरुदुस्त्रयः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजाको इस प्रकार अयोग्य अवस्थामें सोया देख वे तीनों असह्य दुःखसे पीड़ित हो रोने लगे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु रुधिरं हस्तैर्मुखान्निर्मृज्य तस्य हि।
रणे राज्ञः शयानस्य कृपणं पर्यदेवयन् ॥ ९ ॥

मूलम्

ततस्तु रुधिरं हस्तैर्मुखान्निर्मृज्य तस्य हि।
रणे राज्ञः शयानस्य कृपणं पर्यदेवयन् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् रणभूमिमें सोये हुए राजा दुर्योधनके मुखसे बहते हुए रक्तको हाथोंसे पोंछकर वे तीनों दीन वाणीमें विलाप करने लगे॥९॥

मूलम् (वचनम्)

कृप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न दैवस्यातिभारोऽस्ति यदयं रुधिरोक्षितः।
एकादशचमूभर्ता शेते दुर्योधनो हतः ॥ १० ॥

मूलम्

न दैवस्यातिभारोऽस्ति यदयं रुधिरोक्षितः।
एकादशचमूभर्ता शेते दुर्योधनो हतः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृपाचार्य बोले— हाय! विधाताके लिये कुछ भी करना कठिन नहीं है। जो कभी ग्यारह अक्षौहिणी सेनाके स्वामी थे, वे ही ये राजा दुर्योधन यहाँ मारे जाकर खूनसे लथपथ हुए पड़े हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य चामीकराभस्य चामीकरविभूषिताम् ।
गदां गदाप्रियस्येमां समीपे पतितां भुवि ॥ ११ ॥

मूलम्

पश्य चामीकराभस्य चामीकरविभूषिताम् ।
गदां गदाप्रियस्येमां समीपे पतितां भुवि ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देखो, सुवर्णके समान कान्तिवाले इन गदाप्रेमी नरेशके समीप यह सुवर्णभूषित गदा पृथ्वीपर पड़ी है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इयमेनं गदा शूरं न जहाति रणे रणे।
स्वर्गायापि व्रजन्तं हि न जहाति यशस्विनम् ॥ १२ ॥

मूलम्

इयमेनं गदा शूरं न जहाति रणे रणे।
स्वर्गायापि व्रजन्तं हि न जहाति यशस्विनम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह गदा इन शूरवीर भूपालका साथ किसी भी युद्धमें नहीं छोड़ती थी और आज स्वर्गलोकमें जाते समय भी यशस्वी नरेशका साथ नहीं छोड़ रही है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्येमां सह वीरेण जाम्बूनदविभूषिताम्।
शयानां शयने हर्म्ये भार्यां प्रीतिमतीमिव ॥ १३ ॥

मूलम्

पश्येमां सह वीरेण जाम्बूनदविभूषिताम्।
शयानां शयने हर्म्ये भार्यां प्रीतिमतीमिव ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देखो, यह सुवर्णभूषित गदा इन वीर भूपालके साथ रणशय्यापर उसी प्रकार सो रही है, जैसे महलमें प्रेम रखनेवाली पत्नी इनके साथ सोया करती थी॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽयं मूर्धाभिषिक्तानामग्रे यातः परंतपः।
स हतो ग्रसते पांसून् पश्य कालस्य पर्ययम् ॥ १४ ॥

मूलम्

योऽयं मूर्धाभिषिक्तानामग्रे यातः परंतपः।
स हतो ग्रसते पांसून् पश्य कालस्य पर्ययम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ये शत्रुसंतापी नरेश सभी मूर्धाभिषिक्त राजाओंके आगे चला करते थे, वे ही आज मारे जाकर धरतीपर पड़े-पड़े धूल फाँक रहे हैं। यह समयका उलट-फेर तो देखो॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येनाजौ निहता भूमावशेरत पुरा द्विषः।
स भूमौ निहतः शेते कुरुराजः परैरयम् ॥ १५ ॥

मूलम्

येनाजौ निहता भूमावशेरत पुरा द्विषः।
स भूमौ निहतः शेते कुरुराजः परैरयम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें जिनके द्वारा युद्धमें मारे गये शत्रु भूमिपर सोया करते थे, वे ही ये कुरुराज आज शत्रुओंद्वारा स्वयं मारे जाकर भूमिपर शयन करते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भयान्नमन्ति राजानो यस्य स्म शतसंघशः।
स वीरशयने शेते क्रव्याद्भिः परिवारितः ॥ १६ ॥

मूलम्

भयान्नमन्ति राजानो यस्य स्म शतसंघशः।
स वीरशयने शेते क्रव्याद्भिः परिवारितः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके आगे सैकड़ों राजा भयसे सिर झुकाते थे, वे ही आज हिंसक जन्तुओंसे घिरे हुए वीर-शय्यापर सो रहे हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपासत द्विजाः पूर्वमर्थहेतोर्यमीश्वरम् ।
उपासते च तं ह्यद्य क्रव्यादा मांसहेतवः ॥ १७ ॥

मूलम्

उपासत द्विजाः पूर्वमर्थहेतोर्यमीश्वरम् ।
उपासते च तं ह्यद्य क्रव्यादा मांसहेतवः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले बहुत-से ब्राह्मण धनकी प्राप्तिके लिये जिन नरेशके पास बैठे रहते थे, उन्हींके समीप आज मांसके लिये मांसाहारी जन्तु बैठे हुए हैं॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं शयानं कुरुश्रेष्ठं ततो भरतसत्तम।
अश्वत्थामा समालोक्य करुणं पर्यदेवयत् ॥ १८ ॥

मूलम्

तं शयानं कुरुश्रेष्ठं ततो भरतसत्तम।
अश्वत्थामा समालोक्य करुणं पर्यदेवयत् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर कुरुकुल-भूषण दुर्योधनको रणशय्यापर पड़ा देख अश्वत्थामा इस प्रकार करुण विलाप करने लगा—॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहुस्त्वां राजशार्दूल मुख्यं सर्वधनुष्मताम्।
धनाध्यक्षोपमं युद्धे शिष्यं संकर्षणस्य च ॥ १९ ॥
कथं विवरमद्राक्षीद् भीमसेनस्तवानघ ।
बलिनं कृतिनं नित्यं स च पापात्मवान् नृप ॥ २० ॥

मूलम्

आहुस्त्वां राजशार्दूल मुख्यं सर्वधनुष्मताम्।
धनाध्यक्षोपमं युद्धे शिष्यं संकर्षणस्य च ॥ १९ ॥
कथं विवरमद्राक्षीद् भीमसेनस्तवानघ ।
बलिनं कृतिनं नित्यं स च पापात्मवान् नृप ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निष्पाप राजसिंह! आपको समस्त धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ कहा जाता था। आप गदायुद्धमें धनाध्यक्ष कुबेरकी समानता करनेवाले तथा साक्षात् संकर्षणके शिष्य थे तो भी भीमसेनने कैसे आपपर प्रहार करनेका अवसर पा लिया? नरेश्वर! आप तो सदासे ही बलवान् और गदायुद्धके विद्वान् रहे हैं। फिर उस पापात्माने कैसे आपको मार दिया?॥१९-२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालो नूनं महाराज लोकेऽस्मिन् बलवत्तरः।
पश्यामो निहतं त्वां च भीमसेनेन संयुगे ॥ २१ ॥

मूलम्

कालो नूनं महाराज लोकेऽस्मिन् बलवत्तरः।
पश्यामो निहतं त्वां च भीमसेनेन संयुगे ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! निश्चय ही इस संसारमें समय महाबलवान् है, तभी तो युद्धस्थलमें हम आपको भीमसेनके द्वारा मारा गया देखते हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं त्वां सर्वधर्मज्ञं क्षुद्रः पापो वृकोदरः।
निकृत्या हतवान् मन्दो नूनं कालो दुरत्ययः ॥ २२ ॥

मूलम्

कथं त्वां सर्वधर्मज्ञं क्षुद्रः पापो वृकोदरः।
निकृत्या हतवान् मन्दो नूनं कालो दुरत्ययः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप तो सम्पूर्ण धर्मोंके ज्ञाता थे। आपको उस मूर्ख, नीच और पापी भीमसेनने किस तरह धोखेसे मार डाला? अवश्य ही कालका उल्लंघन करना सर्वथा कठिन है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मयुद्धे ह्यधर्मेण समाहूयौजसा मृधे।
गदया भीमसेनेन निर्भग्ने सक्थिनी तव ॥ २३ ॥

मूलम्

धर्मयुद्धे ह्यधर्मेण समाहूयौजसा मृधे।
गदया भीमसेनेन निर्भग्ने सक्थिनी तव ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीमसेनने आपको धर्मयुद्धके लिये बुलाकर रणभूमिमें अधर्मके बलसे गदाद्वारा आपकी दोनों जाँघें तोड़ डालीं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मेण हतस्याजौ मृद्यमानं पदा शिरः।
य उपेक्षितवान् क्षुद्रं धिक् कृष्णं धिग् युधिष्ठिरम् ॥ २४ ॥

मूलम्

अधर्मेण हतस्याजौ मृद्यमानं पदा शिरः।
य उपेक्षितवान् क्षुद्रं धिक् कृष्णं धिग् युधिष्ठिरम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘एक तो आप रणभूमिमें अधर्मपूर्वक मारे गये। दूसरे भीमसेनने आपके मस्तकपर लात मारी। इतनेपर भी जिन्होंने उस नीचकी उपेक्षा की, उसे कोई दण्ड नहीं दिया, उन श्रीकृष्ण और युधिष्ठिरको धिक्कार है!॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युद्धेष्वपवदिष्यन्ति योधा नूनं वृकोदरम्।
यावत् स्थास्यन्ति भूतानि निकृत्या ह्यसि पातितः ॥ २५ ॥

मूलम्

युद्धेष्वपवदिष्यन्ति योधा नूनं वृकोदरम्।
यावत् स्थास्यन्ति भूतानि निकृत्या ह्यसि पातितः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप धोखेसे गिराये गये हैं, अतः इस संसारमें जबतक प्राणियोंकी स्थिति रहेगी, तबतक सभी युद्धोंमें सम्पूर्ण योद्धा भीमसेनकी निन्दा ही करेंगे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननु रामोऽब्रवीद् राजंस्त्वां सदा यदुनन्दनः।
दुर्योधनसमो नास्ति गदया इति वीर्यवान् ॥ २६ ॥

मूलम्

ननु रामोऽब्रवीद् राजंस्त्वां सदा यदुनन्दनः।
दुर्योधनसमो नास्ति गदया इति वीर्यवान् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! पराक्रमी यदुनन्दन बलरामजी आपके विषयमें सदा कहा करते थे कि ‘गदायुद्धकी शिक्षामें दुर्योधनकी समानता करनेवाला दूसरा कोई नहीं है’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्लाघते त्वां हि वार्ष्णेयो राजसंसत्सु भारत।
स शिष्यो मम कौरव्यो गदायुद्ध इति प्रभो ॥ २७ ॥

मूलम्

श्लाघते त्वां हि वार्ष्णेयो राजसंसत्सु भारत।
स शिष्यो मम कौरव्यो गदायुद्ध इति प्रभो ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! भरतनन्दन! वे वृष्णिकुलभूषण बलराम राजाओंकी सभामें सदा आपकी प्रशंसा करते हुए कहते थे कि ‘कुरुराज दुर्योधन गदायुद्धमें मेरा शिष्य है’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यां गतिं क्षत्रियस्याहुः प्रशस्तां परमर्षयः।
हतस्याभिमुखस्याजौ प्राप्तस्त्वमसि तां गतिम् ॥ २८ ॥

मूलम्

यां गतिं क्षत्रियस्याहुः प्रशस्तां परमर्षयः।
हतस्याभिमुखस्याजौ प्राप्तस्त्वमसि तां गतिम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महर्षियोंने युद्धमें शत्रुका सामना करते हुए मारे जानेवाले क्षत्रियके लिये जो उत्तम गति बतायी है, आपने वही गति प्राप्त की है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधन न शोचामि त्वामहं पुरुषर्षभ।
हतपुत्रौ तु शोचामि गान्धारीं पितरं च ते ॥ २९ ॥

मूलम्

दुर्योधन न शोचामि त्वामहं पुरुषर्षभ।
हतपुत्रौ तु शोचामि गान्धारीं पितरं च ते ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषश्रेष्ठ राजा दुर्योधन! मैं तुम्हारे लिये शोक नहीं करता। मुझे तो माता गान्धारी और आपके पिता धृतराष्ट्रके लिये शोक हो रहा है, जिनके सभी पुत्र मार डाले गये हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भिक्षुकौ विचरिष्येते शोचन्तौ पृथिवीमिमाम्।
धिगस्तु कृष्णं वार्ष्णेयमर्जुनं चापि दुर्मतिम् ॥ ३० ॥
धर्मज्ञमानिनौ यौ त्वां वध्यमानमुपेक्षताम्।

मूलम्

भिक्षुकौ विचरिष्येते शोचन्तौ पृथिवीमिमाम्।
धिगस्तु कृष्णं वार्ष्णेयमर्जुनं चापि दुर्मतिम् ॥ ३० ॥
धर्मज्ञमानिनौ यौ त्वां वध्यमानमुपेक्षताम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अब वे बेचारे शोकमग्न हो भिखारी बनकर इस भूतलपर भीख माँगते फिरेंगे। उस वृष्णिवंशी श्रीकृष्ण और खोटी बुद्धिवाले अर्जुनको भी धिक्कार है, जिन्होंने अपनेको धर्मज्ञ मानते हुए भी आपके अन्यायपूर्वक वधकी उपेक्षा की॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवाश्चापि ते सर्वे किं वक्ष्यन्ति नराधिप ॥ ३१ ॥
कथं दुर्योधनोऽस्माभिर्हत इत्यनपत्रपाः ।

मूलम्

पाण्डवाश्चापि ते सर्वे किं वक्ष्यन्ति नराधिप ॥ ३१ ॥
कथं दुर्योधनोऽस्माभिर्हत इत्यनपत्रपाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! क्या वे समस्त पाण्डव भी निर्लज्ज होकर लोगोंके सामने कह सकेंगे कि ‘हमने दुर्योधनको किस प्रकार मारा था?’॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन्यस्त्वमसि गान्धारे यस्त्वमायोधने हतः ॥ ३२ ॥
प्रायशोऽभिमुखः शत्रून् धर्मेण पुरुषर्षभ।

मूलम्

धन्यस्त्वमसि गान्धारे यस्त्वमायोधने हतः ॥ ३२ ॥
प्रायशोऽभिमुखः शत्रून् धर्मेण पुरुषर्षभ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषप्रवर गान्धारीनन्दन! आप धन्य हैं, क्योंकि युद्धमें प्रायः धर्मपूर्वक शत्रुओंका सामना करते हुए मारे गये हैं॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतपुत्रा हि गान्धारी निहतज्ञातिबान्धवा ॥ ३३ ॥
प्रज्ञाचक्षुश्च दुर्धर्षः कां गतिं प्रतिपत्स्यते।

मूलम्

हतपुत्रा हि गान्धारी निहतज्ञातिबान्धवा ॥ ३३ ॥
प्रज्ञाचक्षुश्च दुर्धर्षः कां गतिं प्रतिपत्स्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिनके सभी पुत्र, कुटुम्बी और भाई-बन्धु मारे जा चुके हैं, वे माता गान्धारी तथा प्रज्ञाचक्षु दुर्जय राजा धृतराष्ट्र अब किस दशाको प्राप्त होंगे?॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धिगस्तु कृतवर्माणं मां कृपं च महारथम् ॥ ३४ ॥
ये वयं न गताः स्वर्गं त्वां पुरस्कृत्य पार्थिवम्।

मूलम्

धिगस्तु कृतवर्माणं मां कृपं च महारथम् ॥ ३४ ॥
ये वयं न गताः स्वर्गं त्वां पुरस्कृत्य पार्थिवम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मुझको, कृतवर्माको तथा महारथी कृपाचार्यको भी धिक्कार है कि हम आप-जैसे महाराजको आगे करके स्वर्गलोकमें नहीं गये॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दातारं सर्वकामानां रक्षितारं प्रजाहितम् ॥ ३५ ॥
यद्‌ वयं नानुगच्छाम त्वां धिगस्मान् नराधमान्।

मूलम्

दातारं सर्वकामानां रक्षितारं प्रजाहितम् ॥ ३५ ॥
यद्‌ वयं नानुगच्छाम त्वां धिगस्मान् नराधमान्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप हमें सम्पूर्ण मनोवांछित पदार्थ देते रहे और प्रजाके हितकी रक्षा करते रहे। फिर भी हमलोग जो आपका अनुसरण नहीं कर रहे हैं, इसके लिये हम-जैसे नराधमोंको धिक्कार है!॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृपस्य तव वीर्येण मम चैव पितुश्च मे ॥ ३६ ॥
सभृत्यानां नरव्याघ्र रत्नवन्ति गृहाणि च।

मूलम्

कृपस्य तव वीर्येण मम चैव पितुश्च मे ॥ ३६ ॥
सभृत्यानां नरव्याघ्र रत्नवन्ति गृहाणि च।

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरश्रेष्ठ! आपके ही बल-पराक्रमसे सेवकोंसहित कृपाचार्यको, मुझको तथा मेरे पिताजीको रत्नोंसे भरे हुए भव्य भवन प्राप्त हुए थे॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव प्रसादादस्माभिः समित्रैः सह बान्धवैः ॥ ३७ ॥
अवाप्ताः क्रतवो मुख्या बहवो भूरिदक्षिणाः।

मूलम्

तव प्रसादादस्माभिः समित्रैः सह बान्धवैः ॥ ३७ ॥
अवाप्ताः क्रतवो मुख्या बहवो भूरिदक्षिणाः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपके ही प्रसादसे मित्रों और बन्धु-बान्धवोंसहित हमलोगोंने प्रचुर दक्षिणाओंसे सम्पन्न अनेक मुख्य-मुख्य यज्ञोंका अनुष्ठान किया है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुतश्चापीदृशं पापाः प्रवर्तिष्यामहे वयम् ॥ ३८ ॥
यादृशेन पुरस्कृत्य त्वं गतः सर्वपार्थिवान्।

मूलम्

कुतश्चापीदृशं पापाः प्रवर्तिष्यामहे वयम् ॥ ३८ ॥
यादृशेन पुरस्कृत्य त्वं गतः सर्वपार्थिवान्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! आप जिस भावसे समस्त राजाओंको आगे करके स्वर्ग सिधार रहे हैं, हम पापी ऐसा भाव कहाँसे ला सकेंगे?॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयमेव त्रयो राजन् गच्छन्तं परमां गतिम् ॥ ३९ ॥
यद् वै त्वां नानुगच्छामस्तेन धक्ष्यामहे वयम्।
तत् स्वर्गहीना हीनार्थाः स्मरन्तः सुकृतस्य ते ॥ ४० ॥

मूलम्

वयमेव त्रयो राजन् गच्छन्तं परमां गतिम् ॥ ३९ ॥
यद् वै त्वां नानुगच्छामस्तेन धक्ष्यामहे वयम्।
तत् स्वर्गहीना हीनार्थाः स्मरन्तः सुकृतस्य ते ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! परम गतिको जाते समय आपके पीछे-पीछे जो हम तीनों भी नहीं चल रहे हैं, इसके कारण हम स्वर्ग और अर्थ दोनोंसे वंचित हो आपके सुकृतोंका स्मरण करते हुए दिन-रात शोकाग्निमें जलते रहेंगे॥३९-४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं नाम तद् भवेत् कर्म येन त्वां न व्रजाम वै।
दुःखं नूनं कुरुश्रेष्ठ चरिष्याम महीमिमाम् ॥ ४१ ॥

मूलम्

किं नाम तद् भवेत् कर्म येन त्वां न व्रजाम वै।
दुःखं नूनं कुरुश्रेष्ठ चरिष्याम महीमिमाम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुश्रेष्ठ! न जाने वह कौन-सा कर्म है, जिससे विवश होकर हम आपके साथ नहीं चल रहे हैं। निश्चय ही इस पृथ्वीपर हमें निरन्तर दुःख भोगना पड़ेगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हीनानां नस्त्वया राजन् कुतः शान्तिः कुतः सुखम्।
गत्वैव तु महाराज समेत्य च महारथान् ॥ ४२ ॥
यथाज्येष्ठं यथाश्रेष्ठं पूजयेर्वचनान्मम ।

मूलम्

हीनानां नस्त्वया राजन् कुतः शान्तिः कुतः सुखम्।
गत्वैव तु महाराज समेत्य च महारथान् ॥ ४२ ॥
यथाज्येष्ठं यथाश्रेष्ठं पूजयेर्वचनान्मम ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! आपसे बिछुड़ जानेपर हमें शान्ति और सुख कैसे मिल सकते हैं? राजन्! स्वर्गमें जाकर सब महारथियोंसे मिलनेपर आप मेरी ओरसे बड़े-छोटेके क्रमसे उन सबका आदर-सत्कार करें॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचार्यं पूजयित्वा च केतुं सर्वधनुष्मताम् ॥ ४३ ॥
हतं मयाद्य शंसेथा धृष्टद्युम्नं नराधिप।

मूलम्

आचार्यं पूजयित्वा च केतुं सर्वधनुष्मताम् ॥ ४३ ॥
हतं मयाद्य शंसेथा धृष्टद्युम्नं नराधिप।

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! फिर सम्पूर्ण धनुर्धरोंके ध्वजस्वरूप आचार्यका पूजन करके उनसे कह दें कि ‘आज अश्वत्थामाके द्वारा धृष्टद्युम्न मार डाला गया’॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिष्वजेथा राजानं बाह्लिकं सुमहारथम् ॥ ४४ ॥
सैन्धवं सोमदत्तं च भूरिश्रवसमेव च।

मूलम्

परिष्वजेथा राजानं बाह्लिकं सुमहारथम् ॥ ४४ ॥
सैन्धवं सोमदत्तं च भूरिश्रवसमेव च।

अनुवाद (हिन्दी)

‘महारथी राजा बाह्लिक, सिन्धुराज जयद्रथ, सोमदत्त तथा भूरिश्रवाका भी आप मेरी ओरसे आलिंगन करें॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा पूर्वगतानन्यान् स्वर्गे पार्थिवसत्तमान् ॥ ४५ ॥
अस्मद्वाक्यात् परिष्वज्य सम्पृच्छेस्त्वमनामयम् ॥ ४६ ॥

मूलम्

तथा पूर्वगतानन्यान् स्वर्गे पार्थिवसत्तमान् ॥ ४५ ॥
अस्मद्वाक्यात् परिष्वज्य सम्पृच्छेस्त्वमनामयम् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दूसरे-दूसरे भी जो नृपश्रेष्ठ पहलेसे ही स्वर्गलोकमें जा पहुँचे हैं, उन सबको मेरे कथनानुसार हृदयसे लगाकर उनकी कुशल पूछें’॥४५-४६॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवमुक्त्वा राजानं भग्नसक्थमचेतनम् ।
अश्वत्थामा समुद्वीक्ष्य पुनर्वचनमब्रवीत् ॥ ४७ ॥

मूलम्

इत्येवमुक्त्वा राजानं भग्नसक्थमचेतनम् ।
अश्वत्थामा समुद्वीक्ष्य पुनर्वचनमब्रवीत् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— महाराज! जिसकी जाँघें टूट गयी थीं, उस अचेत पड़े हुए राजा दुर्योधनसे ऐसा कहकर अश्वत्थामाने पुनः उसकी ओर देखा और इस प्रकार कहा—॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधन जीवसि त्वं वाक्यं श्रोत्रसुखं शृणु।
सप्त पाण्डवतः शेषा धार्तराष्ट्रास्त्रयो वयम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

दुर्योधन जीवसि त्वं वाक्यं श्रोत्रसुखं शृणु।
सप्त पाण्डवतः शेषा धार्तराष्ट्रास्त्रयो वयम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा दुर्योधन! यदि आप जीवित हों तो यह कानोंको सुख देनेवाली बात सुनें। पाण्डवपक्षमें केवल सात और कौरवपक्षमें सिर्फ हम तीन ही व्यक्ति बच गये हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते चैव भ्रातरः पञ्च वासुदेवोऽथ सात्यकिः।
अहं च कृतवर्मा च कृपः शारद्वतस्तथा ॥ ४९ ॥

मूलम्

ते चैव भ्रातरः पञ्च वासुदेवोऽथ सात्यकिः।
अहं च कृतवर्मा च कृपः शारद्वतस्तथा ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उधर तो पाँचों भाई पाण्डव, श्रीकृष्ण और सात्यकि बचे हैं और इधर मैं, कृतवर्मा तथा शरद्वान्‌के पुत्र कृपाचार्य शेष रह गये हैं॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रौपदेया हताः सर्वे धृष्टद्युम्नस्य चात्मजाः।
पञ्चाला निहताः सर्वे मत्स्यशेषं च भारत ॥ ५० ॥

मूलम्

द्रौपदेया हताः सर्वे धृष्टद्युम्नस्य चात्मजाः।
पञ्चाला निहताः सर्वे मत्स्यशेषं च भारत ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतनन्दन! द्रौपदी तथा धृष्टद्युम्नके सभी पुत्र मारे गये, समस्त पांचालोंका संहार कर दिया गया और मत्स्य देशकी अवशिष्ट सेना भी समाप्त हो गयी॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृते प्रतिकृतं पश्य हतपुत्रा हि पाण्डवाः।
सौप्तिके शिबिरं तेषां हतं सनरवाहनम् ॥ ५१ ॥

मूलम्

कृते प्रतिकृतं पश्य हतपुत्रा हि पाण्डवाः।
सौप्तिके शिबिरं तेषां हतं सनरवाहनम् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! देखिये, शत्रुओंकी करनीका कैसा बदला चुकाया गया? पाण्डवोंके भी सारे पुत्र मार डाले गये। रातमें सोते समय मनुष्यों और वाहनोंसहित उनके सारे शिविरका नाश कर दिया गया॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया च पापकर्मासौ धृष्टद्युम्नो महीपते।
प्रविश्य शिबिरं रात्रौ पशुमारेण मारितः ॥ ५२ ॥

मूलम्

मया च पापकर्मासौ धृष्टद्युम्नो महीपते।
प्रविश्य शिबिरं रात्रौ पशुमारेण मारितः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भूपाल! मैंने स्वयं रातके समय शिविरमें घुसकर पापाचारी धृष्टद्युम्नको पशुओंकी तरह गला घोंट-घोंटकर मार डाला है’॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनस्तु तां वाचं निशम्य मनसः प्रियाम्।
प्रतिलभ्य पुनश्चेत इदं वचनमब्रवीत् ॥ ५३ ॥

मूलम्

दुर्योधनस्तु तां वाचं निशम्य मनसः प्रियाम्।
प्रतिलभ्य पुनश्चेत इदं वचनमब्रवीत् ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह मनको प्रिय लगनेवाली बात सुनकर दुर्योधनको पुनः होश आ गया और वह इस प्रकार बोला—॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मेऽकरोत् तद् गाङ्गेयो न कर्णो न च ते पिता।
यत् त्वया कृपभोजाभ्यां सहितेनाद्य मे कृतम् ॥ ५४ ॥

मूलम्

न मेऽकरोत् तद् गाङ्गेयो न कर्णो न च ते पिता।
यत् त्वया कृपभोजाभ्यां सहितेनाद्य मे कृतम् ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मित्रवर! आज आचार्य कृप और कृतवर्माके साथ तुमने जो कार्य कर दिखाया है, उसे न गंगानन्दन भीष्म, न कर्ण और न तुम्हारे पिताजी ही कर सके थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च सेनापतिः क्षुद्रो हतः सार्धं शिखण्डिना।
तेन मन्ये मघवता सममात्मानमद्य वै ॥ ५५ ॥

मूलम्

स च सेनापतिः क्षुद्रो हतः सार्धं शिखण्डिना।
तेन मन्ये मघवता सममात्मानमद्य वै ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शिखण्डीसहित वह नीच सेनापति धृष्टद्युम्न मार डाला गया, इससे आज निश्चय ही मैं अपनेको इन्द्रके समान समझता हूँ॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वस्ति प्राप्नुत भद्रं वः स्वर्गे नः संगमः पुनः।
इत्येवमुक्त्वा तूष्णीं स कुरुराजो महामनाः ॥ ५६ ॥
प्राणानुपासृजद् वीरः सुहृदां दुःखमुत्सृजन्।
अपाक्रामद् दिवं पुण्यां शरीरं क्षितिमाविशत् ॥ ५७ ॥

मूलम्

स्वस्ति प्राप्नुत भद्रं वः स्वर्गे नः संगमः पुनः।
इत्येवमुक्त्वा तूष्णीं स कुरुराजो महामनाः ॥ ५६ ॥
प्राणानुपासृजद् वीरः सुहृदां दुःखमुत्सृजन्।
अपाक्रामद् दिवं पुण्यां शरीरं क्षितिमाविशत् ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम सब लोगोंका कल्याण हो। तुम्हें सुख प्राप्त हो। अब स्वर्गमें ही हमलोगोंका पुनर्मिलन होगा।’ ऐसा कहकर महामनस्वी वीर कुरुराज दुर्योधन चुप हो गया और अपने सुहृदोंके लिये दुःख छोड़कर उसने अपने प्राण त्याग दिये। वह स्वयं तो पुण्यधाम स्वर्गलोकमें चला गया; किंतु उसका पार्थिव शरीर इस पृथ्वीपर ही पड़ा रह गया॥५६-५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ते निधनं यातः पुत्रो दुर्योधनो नृप।
अग्रे यात्वा रणे शूरः पश्चाद् विनिहतः परैः ॥ ५८ ॥

मूलम्

एवं ते निधनं यातः पुत्रो दुर्योधनो नृप।
अग्रे यात्वा रणे शूरः पश्चाद् विनिहतः परैः ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! इस प्रकार आपका पुत्र दुर्योधन मृत्युको प्राप्त हुआ। वह समरांगणमें सबसे पहले गया था और सबसे पीछे शत्रुओंद्वारा मारा गया॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव ते परिष्वक्ताः परिष्वज्य च ते नृपम्।
पुनः पुनः प्रेक्षमाणाः स्वकानारुरुहू रथान् ॥ ५९ ॥

मूलम्

तथैव ते परिष्वक्ताः परिष्वज्य च ते नृपम्।
पुनः पुनः प्रेक्षमाणाः स्वकानारुरुहू रथान् ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मरनेसे पहले दुर्योधनने तीनों वीरोंको गले लगाया और उन तीनोंने भी राजाको हृदयसे लगाकर विदा दी, फिर वे बारंबार उसकी ओर देखते हुए अपने-अपने रथोंपर सवार हो गये॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवं द्रोणपुत्रस्य निशम्य करुणां गिरम्।
प्रत्यूषकाले शोकार्तः प्राद्रवन्नगरं प्रति ॥ ६० ॥

मूलम्

इत्येवं द्रोणपुत्रस्य निशम्य करुणां गिरम्।
प्रत्यूषकाले शोकार्तः प्राद्रवन्नगरं प्रति ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार द्रोणपुत्रके मुखसे वह करुणाजनक समाचार सुनकर मैं शोकसे व्याकुल हो उठा और प्रातःकाल नगरकी ओर दौड़ा चला आया॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेष क्षयो वृत्तः कुरुपाण्डवसेनयोः।
घोरो विशसनो रौद्रो राजन् दुर्मन्त्रिते तव ॥ ६१ ॥

मूलम्

एवमेष क्षयो वृत्तः कुरुपाण्डवसेनयोः।
घोरो विशसनो रौद्रो राजन् दुर्मन्त्रिते तव ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस प्रकार आपकी कुमन्त्रणाके अनुसार कौरवों तथा पाण्डवोंकी सेनाओंका यह घोर एवं भयंकर विनाशकार्य सम्पन्न हुआ है॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव पुत्रे गते स्वर्गं शोकार्तस्य ममानघ।
ऋषिदत्तं प्रणष्टं तद् दिव्यदर्शित्वमद्य वै ॥ ६२ ॥

मूलम्

तव पुत्रे गते स्वर्गं शोकार्तस्य ममानघ।
ऋषिदत्तं प्रणष्टं तद् दिव्यदर्शित्वमद्य वै ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप नरेश! आपके पुत्रके स्वर्गलोकमें चले जानेसे मैं शोकसे आतुर हो गया हूँ और महर्षि व्यासजीकी दी हुई मेरी वह दिव्य दृष्टि भी अब नष्ट हो गयी है॥६२॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति श्रुत्वा स नृपतिः पुत्रस्य निधनं तदा।
निःश्वस्य दीर्घमुष्णं च ततश्चिन्तापरोऽभवत् ॥ ६३ ॥

मूलम्

इति श्रुत्वा स नृपतिः पुत्रस्य निधनं तदा।
निःश्वस्य दीर्घमुष्णं च ततश्चिन्तापरोऽभवत् ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! इस प्रकार अपने पुत्रकी मृत्युका समाचार सुनकर राजा धृतराष्ट्र गरम-गरम लंबी साँस खींचकर गहरी चिन्तामें डूब गये॥६३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि दुर्योधनप्राणत्यागे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिकपर्वमें दुर्योधनका प्राणत्यागविषयक नवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९॥